Wednesday, May 21, 2008

प्रेमचंद : कहानी यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 3]

अध्याय-३

प्रामाणिक जीवनी का प्रश्न

डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद और उनका युग' के पांचवें परिवर्धित संस्करण (1989ई०) में इसी शीर्षक के अंतर्गत प्रेमचंद की प्रामाणिक जीवनी का प्रश्न उठाया है और मेरी पुस्तक 'प्रेमचंद की उपन्यास-यात्रा : नवमूल्यांकन' (1978ई०) के जीवनी से सम्बद्ध अध्याय को लेकर अपनी तीखी प्रतिक्रया भी व्यक्त की है. यह अध्याय 558 पृष्ठों की पुस्तक के केवल 57 पृष्ठों में लिखा गया है. मेरी इस पुस्तक की कई समीक्षाएं हिन्दी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, किंतु समीक्षा त्रैमासिक के सम्पादक डॉ. गोपाल के अतिरिक्त सभी ने शोध की मौलिकता और प्रामाणिकता की प्रशंसा की. किसी ने लिखा 'इस पुस्तक का हर पृष्ठ नया है और विचारोत्तेजक भी.' किसी ने लिखा 'पुस्तक पढ़ते समय उपन्यास का आनंद आया.' किसी ने खुले मन से स्वीकार किया 'डॉ. जैदी के निष्कर्ष तर्कसंगत हैं और प्रेमचंद साहित्य पर नए कोण से सोचने की प्रेरणा देते हैं.' इन समीक्षाओं के अतिरक्त कई विद्वानों के पत्र भी मुझे प्राप्त हुए. बनारसी दास चतुर्वेदी ने मुझे 5 जुलाई 1979 ई० के पत्र में लिखा- " यू हैव इंडीड परफार्मड ए मिरैकिल एंड आई एड्मायर योर डिवोटेड लेबर." फिर इतना लिख कर शायद उन्हें संतोष नहीं हुआ. अगले ही दिन अर्थात 6 जुलाई को उन्होंने मुझे लिखा - "योर थीसिस ऑन प्रेमचंद इज रीअली अ रिमार्केबिल अचीवमेंट, दो वन मे नॉट ऐग्री विध योर व्यूज़. आफ्कोर्स प्रेमचंद हैड हिज़ पोर्शन ऑफ़ डिफेक्ट्स ऐंड हू हैज़ नॉट ? अपनी गरीबी का वे अत्युक्तिपूर्ण वर्णन कर देते थे. वह उनकी एक अदा थी. ही वाज़ राइटिंग इवेन व्हेन ही वाज़ स्प्लिटिंग ब्लड." इस चिट्ठी का एक-एक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें चतुर्वेदी जी और प्रेमचंद के आत्मीय संबंधों की गहरी झलक भी है और कड़वे यथार्थ को स्वीकार करने का आत्मबल भी. प्रो. इन्द्र नाथ मदान ने जब मेरी पुस्तक पढी तो उसपर विस्तार से समीक्षा करने का आश्वासन देते हुए 19 मार्च 1979 ई0 की चिट्ठी में यह भी लिखा - "मन करता है सौ में से एक सौ पाँच दे दूँ."
पुस्तक की एक प्रति मैंने अमृत राय को भी भेजी थी. यह बात १९७८ ई० के अक्टूबर की है. उन दिनों अमृत राय हिन्दी, हिन्दवी के आदिकाल पर काम कर रहे थे. उन्हें मुझसे अपेक्षित सामग्री की बिब्लियोग्रैफी दरकार थी. 15 नवम्बर 1978 ई० को बांदा से लौटने पर अपनी व्यस्तताओं की चर्चा करने के बाद अपने पत्र में उन्होंने पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रिया भेजने का आश्वासन दिया. किंतु जब पुस्तक पढी तो आगबबूला हो गए. उनका मन किया की लेखक की खाल उधेड़ दी जाय. मुक़दमा करने की भी योजना बनाई. पर वकील के समझाने पर मौन हो गए.
अगस्त 1983 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ. अमृत राय ने वक्तव्य दिया कि शैलेश जैदी की पुस्तक मैं पढ़ना चाहता था किंतु पत्नी ने हाथ से यह कहकर छीन लिया कि यह पढने योग्य नहीं है. 28 अगस्त से 3 सितम्बर 1983 ई० के अंक में इस प्रसंग में मेरी चिट्ठी छपी, जिसमें मैंने बताया कि अमृत राय ने मेरी पुस्तक न केवल पढी है, बल्कि लाल रोशनाई से उसके हाशिये पर उनकी टिप्पणियां भी हैं और वे मुझपर मुक़दमा करने का भी विचार रखते थे. सारांश यह कि काफी गर्म-गर्म बातें रहीं.
डॉ. गोपाल राय के बार-बार के आग्रह पर मैंने मार्च 1980 ई० में अपनी पुस्तक की एक प्रति उनके पास भेज दी. सुखद आश्चर्य यह देखकर हुआ कि उन्होंने समीक्षा के अप्रैल-जून अंक में उसपर अपनी समीक्षा भी छापने की कृपा की. पुस्तक पढ़कर उनकी प्रतिक्रिया शायद इतनी तीखी हुई कि इस अंक का ‘प्रेमचंद : शताब्दी वर्ष में’ शीर्षक सम्पादकीय भी मेरी पुस्तक को केन्द्र में रखकर, बिना नाम लिए मुझ पर तीखी चोटें करते हुए, लिखा गया. डॉ. गोपाल ने मेरी 'गणना नये शोधार्थियों' में करके पत्रिका के पाठकों के समक्ष, यह जानते हुए भी कि मैं 1966 में पी-एच. डी. कर चुका था, मुझे एक उत्साही शोध-छात्र बना दिया. डॉ. गोपाल सम्पादकीय में यदि मेरा नाम लेकर यही बातें लिखते और इसी प्रकार मेरी पुस्तक के उद्धरण देते तो समीक्षा के पाठकों के बीच बहुत सी बातें सामने आ जीतीं. रोचक बात यह है कि डॉ. गोपाल ने अपने सम्पादकीय में, मेरी ही बातों को घुमा-फिराकर अपने शब्दों में ढाल दिया है और अपने ज्ञान की मुहर बिठाने का प्रयास कुछ इस ढंग से किया है जैसे उन्होंने पहले भी इस प्रकार के विचार व्यक्त किए हों.
पत्रिका में मेरी पुस्तक की समीक्षा पृष्ठ 39 से प्रारम्भ होकर पृष्ठ 42 पर समाप्त होती है. यहाँ इस समीक्षा के कुछ अंश देना अनुपयुक्त न होगा.
1. ‘विवेच्य पुस्तक में, जो संभवतः अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से डी.लिट.उपाधि के लिए स्वीकृत शोध-प्रबंध का मुद्रित रूप है, प्रेमचंद के जीवन और कृतित्व पर विचार किया गया है.'
यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि यह पुस्तक शोध-प्रबंध के रूप में नहीं लिखी गई थी. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में डी. लिट. के लिए कोई पंजीकरण नहीं होता. कोई भी प्रकाशित उच्च-स्तरीय शोध-कार्य/समालोचनात्मक ग्रन्थ, डी. लिट.उपाधि के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है. मेरी छपी हुई पुस्तक पर ही मुझे विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की उपाधि प्रदान की थी.
2. "प्रेमचंद की जीवनी लिखने वाले पूर्ववर्ती लेखकों ने प्रेमचंद को जमाने के सताए हुए आदमी के रूप में प्रस्तुत किया है. शैलेश जैदी तथ्यों के आधार पर इस धारणा का खंडन करते हैं. इसके साथ ही उनकी शिकायत है कि प्रेमचंद के जीवनीकारों ने और खासकर अमृत राय ने, प्रेमचंद के चरित्र के दुर्बल पक्षों पर परदा डालकर उन्हें 'साहित्य के शहीद' के रूप में पेश किया है."
डॉ. गोपाल किसी वाक्य को तोड़-मरोड़ कर उसका क्या अर्थ निकाल सकते हैं, यह देखने-समझने के लिए आवश्यक है कि मैंने क्या लिखा है यह भी देख लिया जाय. मेरा वाक्य इस प्रकार है -'प्रेमचंद : कलम का सिपाही' पढ़कर "मुझे लगा कि अमृत राय ने बड़े कलात्मक ढंग से प्रेमचंद के जीवन के दुर्बल पक्षों को दबा दिया है."इस वाक्य से कहीं यह ध्वनित नहीं होता कि अमृत राय ने प्रेमचंद को 'साहित्य के शहीद’ के रूप में पेश किया है.'अपनी ओर से कोई बात कहने के लिए डॉ. गोपाल स्वतंत्र हैं. किंतु मेरी अवधारणाओं में फेर बदल करके मुझे निशाना बनाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है.
3. "जैदी मियां की बहुत सी बातें तथ्यतः सही हैं पर ‘बहुत कुछ जेहाद' के अंदाज़ में’ डॉ. जैदी तथ्यों को तोड़ने- मरोड़ने और ग़लत व्याख्या करने की कोशिश करते हैं."
डॉ.गोपाल यह भूल गए कि वे पुस्तक समीक्षा लिख रहे है. वी.एच.पी. के किसी नेता की तरह 'मियाँ' और 'जेहाद' जैसे शब्दों का प्रयोग कर के उन्होंने केवल अपनी मनोवृत्ति का परिचय दिया है. अच्छा होता कि डॉ. गोपाल यह भी बता देते कि मैं ने कहाँ-कहाँ किन-किन तथ्यों को तोडा-मरोडा है और क्या-क्या ग़लत व्याख्याएँ की हैं. क्या मैंने किसी चिट्ठी का कोई अंश बीच से उड़ा दिया है, उसके शब्द बदल दिए हैं, किसी दूसरे सन्दर्भ की बात किसी दूसरे सन्दर्भ से जोड़ दी है ? अगर ऐसा कुछ भी नहीं किया है तो फिर तोड़ने-मरोड़ने और ग़लत व्याख्या करने से क्या अभिप्राय है ?
4. डॉ. गोपाल ने रजनी पाम दत्त के आधार पर बताया है कि 1936 ई० की तुलना में 1980 का मूल्य सूचकांक तीस गुना है. फिर यह निष्कर्ष निकाला कि "डॉ. जैदी की त्रुटि यह है कि उन्होंने प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर प्रेमचंद की आय का निर्धारण न करके अनुमान का सहारा लिया है." बकौल डॉ. गोपाल मुझे लिखना चाहिए था कि 1927 के दो सौ रूपये आज के (1980) छे हज़ार रूपये और 1934-35 के सात हज़ार रूपये आज के (1980) दो लाख दस हज़ार रूपये होंगे. मैं अर्थशास्त्र का विशेषग्य नहीं हूँ किंतु इतना जानता हूँ कि मात्र मूल्य सूचकांक के आधार पर रूपये के मूल्य और उसकी क्रय-शक्ति का निर्धारण नहीं किया जा सकता. खैर. डॉ.गोपाल ने मेरी पुस्तक पढ़ कर कम-से-कम इस दिशा में कुछ सोंचने की कोशिश तो की.
मैंने अपनी पुस्तक की भूमिका में बड़े-बड़े दावे तो किए नहीं थे, बस इतना लिखा था- "मेरे इस प्रयास से प्रेमचंद पर पुनर्विचार की दिशाएं खुल सकेंगी, यह मेरा पूर्ण विश्वास है." अब मेरे बाद पुनर्विचार की यह दिशाएं चाहे डॉ. गोपाल प्रशस्त करें या मदन गोपाल या डॉ. कमल किशोर गोयनका, क्या अन्तर पड़ता है.
5. समीक्षा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. गोपाल ने लिखा- "डॉ. जैदी ने प्रेमचंद के जीवनीकारों की दुर्बलताओं की ओर संकेत करके बहुत सही काम किया है." किंतु "डॉ. जैदी के पैमाने और कसौटियां पवित्रतावादी क़िस्म की हैं, जिनपर कदाचित् केवल वे ख़ुद ही खरे उतर सकते हैं."
समालोचना में 'पवित्रतावादी किस्म की कसौटियां' क्या होती हैं, यह डॉ. गोपाल ही अच्छा बता सकते हैं. प्रश्न तो केवल इतना है कि जिस साहित्यकार का जैसा भी जीवन है उसे उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहिए या नहीं ?
6. डॉ. गोपाल का मत है कि "डॉ. जैदी के अनेक कथन और निष्कर्ष उनके कमज़ोर अध्ययन और दृष्टि के उलझाव को व्यक्त करते हैं. डॉ. जैदी का एक वाक्य है- "प्रेमचंद रोमांसवादी-याथार्थवाद की उपज अवश्य हैं, किंतु प्रगतिशील एवं आलोचनात्मक सोपानों को तय करते हुए 'गोदान' में वे समाजवादी यथार्थ की विचारभूमि को प्राप्त कर लेते हैं." इससे यथार्थवाद के रोमांसवादी, प्रगतिशील, आलोचनात्मक और समाजवादी सोपानों के होने का आभास मिलता है. हमने आलोचनात्मक और समाजवादी यथार्थ की चर्चा तो पढी- समझी है पर रोमांसवादी और प्रगतिशील यथार्थवाद से डॉ. जैदी का क्या तात्पर्य है, समझ में नहीं आता."
अब मैं यह बात कैसे कहूं कि मेरे कमज़ोर अध्ययन को रेखांकित करने के बजाय डॉ. गोपाल थोड़ा अपने अध्ययन का विस्तार कर लेते तो सब कुछ उनकी समझ में आ जाता.
7. डॉ. गोपाल ने पुस्तक की भाषा को “आवेशपूर्ण, बचकानी और ग्राम्य” बताया है जो उनकी दृष्टि में “शिष्ट्जनोचित नहीं है.” हो सकता है कि मेरे पास डॉ. गोपाल जैसी ‘परिष्कृत’, ‘परिमार्जित’ और ‘परिपक्व’ भाषा न हो, पर इसे क्या किया जाय कि इसी पुस्तक की भाषा के संबंध में बनारसीदास चतुर्वेदी ने मुझे लिखा था- "मैं 1912 से बराबर लिख रहा हूँ पर आप जैसी बढ़िया भाषा नहीं लिख पाता." सम्भव है डॉ. गोपाल इसे बनारसी दास जी का व्यंग्य समझ बैठें.
रोचक बात यह है कि मेरी पुस्तक के प्रकाश में आने से पूर्व अर्थात् 1978 ई० से पूर्व, किसी ने प्रेमचंद की जीवनी के सम्बन्ध में वे तथ्य नहीं प्रस्तुत किए जिसका मैंने रेखांकन किया. किंतु उसके बाद स्थिति कुछ ऐसी बनी कि मदन गोपाल और डॉ. कमल किशोर गोयनका बड़े-बड़े दावों के साथ मेरी अवधारणाओं का विस्तार अपने नामों से करने लगे और मैंने परिश्रम पूर्वक उर्दू पत्र-पत्रिकाओं से प्रेमचंद की जिन कहानियो और पत्रों (हिन्दी में अप्राप्य) को खोज निकाला था, प्रचार और प्रसार के माध्यम से डॉ. गोयनका उनका श्रेय लेने से भी नहीं चूके. मदन गोपाल ने तो फिर भी पुस्तक की उपलब्धियों के लिए मुझे बधाई का पत्र लिखा, पर डॉ. गोयनका ने इसकी भी आवश्यकता नहीं समझी. हाँ कभी-कभी मिलने पर मौखिक रूप से या पोस्टकार्ड लिखकर मेरे लेखों में संदर्भित प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियो और चिट्ठियों से सम्बद्ध तथ्यों की विस्तृत जानकारी अवश्य लेते रहे.
1981 ई0 में डॉ. कमल किशोर गोयनका की एक पुस्तक प्रकाशित हुई "प्रेमचंद : अध्ययन की नई दिशाएं." इस पुस्तक का 'नयी दिशाएं' वाला लेख डॉ. गोयनका ने पहली बार 2 फरवरी 1980 को मेरी पुस्तक के बाज़ार में आने के दो वर्ष बाद पढा था. किंतु पुस्तक की भूमिका में उन्होंने ऐसे दावे किए कि पाठक को आभास हो, सब कुछ उन्हीं की खोज का परिणाम है. डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि से उपर्युक्त तथ्य नहीं छुप सके. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा- ""नयी दिशाएँ (1981 ई०) की भूमिका में गोयनका ने अपने लेखों का महत्व बता दिया है: "यह लेख विगत 7-8 वर्षों में देश की अधिकांश प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छ्प चुके हैं." प्रेमचंद : अध्ययन की नयी दिशाएं संकलन का अन्तिम लेख प्रेमचंद शताब्दी समारोह में 2 फरवरी 1980 को पढ़ा गया" था. इससे पहले 1978 में जैदी की उपन्यास-यात्रा प्रकाशित हो चुकी थी. उक्त निबंध में इस पुस्तक का ज़िक्र नहीं है.----गोयनका ने पाठक से कुछ बातों पर गौर करने को कहा है. इनमें पहली बात यह है, "प्रेमचंद जैसे महान लेखक तथा महात्मा गांधी जैसे अमर नेता के सम्बन्ध में हम क्यों मान लेते हैं कि उनमें साधारण मनुष्य के समान दुर्बलताएँ नहीं होंगी ? (पृष्ठ-23). यह प्रश्न नयी दिशाएं के गोयनका ने शिल्प विधान के गोयनका से किया है. इस बीच जैदी की उपन्यास-यात्रा निकल गयी है. जैदी ने लिखा था- "हमारी कमजोरी यह है कि हम अपने प्रत्येक श्रेष्ठ साहित्यकार को भगवान् का अवतार, महापुरुष और दिव्यात्मा समझ बैठते हैं. गोया हमारी समझ में एक चरित्रहीन व्यक्ति कोई श्रेष्ठ साहित्यिक रचना करने की सामर्थ्य ही नहीं रखता."
"साहित्य के अध्ययन के लिए साहित्यकार के जीवन का ठीक-ठीक परिचय आवश्यक है, यह मानकर जैदी ने प्रेमचंद का प्रामाणिक जीवन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. (पृष्ठ-11). प्रामाणिक जीवनी की आवश्यकता गोयनका ने भी महसूस की. यह आवश्यकता उन्होंने शिल्प विधान वाले दौर में नहीं, नयी दिशाओं वाले दौर में (1981 में) महसूस की. ----जैदी को जो बात सबसे ज़्यादा खटकी, वह प्रेमचंद की गरीबी की चर्चा थी (पृष्ठ-10). यह बात गोयनका को भी खटकी. उन्होंने मानो पहली बार विषय प्रवर्तन करते हुए कहा, “यहाँ प्रेमचंद की निर्धनता और निर्धनता में जीवन यापन करने की स्थापित मान्यताओं के सम्बन्ध में कुछ कह देना चाहता हूँ.” ‘दरिद्रता की परिभाषा की टीका जैदी लिख चुके थे- " मैं नहीं समझ पाता कि जिस युग में एक मजदूर को दो पैसे से एक आने तक मजूरी मिलती हो, उसी युग के एक ऐसे छात्र को जो दो-तीन आने तक की चाट खा जाता हो और बड़े संकोच से दो आने निकालकर रामलीला के रामचन्द्र को दे देता हो, निर्धन और दरिद्र किस प्रकार कहा जा सकता है ?---1895 ई० में जब एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक को ढाई रूपये मासिक मिलते हों और वह उसमें अपने पूरे परिवार का खर्च चलाता हो, पाँच रूपये मासिक पाने वाले छात्र की दरिद्रता और गरीबी की चर्चा करना सर्वथा निर्मूल है." (गोयनका की) मौलिकता केवल अभिव्यक्ति की शैली में है.’
डॉ. राम विलास शर्मा ने जहाँ इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि प्रेमचंद के जीवन से सम्बद्ध जो सूचनाएं शैलेश जैदी ने 'उपन्यास-यात्रा' में दी थीं, डॉ. गोयनका ने अपनी शैली में उन्हीं सूचनाओं को 'नई दिशाएं' में दे कर, अपनी मौलिक खोज के दावे किए हैं, वहीं डॉ. शर्मा ने अनुभव-जन्य अहसास के आधार पर यह भी रेखांकित किया है कि "जैदी ने यह मान लिया है कि प्रेमचंद को अपने पिता से हर महीने पढाई के खर्च के लिए पाँच रूपए मिलते थे. यह बात शिवरानी देवी की पुस्तक 'प्रेमचंद : घर में' के आधार पर उन्होंने लिखी है. पर अन्य प्रसंग में (शिवरानी-प्रेमचंद-विवाह-तिथि-प्रसंग) इस गवाह को वह अत्यन्त अविश्वसनीय मानते हैं. उस विवाह का सन् उन्हें (शिवरानी देवी को) याद नहीं. प्रेमचंद के पिता ने पाँच रूपए देने को कहा था, यह उन्हें ठीक-ठीक याद रहा, यह कैसे मान लिया जाय ?"
डॉ. राम विलास शर्मा के प्रश्न का उत्तर केवल इतना है कि मैंने अपनी पुस्तक में यह कहीं नहीं लिखा है कि शिवरानी देवी मेरी दृष्टि में अविश्वसनीय हैं. मेरे वाक्यों से यह अर्थ तो निकाला जा सकता है कि शिवरानी देवी ने जान-बूझ कर विवाह का सन्-संवत गोलमोल कर के प्रस्तुत किया है. अब यदि तथ्य यह न हो कि प्रेमचंद के पिता हर महीने पढने के लिए उन्हें पाँच रूपए देते थे, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि शिवरानी देवी ने जान-बूझ कर प्रेमचंद को संपन्न साबित करने के उद्देश्य से ऐसा लिखा. किंतु कोई प्रश्न करने से पूर्व डॉ. राम विलास शर्मा को अमृत राय ने इस प्रसंग में क्या लिखा है उसे भी देख लेना चाहिए था. कलम का सिपाही में अमृत राय पृष्ठ 31पर लिखते हैं- 'नवाब को अब नवें दर्जे में नाम लिखवाना था जो कि बनारस में ही सम्भव था. पिताजी ने पूछा, कितना खर्च लगेगा ? नवाब ने कहा, पाँच रूपए दे दिया कीजिएगा. मगर पाँच रूपए में भला क्या होता. बड़ी मुश्किल का सामना था.'आश्चर्य है कि डॉ. राम विलास शर्मा, अमृत राय की यह बात अबतक किस आधार पर मानते आए थे ? यही बात मेरे लिखने पर वह इतना तिलमिला क्यों उठे ? क्या केवल इस लिए कि अमृत राय ने लिखा था कि पाँच रूपए में भला क्या होता है, और मैंने यह बता दिया कि पाँच रूपए में बहुत कुछ हो सकता था.
डॉ. राम विलास शर्मा को मेरी जो बात सब से अधिक अरुचिकर लगी वह है प्रेमचंद को कलम का मजदूर या कलम का सिपाही स्वीकार न करना और कलम का सौदागर घोषित करना. सौदागर शब्द ऐसा नहीं है जिससे प्रेमचंद के सम्मान को चोट पहुँचती हो. अरब सौदागरों की कहानियाँ निश्चित रूप से डॉ. राम विलास शर्मा ने भी पढी होंगी. प्रसिद्ध पर्यटक और यात्रा-विवरण लेखक इब्ने बतूता मूलतः एक सौदागर था. एक सौदागर को हीरे जवाहरात और अन्य मूल्यवान वस्तुएं एकत्र करने के लिए कितने संघर्ष करने पड़ते थे और समुद्र की कितनी तूफानी लहरों के बीच से होकर गुज़रना पड़ता था, यह किसी से छुपा नहीं है. फिर यदि प्रेमचंद को जीवन के संघर्ष झेलने पड़े तो इसमें विरोधाभास का क्या पहलू है ?
डॉ. राम विलास शर्मा की विशेषता यह है कि वे पूरे प्रसंग से मेरा एक वाक्य निकालकर किसी अन्य प्रसंग के दूसरे वाक्य के साथ बड़ी सहजता के साथ जोड़ देते हैं और फिर उसकी मनचाही व्याख्या करते हैं. बचाव पक्ष का वकील होना कोई बुरी बात नहीं है. किंतु शोध और आलोचना की अदालत में, अर्थ का अनर्थ कर देना बुरी बात ज़रूर है. डॉ. शर्मा वकील के साथ-साथ न्यायधीश भी बन जाते हैं. मैंने एक स्थल पर लिखा था - "व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था. साहित्यकार प्रेमचंद ने व्यक्ति प्रेमचंद की दुर्बलताओं को बहुत निकट से देखा था और जहाँ-तहां अपनी कृतियों के कथानक की गहरी तहों में उसे अभिव्यक्ति भी दी."डॉ. राम विलास शर्मा ने जब यह पढ़ा, तो उन्होंने न जाने किस आधार पर 'बौना' का अर्थ 'क्षुद्र' कर लिया और निर्णय सुना दिया -"जैदी ने क्षुद्र व्यक्ति और महान लेखक में भेद करते हुए लिखा -'व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था.'" विवेच्य प्रसंग से ध्यान हटाने का यह एक कारगर तरीका है. प्रसंग बदलकर डॉ. राम विलास शर्मा को अब मुझ पर प्रहार करने का अच्छा अवसर मिल गया. उन्होंने लिखा -" व्यक्ति प्रेमचंद ने (नोकरी से) इस्तीफा दिया. क्यों इस्तीफा दिया ? यह बौना व्यक्ति अचानक देश-भक्त क्यों बन गया ? ..व्यक्ति राजभक्त, लेखक देशभक्त ? या दोनों ही बौने ? व्यंग्य की यह शैली पर्याप्त दमदार है.
कौन कह सकता है कि सरकारी नोकरी से इस्तीफा देना एक असाधारण, और उन परिस्थियों में प्रशंसनीय कार्य नहीं था. किंतु प्रेमचंद के सम्पूर्ण जीवन में ऐसे असाधारण कार्य अपवादस्वरूप दो-एक ही मिलेंगे, इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता. केवल इस आधार पर व्यक्ति प्रेमचंद की अन्य दुर्बलताओं की ओर से आँखें नहीं मूंदी जा सकतीं.
डॉ.राम विलास शर्मा ने गुड की चोरी वाले प्रसंग में मन्मथनाथ गुप्त से मेरी असहमति में फटकार की झलक देखी है. लिखते हैं - "इसे गरीबी का चित्र मानने वाले मन्मथनाथ गुप्त को फटकारते हुए जैदी ने लिखा है -'मैं नहीं समझ पता कि इसमें गरीबी का चित्र प्रस्तुत करने वाली कौन सी बात है. इसके प्रकाश में एक असंयमी, गैर-जिम्मेदार, यार-बाश, खिलंदरे और चटोरे व्यक्ति का रूप उभरकर सामने आता है' जिस बात की कैफियत जैदी ने नही दी, वह यह कि ऐसा लड़का एंटरेन्स परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास कैसे कर सकता है."
यहाँ डॉ. राम विलास शर्मा का तर्क कमज़ोर भी है और अमान्य भी. पहली बात तो यह है कि मैं मन्मथनाथ गुप्त या किसी अन्य सम्मानित लेखक को फटकारने का साहस भी नहीं कर सकता. रह गई एंटरेन्स द्वितीय श्रेणी में पास करने की बात. यह प्रतिभावान होने का प्रमाण है. और प्रेमचंद के प्रतिभावान होने में कभी किसी ने संदेह नहीं किया. डॉ. राम विलास शर्मा इस सन्दर्भ में मुझ पर कोई टिप्पणी करने से पहले कलम का सिपाही की यह पंक्तियाँ भी देख लेते तो अधिक उपयुक्त होता. अमृत राय लिखते हैं -"थोडी सी पढ़ाई थी, ढेरों उछल-कूद. चिबिल्लेपन की इन्तेहा नहीं. ..इस दो अंगुल की जीभ ने क्या-क्या नाच नचाया है. ..कोठरी में ताला डालकर एक बार उसकी चाभी दीवार की संधि में दाल दी जाती है और दूसरी बार कुएँ में फेक दी जाती है, मगर तब भी रिहाई नहीं मिलती और यह मन भर (गुड) का मटका पेट में समा जाता है (पृष्ठ 21)" स्पष्ट है कि अमृत राय गुड की चोरी के प्रसंग में प्रेमचंद को चिबिल्ला, दो अंगुल की जीभ के इशारों पर नाचने वाला, मटरगश्त और चटोरा सभी कुछ कह जाते हैं और राम विलास शर्मा को उनकी कोई बात नहीं अखरती.
अंत में डॉ. राम विलास शर्मा वही पद्धति अपना लेते हैं जिसका गोयनका को विशेष अभ्यास है. वे प्रेमचंद और उनका युग (पांचवां संस्करण) के पृ0 267 पर लिखते हैं -"ऐसा नहीं था कि उनके जीवन और साहित्य में अंतर्विरोध न रहा हो. उनका जन्म सर्वहारा वर्ग में न हुआ था. न उन्होंने सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी दर्शन मार्क्सवाद को पूरी तरह अपनाया था. प्रेमचंद की संपत्ति के बारे में मैं ने लिखा था (कहाँ और कब लिखा था ?)-'प्रेमचंद व्यवहार कुशलता से उतनी दूर न थे जितना अमृत राय ने उन्हें दिखलाया है. साझेदारी का प्रेस घाटा भले देता हो, अंत में रह गया वह अकेले प्रेमचंद का. वह अपने भाई को भी यह घाटे वाला प्रेस बेचने को तैयार न थे. उन्होंने गाँव में माकन बनवाया था और रक्षा-बन्धन के अवसर पर,उस ज़माने में, एक सौ पैंतीस रूपए की लौंग बेटी के लिए, पैतालीस-पैतालीस रूपए की घडियाँ बेटों के ल्लिए लाए थे. अमृत राय ने इस घटना का ज़िक्र नहीं किया, न यह लिखा कि प्रेमचंद अपनी पुस्तकों के रूप में जो संपत्ति छोड़ गए, उससे उनके बेटों को कितना मुनाफा हुआ." काश डॉ. राम विलास शर्मा ने यह बातें मेरी पुस्तक प्रकाशित होने (1978 ) से पहले लिखी होतीं. अब मेरी ही बातें अपनी शैली में दुहराकर मौलिकता के दावेदार बन रहे हैं, यह उन जैसे प्रतिष्ठित आलोचक को शोभा नहीं देता.
मैं 1995 में भी यह बात उतने ही विश्वास के साथ कह सकता हूँ जितने विश्वास के साथ मैंने 1978 में कही थी कि व्यक्ति प्रेमचंद में वह सभी दुर्बलताएँ थीं जो किसी संस्कारित परिवार के व्यक्ति में नहीं होतीं. हाँ साहित्यकार प्रेमचंद रचना-स्तर की उस ऊंचाई पर था जिसे आज भी लेखकों का एक बड़ा वर्ग छू पाने में असमर्थ है. अपने पुराने शब्दों को ही यदि दुहराऊं तो मैं कहूँगा कि व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था और बौना का अर्थ क्षूद्र नहीं होता जैसा कि डॉ. राम विलास शर्मा समझते हैं.
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Saturday, May 17, 2008

प्रेमचंद रचनावली : खंड उन्नीस (चिट्ठी-पत्री) / डॉ.परवेज़ फ़ातिमा

मैं प्रेमचंद की विशेष अध्येता नहीं हूँ और न ही मेरा इस सन्दर्भ में अधिकारी विद्वान होने का दावा है. साहित्य के एक साधारण पाठक के रूप में मैंने प्रेमचंद को समझा और पढ़ा है. फिर भी शैलेश जैदी का रचना संसार शीर्षक शोधप्रबंध लिखते समय डॉ. जैदी की प्रेमचंद विषयक पुस्तक पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि अमृत राय और मदन गोपाल के प्रयासों के बावजूद प्रेमचंद की चिट्ठियों का वैज्ञानिक संपादन नहीं हो पाया है. चिट्ठियों का कथ्य पढ़ने का भी कष्ट नहीं किया गया है और जहाँ उनके लिखे जाने की तिथियाँ मिट गई हैं या धुंधली पड़ गई हैं वहाँ बिना सोचे-समझे अनुमान के आधार पर कोई तिथि डाल दी गई है. परिणाम यह हुआ है कि प्रेमचंद के शोधार्थी उन चिट्ठियों को आधार बनाकर अनेक ऐसे निष्कर्ष निकालने के लिए विवश हुए हैं जिनका कोई औचित्य नहीं है. प्रोफेसर शैलेश जैदी ने "प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन शीर्षक पुस्तक (प्रकाशन काल 1978) के परिशिष्ट भाग में अमृत राय और मदन गोपाल द्वारा संपादित चिट्ठी-पत्री की अनेक ऐसी त्रुटियों का रेखांकन किया है, किंतु सम्पादकों ने पुस्तक के नए संस्करण आने पर भी इस ओर ध्यान नहीं दिया.
जनवाणी प्रकाशन नई दिल्ली ने 1996 ई० में प्रेमचंद रचनावली शीर्षक से २० खंडों में प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य प्रकाशित किया है जिसका मूल्य नौ हज़ार रूपये है. रोचक बात ये है कि इस पूरे सेट का मार्गदर्शन डॉ. रामविलास शर्मा ने किया है और इसके शुद्ध और वैज्ञानिक होने का भी दावा किया गया है. प्रकाशक की दृष्टि में यह कार्य भले ही ‘ऐतिहासिक महत्व’ का हो, किंतु मुझ जैसा प्रेमचंद का साधारण अध्येता भी यह कहने के लिए विवश है कि रचनावली के प्रकाशन के पीछे केवल एक व्यावसायिक मनोवृत्ति है और प्रेमचंद के नाम को भरपूर बाजारवादी मानसिकता के साथ भुनाया गया है.
इस समय मेरे समक्ष रचनावली का उन्नीसवाँ खंड है. अर्थात प्रेमचंद की चिट्ठी-पत्री का संकलन. इस आलेख में यही मेरा विवेच्य-विषय भी है. सामान्य रूप से देखा गया है कि हर अगला कार्य पिछले कार्य की तुलना में कहीं अधिक बेहतर, उच्च-स्तरीय और उपयोगी होता है. किंतु यहाँ स्थिति ठीक इसके विपरीत है. मदन गोपाल-अमृत राय का संकलन 1962 में प्रकाशित हुआ था. उस समय इतने साधन भी नहीं थे. फिर भी संकलन से इतना तो पता चलता ही है कि प्रेमचन्द ने चिट्ठी में किसे संबोधित किया है और कुल चिट्ठियों की संख्या क्या है इत्यादि. किंतु प्रेमचंद रचनावली का खंड उन्नीस इस प्रकार के सभी बंधनों से मुक्त है.
पाँच सौ चव्वालिस पृष्ठों का यह खंड जिसके प्रारंभिक दस पृष्ठ पुस्तक के शीर्षक, प्रकाशकीय वक्तव्य, प्रेमचंद के परिवार की तस्वीरों, उनकी अंग्रेज़ी लिखावट की प्रतिलिपि और चिट्ठी-पत्री (अमृत राय-मदन गोपाल) के भीतरी पृष्ठ की चित्र-प्रतिलिपि पर नष्ट किए गए हैं. संकलित सामग्री के विषय में एक शब्द भी नहीं है. . न तो चिट्ठियों की कोई सूची दी गई है, न संख्या का उल्लेख किया गया है. चिट्ठियां कहाँ से प्राप्त हुईं, यह बताना भी आवश्यक नहीं समझा गया. अमृत राय और मदन गोपाल कम से कम हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू तथा अंग्रेज़ी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे. रचनावली के संपादक राम आनंद को उर्दू तो निश्चित रूप से नहीं आती, हाँ अंग्रेज़ी का थोड़ा बहुत ज्ञान है, यह बात इस सम्पादन के प्रकाश में विश्वास के साथ कही जा सकती है.
बिना किसी संपादकीय भूमिका के, उपलब्ध चिट्ठियों को धडा-धड़ एक क्रम में और कहीं-कहीं बिना क्रम के, प्रकाशित कर देने वाला यह खंड पृष्ठ ग्यारह से प्रारम्भ होता है. दूसरी ही चिट्ठी जो 20 फरवरी 1905 की है परिष्कृत हिन्दी में है. कहीं भी ‘उर्दू से अनूदित’ जैसी कोई टिपण्णी नहीं है. अनुवादक ने यह भी ध्यान नहीं दिया कि प्रेमचंद अपने मित्र निगम को किन शब्दों से संबोधित करते थे. जनाब मुकर्रम बन्दा, बिरादरम, भाईजान जैसे शब्द उड़ाकर, चिट्ठी में संबोधन के शब्द इस प्रकार लिखे गए हैं- 'प्रिय बाबू दयानरायन साहब'. प्रेमचंद का शोधार्थी निश्चित रूप से यह समझेगा कि 1905 में प्रेमचंद स्तरीय हिन्दी लिखते थे.
इस खंड की तीसरी चिट्ठी पर लेखन-तिथि जून 1905 अंकित है. अमृतराय ने भी यही तिथि डाली थी. किंतु प्रो. जैदी ने उपन्यास-यात्रा के परिशिष्ट में स्पष्ट कर दिया था कि यह चिट्ठी 1906 की है. राम आनंद जी को प्रकाशक महोदय ने श्रीपत राय के मार्गदर्शन में प्रेमचंद के ‘अप्राप्य साहित्य’ पर शोध करने वाला अध्येता बताया है. बिना परिश्रम के उपाधि जब मिल रही हो तो चिट्ठी-पत्री के पाठ में कौन जान खपाए. इस चिट्ठी में प्रेमचंद ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-'खतोकिताबत जो मुआमले की है वो मैं करूँगा. ..हिम्मते-मर्दां मददे खुदा..हाँ यह एलान करना ज़रूरी होगा कि नवाब राय स्टाफ में दाखिल हो गए.' ज़माना की फाइलें उठाकर देखने का कष्ट न अमृतराय ने किया न राम आनंद ने. प्रेमचंद जून 1906 से ज़माना के सम्पादकीय स्टाफ में शामिल हुए थे. स्पष्ट है कि चिट्ठी भी 1906 की है.
रचनावली के पृ0 19 की चिट्ठी पर कोई तिथि नहीं हैं. केवल लिख दिया गया है -'स्थान और तिथि नहीं है. अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया" संपादक महोदय ने अमृत राय की चिट्ठी पत्री की भूमिका पढने का भी कष्ट नहीं किया. अमृत राय ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए लिखा था कि यह चिट्ठी अप्रैल 1929 के आस-पास की होनी चाहिए. प्रो. शैलेश जैदी ने चिट्ठी में संदर्भित ज़माना पत्रिका के 'आतश विशेषांक' के आधार पर चिट्ठी की तिथि अगस्त 1929 निश्चित की है जो तर्क-संगत है.
रचनावली के पृ0 23 की चिट्ठी पर लिखा गया है "स्थान और तिथि नहीं है, अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया". यह अंश अमृत राय की चिट्ठी-पत्री से ज्यों का त्यों नक़ल कर लिया गया है. इस 'अनुमानतः' का कोई आधार तो होना चाहिए. चिट्ठी में कुछ महत्वपूर्ण सन्दर्भ हैं - 'अदीब में आज तीर्थ राम का आज़माइश देखा/ हमदर्द को अच्छा किस्सा नहीं दिया/मुस्लिम गजेट में शिबली का मजमून मुसलमानों की पोलिटिकल करवट काबिले दाद है'. इन संदर्भों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह चिट्ठी मई 1913 की है.
रचनावली के पृ0 30 की चिट्ठी पर अनुमानित तिथि सितम्बर 1913 दर्ज है जो अमृत राय की नकल है. प्रो. शैलेश जैदी ने इसकी तिथि 27-28 सितम्बर 1913 निश्चित की है और संकेत किया है कि अमृत राय इसका एक वाक्य छोड़ गए हैं जो मदन गोपाल संपादित खुतूत के उर्दू संस्करण में मौजूद है. राम आनंद ने मदन गोपाल द्वारा उर्दू में संपादित ‘प्रेमचंद के खुतूत’ देखने का कोई कष्ट नहीं किया है.
1915 की कई चिट्ठियों कि तिथियाँ और उनके क्रम जिस प्रकार अमृत राय ने उलट-पुलट दिए, राम आनंद ने भी उन्हें उसी रूप में छाप दिया. प्रो. शैलेश जैदी ने इनके क्रम मिला कर इनकी तिथियाँ निश्चित की हैं. 20 मार्च 1915 की चिट्ठी का पहला वाक्य है -'मैं कल यहाँ पहुँच गया.' यह पांडेपूर पहुँचने की सूचना है. अब रचनावली के पृ0 51 की चिट्ठी देखिए- 'मुझे यहाँ आए करीबन दो हफ्ते हुए'. 19 मार्च में दो हफ्ता और जोड़ देने पर अप्रैल की पहली या दूसरी तारीख होती है. इसलिए चिट्ठी पर 'अनुमानतः जून 1915' लिखने का कोई आधार नहीं है. रचनावली की पृ0 50 की चिट्ठी भी पांडेपूर से ही लिखी गई है. चिट्ठी का पहला वाक्य है -' कल बस्ती जा रहा हूँ.' राम आनंद ने इस चिट्ठी पर लिखा है - 'अनुमानतः बस्ती, आरंभ 1915.' इससे अधिक लापरवाही और क्या हो सकती है. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी पांडेपूर से बस्ती के लिए प्रस्थान करने से एक दिन पहले लिखी गई.
रचनावली के पृ0 73 की चिट्ठी पर 'तिथि नहीं, अनुमानतः मार्च 1918' लिखा गया है. यही अमृत राय ने भी लिखा था. इस प्रसंग में प्रो. शैलेश जैदी कि टिप्पणी द्रष्टव्य है - '10 फरवरी 1916 के पत्र में प्रेमचंद ने निगम को लिखा था कि वे राना जंग बहादुर आफ नेपाल की सवानेह-उमरी लिखना चाहते हैं साथ ही यह भी निवेदन किया था कि फरवरी के ज़माना में प्रेम-पचीसी का इश्तेहार छपवा दें. प्रस्तुत चिट्ठी में वे फरवरी में इश्तेहार न छपने की शिकायत करते हैं और राना जंग बहादुर वाले लेख के समाप्तप्राय होने की सूचना देते हैं. प्रेमचंद का यह लेख ज़माना के जुलाई 1916 के अंक में प्रकाशित हुआ था. इन तथ्यों के प्रकाश में इस चिट्ठी को 1916 की ही होनी चाहिए. ' प्रो.जैदी ने इसकी तिथि मार्च, द्वितीय सप्ताह 1916 स्वीकार की है जो तर्क-संगत है.
रचनावली के पृ0 69 की चिट्ठी, अमृत राय को प्रमाण मान कर, 22 अगस्त 1918 की स्वीकार की गई है जबकि अमृत राय से सन् पढने में गलती हुई है. प्रो.जैदी के अनुसार यह 1917 की चिट्ठी है. इसमें लिखा गया है - प्रेम-पचीसी बेहतर है लखनऊ में ही छपवा लीजिए'. अब इसे 11 सितम्बर 1917 की चिट्ठी के इस वाक्य से मिला कर पढ़िए- ‘प्रेम-पचीसी के मुतअल्लिक आपने क्या किया? लखनऊ आ गई या कानपूर ही में कोई दूसरा इन्तेजाम हुआ?' स्पष्ट है कि विचाराधीन चिट्ठी 22 अगस्त 1917 की है.
रचनावली पृ0 78 की पहली चिट्ठी पर 2 अप्रैल 1919 अंकित है, जबकि यह चिट्ठी 1920 की है. इस चिट्ठी में सूचित किया गया है – ‘बाज़ारे-हुस्न बज़रिया रजिस्टर्ड पैकेट खिदमत में पहोंचेगा. ख़त्म हो गया. पैकेट बना हुआ तैयार है. आज डाक-खाना बंद है". अब इसे 24 मार्च 1920 की चिट्ठी के साथ मिलाकर पढिए. इसमें लिखा गया है –‘बाज़ारे-हुस्न के अब कुल अड़तालीस सफ्हात बाकी हैं. पहली अप्रैल को आपके पास रजिस्टर्ड पहोंच जायेगा. स्पष्ट है कि रचनावली पृ0 78 वाली चिट्ठी इसके बाद की है जब बाज़ारे-हुस्न का पैकेट भेजने के लिए तैयार हो गया. फलस्वरूप उसकी तिथि 2 अप्रैल 1920 होना चाहिए. इसी 2 अप्रैल वाली चिट्ठी में प्रेमचंद ने यह सूचना भी दी है -'प्रेम-बत्तीसी हिस्सा अव्वल के 12 फार्म छप चुके हैं.' यह संग्रह निगम के प्रेस से छप रहा था. इसका दूसरा भाग इम्तियाज़ अली ताज लाहौर में छाप रहे थे. 27 मई 1920 को प्रेमचंद ने ताज को प्रेम बत्तीसी भाग एक की प्रगति सूचना देते हुए लिखा -'प्रेम-बत्तीसी हिस्सा अव्वल के 120 सफ्हात छपे हैं.' ऐसी स्थिति में रचनावली पृ0 80-81 की चिट्ठी 27 मई 1919 की न होकर 27 मई 1920 की मानी जायेगी.
अब रचनावली पृ0 89 की चिट्ठी देखिए. तिथि दी गई है- 30 सितम्बर 1919'. इसमें ताज साहब ने जंजीरे-हवस (कहानी) पर पाठकों की जो प्रतिक्रिया लिखी थी उसके उत्तर में प्रेमचंद लिखते हैं -'जंजीरे-हवस कोई तारीखी वाकेआ नहीं है'. प्रेमचंद की कहानी जंजीरे-हवस कहकशां में सितम्बर-अक्तूबर संयुक्तांक में 1918 में छपी थी. यदि यह मान लिया जाय कि यह अंक सितंबर के मध्य तक लोगों के पास पहुँच गया था, तो इस चिट्ठी की तिथि 30 सितंबर 1918 मानी जायेगी. प्रो.जैदी ने यही तिथि स्वीकार की है.
इम्तियाज़ अली ताज को लिखी गई रचनावली पृ0 86 की चिट्ठी 11 सितंबर 1919 की न होकर 1918 की है. प्रेमचंद ने इसमें ताज को लिखा था-'एक ताज़ा किस्सा हज्जे-अकबर (महातीर्थ) इर्साले-खिदमत है.' हज्जे-अकबर शीर्षक कहानी कहकशां (सं. इम्तियाज़ अली ताज) के नवम्बर 1918 के अंक में पहली बार प्रकाशित हुई. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी सितंबर 1918 में लिखी गई. प्रो. शैलेश जैदी ने इस प्रसंग में कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं भी दी हैं. उनके अनुसार 'अमृत राय ने चिट्ठी के प्रारंभ की दो पंक्तियाँ उड़ा दी हैं. यह पंक्तियाँ इस प्रकार हैं – ‘बेहतर है बाज़ारे-हुस्न आपकी खिदमत में हाजिर होगा. कल से इसे दो सफ्हे रोजाना साफ कराऊंगा. और गालिबन दसहरे की तातील के बाद इसके चन्द जुज्व आप मुलाहिजा कर सकेंगे'.(प्रेमचंद के खुतूत, पृ0 74). राम आनंद ने भी यह अंश छोड़ दिया है. रोचक बात यह है कि अमृत राय ने लिखा है कि हज्जे-अकबर पहली बार ज़माना के सितंबर 1917 के अंक में छपी. (कलम का सिपाही, पृ0 662) जबकि प्रो. जैदी के अनुसार यह कहानी ज़माना में कभी छपी ही नहीं. इस कहानी को इसके नए नामकरण महातीर्थ के साथ हिन्दी में पहली बार प्रेम-पूर्णिमा संग्रह में 1920 में प्रकाशित किया गया.
रचनावली पृ0 117 की दूसरी चिट्ठी की तिथि 10 नवम्बर 1920 लिखी गई है. अमृत राय और मदन गोपाल ने भी यही तिथि स्वीकार की है. जबकि तथ्य यह है कि यह चिट्ठी 1918 की है. इस चिट्ठी को भी पढने का कष्ट नहीं किया गया. प्रेमचंद ने इसमें लिखा है - 'एक किस्सा बैंक का दिवाला जाता है. लंबा हो गया है. देखिये पसंद आए तो रख लीजिए. दो नंबरों में निकल जाएगा.’ बैंक का दिवाला शीर्षक कहानी कहकशां के फरवरी 1919 के अंक में छपी थी. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी उस से पहले लिखी गई. इस आधार पर चिट्ठी कि सही तिथि 10 नवम्बर 1918 स्वीकार की जानी चाहिए.
रचनावली की सभी चिट्ठियों पर पुनर्विचार के लिए एक पूरी पुस्तक के डेढ़ सौ पृष्ठ भी कम होंगे. इस लिए केवल एक चिट्ठी की और चर्चा कर के अन्य बिन्दुओं की ओर मात्र संकेत कर देना पर्याप्त समझती हूँ. रचनावली पृ0 341 की तीसरी चिट्ठी पर तिथि डाली गई है 3 जून 1932 .चिट्ठी किसे लिखी गई है, राम आनंद ने अपनी सम्पादन कला के अनुरूप, बताने की कृपा नहीं की है. यह चिट्ठी कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण इस लिए भी है कि इसमें प्रेमचंद ने अपने लेखन से सम्बद्ध सात प्रश्नों के उत्तर दिए हैं. प्रेमचंद का साधारण पाठक भी इतना जनता है कि प्रेमचंद से यह सात प्रश्न उनके मित्र बनारसी दास चतुर्वेदी ने किए थे. आश्चर्य यह देख कर होता है कि अमृत राय मदन गोपाल ने भी इस चिट्ठी की तिथि 3 जून 1932 ही लिखी है. चिट्ठी के प्रारम्भ में प्रेमचंद ने सूचना दी है - 'शहर पर फौज का कब्जा है. अमीनाबाद में दोनों पार्कों में सिपाही और गोरे डेरे डाले पड़े हुए हैं. 144 धारा लगी हुई है, पुलिस लोगों को गिरफ्तार कर रही है.' स्पष्ट है कि यह घटना 1932 की न होकर 1930 की है. फिर 11 मई 1930 के पत्र में बनारसी दास चतुर्वेदी ने किसी अंग्रेज़ी पत्र में प्रेमचंद पर कुछ लिखने के लिए उनसे इन सात प्रश्नों को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की थी. रचनावली की पृ0 341 की चिट्ठी उसी के उत्तर में है. इस आधार पर इस चिट्ठी की प्रमाणिक तिथि 3 जून 1930 है. दुःख की बात यह है कि राम आनंद संपादित यह खंड ऐसी त्रुटियों से भरा पड़ा है.
रचनावली के पृष्ठ 485 की एक चिट्ठी संपादक राम आनंद की संपादन कला का परिचय प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है. चिट्ठी पर तिथि 'संभवतः जुलाई 1935' दी गई है. 'संभवतः' शब्द संकेतित करता है कि चिट्ठी ध्यान पूर्वक पढी गई होगी. चिट्ठी का पहला वाक्य इस प्रकार है -"हंस पर एक मज़मून हस्बे वादा रवानए-खिदमत है." राम आनंद ने 'हँसी' को 'हंस' पढ़ लिया और इसे हंस पत्रिका से जोड़ दिया. दूसरे वाक्य में 'अस्ल मज़मून' को 'एहसास मज़मून' पढ़ा गया जिसका यहाँ कोई औचित्य नहीं है. उन्हें इस चिट्ठी का सबसे महत्त्वपूर्ण वाक्य नहीं दिखाई दिया -"प्रेम-पच्चीसी हिस्सा दोयम कातिब के पास गई या नहीं ?" यदि राम आनंद इस पर ध्यान देते तो सहज ही पता चल जाता कि प्रेम-पच्चीसी कातिब के पास कब गई और चिट्ठी किस तिथि की है. ज़माना के फरवरी 1916 के अंक में प्रेमचंद का 'हँसी' शीर्षक एक लेख प्रकशित हुआ था जिसके भेजे जाने की सूचना इस पत्र में दी गई है. इस चिट्ठी से पहले 16 दिसम्बर 1915 को प्रेमचंद ने निगम से इस लेख के विषय में सुझाव माँगा था "नागरी प्रचारिणी में ज़राफत (हँसी) पर एक बहोत आलिमाना मज़मून छपा है.कही तो ज़माना के लिए कुछ नए उनवान से इसी पर लिख दूँ." स्पष्ट है कि यह चिट्ठी १६ दिसम्बर वाली चिट्ठी के दस-बारह दिन बाद की है अर्थात 27/28 दिसम्बर 1915 की. रोचक बात यह है कि स्वयं राम आनंद ने रचनावली के पृष्ठ 52 पर यह चिट्ठी छापी भी है और वहाँ इसकी तिथि 'अनुमानतः बस्ती अंत 1915' दी गई है. इतना गैर-दायित्वपूर्ण संपादन शायद किसी ने इससे पहले न देखा होगा.
अंत में मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगी कि संपादन के लिए किसी न किसी नियम का तो पालन करना ही पड़ता है. राम आनंद की दृष्टि में सारे नियमों को तोड़ना ही वैज्ञानिकता है. रचनावली के पृ0 68 से 132 के बीच की चिट्ठियां इस प्रकार गडमड हो गई हैं कि प्रेमचंद के सामान्य पाठक के लिए यह निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है कि कौन सी चिट्ठी इम्तियाज़ अली ताज को और मख्ज़न के संपादक को और कौन सी दया नरायन निगम को लिखी गई हैं. कुछ चिट्ठियां केवल अंग्रेज़ी भाषा में हैं कुछ अंग्रेज़ी हिन्दी दोनों में. कुछ ऐसी हैं जो बिना सिर पैर की हैं. (द्रष्टव्य हैं पृ0 197, 199, 201, 210, 278, 280, 397, 437 की चिट्ठियां), कुछ ऐसी जो दो-दो बार छप गई हैं, कुछ ऐसी चिट्ठियां भी हैं जिन्हें अमृत राय ने कलम का सिपाही में तो उद्धृत किया है, चिट्ठी पत्री में नहीं दिया है.किंतु इनमें भी, किसे और कब लिखी गयीं, नहीं बताया गया है. रोचक बात यह है कि चिट्ठी-पत्री के नाम पर इस खंड में राम आनंद ने जगदीश प्रसाद चीफ सेक्रेटरी संयुक्त प्रान्त सरकार द्वारा जारी किया गया दिनांक 24 जुलाई 1930 का, प्रेस आर्डिनेंस का नोटिस, रामचंद्र टंडन द्वारा लिखित स्वर्गीय प्रेमचंद जी की एक योजना शीर्षक टिपण्णी और अनुवादक मंडल की योजना आदि को भी शामिल कर लिया है जिसका कोई औचित्य नहीं है.
प्रेमचंद शताब्दी वर्ष पर और उसके बाद भी प्रो. शैलेश जैदी ने प्रेमचंद की अनेक अप्राप्य चिट्ठियाँ हिन्दी पत्रिकाओं में संपादित रूप में प्रकाशित की थीं. सज्जाद ज़हीर को लिखे गए पत्र इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेख्य हैं जो आवश्यक पाद-टिप्पणियों एवं भूमिका के साथ दस्तावेज़ के प्रेमचंद-विशेषांक में छपे थे. राम आनंद ने इनका कोई लाभ नहीं उठाया. आश्चर्य होता है कि राम आनंद का पी-एच.डी. का विषय प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य है, डॉ. कमल किशोर गोयनका की भी इसी विषय पर पुस्तक है, जिस से राम आनंद का प्रेरणा-स्रोत कुछ-कुछ समझ में आता है. अब इस विषय में क्या कहा जा सकता है. शायद कबीर ने ठीक कहा था – ‘अँधा अंधे ठेलिया दोऊ कूअ परंध.’
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Tuesday, May 13, 2008

अक्षयवट : मूल्यांकन की एक और दिशा / डॉ. इफफ़त असग़र

नासिरा शर्मा कहानीकार भी हैं, उपन्यासकार भी और पत्रकारिता में भी पर्याप्त दक्ष हैं. किंतु यही उनकी सीमा नहीं है. वस्तुतः रचनात्मकता उनके जीवन और व्यक्तित्व में इस प्रकार रच-बस गई है कि उनके साक्षात्कार, अनुवाद, राजनीतिक-विश्लेषण और सामजिक तथा साहित्यिक आलेख, सभी में इसकी ध्वनि सुनी जा सकती है. उन्होंने केवल भारतीय ही नहीं, ईरानी, अफगानिस्तानी और मध्य एशियाई देशों की सामजिक ज़िंदगी को उसके भीतर घुस कर देखने-परखने का प्रयास किया है. इलाहाबाद के संभ्रांत मुस्लिम परिवार में जन्मी हैं इसलिए उनमें सांस्कृतिक नोक-पलक के साथ रची हुई एक मधुर कोमल-भाषी सुगंध भी है. स्वभाव की गंभीरता के बावजूद व्यवहार की नरमी और उनकी हंसती मुस्कुराती बात-चीत उनके व्यक्तित्व को और भी आकर्षक बना देती है.
नासिरा शर्मा का इलाहाबाद से वही रिश्ता है जो राही मासूम रज़ा का गाजीपूर के एक छोटे से गाँव 'गंगोली' से है. कदाचित इसीलिए राही के यहाँ जिस प्रकार अंचल विशेष की खट्टी-मीठी और कड़वी तस्वीरें हैं, नासिरा के यहाँ इलाहबाद के महानगरीय विस्तार में व्याप्त गंगा-जमुनी तहजीब की करवटें और सिलवटें हैं जो स्मृति पटल पर कोई 'स्टिल फोटोग्रैफ़' नहीं उभारतीं, बल्कि एक गतिशील 'विडियो क्लिप' में भरपूर गुनगुनाहट भरकर खामोश साज़ छेड़ती दिखाई देती हैं. उनकी अधिकतर कहानियों में इलाहाबाद की सड़कें, गलियां, मोहल्ले किसी-न-किसी रूप में इधर-उधर से झांकते ज़रूर हैं और अवसर पाकर बीचोबीच खड़े भी हो जाते हैं. बिल्कुल अपने स्वाभाविक और सहज रूप में. इलाहबाद से नासिरा शर्मा के इस लगाव को उनके महत्वपूर्ण उपन्यास अक्षयवट में बिना किसी प्रयास के देखा जा सकता है.
अक्षयवट का प्रमुख पात्र ज़हीर, जिसके भीतर "परतदार चट्टानों का सिलसिला दूर तक फैला हुआ है", इलाहाबाद के इतिहास का समूचा धरोहर उसके वक्ष में टीस बनकर चुभता रहता है. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और गिरिजादत्त शुक्ल की कविताओं से उसके शरीर की नसें तक भीगी हुई हैं. वह जानता है कि इलाहाबाद का महत्त्व 'परीक्षा पास करने' या 'इतिहास रटने' में नहीं है - "इलाहाबाद में राजकुमार नूरुद्दीन जहांगीर ने अपने पिता मुग़ल सम्राट अकबर के खिलाफ पहली बार विद्रोह किया था और अबुल फज़ल जो कि अकबर का संदेश लेकर जा रहे थे उन्हें रास्ते में रोक कर क़त्ल कर दिया था. खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी को उसके भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने बड़ी बेरहमी से गर्दन काट के अपने आप को सुलतान घोषित किया था. नॉन काप्रेशन एंड खिलाफत मूवमेंट महात्मा गांधी द्वारा 1920 में इलाहाबाद से शुरू हुआ. ...इलाहबाद में ही पहली बार 1931 में मुस्लिम लीग अधिवेशन में अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान का तज़किरा किया था. चन्द्रशेखर आजाद को कम्पनी बाग़ में 1931 में गोली मारी गई थी ...अमृत मंथन, जो कि केवल चार स्थानों पर हुआ था, उनमें से एक इलाहबाद है. बाक़ी उज्जैन, नासिक एवं हरिद्वार हैं. और इसी कारण से यहाँ हर बारह वर्षों बाद महाकुम्भ मेला आयोजित किया जाता है." (पृष्ठ-18). ज़हीर की निगाह में इलाहबाद केवल इसी इतिहास का नाम नहीं है.
ज़हीर की सूक्ष्म दृष्टि उन सभी मोहल्लों में प्रवेश करती है जो बहुत पुराने भी हैं और बहुत घने भी. जहाँ हिंदू-मुसलमान, छोटी जात-बड़ी जात, नोकरीपेशा, गुंडे, नोकर, पेशेवर बदमाश सभी हैं. दशहरा देखने के लिए यहाँ लोग दूर-दूर से आते हैं. सिविल लाइन, कटरा, पंजाबा, खुल्दाबाद, घास की सट्टी, और पत्थर-चट्टी के दल एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में जम कर तैय्यारियां करते हैं. अतर्सुइया वाली रामलीला का अपना ढंग है. संगम तक श्रद्धालुओं से भरा रहता है. ब्राहमणों को श्राद्ध में भोजन कराना, पंक्तिबद्ध नाइयों से बाल उतरवाना और अंत में अक्षयवट और बड़े हनुमान जी के दर्शन करना इन श्रद्धालुओं की आस्था का अभिन्न अंग है. और फिर इसी इलाहाबाद में बलुआ घाट के चौराहे पर स्थित शाह बाबा के मज़ार का उर्स, नात शरीफ के पूरी आवाज़ में बजते कैसेट, रमजान के चाँद का एलान, बताश्फेनी और खजूर से भरे बाज़ार, मह्मूदन रंडी के घर से भेजी जाने वाली शानदार इफ्तारी, टूटी मस्जिद के पास वाले अंधे मोलवी साहब की तावीज़ में मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुओं की गहरी आस्था, नौचंदी जुमेरात पर निकलने वाला अलम, हजरत अब्बास की दरगाह पर अकीदत्मंदों की भीड़, कभी-कभार शहर की शांति भंग करने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों में पुलिस की भूमिका, कानून के नाम पर गैर-कानूनी हरकतें, क्या कुछ नहीं है इस इलाहाबाद में ?
नासिरा शर्मा की यह सांस्कृतिक परख सप्रयास नहीं है. उसमें एक सहजता है. एक ऐसी सहजता जहाँ 'आक्सफोर्ड आफ द ईस्ट' का अतीत कहीं पीछे छूट गया है. जहाँ अक्षयवट ऊंची दीवारों के बीच घिरा हुआ है और उसकी फुनगियाँ गर्दन उठाकर बाहर झाँकने का प्रयास कर रही हैं –
"इलाहाबाद के लिए दशहरा केवल धार्मिक पर्व भर नहीं है, यह स्थानीय परिवेश से निकली एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो अपनी ही बोली-बानी में इंसानी दुःख का बयान करती है. आम इंसान की ज़िंदगी से इतनी मिलती-जुलती उसकी व्यथा है कि हर कोई उसमें अपने को शामिल पाता है. उसमें मानवीय सरोकार, सामजिक चिंता एवं ज़मीनी रंग बड़े चटक हैं जो बरबस ही अपनी तरफ़ खींच लेते हैं. जिसमें भाव और विचार की समानता होती है. नैतिक और अनैतिक का भेद तर्क के साथ सामने आता है. जिसमें दुःख-सुख इतने सहज लगते हैं कि हर वर्ग का इंसान जीवन के किसी-न-किसी स्तर पर उससे गुजरा ज़रूर होता है." (पृष्ठ 23)
अक्षयवट का इलाहबाद एक स्वप्न नहीं है, जीता जागता यथार्थ है. जहाँ ज़हीर और उसके मित्र शहर के इतिहास को दागदार नहीं देखना चाहते. इन्सपेक्टर श्यामलाल और उसके गुर्गे अपनी समूची नकारात्मक भूमिका के साथ इस इलाहाबाद के चेहरे पर खरोंच के निशान छोड़ देने के लिए तत्पर हैं. उन्हें कामयाबी भी मिलती है, किन्तु क़दम-क़दम पर चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है. नासिरा शर्मा ने अन्य उपन्यासकारों की भांति अराजक तत्वों के विरुद्ध कोई संगठित आन्दोलन छेड़ने का प्रयास नहीं किया है. कारण यह है कि यहाँ समूची पुलिस-व्यवस्था ही भीतर से चरमराई हुई है. त्रिपाठी बेलगाम है और जो कुछ करता है सबकी आंखों के सामने करता है. यहाँ ज़िंदगी की कचोट से घायल और आहत नवयुवक एक दूसरे से बिना किसी पूर्व योजना के जुड़ते चले जाते हैं और सहज ही एक छोटा सा बेनाम संगठन बन जाता है. यह नवयुवक संख्या में कितने ही कम क्यों न हों और इनकी पीठ थपथपाने के लिए भले ही कोई राजनीतिक संगठन न हो, इनकी चारित्रिक उठान और निर्लिप्त भाव से की जाने वाली कोशिशें इन्हें इलाहाबाद के उन सभी बाशिंदों से जोड़ देती है जिनकी चेतना अभी मरी नहीं है. यह और बात है कि यह डरे सहमे स्वकल्पित इज्ज़त्दार लोग अपनी वाणी की प्रखरता और संघर्ष का उत्साह खो चुके हैं.
ज़हीर की माँ सिपतुन का सरल व्यक्तित्व और ज़हीर की दादी के सीने में दबा इलाहाबाद का विराट वैभव , ज़हीर के माध्यम से पूरी युवा टोली में एक ऐसी ऊर्जा भर देता है जो उन्हें फिर पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं देती. अपने जीवन का लक्ष्य वे स्वयं निर्धारित नहीं करते, परिस्थितियां निर्धारित करती हैं. यह परिस्थितियां उनके गुट को एक-एक कर के तोड़ने के कितने ही प्रयास करती हैं किन्तु अंत में पराजित दिखायी देती हैं. विजय अक्षयवट की होती है. उस अक्षयवट की जिसकी हर शाखा धरती का स्पर्श पाकर स्वयं तना बन जाती है. यह अक्षयवट खुसरो बाग़ में क़ैद नहीं है. यह पूरे इलाहाबाद में फैला हुआ है.
वस्तुतः नासिरा शर्मा के इस उपन्यास को 'काला जल' या 'आधा गाँव' के साथ रख कर नहीं देखा जा सकता.यह तुलना किसी दृष्टि से उपयुक्त नहीं है. आधा गाँव के पात्र और उनकी परिस्थितियां अंचल विशेष तक ही सीमित रह जाती हैं. देश विभाजन के मुद्दे का विराट फलक उन्हें आकृष्ट अवश्य करता है. किंतु उनकी सोंच भारत के तमाम मुसलमानों की सोंच का प्रतिनिधित्व नहीं करती. अक्षयवट का इलाहाबाद किसी वर्ग विशेष या धर्म अथवा सम्प्रदाय विशेष की सोंच का नतीजा नहीं है. उसके फैलाव में समूचे देश की सोंच, और बदलती परिस्थितियों के साथ टकराने का जुझारूपन है जो पाठक को आत्मीय स्तर पर जोड़ता है. नासिरा ने ज़बान के चटखारे लेने के लिए उपन्यास में ऐसे शब्द चित्र नहीं टांके हैं जो सस्ती लोकप्रियता तो दे सकते हैं, स्थायी प्रेरणा का स्रोत नहीं बन सकते. कदाचित इसी लिए उनके इस उपन्यास में गुंजाइश होने के बावजूद यौन-संबंधों का वह लिज्लिजापन नहीं है और भाषा की बोल्डनेस के नाम पर इस्तेमाल की जाने वाली वह छिछली अभिव्यक्ति नदारद है जिसे बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से हिन्दी समीक्षकों का एक वर्ग सिहर उठने के लिए आवश्यक समझता रहा है. रुखसाना की घटना हो या कुकी और ज़हीर के प्रेम संबंधों की झलक, मह्मूदन रंडी का व्यक्तित्व हो या हंगामा बेगम का तीन-तीन खिले गुलाबों वाला घर, नासिरा की लेखनी कहीं लडखडाती नहीं. श्याम लाल त्रिपाठी यह कहावत ज़रूर दुहराता है कि 'शेर के साथ बदकारी करो, जंगल ख़ुद-बखुद कब्जे में आ जायेगा'. किंतु उसका यह वक्तव्य भी उसके सीमित नंगेपन की परिधियों से आगे नहीं बढ़ता.
श्यामलाल त्रिपाठी एक विचित्र पात्र है. विचित्र इस दृष्टि से कि मल्लाह होते हुए भी नाम से ब्राह्मण लगता है, व्यवहार से पक्का तिकड़मबाज़ और चरित्र से दिल-फ़ेंक बाजारू आशिक की सभी सीमाएं लांघता हुआ. छिछली और सस्ती औरतों से भी सम्बन्ध जोड़ने में उसे कोई गुरेज़ नहीं है. उपन्यासकार की विशेषता यह है कि उसने उपन्यास के अंत तक आते-आते श्यामलाल के असहज, असामान्य, गिरे हुए क्रूर व्यवहार और उसकी उन हीन ग्रंथियों का अनावरण कर दिया है जो किशोरावस्था से युवा होने तक उसके भीतर निरंतर विकसित होती रही हैं - "मल्लाह बस्ती की कीचड भरी गलियां और झोंपडों में बासी भात की देग्चियाँ...स्वार्थ के लिए डरा-धमका कर जवान तगडे मल्लाहों से अवैध धंधा और अनैतिक कार्य कराने वाले पुलिस दारोगा.....ठेकेदारों की शिकायत पर हवालात की सैर और औरतों की बेहुर्मती . (पृ0439).
नंदलाल केवट का लड़का श्यामलाल विद्रोह की आग में पलकर बड़ा हुआ, इस लिए उसने झुकना नहीं सीखा. 'किसी ने चवन्नी की कमाई करनी चाही, उसको रूपया कमवाया. सड़क के किनारे पड़े लोगों को पचास गज़ की कोठरी का मालिक बना दिया. श्याम लाल त्रिपाठी का यह आतंरिक उद्घोष - 'अपने भाग्य को मैं ने स्वयं लिखा है, किसी मालिक, दानी, परोपकारी या अनाथालय के मैनेजर ने नहीं. इस लिए अपनी तकदीर का अन्तिम अध्याय स्वयं निषाद लिखेगा. श्याम लाल त्रिपाठी कोई अनपढ़ नहीं है' (पृ0440), उसे जमुना की गोद में विश्राम करने के लिए बाध्य कर देता है. यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उपन्यास का पाठक श्याम लाल की मौत पर आंसू नहीं बहाता, बस उसकी आँखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं. शायद सुधीर टारज़न ने उसके सम्बन्ध में ठीक ही सोंचा था - "त्रिपाठी एक तनावर दरख्त था. उसके गिरने से इतनी बड़ी क्षति अपराध की दुनिया को नहीं पहुँची जितनी पेड़ के गिरने के बाद उसकी गहरी जड़ों ने आस-पास की ज़मीन पर उखाड़-पछाड़ मचा दी है और मीलों तक मिटटी उखाड़ फेंकी है."(पृ0442)
अक्षयवट का सम्यक विवेचन करते हुए यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि विगत दस वर्षों में हिन्दी में जितने भी उपन्यास लिखे गए, उनमें इस उपन्यास की पहचान निश्चय ही सबसे अलग है. मेरी समझ से हिन्दी में इस कोटि का उपन्यास लिखा ही नहीं जा रहा है. इस उपन्यास की सब से बड़ी विशेषता यह है कि नैराश्य के बीच साँस लेती जिंदगियाँ भी टूटना नहीं जानतीं. नकारात्मक जीवन मूल्यों की सेंध और नैतिकता की भसभसाती दीवारें उन्हें तोड़ने के कितने ही प्रयास करें, ज़मीन में गहराई तक धंसी अक्षयवट की जड़ें, हिलने का भी नाम नहीं लेतीं.
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रीडर, हिन्दी-विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय

Monday, May 12, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश जैदी / 2

अध्याय - 2
चिट्ठियाँ बोलती हैं
" तारीखे-पैदाइश संवत 1937, बाप का नाम मुंशी अजायब लाल, सुकूनत मौजा मढ़वा लमही, मुत्तसिल पांडेपुर बनारस. ...वालिद का इंतकाल पन्द्रह साल की उम्र में हो गया. वालिदा सातवें साल गुज़र चुकी थीं." यह है प्रेमचंद के जीवन का वह ब्योरा जो उन्होंने 17 जुलाई 1926 ई0 की चिट्ठी में निगम को लिख कर भेजा था.
वैसे तो प्रेमचंद की निगम के साथ प्रारंभ से ही बड़ी अंतरंगता थी. 1903 ई० में निगम ने ज़माना उर्दू मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया था. धनपत राय की रचनाएं इसी ज़माने में बनारस के आवाज़ये-खल्क में निकलने लगी थीं. लिखने और छपने का नया-नया शौक़ था. उर्दू पत्रिकाओं के कायस्थ संपादकों से सम्पर्क बना लेना धनपत राय के लिए कोई मुश्किल काम न था. निगम की पत्रिका नई थी. उन्हें भी नए लेखकों की ज़रूरत थी. चिट्ठियाँ दौड़ने लगीं. सौभाग्य से धनपत राय का तबादला भी कानपुर हो गया और मई 1905 ई० में वे कानपूर पहुँच गए. ठहरने के लिए निगम की हवेली थी ही. नौबत राय नज़र, दुर्गा सहाय सुरूर, प्यारे लाल शाकिर मेरठी, गोया एक-से-एक अच्छे लोगों से परिचय हुआ, दोस्ती हुई और हँसी-मजाक, छेड़-छाड़, तीरों-नश्तर, ठहाके,कजली शामों को ज़िंदगी की दूधिया सफेदी का प्रकाश देने लगे.
बहरहाल 17 जुलाई 1926 ई० तक निगम के साथ मैत्री के निरंतर गहराते संबंधों के इक्कीस वर्ष तो गुज़र ही चुके थे. प्रश्न यह है की इतनी लम्बी अवधि तक निगम को प्रेमचंद के हालात जानने की जिज्ञासा क्यों नहीं हुई ? ज़माना का जुबली नंबर निकलने में भी अभी दो वर्ष की देर थी. फिर प्रेमचंद से प्राप्त किया गया यह परिचय ज़माना के किसी अंक में छपा भी नहीं. ज़ाहिर है कि निगम की पैनी दृष्टि ने प्रेमचंद के लेखन में अपने युग के श्रेष्ठतम कथाकार की झलक ज़रूर देख ली थी. कदाचित इसी लिए इस प्रामाणिक दस्तावेज़ को हासिल करना ज़रूरी हो गया.
अमृत राय की पुस्तक (1962 ) छपने से पहले डॉ. कमर रईस ने प्रेमचंद की तारीखे-पैदाइश को अच्छी तरह ठोक-बजा कर देख लिया था और उसकी प्रामाणिकता पर अपने शोध निष्कर्षों की पक्की मुहर लगा दी थी. प्रेमचंद का तन्कीदी मतालेआ के पृ0 35 पर उन्होंने लिखा - " प्रेमचंद की जन्म-पत्री की एक नक़ल उनके वरसा के पास महफूज़ है जिस से तस्दीक़ कर ली गई है. " 1962 में अमृत राय की पुस्तक कलम का सिपाही छ़प कर बाज़ार में आ गई. अमृत राय ने जन्म-पत्री का कोई सन्दर्भ नहीं दिया, पर तारीखे-पैदाइश सावन बदी 10, संवत 1937, शनिवार 31 जुलाई 1880 ई० " इस प्रकार लिखी कि जैसे जन्म-पत्री सामने रख कर लिखी हो. स्पष्ट है कि अब पैदाइश की तारिख पर संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती.
विचित्र बात यह है कि प्रेमचंद की टीका-टिप्पणी करते हुए कोई जब उन्हें कुछ छेड़ देता है, तो वे शायद अतिरिक्त रोब डालने के विचार से अपनी उम्र कुछ बढ़ा-चढा कर बता जाते हैं. प्रेमचंद के विरोध में एक लेख छपा प्रेमचंद की प्रेम लीला. जवाब देना ज़रूरी था. समालोचक के शरद अंक में और बातों के जवाब के साथ प्रेमचंद ने यह भी लिखा ''यह अभागा कल का लौंडा नहीं, पूरा खुर्राट है. तीन साल और हों तो पूरे पचास का हो जाय. '' हिसाब लगाने पर जन्म-तिथि 1936 वि० निकलती है. अर्थात मान्य तिथि से एक वर्ष पूर्व.
इसी प्रकार घरेलु हालात की चर्चा करते हुए , 6 जनवरी 1934 ई० की चिट्ठी में निगम को लिखते हैं-''जो काम चालीस की उम्र में होना चाहिए था , वह अब पचपन- साले में हो रहा है.'' यहाँ भी जन्म-संवत 1937 वि० नहीं निकलता.
अब दिसम्बर 1933 ई० का एक वक्तव्य देखिये. प्रेमचंद लिखते हैं-'' लेखक को अपने पचपनसाला जीवन में ऐसा कोई ब्राह्मण नहीं मिला जिसने इस पाखण्ड आचरण को घृणा की दृष्टि से न देखा हो.'' इस समय प्रेमचंद की आयु, कुल बावन वर्ष पाँच महीने बैठती है. किंतु उनके लिखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे पचपन वर्ष पूरे कर चुके हों. इस हिसाब से उनका जन्म संवत 1935 वि० होना चाहिए. एक अन्य स्थल पर 14 जुलाई 1919 ई० के पत्र में इम्तियाज़ अली ताज को लिखते हैं - "बेशक मेरा सिन चालीस साल है." इस आधार पर भी प्रेमचंद की जन्म-तिथि 1879 ई० अर्थात संवत 1936 वि० होनी चाहिए. किंतु यह एक कथाकार की लेखनी का बहाव है. जोश में आए तो जो जी चाहे लिख जाय. कौन पूछने जाता है उस से. फिर यदि यह साबित भी हो जाय कि प्रेमचंद 1880 ई० में नहीं बल्कि 1879 या 1878 ई० में पैदा हुए थे और पढे-लिखे जागरूक घरों की तरह उनकी उम्र एक दो वर्ष कम कर के लिखवाई गयी थी तो उस से अन्तर क्या पड़ेगा ! हिन्दी अध्येता प्रेमचंद की जन्म-तिथि पूर्ववत 1880 ई० ही लिखते रहेंगे
प्रेमचंद के माता पिता के निधन का सन्-संवत भी खासा संदिग्ध है. प्रेमचंद की जन्म-तिथि 1880 ई० मान लेने पर भी उनके पिता का निधन कम-से-कम उस समय नहीं हुआ जब वे पन्द्रह वर्ष के थे. प्रेमचंद ही की सूचनानुसार उनके विवाह के साल भर बाद उनके पिता परलोक सिधारे. वैसे तो प्रेमचंद का विवाह उस समय हुआ जब वे सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और नवीं की परीक्षा देने वाले थे. इस प्रसंग में डॉ.कमर रईस का एक रोचक वक्तव्य उद्धृत करना असंगत न होगा - "इस वक्त उनकी उम्र पन्द्रह साल की थी की 1896 ई० में उनके वालिद ने उनकी शादी कर दी " पूछिये भला कि 1896 ई० में धनपत राय पन्द्रह वर्ष के किस हिसाब से थे ? दिलचस्प बात यह है कि अमृत राय भी पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही विवाह होने की बात करते हैं और साथ में यह भी स्वीकार करते हैं - " नवाब नवीं में थे जब उनका ब्याह हुआ. अगले साल यानी 1897 ई० में मैट्रिक का इम्तेहान देना था, लेकिन उसी साल पिता बीमार पड़े और इस दुनिया से उठ गए. " बात साफ है कि पिता के निधन के समय प्रेमचंद का सत्रहवां वर्ष चल रहा था.
अब रह गई माँ के निधन की बात. अमृत राय के अनुसार “पहली पत्नी के निधन के दो वर्ष बाद अजायब लाल ने दूसरा विवाह किया. उस समय धनपत आठवीं जमाअत में पढ़ते थे.” यदि अमृत राय की बात मान ली जाय तो 1894 ई० में धनपत आठवीं में थे और दो वर्ष घटा देने पर 1892 ई० में, अर्थात जिस समय धनपत बारह वर्ष के थे और छठीं कक्षा में पढ़ते थे, माता का निधन हुआ. जबकि वही अमृत राय यह भी लिखते हैं " पत्नी के मरने के कुछ ही दिन बाद मुंशी अजायब लाल बीमार पड़े . ठीक होने भी न पाये थे कि तबादले का हुक्म हुआ. नई जगह, सूने घर में नवाब को ले जाना पागलपन होता, इसलिए नवाब को फिर लमही में ही रखने की ठहरी. ( कलम का सिपाही, पृ0 23 ) " मतलब यह कि छठीं कक्षा से धनपत का नाम कटवा कर उन्हें लमही में डाल दिया गया. इन गोल-मोल बातों से अमृत राय की लिखी हुई जीवनी एक भटकाव की स्थिति पैदा करती है और कोई निश्चित तथ्य सामने नहीं आता.
इन्द्रनाथ मदान को प्रेमचंद ने 7 सितम्बर 1934 ई० के पत्र में लिखा "मैं आठ साल का था तभी मेरी माँ नहीं रहीं." इस दृष्टि से प्रेमचंद की माँ का निधन 1888 ई० में होना चाहिए. हो सकता है कि अपनी उम्र घटाकर, प्रेमचन्द अधिक सहानुभूति बटोरने के इच्छुक रहे हों. कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि माँ के स्वर्गवास के समय प्रेमचंद आठ वर्ष के नहीं थे.
प्रेमचंद लमही के एक बड़े से मकान में जन्मे थे. बड़े से मकान की बात यूं आई कि स्वयं प्रेमचंद ने दया नरायन निगम को सूचना दी थी " ईश्वर की कृपा से मकान भी सारे गाँव के लिए ईर्ष्या का पात्र." फिर मकान के कमरों का चित्र उभारते हुए उसके बड़कपन को और भी उजागर कर देते हैं -" किसी में बैल बंधता, किसी में उपले जमा हैं, किसी में जांता,चक्की, ओखली मूसल जुलूस-फरमा हैं." अब मकान को बड़ा न कहा जाय तो और क्या कहा जाय ? यह ठीक है कि इसमें निगम की हवेली जैसा आनंद नहीं है. न वहाँ जैसी सजावट और सफाई, न खस की टट्टी की भीनी खुश्बू, न रोबदार पंखे की झुक-झुक कर सलाम करती सुसंयमित हवा. गाँव ही का तो माकन ठहरा. सारे गाँव का सिरमौर है, यह क्या कम है ?
कायस्थों में दो विवाह करने का आम प्रचलन था. पिताजी पहले ही रास्ता हमवार कर चुके थे. फिर प्रेमचंद कैसे पीछे रह जाते ? लिखने को तो उन्होंने निगम को बड़े धड़ल्ले से लिख दिया- " अधबीच में छोड़ने वाले और होंगे. यहाँ तो जब एक बार बांह पकड़ी, तो ज़िंदगी पार लगा दी. हालांकि यह सन्दर्भ दाम्पत्य जीवन के निर्वाह का नहीं है, सम्पादकीय सहयोग निभाने का है. फिरभी बांह पकड़ने और ज़िंदगी पार लगा देने की बात टू यहाँ की ही गई है. "किन्तु मेंहदावल तहसील के रमवापुर गाँव वाली पत्नी के साथ ऐसा नहीं हुआ.
7 सितम्बर 1934 ई० को इन्द्रनाथ मदान के प्रश्नों का उत्तर देते हुए प्रेमचंद ने लिखा - "मेरी पहली स्त्री का देहांत 1904 ई० में हुआ. वह एक अभागी स्त्री थी. तनिक भी सुदर्शन नहीं. और यद्यपि मैं उस से संतुष्ट नहीं था, तो भी बिना शिकवा-शिकायत निभाए चल रहा था. "किन्तु यह तो एक मनगढ़त कहानी भर है. असली बात निगम को जून 1906 ई० के पत्र में लिखी जा चुकी थी-" अपनी बीती किस से कहूँ !...औरतों ने एक दूसरे को जली-कटी सुनाई. हमारी मख्दूमा (पत्नी ) ने जल-भुन कर गले में फांसी लगाई. माँ ने आधी रात को भांपा, दौडीं, उसको रिहा किया. बीवी साहिबा ने अब जिद पकड़ी की यहाँ न रहूँगी. मैके जाऊँगी. ...वह रो-धो कर चली गई. मैं ने पंहोचाना भी पसंद न किया. ..मैं उस से पहले ही खुश न था अब तो सूरत से बेजार हूँ. "अमृत राय कलम का सिपाही में यह सारे तथ्य गोल कर गए और एक नई कहानी गढ़ डाली -"जब नवाब ने अपनी नौकरी की जिंदगी शुरू की और उन्हें अपने साथ नहीं ले गए तो वह भी मेंहदावल चली गयीं और अधिकतर वहीं रहने लगीं" ( कलम का सिपाही, पृ0 34 )
पहली पत्नी के तनिक भी सुदर्शन न होने वाली बात जब प्रेमचंद ने शिवरानी देवी से की जो बकौल प्रेमचंद "साहित्यिक अभिरुचि " रखती थीं, "कभी-कभी कहानियाँ भी लिखती थीं, निडर, साहसी, समझौता न करने वाली, सीधी-सच्ची स्त्री थीं, प्रेमचंद की शिकायत पर मौन न रह सकीं. प्रेमचंद बोले -" उमर में वह मुझ से ज्यादा थीं. मैं ने उनकी सूरत देखी, तो मेरा खून सूख गया." शिवरानी देवी बस्ती के निवास काल में उनसे मिल चुकी थीं. तुरन्त बोल पडीं-" ठीक तो थीं" अच्छा ही हुआ की शिवरानी देवी और अमृत राय की इस प्रसंग में कोई बात नहीं हुई. अमृत राय जानते थे कि शिवरानी देवी "लकड़ी कि तरह सीधी-सपाट, निडर अक्खड़, हठीली हैं," जाने क्या-क्या सुना बैठें. प्रेमचंद को अपनी पहली पत्नी के केवल सुदर्शन न होने और उम्र में बड़ी होने की शिकायत थी. अमृत राय, जिन्होंने उन्हें कभी देखा तक नहीं था उनका नक्शा कितने शानदार शब्दों में खींचते हैं -"उम्र में ज्यादा, काली, भद्दी, थुल-थुल, चेचक-रु, अफीम खाने वाली, भचक कर चलने वाली, महीने में एकाध बार हबुआती भी ज़रूर थीं." (कलम का सिपाही, पृ0 33 ). अब इस से अधिक अमृत राय और लिखते भी क्या ?
प्रेमचन्द और शिवरानी देवी की बातचीत से यह भी संकेत मिलता है कि रवा-रवी में शायद प्रेमचन्द पहली पत्नी के चरित्र पर भी कोई टिप्पणी कर गए. देवी जी आपे से बाहर हो गयीं- "आप दावे के साथ कह सकते हैं कि आपका अपना चरित्र अच्छा था ? खामोश !" प्रेमचन्द कोई उत्तर न दे सके. चुप रहने में ही भलाई थी. किंतु अमृत राय को शायद अपनी सौतेली माँ के चरित्र का कुछ अधिक पता था. कलम पर अधिकार था ही. जो बात प्रेमचन्द ने कभी इशारों में भी नहीं की, उसकी उड़ती-पड़ती ख़बर अमृत राय तक पहुँच गई- "नवाब का शायद कभी उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा." फिर"..एक बार यह बात भी उडी कि उन्हें ( सौतेली माँ को ) लड़का हुआ है जिसका नाम उनके घर वालों ने रामयाद राय रखा है. " (कलम का सिपाही, पृ0 34 ) ख़बर कच्ची-पक्की जैसी भी रही हो अमृत राय की सारी छींटा-कशी अपनी सौतेली माँ पर है. अब वह दोषी थीं, सद्चरित्र थीं या नहीं जैसे प्रसंग को उठाने का लाभ भी क्या था. अमृत राय ने स्वयं इसे दुःख का प्रसंग माना है. जब ऐसा ही था तो इसे कलम का सिपाही में टांकना इतना ज़रूरी क्यों समझा गया ? कौन सी बात बिगड़ रही थी इस प्रसंग के बगैर ?
प्रेमचन्द की पहली पत्नी ससुराली जीवन से तंग आकर हमेशा के लिए मैके चली गयीं. यहाँ तक तो जो होना था हो गया. अब छब्बीस वर्षीय धनपत राय के लिए अपने से कुल चार-पाँच वर्ष बड़ी विमाता के साथ रहना उपयुक्त नहीं था. समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा था. बिरादरी में दोनों को लेकर तरह-तरह की बातें हो सकती थीं. ख़ुद अमृत राय बताते हैं कि प्रेमचन्द के सगे चाचा कौलेश्वर लाल के गुजरने पर उनकी विधवा स्त्री के साथ "यही हुआ जो सच या झूठ हमारे समाज में प्रायः हर विधवा के साथ होता है. रिश्ते के एक भतीजे को लेकर उनकी बदनामी हुई."
प्रेमचन्द की चाची (विमाता) ने दुनिया देखी थी. कब क्या ऊंच-नीच हो जाय, अच्छी तरह सोंच सकती थीं. फलस्वरूप प्रेमचन्द के लिए दूसरे विवाह की छेड़-छाड़ शुरू कर दी. संभावित पत्नी के हसीन होने की चर्चा सुन कर प्रेमचन्द का मन भी भुर्भुराने लगा.-"वालिदा की तरफ़ से जिद है कि ब्याह रचे और ज़रूर रचे. अब कहता हूँ मैं मुफलिस हूँ , कंगाल हूँ, खाने को मयस्सर नहीं, तो वालिदा साहिबा कहती हैं तुम अपनी रजामंदी ज़ाहिर करो, तुमसे एक कौडी न मांगी जायेगी. सुनता हूँ बीवी हसीन है, बा शऊर है, जेब से खर्च बगैर मिली जाती है, फिर तबियत क्यों न भुर्भुराए और गुदगुदी क्यों न पैदा हो ? " प्रेमचन्द की इस गुदगुदी को महसूस करने के बाद भी अगर अमृत राय कहें कि धनपत राय को "जो दस-पांच हज़ार में एक खूबसूरत नौजवान था, किसी सुन्दरी की तलाश न थी" (कलम का सिपाही, पृ0 74) तो कोई कर भी क्या सकता है ?
कहते हैं कि दूध की जली बिल्ली छांछ भी फूंक कर पीती है. विमाता और उनके पिता के माध्यम से पहला विवाह कर के प्रेमचन्द देख चुके थे. अब तबियत लाख भुर्भुराए और हसीन बीवी की कल्पना से कितनी ही गुदगुदी क्यों न हो, कोई भी क़दम बगैर सोंचे-समझे नहीं उठाना है. इसलिए "इस बारे में अभी फिर मशविरा करने की ज़रूरत है. "
घर वालों को कोई सूचना दिए बिना 1906 ई० के फाल्गुन में प्रेमचंद ने शिवरानी देवी से विवाह कर लिया. चाची इस विवाह से बहुत खुश नहीं हुईं. प्रारम्भ के सात-आठ वर्षों तक घर में तनाव की स्थिति बनी रही. चक-चक होती तो प्रेमचंद चाची का पक्ष लेते और शिवरानी पर हाथ भी उठा देते (शिवरानी देवी/प्रेमचंद : घर में / 12-13). हो सकता है कि इसके पीछे प्रेमचंद की लायाक्मंदी ही रही हो. चाची विगत दस वर्षों से अपने दायित्व का निर्वाह कर रही थीं, प्रेमचंद को इस रिश्ते का ख़याल तो रखना ही था.
सम्भव है घरेलू चक-चक का एक कारण शिवरानी देवी की आभूषणों की फरमाइश रही हो. 1012 ई० में प्रेमचंद ने निगम को सूचित किया- "बीवी जान की बरसों की जिद पर एक कड़ा बनवाया जिसका सदमा अब तक न भूला.” स्पष्ट है कि किसी खर्च बगैर हसीन और बाशऊर पत्नी पाने कि इच्छा रखने वाले की दृष्टि में सोने के कड़े पर रूपये खर्च करना किसी सदमे से कम किस प्रकार होता ?
विवाह को कई वर्ष हो गए और न कोई बाल न बच्चा. राम सरन को जब संतान का सुख मिला, तो औपचारिक रूप से खुशी की अभिव्यक्ति ज़रूर कर दी, किंतु अपनी बेचैनी को दबा न सके. 22 मार्च 1913 ई० को निगम को एक चिट्ठी में लिखा- "मिस्टर सरन के घर में बच्चा पैदा हुआ है. खुशी की बात है. ईश्वर उसे जिंदा रखे. मेरी न पूछिये. अहबाब फूलें फलें. मेरी खुशी के लिए इतना काफी है. उन्हीं के बच्चों को प्यार कर के अपनी हवस मिटा लूंगा.
कितनी हसरत और कितनी निराशा है उपर्युक्त पंक्तियों में. जैसे चिट्ठी के अक्षर-अक्षर मर्म, में दबी पीड़ा को आहिस्ता-आहिस्ता उकेर रहे हों. दोस्तों के बच्चों को प्यार करके प्रेमचंद ने अपनी हवस मिटाई भी या नहीं, कौन जाने. पर जल्वए-ईसार (1912 ई०) के मुंशी शालिग्राम ने मुंशी प्रेमचन्द की यह ख्वाहिश पूरी अवश्य कर दी. "मुंशी जी को स्वभावतः बच्चों से बहुत प्रेम था. मुहल्ले भर के बच्चे उनके प्रेमवारि से अभिसिंचित होते रहते थे."
यह बात उस समय की है जब शिवरानी देवी के पाँव भारी थे. किंतु लक्षण बता रहे थे की पुत्री का जन्म होने वाला है. जभी तो डेढ़ महीने बाद 4 मई 1913 के पत्र में निगम को फिर सूचित करते हैं-" बेगम साहिबा यहीं तशरीफ़ रखती हैं और गालिबन दुख्तरे नेक अख्तर (शुभ नक्षत्रों वाली पुत्री) की आमद है."
प्रेमचंद ने अपनी इस सुपुत्री का नाम कमला रखा. इन दिनों मिर्जापुर में महताब राय के विवाह की बात चल रही थी जिसकी सूचना 4 मई 1913 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को इन शब्दों में दी- "आज छोटक (महताब राय) के कद्रदान मिर्जापुर से आने वाले हैं."किंतु इन क़द्रदानो के साथ मामला पक्का न हो सका. एक महीने बाद 3 जून 1913 ई० को प्रेमचन्द ने लिखा- "छोटक की शादी डिस्मिस हो गयी . बहुत अच्छा हुआ." अभी दो-तीन साल तक यह काम कब्ल अज वक्त था." प्रेमचन्द का स्वास्थ्य इधर काफी ख़राब चल रहा था. इसी चिट्ठी में वे निगम को सूचित करते हैं कि वे छुट्टी की दरखास्त दे चुके हैं, और सम्भव है 15 जून 1913 ई० से उन्हें छुट्टी मिल जाए.
प्रेचंद का स्वास्थ्य किस सीमा तक गिर चुका था इसका अनुमान इन शब्दों से किया जा सकता है "आप मुझे देखें तो गालिबन पहचान न सकेंगे. हाज्में में फितूर आ गया है. जोफ (कमजोरी) दिन-दिन बढता जा रहा है."और फिर चार दिन बाद लिखते हैं- "मैं अपनी हालत ख़राब होने के बाइस बिल्कुल अपाहिज हो गया हूँ.---- मेदा ज़रा सही हो जाए तो फिर कुछ काम करूं. कानपूर मेरे प्रोग्राम में शामिल है और गालिबन बनारस जाने से क़ब्ल अगर आप मेरी रिहाइश (आवास) का कोई इन्तेजाम कर सकें, तो मैं कानपुर ही में अपना मुआलिजा कराऊँ. क्यों बनारस जाऊं. क्योंकि अब शादी तो होनी नहीं है, खाह-मखाह की दर्दसरी. "
प्रेमचन्द को अवकाश भी मिला और वे कानपूर भी गए. मगर वहां रहकर इलाज कराने की बात हवा में उड़ गयी. तीन महीने का अवकाश इधर-उधर की बातों में निकल गया. 14 सितम्बर की शाम तक हमीरपुर पहुँचना ज़रूरी था. इसलिए निगम के खिन्न होने की चिंता किए बिना वे हमीरपुर पहुँच गए. "हमीरपुर मैं ऐसे वक़्त पहुँचा जब मेरी रुखसत ख़त्म होने में सिर्फ़ चौबीस घंटे की देर थी. 14 सितम्बर की शाम को ख़त्म होने वाली थी. मैं 13 को चला."
प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे कि "सेहत बड़ी चीज़ है जिसने इसकी क़द्र न की उसके लिए बजुज़ रोने और सर धुनने के और कोई इलाज नहीं है". किन्तु सब कुछ जानते हुए भी जून 1914 ई० तक का समय इसी स्थिति में हमीरपुर में कट गया. जुलाई के प्रथम सप्ताह में बस्ती के लिए प्रस्थान किया. परिवार साथ न जा सका. नई-नई जगह थी इसलिए अपने अकेले जाने की सूचना निगम को देना न भूले- "मैं इस वक़्त यहाँ से तनहा जाता हूँ. "
बस्ती में नए सिरे से इन्तेजाम करना था. न किसी से जान न पहचान, और बकौल ख़ुद तंग्दस्ती अलग -"नए नए इन्तेजाम की वजह से मैं यहाँ तंग्दस्त हो गया. चार्पाईयाँ बनवानी पडीं, अभी जानवर नहीं लिया, लेकिन उसके लिए दिन-रात फिक्र है. ख़ुद सेनाटोजन का इस्तेमाल कर रहा हूँ, जो शायद यह शीशी ख़त्म हो जाने पर मुश्किल से मिल सकेगी.” पर शीघ्र ही प्रेमचंद सेनाटोज़न की चिंता से मुक्त हो गए. 10 नवम्बर 1914 के पत्र में निगम को सूचित करते हैं-"सारी दुनिया को सेनाटोज़न फायदा करती है, मुझे इस से भी कुछ न हुआ. आपने चार-पाँच मील हवा खाने की सलाह दी है, उसकी तामील कर रहा हूँ. "
स्वास्थ्य के टिचन हो जाने का प्रेमचंद ने भर्सख प्रयत्न किया. जनवरी 1915 ई० में छे महीने की छुट्टी लेकर कानपूर, लखनऊ, इलाहबाद, बनारस- सभी जगह इलाज कराया. कोई विशेष लाभ न हुआ. 19 मार्च 1915 ई० को अंत में थक-हार कर पांडेपुर चले गए. वहाँ से एक दिन बाद निगम को चिट्ठी लिखी - "मैं कल यहाँ पहुँच गया और हस्बे-दस्तूर जैसा था वैसे हूँ. " फिर लगभग दो सप्ताह बाद लिखते हैं -"मुझे यहाँ आए करीबन दो हफ्ते हुए. मेरी तबिअत बदस्तूर है. सैर और इह्तियात पर ही दारोमदार रखा है."
पांडेपुर से कुछ ठीक-ठाक होकर प्रेमचंद फिर बस्ती आ गए. यहाँ से कुछ ही दिनों बाद उन्होंने निगम को 10 अगस्त 1915 ई० के पत्र में अपनी आर्थिक स्थिति की सविस्तार जानकारी दी- "मेरे पास इस छे माह की रुखसत के बाद इस वक़्त कुल आठ सौ रूपये हैं. तीन सौ रूपये मैं ने तीन असामियों को अठारह फीसद सूद पर क़र्ज़ दे दिए हैं. " प्रेमचंद महाजन नहीं थे, किन्तु सूदखोर तो बहरहाल कहलायेंगे. 18 फीसद सूद पर क़र्ज़ देना किसी ज़रूरतमंद की मजबूरी का लाभ उठाना नहीं है तो फिर क्या है ?
परिस्थितियों के दबाव में आकर टूट जाना, मनुष्य का एक सामान्य स्वभाव है. लेकिन प्रेमचंद के साथ ऐसा नहीं हुआ. उनमें सघर्ष की क्षमता थी, जुझारूपन था और ज़िंदगी में आगे बढ़ने का ज़बरदस्त हौसला था. स्वास्थ्य की चिंता छोड़ कर उन्होंने पढने और परीक्षा पास करने का निर्णय लिया. २ अक्तूबर 1915 ई० को उन्होंने निगम को सूचित किया -"इस साल तो किताबें मंगवा ली हैं. छोटक साथ हैं. उन्हें छोड़ भी नहीं सकता. यही फ़ैसला होता है कि एक बार फिर तालिबिल्मी के उम्मीदोबीम (आशा-निराशा )का मज़ा ले लूँ." और फिर 16 दिसम्बर 1915 ई० को परीक्षा की बाबत लिखते हैं -" मैं एफ़० ए० का इम्तेहान देने मार्च में कहीं-न-कहीं जाऊंगा. इस साल तैयार हूँ. बनारस, इलाहबाद, कानपूर और लखनऊ, चारों में बनारस तकलीफदेह है. कानपूर में खाने-पीने की तकलीफ, लखनऊ में जाए-कयाम कालेज से दूर, इलाहाबाद सुभीता है. वरना कानपूर में चैन से रहता. बहरहाल गर्मी की तातील में ज़्यादा नहीं तो पन्द्रह दिन तक सोहबत रहेगी."
मई का महीना भी आ गया किन्तु निगम की सोहबत का मौक़ा न मिला. 13 मई 1916 के पत्र में निगम को सूचित करते हैं - "आज बनारस जाता हूँ. मेरे एक साले साहब की शादी 8 जून को है. इसलिए मैं ने यह बेहतर समझा की जून ही में बनारस से चलूं और आपसे मुलाक़ात करता हुआ शादी में शरीक होने के बाद 15 तक बनारस वापस चला जाऊं. "किन्तु मई में बनारस न जा सके. हाँ बस्ती के जीवन से तंग आकर तबादले की दरखास्त अवश्य दे दी. कानपूर आने की बड़ी इच्छा थी. ख़याल था कि वहीं आकर शायद कुछ शान्ति मिले. 22 मई 1916 ई० को निगम को लिखा -"काश मैं किसी तरह तब्दील होकर कानपूर आ सकता. तबादले की दरखास्त तो दे दी है, मगर मालूम नहीं कहाँ फेंका जाऊं."
निगम चाहते थे कि प्रेमचंद कानपूर आजायं. किन्तु घरेलू जीवन की जिम्मेदारियां इतनी छूट कब देती थीं. उत्तर में निगम को लिखा - "मेरे आने की बात यूं है. मैं तो आज ही रवाना हो जाता, मगर 27 मई को फैजाबाद से एक लाला साहब छोटक की शादी के मुतअल्लिक कुछ तज़किरा करने के लिए आयेंगे. फिर मुझे धर्मपत्नी जी के साथ सुसराल जाना है. गालिबन 4 या 5 जून को जाऊँगा. अगर यह झमेले न होते तो बराहेरास्त कानपूर आता. टट्टी और पंखे तो खैरियत से होंगे. "
प्रेमचंद का तबादला हो गया. किन्तु कानपूर के बजाय गोरखपूर भेजे गए. अगस्त की 18 तारीख को वे गोरखपूर पहुंचे और अभी सामान भी ठीक नहीं कर पाये थे कि रात में श्रीपत राय का जन्म हुआ. गोया एक पुरानी इच्छा थी जो आज पूरी हो गई. अभी आठ महीने पहले वे निगम को बस्ती से 16 दिसम्बर 1915 ई० के पत्र में लिख चुके थे -" चाची बनारस, बाक़ी तीन आदमी यहाँ. बाल-बच्चे न हुए, न उम्मीद न आरजू." लेकिन सच बात यह है कि कुछ-कुछ उम्मीद बंधने के बाद ही यह बात लिखी गई थी. रह गई बात आरजू की. वह तो शायद बहुत गहराई से मन में बैठी थी.
गोरखपूर प्रेमचंद के लिए नया नहीं था. किन्तु बचपन के गोरखपूर और वर्तमान गोरखपूर में काफ़ी अन्तर था. तब प्रेमचंद केवल धनपत थे और वह धनपत आश्रित रह कर भी बहुत स्वतंत्र था. पूरी तरह स्वच्छंद और उन्मुक्त. बीडी सिगरेट पी सकता था, गन्दी औरतों के बीच घुस कर उनकी रोचक बातें सुन सकता था, चाची के हँसी-मजाक में साझीदार हो सकता था, कटी हुई पतंगों के पीछे दौड़ सकता था, हुक्के गुडगुडा कर तिलिस्म-होश्रुबा की मीठी-मीठी चुस्कियाँ ले सकता था और सबसे बढ़ कर मामा जी और चमारिन की प्रेमलीला का आनंद ले सकता था. किन्तु उस धनपत और इस प्रेमचंद के बीच बहुत बड़ा फासला था. आज वह दायित्व के बोझ से दबा हुआ था और स्वतंत्र रहकर भी स्वतंत्र नहीं था.
गोरखपुर के प्रारंभिक चार महीने किस प्रकार कटे, इसकी कोई सूचना नहीं मिलती. निगम को इस बीच चिट्ठियां अवश्य लिखी होंगी. पर इस ज़माने की कोई भी चिट्ठी उपलब्ध नहीं है. गोरखपूर से पहली उपलब्ध चिट्ठी 11दिसम्बर 1916 को लिखी गई, जबकि बस्ती की अन्तिम चिट्ठी 13 मई 1916 की है. 11 दिसम्बर की चिट्ठी में लिखते है - "लखनऊ जाने का इरादा तो करता हूँ, देखूं गैब से मदद मिलती है या नहीं. इसी के लिए कई रिसालों में लिखा. एक साहब ने तो ख़बर ली. दूसरे साहब आइन्दा लेंगे." स्पष्ट है कि इस बीच ज़माना में छपी तीन कहानियो ( घमंड का पुतला-अगस्त 1916, जुगनू की चमक - अक्तूबर 1916, धोखा - नवम्बर 1916 ) के अतिरिक्त निश्चय ही कुछ और कहानियाँ भी लिखी गई होंगी जिनकी सूचना इस पत्र में दी गई है. हो सकता है जालिब देहलवी के बहुत आग्रह पर हमदम लखनऊ के लिए कोई कहानी लिखी हो. इसी पत्र में यह भी सूचना देते हैं-"किस्सा तैयार है. कल या परसों तक ज़रूर बिल्ज़रूर भेज दूंगा." और यह किस्सा था दो भाई जो ज़माना के जनवरी 1916 के अंक में छपा. इसमें श्री कृष्ण जी पर चोट की गई थी. पात्रों के नाम तक नहीं बदले गए थे. वासुदेव, कृष्ण, बलराम राधा, श्यामा इत्यादि. विरोध में निगम के पास कई पत्र आए. प्रेमचंद की प्रतिक्रिया निगम के लिए अनिवार्य थी. तत्काल प्रेमचंद ने उसका उत्तर दिया और अपनी सफाई पेश की जो ज़माना के फरवरी अंक में छपी. (अमृत राय और मदन गोपाल के संग्रहों में यह चिट्ठी नहीं है.)
गोरखपूर में, अमृत राय की सूचना के मुताबिक श्रीपत राय के जन्म के बाद से ही शिवरानी देवी बहुत बीमार हो गई थीं. इस स्थिति में बच्चों को सुलाना-जगाना, नहलाना-धुलाना, खिलाना-पिलाना, गरज यह कि सारी जिम्मेदारियां प्रेमचंद ने संभाल ली थीं. (कलम का सिपाही, पृ0 150 ). यह ठीक है कि प्रेमचंद की विमाता से शिवरानी देवी की ठनी रहती थी. किन्तु बच्चों से उनका बे ताल्लुक हो जाना समझ में नहीं आता. फिर भी अमृत राय ग़लत क्यों लिखेंगे.
24 जनवरी 1917 को प्रेमचंद ने निगम को अपने ससुर के बीमार होने की सूचना दी और लिखा कि फरवरी में उन्हें देखने इलाहबाद जायेंगे. फिर २० फरवरी को सूचित किया कि 19 को इलाहबाद पहुँच गए. वहाँ उन्हें 15 मार्च तक रुकना पड़ा. 16 को गोरखपूर पहुंचे किंतु तीन महीने बाद जून 1917 के प्रथम सप्ताह में उन्हें फिर इलाहाबाद जाना पड़ा. 8 जून के पत्र में निगम को लिखा -"मैं यहाँ बुरा आ फंसा". 30 जून को पिंड छुडा कर किसी तरह गोरखपूर पहुंचे. परीशानियाँ वहां भी साथ लगी रहीं. 5 जुलाई को धन्नू को ब्रांकाईटिस हो गया. डाक्टर की दवा करनी पड़ी तब जा कर कहीं अच्छा हुआ.
अगस्त में हर तरफ़ फसली बुखार का ज़ोर था. प्रेमचंद का परिवार भी इसकी चपेट में आ गया. 22 अगस्त 1917 की चिट्ठी में उन्होंने निगम को लिखा -"यहाँ आजकल फसली बुखार की शिकायत है. घर के दो आदमी बीमार हैं." अगस्त में सीतापूर जाने का प्रोग्राम रद करना पड़ा. महताब राय मार्च 1917 में टाइप सीख कर लौटे थे और उनके लिए निगम से प्रेमचंद ने ज़ोरदार सुफारिश भी की थी. किंतु जब वहां काम नहीं बना तो बस्ती में 30 रूपए मासिक की टाइपिस्ट की नोकरी दिलवा दी जहाँ उन्होंने जुलाई 1918 तक काम किया. मई के अन्तिम सप्ताह में प्रेमचंद ने उनकी शादी करा दी.
यह ज़माना प्रेमचंद के लिए बड़ी ही परेशानियों का था. स्वयं उन्हीं से सुनिए -"क्या करूँ ऐसी परीशानियों में था कि कानपूर आने का मौक़ा ही न मिला. 11 मई को यहाँ से चला, सत्ताईस को बारात के साथ गया, ३० को वापस आया, फिर मकान की मरम्मत में फंसा.----जब से आया हूँ आँखें उठी हुई हैं." बी. ए. पास करने की धुन अलग थी. किस्सों-कहानियो में डिग्रियों की हमेशा खिल्ली उड़ाते रहे, किंतु व्यावहारिक जीवन में अच्छी तरह जानते थे कि बी.ए. किए बगैर कुछ काम नहीं बनता -"मुझे ज़िंदगी के तजुर्बे से मालूम होता है कि किसी लिटरेरी लाइन में बगैर ग्रेजुएट हुए कोई उम्मीद नहीं. ----आज बेरोजगार हो जाऊं तो कोई ऐसा रिसाला या अखबार नहीं है जो क़लील मुआवजे (थोड़े पारिश्रमिक ) पर भी मेरा निबाह कर सके. ---तीन साल की मामूली मेहनत में ग्रेजुएट हो सकता हूँ. बुढापे में आराम मिलने का सहारा हो जाएगा. " (चि० ,प० 1/42)
जुलाई, अगस्त, सितम्बर, तीन महीने गुज़र गए, बारिश बिल्कुल नहीं हुई. कहत पड़ गया. बीमारियों ने धावा बोला. 27 अक्तूबर 1918 ई० को निगम को लिखा- "अखबारों में तो कानपूर की कैफियत देख-देख कर जी काँप उठता है. परमात्मा आप लोगों की रक्षा करे. मैं भी यहाँ बहुत परीशन रहा. मेरे सिवा सारा घर पड़ा हुआ था. खाना तक अपने हाथों से बनाना पड़ता था. अभी तक कुछ-कुछ कसर बाकी है. सबको खांसी आ रही है. "
बी.ए. की परीक्षा की तैय्यारियां जोरों पर थीं. सफलता का पक्का विश्वास था. अप्रैल 1919 ई० में परीक्षा देनी थी. तीन-चार महीने पहले से कहानी-लेख आदि लिखना बंद कर दिया. 7 फरवरी 1919 को निगम को लिखा -" मैं अप्रैल में इलाहबाद से लौटते हुए कानपूर आने की कोशिश करूँगा और गर्मियों में तो बइत्मीनान मुलाकत होगी."फिर 19 मार्च को अपने इलाहबाद जाने की सूचना दी- "मैं 1 को इलाहबाद जा रहा हूँ. मेरा पता यह होगा- बाबू कृपा शंकर वकील, कटरा, इलाहबाद".
किंतु इलाहबाद से कानपूर जाने का अवकाश न मिल सका-" मुझे यहाँ से 16 की शाम को फुरसत मिलेगी और 17 को मुझे गोरखपूर पहोंचना लाज़मी है." इलाहबाद जाते समय परिवार को भी साथ ले गये और वहीं बच्चों को उनके ननिहाल में छोड़ दिया. 18 अप्रैल को गोरखपूर पहुंचे तो घर में अकेले थे. 19 को निगम को पत्र में लिखा-" कल गोरखपूर पहोंच गया...मेरे लड़के-बाले तो आजकल नाना साहब के यहाँ हैं. " दो-एक दिन गोरखपूर में रह कर वे स्वयं भी बच्चों के नाना के यहाँ चले गये और वहां एक दिन से अधिक नहीं रुके और 24 अप्रैल को उन्होंने अपने लौट आने की सूचना दी. किन्तु परिवार अभी भी इलाहबाद ही में था.
पहली मई से स्कूल दो महीने के लिए बंद हो गया. 3 मई को प्रेमचंद लाला तेज नरायन लाल की शादी में रामपूर (आजमगढ़ ) चले गये. वहां से 15 मई को निगम को सूचित किया - "18 को यहाँ से चलने का क़स्द है. इस दरमियान में मुझ पर कई सानहे गुज़रे. मेरी हमशीरा ( बहन ) साहिबा का 4 मई को इंतकाल हो गया. मेरे एक नौजवान साले का 5 मई को. इसलिए मिर्जापूर में दो-चार दिन रहकर इलाहबाद होता हुआ आख़िर मई तक कानपूर पहोंचूँगा. "
30 जून 1919 ई० को पूरे दो माह की छुट्टी इधर-उधर में समाप्त करके प्रेमचंद गोरखपुर पहुंचे. उसी दिन कहकशां के सम्पादक इम्तियाज़ अली ताज को चिठ्ठी लिखी - "आज दो माह के बाद यहाँ आया हूँ. ---दो महीने तो इधर-उधर आवारा फिरता रहा. दो महीने इम्तिहान की नज्र हुए . मगर म्हणत ठिकाने लगी." अन्तिम वाक्य बी. ए. की सफलता को रेखांकित करता है.
जुलाई के तीसरे सप्ताह में पत्नी और बच्चे भी इलाहाबाद से आ गये. परिवार में एक की गिनती और जुड़ने वाली थी. 5 नवंबर को प्रेमचंद ने निगम को लिखा-" नौ आमद के इंतज़ार में तीन औरतें यहाँ मुकीम हैं और वह हजरत हैं कि आने का नाम ही नहीं लेते." जैसे पहले से पता हो कि इस बार भी बेटा ही होगा. हुआ भी ऐसा ही; और प्रेमचंद ने उसका नाम मुन्नू रखा. किन्तु यह मुन्नू अधिक दिनों तक साथ रहने के लिए नहीं आया था. अभी एक वर्ष भी पूरा नहीं हो पाया था कि 5 जुलाई 1920 ई० को प्रेमचंद ने इसके निधन कि दुखद सूचना दी- "आज रात को मुझपर एक सानिहा गुज़रा. गरीब मुन्नू मेरा छोटा बच्चा इलाहाबाद से आकर चेचक में मुब्तिला हो गया था. उसने नौ दिनों तक गरीब घुला-घुला कर आख़िर जान ही लेकर छोड़ा. और फिर २३ दिन बाद ताज को लिखा-"अभी तक इस गम से निजात नहीं हुई. सब तो हो गया मगर याद बाक़ी है और शायद ताज़ीस्त रहेगी." संतोष यह सोंचकर किया जा सकता है कि मुन्नू का निधन, प्रेमचंद के रामपुर, हरद्वार, कनखल, ऋषिकेश, देहरादून, दिल्ली और आगरा घूम-घामकर लौटने के बाद हुआ. अन्यथा यदि उनकी अनुपस्थिति में यही घटना घटती, तो उनका दुःख इससे भी कहीं अधिक गहरा होता.
विचारणीय यह है कि इन दिनों प्रेमचंद का स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं था. दहरादून से 6 जून 1920 ई० को प्रेमचंद ने ताज को लिखा था- 'मेरी तबीअत दौराने-सफर में ज्यादा मुज्महिल हो गई है. आया था के हरिद्वार कि आबो-हवा से कुछ फायदा होगा. लेकिन नतीजा उसका उल्टा हुआ. पेचिश ने जिस से मेरी पुरानी दोस्ती है, बहोत दिक कर रखा है.'
स्वास्थ्य की खराबी और बच्चे की मृत्यु ने प्रेमचंद को पूरी तरह तोड़ दिया. 12 अगस्त 1920 ई० को निगम को सूचना दी- ‘अभी तक मेरी सेहत इस काबिल नहीं हुई के कुछ लिटरेरी काम कर सकूँ. ...क्या ईश्वर के साथ अहबाब भी मुझ से रूठ जायेंगे ?' यद्यपि घर में इन दिनों काफ़ी चहल-पहल थी. मामा जी और महताब राय का परिवार वहीं आ गया था. किंतु-' सेहत और 'सोजे-पिन्हाँ' (बेटे की मृत्यु से हुई आतंरिक पीड़ा) ने ऐसा मजबूर कर रखा है के कुछ काम करने में मन नहीं लगता. सेहत कुछ करने ही नहीं देती.' और यह 'सेहत' पूरे वर्ष छेड़-छड़ करती रही. इसी हालत में एम्.ए. करने का स्वप्न भी देखा जाने लगा. किंतु परिस्थितियाँ कभी ऐसी नहीं बन पायीं कि यह स्वप्न साकार हो सके. बस एक पछतावा साथ लगा रहा. 26 अगस्त 1920 ई० को ताज को लिखा- 'काश मैं ने अवायले उम्र में एम्.ए. कर लिया होता तो यह कस्म्पुर्सी की हालत न होती.'
इसी ज़माने में ताज ने प्रेमचंद की सूरत-शक्ल जानने कि इच्छा व्यक्त की. कुछ धुंधली लकीरें अपनी कल्पना से बनायी थीं और एक पेंटर से तैल-चित्र तैयार कराया था. प्रेमचंद चित्र देख कर मुग्ध हो गए. उन्होंने ताज को लिखा- 'शकलो-शबाहत के मुतअल्लिक आपने जो कयास किया है उस से रूहानी तअल्लुक का गुमान और भी पुख्ता हो जाता है. मैं बंद कालर का कोट और सीधा पाजामा पहनता हूँ. और पगड़ी बाँधता हूँ.' और फिर एक दूसरी चिट्ठी में- 'जी हाँ नवाब राय मैं ही था. ...बाबू दया नरायन के मशविरे से यह नाम (प्रेमचंद) तजवीज़ कर लिया'.
14 फरवरी 1921 ई० को प्रेमचंद ने नोकरी से इस्तीफा दे दिया. 15 को इस्तीफा मंज़ूर होने कि सूचना निगम को इन शब्दों में दी- 'मैं कल सरकारी मुलाज्मत से सुबुक्दोश हो गया. आज इस्तीफा भी मंज़ूर हो गया. यहाँ से एक हफ्तेवार उर्दू अखबार निकालने का क़स्द है. प्रेस कि भी तलाश है. ...क्या कानपूर में कोई लीथो मशीन मिल सकेगी ?' फिर कुछ दिनों बाद 23 फरवरी को निगम के साथ मिलकर प्रेस चलाने कि इच्छा व्यक्त की - 'अब मैं आजाद हो गया. अब बतलाइए क्या करूं ? ...कपड़े बुनने के लिए तैयार नहीं. काश्तकारी मेरे किए हो नहीं सकती. क्या आपका इरादा अब भी प्रेस की तरफ़ है ? मैं चार-पाँच हज़ार का सरमाया और अपना सारा वक़्त आपकी नज़र करने को तैयार हूँ बशर्ते के आप भी मेरे मुआविन और शरीक हों. बावजूद नॉन-काप्रेशन करने के अभी तक मैं दौलत की तरफ़ से मुस्तगनी (तृप्त/संतुष्ट) नहीं हूँ. और मैं जाती तौर पर हो भी जाऊं, लेकिन मेरी बीवी को यकीन हो जाय के अब इसी तरह उसकी ज़िंदगी बसर होगी तो वो मुझे हरगिज़ मुआफ न करेगी.'
यह चिट्ठी महावीर प्रसाद पोद्दार के गाँव से लिखी गई थी. प्रेमचंद वहाँ आठ कर्घों की सहायता से कपड़े का कारखाना चला रहे थे. एक मैनेजर भी पच्चीस रूपये माहवार पर रख लिया था. ज़ाहिर है कि इस कार्य में विशेष अर्थ-लाभ की संभावना नहीं थी. कुछ भी हो शिवरानी देवी जैसी देश-भक्त और समाज-सेवी महिला के लिए प्रेमचंद ने जिस शब्दावली का प्रयोग किया है उसकी सार्थकता पर्याप्त संदिग्ध है.
मार्च के पहले सप्ताह में प्रेमचंद पर बुखार का हमला हुआ. 19 मार्च को वे गोरखपूर से बनारस चले गए. वहाँ से उन्होंने होली के बाद कानपूर जाने की योजना बनायी- 'मैं यहाँ 19 तारीख को आ गया और घर पर मुकीम हूँ. होली के दो-एक दिन बाद कानपूर आने का क़स्द करता हूँ.' किंतु कानपूर जाना न हुआ. ५ अप्रैल को नगम को पत्र लिखा- 'मैं नादिम हूँ कि अबतक कानपूर नहीं आ सका. दो-एक दिन में ज़रूर आ जाऊंगा.' और फिर 14 मई की चिट्ठी में यही बात दुहरा दी-'मेरा आना आप मुक़द्दम (निश्चित ) समझें.' 27 मई के पत्र में यह दिलासा भी टूट गया- 'अभी कानपूर न आ सकूँगा. ' किंतु बाईस-तेईस दिनों बाद 19जून 1921 ई० के पत्र में लिखते हैं - 'कल सब तैय्यारियां कर चुका था. इक्का तक मंगा लिया था, लेकिन शाम को छोटक नाना साहब का ख़त लाए कि मैं सोमवार को तुमसे मिलने आ रहा हूँ. इसलिए तौंअन-व-कर्हन (विवशतावश) रुकना पड़ा. ..पहले इरादा था कि अयाल को इलाहबाद छोड़ दूँ और कानपूर में मकान तय करके लिवा लाऊं. अब आप फरमाते हैं कि मकान भी रोक लिया है. यह मुश्किल भी आसान हो गई. अब मय अयाल के कानपूर आऊंगा....हाँ अगर आते ही आते मकान न मिला तो फिर मुझे आपके घर को खानए-बेतकल्लुफ बनाना पड़ेगा. दो-एक दिन मस्तूरात (भद्र महिलाओं) को भी एक दह्कानी (देहाती) औरत की मेहमान-नवाजी करनी पड़ेगी.' अंततः 23 जून 1921 ई० को वे कानपूर पहुँच गए जहाँ अक्तूबर में बन्नू का जन्म हुआ.
सोलह वर्ष पहले के और आजके कानपूर में बड़ा अन्तर था. अन्तर इसलिए भी था कि उस समय धनपत राय एक साधारण से मुदर्रिस थे, नए-नए लेखक थे, प्रतिष्ठा और सम्मान मित्र-मंडली तक सीमित था, भीतर दबा हुआ लेखक केवल उर्दू की चौहद्दियों में गुम था. युवावस्था की चुहल, हँसी-मजाक, शीशों के टकराने का खुमार भरा संगीत, चह्चहे, क़हक़हे , क्या नहीं था उस पुराने कानपुर में. किंतु उस समय का धनपत अब एक जाना-माना लेखक था, मारवाडी विद्यालय का हेडमास्टर था, अवस्था भी चालीस के ऊपर हो चुकी थी और फिर नाथ और पगहा भी साथ था.
1921 के समाप्त होते-होते जहाँ प्रेमचंद साहित्य के सोपानों की ऊँचाइयाँ तय करने में व्यस्त थे , वहीं एक दिन अपने ही मकान के जीने से फिसलकर नीचे आ गए. 28 दिसम्बर को निगम को इस घटना की सूचना इन शब्दों में दी-"जिस दिन आपके यहाँ से आया, उसी दिन रात को जीने से नीचे गिर पड़ा. दोनों अंगूठों में सख्त चोट आई और एक घुटनी भी फूट गयी. कमर में भी चोट लगी. इस वजह से घर में मुकैयद हूँ."और फिर उसी हेड मास्टरी से, जिसके लिए प्रेमचंद ने 24 अप्रैल 1919 ई० के पत्र में निगम को लिखा था-" मैं अगर इम्तिहान में पास हो गया तो किसी एडेड स्कूल में 125 रुपये का हेडमास्टर हो जाऊंगा." 22 फरवरी 1922 ई० को इस्तीफा दे दिया और बनारस चले गए. हाँ निगम को सूचित करना नहीं भूले-" मैंने आज इस्तीफा दे दिया. बहोत तंग आ गया था." गोया किसी करवट भी चैन मयस्सर नहीं.
बनारस आने के तीन महीने बाद लमही के आबाई मकान को नए सिरे से बनवाने का चक्कर शुरू हो गया. 31 मई 1922 ई० की चिट्ठी में निगम को सूचित किया- "मेरा मकान बन रहा है." फिर 19 जून को लिखा- "घर की तामीर में ऐसा मसरूफ हूँ कि कोई किस्सा लिखने का मौक़ा न पा सका." आठ दिन बाद 28 जून को लिखते हैं-" अभी तक तकरीबन दो हज़ार सर्फ़ हो चुके हैं." इसी चिट्ठी में यह भी लिखा-"नाना, वाना से मुतलक उम्मीद नहीं. बड़े शातिर निकले." फिर 7 जुलाई को सूचना दी-"मकान तैयार हो जाता है तो घर ही रहूँगा और लौट जाया करूंगा. अब परदेश का क़स्द नहीं."
सितम्बर 1922 ई० में लखनऊ जाने की बात आई तो निगम को 9 सितम्बर की चिट्ठी में लिखा-"कोशिश करूंगा कि 12 को लखनऊ जाऊं. . यकीनन आऊँगा. लेकिन ठहरने का ठिकाना कहाँ होगा? सब पहले से तय कर दीजियेगा. " फिर पहली अक्टूबर को एक नया पचड़ा शुरू हो गया- "नाना साहब तशरीफ़ लाये हैं. उनके खानदान में खानगी जंग शुरू हो गयी. भाई-बंदों से उनकी तनहा खोरी न बर्दाश्त हो सकी. अब बटवारे का मसला दरपेश है. मेरे मकान में हुल्लड़ हो रहा है."
मकान अभी पूरी तरह नहीं बन पाया था. यद्यपि 17 फरवरी 1923 ई० को प्रेमचंद ने लिखा था-"मेरा मकान तैयार हो गया. होली से उसे आबाद भी कर दिया जायेगा." किंतु छे महीने बाद 18 जुलाई के पत्र से इसकी पुष्टि नहीं होती. लिखते हैं-"मेरा मकान भी तो अभी पूरा नहीं हुआ. सिर्फ़ गुज़र करने के काबिल हो गया है. अभी एक हज़ार और लगें तो मुकम्मल हो. लगभग दस महीने बाद दस मई 1924 ई० को मकान से सम्बद्ध सूचना देते हुए पहली बार संतोष की झलक दिखाई देती है. " मकान अब एक करीने का बन गया. अब इसकी हैसियत मकान की हो गयी." पर अभी भी शायद इच्छानुरूप निर्माण कार्य समाप्त नहीं हुआ है. जभी तो 8 जुलाई 1924 ई० को लिखते हैं-" इधर मकान की तक्मील हो रही है. गालिबन अगस्त के आखीर तक मुकम्मल हो जायेगा."
8 मार्च 1924 ई० को बन्नू की बहन का जन्म हुआ था और प्रेमचंद की संतान में अब दो लड़के और दो लड़कियां हो गए थे. किंतु कुल तीन महीने ही बीतने पाये थे कि बच्ची ईश्वर को प्यारी हो गयी. एक बच्चे की मृत्यु के सदमे का गहरा निशान अभी पूरी तरह साफ नहीं हुआ था कि अचानक उसी निशान को गहराती एक चोट और लग गयी. इस चोट में यद्यपि पहली सी तड़प नहीं थी, पर आहिस्ता-आहिस्ता दम तोड़ती ज़िंदगी की तस्वीर रह-रहकर आंखों के सामने घूम जाती थी और अनायास ही बेचैन कर देती थी.
3 जून 1924 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को सूचित किया था- 'मेरी छोटी लड़की जो 8 मार्च को पैदा हुई थी 28 की शाम से दस्त और बुखार में मुब्ताला है. मैं समझता था कि खारजी शिकायत है, रफा हो जायेगी, मगर शिकायत बढ़ती गई. यहाँ तक कि तीन तारीख को उसकी हालत इतनी अब्तर हो गई कि घर में लोगों ने रोना-पीटना भी शुरू कर दिया. मगर सुबह को उसको जरा सा इफाका हुआ. तब से अबतक न वह मुर्दा है न जिंदा. आँखें बंद किए पडी रहती है. होमोयोपैथिक की दवाएं दे रहा हूँ. मगर अभी तक कोई दवा कारगर नहीं हुई.'
बेचैनी की यह स्थिति एक करुण दुखांत में तब्दील होकर 7 जून को समाप्त हो गई. चार दिनों की खामोशी के बाद प्रेमचंद की आँखों से आंसुओं की जो धार निकली वह अक्षरों में ढलकर निगम को लिखी गई चिट्ठी में पेवस्त हो गई- 'यहाँ तो 7 को लड़की रुखसत हो गई, उसकी जाँकनी (प्राण निकलने) की तस्वीर अभी तक आंखों में फिर रही है.'
समय की गति को किसी की अनुमति की अपेक्षा नहीं होती. 1924 ई० का पूरा साल घरेलू परीशानियों और उलझनों में गुज़र गया. बच्ची के निधन के बाद पत्नी की बीमारी, संग्रहणी की शिकायत, धन्नू का बुखार. प्रेस की स्थिति को देख कर भाई साहब अर्थात बलदेव लाल द्वारा अपनी रक़म के लिए किए जाने वाले बार-बार के तकाजे. समस्याएँ तो बहरहाल समस्याएँ हैं, प्रेमचंद इसी प्रकार की उधेड़-बुन में पड़े रहे और अपने ढंग से स्थितियों से लड़ते रहे.
1925 ई० की गर्मियों में सोलन चलने की बात निकली. यद्यपि इससे पहले मुंशी जी कनखल, देहरादून आदि अकेले गए थे, किंतु अब परिवार को घर पर छोड़कर पहाडों की सैर करना कुछ अच्छा नहीं लगा. और कुनबे भर को साथ लेकर घर से निकलना मुश्किल था. फलस्वरूप इस प्रसंग में उन्होंने दूसरी तमाम बातें लिखने के बाद यह टुकडा और जोड़ दिया- "यहीं पड़ा रहूँगा. खस का एक परदा और दो-तीन पैसे का रोजाना बर्फ, मौसम की तकलीफ के लिए काफ़ी है. "
अगस्त 1925 ई0 के प्रथम सप्ताह में बनारस जाने की योजना बनाई. शायद महताब राय से प्रेस के मामले को लेकर आमने-सामने बात-चीत करने की ज़रूरत थी. निगम को 8 जुलाई को लखनऊ से सूचित किया -"अगस्त के आगाज़ में यहाँ से बनारस जाने का इरादा है. " किंतु प्रथम सप्ताह निकल गया और वे बनारस न जा सके. 5 अगस्त को उन्होंने निगम को लिखा- "मैं यहाँ से 4 को बनारस जाने वाला था लेकिन कई वुजूह से इरादा मुल्तवी कर देना पड़ा. पाँच दिन बाद 10 अगस्त को महताब राय को चिट्ठी लिखी - "मैंने यहाँ से चलने की इन्तजारी में धोबी को कपड़े देना बंद कर दिये, आटा बाज़ार से मंगाता हूँ कि ज़्यादा पिस जायेगा तो क्या होगा. कई दिन से चारपाई पर हूँ . पैर में फोड़ा निकल आया है. कल नश्तर दिलाया है. उठ-बैठ नहीं सकता." और फिर दो दिन बाद 12 अगस्त को निगम को लिखा- "5 तारीख से पैर में कचक पड़ गयी. चार दिन सख्त दर्द, जलन और टीस थी. पांचवें दिन डाक्टर से नश्तर लिया. दाहिने पाँव की आधी एडी का चमड़ा काट दिया गया. अब दो दिन से तकलीफ तो बहोत कम है लेकिन उठने-बैठने का काम करने से माजूर हूँ. "फिर 22 अगस्त 1925 ई० को सूचित किया- "अब ज़ख्म पुर हो गया, मगर अभी तक चलने-फिरने से माजूर हूँ." और आठ दिन बाद- "मैं तो अब लंगडा-लंगडा कर चल रहा हूँ."
पहली सितम्बर को प्रेमचंद लखनऊ से बनारस चले गए. महताब राय को प्रेस से हटाकर उसे अपने अधिकार में लेना ज़रूरी था. 10 अगस्त 1925 ई० के पत्र में महताब राय को सूचित भी कर चुके थे- "मैंने कई सूरतें लिखीं, तुमने एक भी पसंद न कीं. आखिरी सूरत मैंने यह लिखी कि ठेके का इंतजाम करो, या तुम ठेका लो या मैं. रूपया सैकडा माहवार सूद, चार रूपया सैकडा सालाना घिसाई. अगर तुम ठेका लोगे तो मैं लखनऊ से अपना सिलसिला न तोडूंगा. तुम न ठेका लोगे तो ख़ुद आकर काम करूंगा." आश्चर्य है कि छात्र जीवन में हिसाब में हमेशा कमज़ोर रहने वाला धनपत घर-बाहर हर जगह हिसाबी चमत्कार दिखाने में इतना पक्का किस प्रकार हो गया. महताब राय इन भूल-भुलैयों में पड़ने पर आमादा न थे. फलस्वरूप प्रेमचंद लखनऊ से बनारस आ गए. और फिर तीन महीने बाद निगम को ३१ मार्च १९२६ ई० के पत्र में लिखा- "प्रेस की हालत ख़राब थी. अब कुछ रू-ब-इस्लाह है . अभी तक शहर में मुकीम होने की सूरत नहीं निकली." पर मार्च के मध्य में महताब राय को जब चिट्ठी लिखी तो प्रेस की कुछ और ही तस्वीर पेश की- "प्रेस का हाल यह है कि सितम्बर से जनवरी तक तो बेकारी रही. मजदूरी पास से देनी पड़ी. करीबन तीन सौ रूपये मजदूरी में सर्फ़ हो गए." महताब राय ने अपनी आर्थिक स्थिति की चर्चा करते हुए कुछ रूपये मांग लिए थे. इसलिए यह उत्तर मिलना तो स्वाभाविक ही था.
निगम प्रेमचंद को बराबर कानपूर आने का निमंत्रण देते रहते थे. 17 जुलाई 1926 ई० को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा- " आप बराबर मुझे बुलाते हैं एक हफ्ते बनारस की हवा खाइए. मैं बहोत जल्द आऊँगा. मौक़ा लगा तो हफ्ते-अश्रे में आप मुझे कानपुर में देखेंगे." किंतु कानपूर जाना न हुआ. २७ जनवरी १९२७ ई० को प्रेमचंद ने लिखा - "आपसे बरसों से मुलाक़ात की नौबत नहीं आई. इत्तेफाकाते-ज़माना और क्या. "पर ज़माने का यह इत्तेफाक अर्थात समय का यह संयोग बहोत अधिक दिन नहीं चला.
15 फरवरी 1927 ई० को प्रेमचंद लखनऊ पहुँच गए और वह भी माधुरी के सम्पादक की हैसियत से. निगम उन दिनों पटना गए हुए थे. 21 फरवरी को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा- "मैं 15 को यहाँ आ गया. आप पटना कब जायेंगे. अगर पटना गए हुए हैं तो वहां से कब लौटेंगे. आप आ जाएं तो एक रोज़ के लिए आऊँ मुलाक़ात का जी चाहता है. "और फिर एक दिन प्रेमचंद कानपूर आ धमके. लखनऊ वापस आने पर 14 मार्च 1927 को चिट्ठी लिखी- "अपनी ऐनक भूल आया.बवापसी डाक भेजिए. अँधा हो रहा हूँ.16 को बनारस चला जाऊंगा. इसलिए का ही भेज दीजियेगा. "बनारस से लौटे तो बच्चे साथ न आ सके. 25 अप्रैल को निगम को लखनऊ से सूचित किया- " बच्चे गालिबन 15 म ई तक आयेंगे."
लड़की सयानी हो चुकी थी. और बातों के साथ अब उसके विवाह की चिंता भी ज़रूरी थी. 1927 का वर्ष समाप्त हो गया. 12 जनवरी 1928 ई० के पत्र में निगम को लिखा-"आप 17 को आ रहे हैं. इंतज़ार कर रहा हूँ.....एक अम्रे-ख़ास के मुतअल्लिक आपसे बहोत सी बातें करना हैं. इस साल अगर कोई लड़का ठीक हो जाए तो अगले साल शादी कर दूँ." संयोग ऐसा बना कि लड़का तलाश करने में अधिक भाग-दौड़ नहीं करनी पडी. वैसे तो प्रेमचंद ने कई एक लड़के देखे और ना पसंद कर दिए. किन्तु अंत में एक लड़का जंच गया और मुआमला बन गया.
बेटी का विवाह निश्चित हो जाने से अधिक प्रसन्नता का विषय किसी पिता के लिए और क्या हो सकता है. प्रेमचंद ने 21 फरवरी 1929 ई० को निगम को सूचित किया-" आपको यह सुनकर मसर्रत होगी कि बेटी की शादी जिला सागर के एक मुत्मव्विल (संपन्न) खानदान में तय हो गई है. वह लोग यहाँ आए थे और कल वापस गए हैं. दो-चार रोज़ में मैं बरच्छे की रस्म अदा करने जाऊंगा. लड़का बी. ए. में पढता है. जायदाद माकूल है." किंतु लगता है कि बात पक्की होने में अभी कुछ कसर बाकी रह गयी थी. जभी तो पुरानी सूचना भूलकर 16 अप्रैल 1929 ई० के पत्र में निगम को नए सिरे से सूचित करते हैं- " आप सुनकर बहोत खुश होंगे कि बेटी की शादी तय हो गयी. लड़के की बहेन यहाँ अपने शौहर के साथ आई थी और देख-भाल कर खुश चली गयी. अब मुझे तिलक भेजना है. शादी छठ में होगी. ..आपसे यही गुजारिश है कि इस वक्त आप ज़्यादा से ज़्यादा मेरी जितनी इमदाद कर सकते हों कर दें." निगम ने किसी प्रकार की आर्थिक सहायता की या नहीं, बहरहाल प्रेमचंद के लिए एक बड़े दायित्व के भार से मुक्त होने की प्रसन्नता कुछ कम नहीं थी.
प्रेमचंद इन दिनों हिबेट रोड पर रहते थे. अगस्त 1929 ई० तक वे वहीं रहे. फिर दो सितम्बर को उन्होंने निगम को मकान बदलने की सूचना दी- "अब मैं अमीनुद्दौला पार्क में रहता हूँ. “इसी चिट्ठी में घरेलू परिशानियों की चर्चा करते हुए लिखा- "घर में तीन मरीज़ हो गए. धन्नू की वाल्दा के दांतों में दर्द, और बुखार, बेटी की उंगली में फुंसी, जो बिसह्री कहलाती है और निहायत दर्द पैदा करने वाली होती है, और धन्नू की मामी को बुखार और पेचिश. कल बेटी की उंगली चिरवा दी. अब दर्द कम है. धन्नू की माँ के दांतों का दर्द अभी बदस्तूर है. हाँ, बुखार बंद हुआ. अब दांत निकलवा देने की सलाह है. धन्नू की मामीं का बुखार भी साबिक बदस्तूर है."
इस बीच कमला का विवाह हो चुका था. प्रेमचंद ने मई के पहले सप्ताह में दो महीने की छुट्टी ली थी और विवाह की तैयारियों में जुट गए थे. विवाह की बात-चीत से लेकर बात पक्की होने तक मुंशी भवानी प्रसाद के बेटे वासुदेव प्रसाद के सिलसिले में प्रेमचंद और दशरथ लाल के बीच चिट्ठियां दौड़ती रहीं.अमृत राय ने एकाध चिट्ठी के कुछ अंश कलम का सिपाही (पृ0 434-35) में उद्धृत भी किए हैं. किंतु इस प्रसंग की कोई भी चिट्ठी अमृत राय द्वारा किए गए संकलन में उपलब्ध नहीं है. खैर! बेटी का विवाह हुआ, खूब धूम-धाम से हुआ. लमही में बरात आई और एक बड़ी जिम्मेदारी प्रेमचंद के सिर से उतर गयी.
फरवरी 1930 ई० में तीन-चार दिनों के लिए समधिन साहिबा अपने दामाद के साथ प्रेमचंद के घर आयीं. (चि० प० 1, पृ0 176-77) और संबंधों में मधुरता बढ़ती गयी. 12 जुलाई को प्रेमचंद ने दामाद के बी० ए० करने की सूचना निगम को देते हुए आगे पढाई जारी रखने की चर्चा की- "मेरे सनइनला इस साल बी० ए० पास हुए हैं. वह कानून और एम० ए० दोनों एक साथ लेना चाहते हैं ताकि दो साल में निकल जाएं. क्या ऐसा कानपूर में मुमकिन है ?" यह चिट्ठी अमीनुद्दौला पार्क वाले मकान से लिखी गयी थी. यह इलाका लखनऊ की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था और इस दृष्टि से यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं था. फिर प्रेमचंद की पत्नी सक्रिय रूप से महिलाओं के साथ मिलकर राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग ले रही थीं. प्रेमचंद स्थिति को भांप सकते थे. फलस्वरूप उन्होंने मकान बदल दिया. रात-दिन के जुलूस, पुलिस की कड़ी निगरानी, नयी-नयी योजनायें, नए-नए ब्रिटिश हथकंडे, कौन देखता यह सब कुछ ठीक आंखों की सीध में होते. जनता से सहानुभूति के लिए कलम से जो कुछ लिख रहे थे, वह किसी कुर्बानी से कम तो था नहीं. जोखिम तो उसमें भी अच्छा-खासा था. बस ज़रा हाथ-पैर बचा कर चलने की आदत थी.
मुहल्ला गनेशगंज पर्याप्त शांतिपूर्ण जगह थी. प्रेमचंद इसी मुहल्ले में 20 नंबर के मकान में किराए पर आ गए और निगम को 25 जुलाई 1930 ई0 के पत्र में इसकी सूचना देना नहीं भूले-"मैं आजकल गनेशगंज नंबर २० में रहता हूँ." किंतु जिस बात का डर था वह होकर रही. शिवरानी देवी पिकेटिंग के जुर्म में 10 नवम्बर को गिरफ्तार हो गयीं. प्रेमचंद ने 12 को निगम को इस गिरफ्तारी की सूचना दी- "मैं चार-पाँच रोज़ के लिए बाहर गया हुआ था. उस वक्त घर पर मौजूद न था. वहां से आकर यह वाकया सुना. दूसरे दिन उनसे जेल में मुलाक़ात हुई. सज़ा तो हो ही जायेगी, मगर देखिये कितने महीनों की होती है." और यह सज़ा पूरे दो महीनों की हुई.
1931 ई० में पैरों में रथ के पहिये लग गए. अप्रैल के दूसरे सप्ताह में लाहौर गए. विचार था की वापसी में दिल्ली में रुकेंगे. जैनेन्द्र को इस विषय में चिट्ठी भी लिख दी थी. किंतु दिल्ली रुकना न हुआ. 13 अप्रैल को जैनेन्द्र को लिखा- "मैं लाहौर गया, पर आप दिल्ली न थे इसलिए मैं सीधा लौट आया. " मई की 12 तारीख को लखनऊ से बनारस पहुंचे. पहली जून को महताब राय को चिट्ठी में घरेलू दुखडा सुनाने बैठ गए- "धन्नू और बन्नू, बेटी के साथ पन्द्रह को सागर के लिए रवाना हुए. 16 को इलाहाबाद पहुंचकर बन्नू को पेचिश हो गयी. मुझे तार मिला. 19 को हम और बन्नू की वाल्दा यहाँ से इलाहाबाद गए. बन्नू की हालत ख़राब थी. खून के दस्त आ रहे थे. 27 तक वहां रहना पड़ा. 27 को हम बन्नू के साथ घर लौट आए. धन्नू वासुदेव प्रसाद के साथ सागर गए. यहाँ आकर मैंने दो-तीन दिन प्रेस का हिसाब-किताब देखा. आज फिर जा रहा हूँ. 6 जून को यहाँ से (बनारस) इलाहबाद होते हुए सोराम जाने का इरादा है. 11 को मुझे लखनऊ पहुँचना है. "
मुश्किल से कुछ दिन चैन से बैठने पाये थे कि फिर दौड़-धूप का सिलसिला शुरू हो गया. 12 नवम्बर 1931 ई0 को निगम को लिखा- "मैं तो दिल्ली चला गया था. वहाँ दस-ग्यारह दिन लग गए. दीवाली को लौटा." फिर 25 नवम्बर को सदगुरु शरण अवस्थी को सूचना दी - "ज़रा पटना चला गया था. यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने एक उत्सव में बुलाया था. " गोया 1931 ई० का पूरा वर्ष इधर-उधर भागने-दौड़ने में निकल गया.
जनवरी 1932 ई० में प्रेमचंद को एक फोड़ा निकल आया. वह कुछ ठीक हो रहा था कि 9 जनवरी को उनके बड़े भाई बाबू बलदेव लाल चल बसे. 13 जनवरी की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को लिखा- " कई दिन तक एक फोड़े ने तकलीफ दी. अब वह अच्छा हो रहा है. 9 जनवरी को मेरे बड़े भाई साहब बाबू बलदेव लाल का कुलंज से इंतकाल हो गया. घर में दो बच्चे हैं, बेवा, भाई की बेवा और एक बेवा बहन. 19 को दसवां है. मैं 16 या 17 को जा रहा हूँ." प्रेमचंद दसवें में गए किंतु बिल्कुल उस ढंग से जैसे कोई दूर का संबंधी जाता है.
बनारस से लौटने के बाद फोडों ने शायद घर देख लिया. एक के बाद एक. और यह सिलसिला एक महीने तक चलता रहा. 25 फरवरी को निगम को चिट्ठी लिखी तो चिट्ठी इन्हीं परीशानियों की चर्चा से शुरू हुई-" इधर मैं भी शिकायत में मुब्तेला रहा. चार फोड़े लगातार निकले. इनसे नजात न होने पायी थी कि दांतों में दर्द हुआ. दांत से फुरसत मिली तो पेट में दर्द शुरू हुआ और तीन दिन के बाद अब मामूली खुराक पर आया हूँ. एक महीना ख़राब हो गया. " इसी चिट्ठी में- "मैं अप्रैल में बनारस चला जाऊंगा."
अप्रैल में निगम ने एक शादी का निमंत्रण भेजा. उत्तर में 10 अप्रैल को परेम्चंद ने लिखा-"मैं ज़रूर आऊँगा. मगर तनहा. बेटी को गये आज एक हफ्ता हो गया. अपनी मौसी के यहाँ इलाहबाद गयी है. उसकी मां और धन्नू कल वहीं जा रहे हैं.एक शादी है. मैं छोटे बच्चे के साथ यहाँ 4 मई तक रहूँगा. उसे भी लेता आऊँगा." और फिर 13 मई को निगम को सूचित किया- "मैं आज बनारस जा रहा हूँ." किंतु बनारस का अर्थ था लमही. कारण यह है की 17 जून तक वे शहर में मकान नहीं ले सके थे- "अभी तक तो देहात में हूँ मगर जल्द शहर में रहूँगा. मकान ठीक कर रहा हूँ." अगस्त में मकान ठीक हो गया. 15 अगस्त 1932 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- "अब मैं शहर में रह रहा हूँ. लड़के पढने जाते हैं. मैं भी प्रेस में घड़ी-आध घड़ी के लिए चला जाता हूँ."
22 अक्टूबर को इलाहाबाद गए तो पता चला कि निगम भी एक दिन पहले आए थे. 25 को उन्हें चिट्ठी लिखी- "परसों यहाँ आया और मालूम हुआ कि आप भी यहाँ आए थे. क्या कहूं मुलाक़ात नहीं हुई. बहोत सी बातें करनी थीं. यहाँ से बनारस आप तशरीफ़ ले जाते हैं मगर गरीबखाने की तरफ मुखातिब नहीं होते." ऊपर-ऊपर लौट जाने की कहानी जब एक बार फिर दुहराई गयी और उसी के साथ कानपूर आने का आग्रह भी किया गया तो 7 दिसम्बर 1932 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा- " उस दिन मैंने दो बजे तक हुज़ूर का इंतज़ार किया लेकिन समझ गया कि कहीं धर लिए गए. आप मुझे बुला रहे हैं. मैं यही सोच रहा हूँ कि बड़े दिन में आ जाऊं." किंतु जाने की बात आयी गयी हो गयी.
फरवरी 1933 ई० में जैनेन्द्र बनारस आए. जाते समय अपना तौलिया भूल गए. मार्च में तीन-चार दिनों के लिए इलाहबाद जाना हुआ वापसी पर ४ मई को जैनेन्द्र को चिट्ठी लिखी- "तीन-चार दिन इलाहबाद रहा और वहाँ तुम्हारी खूब चर्चा रही. तुम अपना तौलिया यहाँ छोड़ गए जिससे बन्दा देह पोंछता है."
मई में कमला के यहाँ बेटा हुआ और प्रेमचंद नाना बन गए. किंतु यह दिन बड़ी ही चिंताओं में बीते. 9 मई को जैनेन्द्र को चिट्ठी लिखी- " मैं सागर गया था. कल शाम को लौटा हूँ. बेटी के बालक हुआ. पर चौथे दिन उसे ज्वर आ गया और प्रसूत ज्वर के लक्षण मालूम हुए. यहाँ तार आया. मैं तो लौट आया, तुम्हारी भाभी अभी वहीं हैं." फिर २७ मई को -"धन्नू की अम्माँ अभी वहीं हैं. एक ख़त से मालूम होता है हालत अच्छी है, दूसरा पत्र आकर चिंता में डाल देता है. "
अभी बेटी ठीक भी नहीं होने पायी थी और परिवार के लोग सागर में ही थे कि प्रेमचंद स्वयं बीमार हो गए. 15 जून 1933 ई० को रामचंद्र टंडन को लिखा- " मेरी तबियत इस बीच ठीक नहीं रहती है और इस समय भी कुछ विशेष अच्छी नहीं है. एक तो जीर्ण रोग, तिसपर दांत का दर्द." किंतु जैनेन्द्र से यह परीशानियाँ कुछ और खुलकर बयान की गयीं- 17 जुलाई 1933 ई० के पत्र में - "मैं तो इधर बहुत परेशान रहा. बेटी----मरते-मरते बची. अभी तक अधमरी सी है. बच्चा (दिलीप) भी किसी तरह बच गया. आज बीस दिन हुए यहाँ आ गयी है. उसकी माँ भी दो महीने उसके साथ रही. मैं अकेला रह गया था. बीमार पड़ा. दांतों ने कष्ट दिया. महीनों उसमें लग गए. दस्त आए और अभी तक कुछ-न-कुछ शिकायत बाकी है. दांतों के दर्द से भी गला नहीं छूटा. " फिर 1 अगस्त को लिखा- " इधर मैं भी स्वस्थ नहीं हूँ, लेकिन काम किए जाता हूँ.
कमला कई महीने बनारस में ही रही. दिसम्बर में वासुदेव (दामाद) उसे लेने भी आए किंतु प्रेमचंद ने विदा नहीं किया. 9 जनवरी 1934 ई० को इस सूचना के साथ लड़कों के बारे में निगम को लिखा - "बड़े साहबजादे अबकी एफ़० ए० का इम्तेहान दे रहे हैं, लेकिन औसत दर्जे, में हैं. ज़हानत की कोई खास अलामत नज़र नहीं आती. छोटा ज़्यादा ज़हीन है मगर अभी आठवीं में है."

फरवरी के आरंभ में बम्बई जाना पड़ा. कुछ फिल्मीं मामले की बातें करनी थीं. जैनेन्द्र को 14 जनवरी को इसकी सूचना दी- " बारह दिन बम्बई में रहा. प्रेमी जी से मिला. उनके यहाँ भोजन किया. बेचारे बहुत बीमार थे." किंतु असल मामले को गोल कर गए.

अप्रैल के पहले सप्ताह में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में शिरकत के लिए दिल्ली गए. तीन-चार दिन वहां चहल-पहल रही. वापसी में अलीगढ में सय्यद अशफाक हुसैन के मेहमान रहे और खूब-खूब दावतें उडायीं. 16 अप्रैल को जैनेन्द्र को लिखा- " अलीगढ में दावतें खाने के सिवाय और कुछ न हुआ. उन लोगों ने जिस तरह मेरा स्वागत किया, उससे मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हुआ. ----मैंने पुलाव और गोश्त खाया उन्हीं के दस्तरखान पर और यहाँ आकर दो-तीन दिन चूरन खाना पड़ा. " यहाँ ‘उन्हीं के’ अर्थात मुसलमानों के दस्तरखान पर दावतें खाने की सूचना इस प्रकार दी गयी है जैसे यह कोई अजूबा कार्य था, पर यह प्रेमचंद का खुलापन था कि उन्होंने दावतों का जमकर आनंद लिया.
जून की पहली तारीख़ को बंबई पहुंचे. साल भर वहां रहना था. 15 जून को जैनेन्द्र को लिखा- "1 को आ गया. मकान ले लिया. खाना मैं होटल में खाता हूँ और पड़ा हूँ. जुलाई में घर के लोग धन्नू को छोड़कर आ जायेंगे. साल भर किसी तरह काटूँगा. आगे देखी जायेगी." और फिर 3 अगस्त को जैनेन्द्र को सूचित किया- " मैं 23 को बनारस गया था. 31 को वापस आया. बेटी और उसकी माँ को लेता आया. लड़कों को प्रयाग कायस्थ पाठशाला में भर्ती कर दिया." किंतु बंबई का जीवन कुछ पसंद नहीं आया. स्वयं प्रेमचंद से सुनिए - " सात बजे उठता हूँ. साढ़े आठ पर घूम कर आता हूँ. नाश्ता करता हूँ. नौ बजे अखबार पढ़ता हूँ. कभी घंटा भर कभी इससे ज़्यादा समय लग जाता है. कभी कोई मिलने आ जाता है. ग्यारह बज जाता है. नहा-खाकर स्टूडियो जाता हूँ. कुछ काम हुआ तो किया, नहीं उपन्यास पढ़ा. पाँच बजे लौटता हूँ. हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को उलटता-पलटता हूँ. चिट्ठी-पत्र लिखता हूँ, खाता हूँ और सो जाता हूँ. यही दिनचर्या है." इस मशीनीं ज़िंदगी से कौन तंग नहीं आ जायेगा. फलस्वरूप 28 नवम्बर 1934 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- " यह साल तो पूरा करना ही है. यहाँ से छुट्टी पाकर अपने पुराने अड्डे पर जा बैठूंगा. वहाँ धन नहीं है मगर संतोष अवश्य है. "

दिसम्बर में हिन्दी प्रचार सभा ने दीक्षांत भाषण देने के लिए मद्रास बुलाया. प्रेमचंद वहाँ गए और साथ ही साथ मैसूर, बैंगलौर की भी सैर की. 7 फरवरी 1935 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- " मद्रास गया था, वहाँ से मैसूर और बैंगलौर भी गया. -----मेरा जीवन यहाँ भी वैसा ही है जैसा काशी में था. न किसी से दोस्ती न किसी से मुलाक़ात. मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक. " किंतु अप्रैल आते-आते इस मस्जिद को भी खुदा हाफिज़ कहना पड़ा. 11 अप्रैल को निगम को सागर से चिट्ठी लिखी- मैंने 4 अप्रैल को बम्बई को खैरबाद कह दिया और सी० पी० के अज़ला की सैर करता हुआ 10 को सागर आ गया. यहाँ से निकलकर बनारस चला जाऊंगा और देवी जी को वहाँ पहुँचाकर 17 को इंदौर साहित्य सम्मेलन के जलसे में शरीक होने के लिए रवाना हो जाऊंगा." किंतु परिस्थितियां ऐसी बनीं कि इंदौर जाना न हो सका. 4 मई को प्रयाग से जैनेन्द्र को लिखा- "कुछ तो प्रेमी जी के न आने और कुछ नातेदारियों में जाकर मिलने-मिलाने के कारण सारा प्रोग्राम भ्रष्ट हो गया. अब धन्नू को चेचक निकल आई है और 27 से वे पड़े हुए हैं हम भी उसके साथ हैं. यात्रा करने के लायक हो जाए तो 7 को यहाँ से उसे लेकर चले जाएं." इसी पत्र में जैनेन्द्र को इलाहबाद में अपना सारा कारोबार स्थानांतरित करने के इरादे की सूचना दी- "मैंने इरादा किया है कि जून से हंस को और प्रेस को प्रयाग लाऊँ. काशी में न तो काम है और न साहित्य वालों का सहयोग. यहाँ जितने हैं वह सभी सम्राट हैं." इसी दिन निगम को भी अपने इस नए इरादों से अवगत किया- " मैंने फ़ैसला कर लिया है कि जुलाई से इलाहबाद में ही रहूँ और यहीं प्रेस और कारोबार उठा लाऊँ. " फिर 10 दिन बाद जैनेन्द्र को 14 मई को सूचित किया -"इधर धन्नू को चेचक निकली थी. उन्हें प्रयाग से यहाँ लाये. यहाँ बन्नू को भी निकल आई और छ: दिन से यह पड़ा हुआ है."
जैनेन्द्र को संभवत: प्रेमचंद का इलाहबाद जाने का इरादा कुछ उपयुक्त नहीं जंचा. पहले तो 7 मई 1935 ई० को पत्र में एक सुझाव दिया- " इलाहबाद में क्या आपने मकान आदि पक्का कर लिया है ? यदि दिल्ली की बात किसी तरह भी व्यवहार्य जान पड़े और सब बंदोबस्त शिफ्ट का न हुआ हो तो उसपर सोचियेगा. मैं आपका बहुत कुछ, लगभग सभी कुछ बोझ हल्का कर सकता हूँ. " फिर 15 मई को जैनेन्द्र ने दुबारा लिखा- " इलाहबाद जा रहे हैं, तो जाकर देखिये. मुझे तो वहाँ का ज़्यादा भरोसा नहीं होता." बहरहाल प्रेमचंद पक्का इरादा करने के बाद भी इलाहबाद शिफ्ट न कर सके. जुलाई के अन्तिम सप्ताह में शायद बनारसी दास चतुर्वेदी ने उन्हें तुलसी जयंती समारोह की अध्यक्षता करने के लिए निमंत्रित किया. प्रेमचंद ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उन्हें 2 अगस्त को लिखा- "जहाँ तक तुलसी जयंती की बात है, मैं इस काम के लिए सबसे कम योग्य व्यक्ति हूँ. एक ऐसे उत्सव की अध्यक्षता करना, जिसमें मैंने कभी कोई रूचि नहीं ली, हास्यास्पद बात है." किंतु बनारसीदास जी शायद इस तर्क से सहमत नहीं हुए. प्रेमचंद का न आना उन्हें खल गया. अब अपनी बात स्पष्ट शब्दों में लिखने के अतिरिक्त और चारा भी क्या था. उनका " तुलसी के सम्बन्ध में कही जाने वाली अतिमानवी बातों में विश्वास नहीं था." तुलसी ने "राम और हनुमान को देखा और वह बन्दर वाली घटना, सब खुराफात." प्रेमचंद ने बनारसीदास जी से पूछ ही लिया-" क्या तुल्सी भक्त लोग मेरी काफिरों जैसी बात पसंद करेंगे ?" चतुर्वेदी जी ने दिसम्बर 1935 ई० में नोगूची का व्याख्यान सुनने के लिए कलकत्ता आने का निमंत्रण दिया. प्रेमचंद यह निमंत्रण भी स्वीकार न कर सके. पहली दिसम्बर के पत्र में उन्हें लिखा- " काश कि मैं नोगूची के व्याख्यान सुन सकता, मगर मजबूर हूँ. -----लड़के इलाहबाद में हैं और मैं चला जाऊंगा तो मेरी पत्नी बेहद अकेला और बेबस महसूस करेंगी. " किंतु जैनेन्द्र को सीधी-सच्ची बात लिखने में संकोच नहीं हुआ- " यहाँ नोगूची हिन्दू यूनिवर्सिटी आए. उनका व्याख्यान भी हो गया, मगर मैं न जा सका. अक्ल की बातें सुनते और पढ़ते उम्र बीत गयी. ईश्वर पर विश्वास नहीं आता, कैसे श्रध्दा होती ?" जून 1935 ई० के अंत में एक-दो दिन के लिए लखनऊ जाना हुआ. वापस लौटकर बंबई जाना था. 30 जून को निगम को लिखा था-" अभी कल लखनऊ गया था. ---कल बंबई जा रहा हूँ. एक महीने में लौटूंगा. "इस प्रकार 1935 ई० का वर्ष भी इधर-उधर की भाग-दौड़, घरेलू परीशानियाँ, हंस की उलझनों का सिलसिला, आयोजनों में कहीं शिरकत, कहीं अनुपस्थिति और अन्य बातों के साथ युगीन समस्याओं पर सोचने-विचारने में गुज़र गया.
जनवरी 1936 ई० की 12, 13 और 14 तारीखों में हिन्दुस्तानी एकेडेमी का वार्षिक जलसा हुआ. प्रेमचंद ने भी शिरकत की. पर उर्दू और हिन्दी के बीच पनपने वाली पृथकतावादी भावना ने उनकी पीड़ा और गहरी कर दी. दस दिनों बाद फिर इलाहबाद जाना पड़ा. 26 जनवरी को आयोजित महिला-गल्प-लेखक सम्मेलन की सभानेत्री शिवरानी देवी थीं. पत्नी का उत्साह बढ़ाने के लिए जाना ज़रूरी था. इलाहबाद से 28 को लौटे. आगरे में नागरी प्रचारिणी सभा के वार्षिक अधिवेशन का सभापतित्व करना था. ३१ जनवरी को आगरे के लिए निकल पड़े. वहां उन्हें अभिनन्दन पत्र भी दिया गया. परिवार साथ था. वापसी में पत्नी को इलाहबाद छोड़ते हुए बनारस लौट आए. 22 फरवरी को पूर्णिया के लिए रवाना हुए. बिहार प्रांतीय हिन्दी सम्मेलन में उपस्थिति ज़रूरी थी. वहाँ से उसी दिन वापस लौटे. 8 मार्च को हिन्दुस्तानी सभा के जलसे के लिए दिल्ली पहुँचना था. जैनेन्द्र का विशेष आग्रह था.

4 अप्रैल 1936 ई० को वर्धा के साहित्यिक सम्मेलन में शिरकत का पक्का संकल्प बना लिया. 10 मार्च के पत्र में बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा- " 4 अप्रैल को वर्धा में एक अखिलभारतीय साहित्यिक सम्मेलन होने जा रहा है. ---मैं वहाँ पर मौजूद रहने की उम्मीद करता हूँ." फिर 31 मार्च को सूचित किया- " इस बार भारतीय साहित्य परिषद् (का अधिवेशन ) जो तीन और चार अप्रैल को वर्धा में होने वाला था, नागपुर सम्मेलन के लिए स्थगित कर दिया गया है. इसलिए मैं वहाँ जाऊंगा." पर इस से पहले प्रगतिशील लेखकसंघ की अध्यक्षता का सवाल उठ खड़ा हुआ. लाहौर में आर्य समाज की जुबली के अवसर पर आयोजित आर्य भाषा सम्मेलन की सदारत करने के लिए पहले से वचनबद्ध थे. फलस्वरूप 9-10अप्रैल को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ और उधर ही से 11को लाहौर में आर्य भाषा सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए निकल पड़े.
लाहौर से वापसी पर निगम को 15 अप्रैल को लिखा- " हाँ मुझे भी आपसे न मिलने का अफ़सोस रहा. भागा इसलिए कि मेरे पास एक रिटर्न टिकट था." आगरे से- " मंगल को नौ बजे रात तक बनारस पहुँचना ज़रूरी था. " किंतु अब शायद बहुत थक चुके थे. नतीजा सामने था. 5 अगस्त को लखनऊ से निगम को यह चिट्ठी लिखी- " आपको ताज्जुब होगा, मैं लखनऊ कैसे आ गया. बात यह है कि कोई डेढ़-दो महीने से मुझे वरमे-जिगर की शिकायत हो गयी है. दो बार मुंह से सेरों खून निकल गया है. बनारस में इलाज से कोई फायदा न देख कर 2 को यहाँ आ गया और डॉ. हरगोविंद सहाय के जेरे-इलाज हूँ. पाखाना, पेशाब, खून वगैरह की जांच हो चुकी है. मगर अभी कई दांत तोड़े जायेंगे तब डॉ. साहब मर्ज़ की तश्खीस करेंगे और इलाज शुरू होगा. घुलकर आधा रह गया हूँ. न कुछ खा सकता हूँ, न हजम होता है. एक बार मुश्किल से हार्लिक्स खा लेता हूँ. मास्टर कृपाशंकर साहब का मेहमान हूँ. मगर यह मकान बहुत मुख्तसर है और आज-कल में कोई दूसरा मकान ले लूंगा." किंतु मकान के छोटे-बड़े. होने से होता भी क्या है. लखनऊ से निराश लौटना पड़ा और फिर बनारस में दवा होने लगी. 16 सितम्बर 1936 ई० को वीरेश्वर सिंह को लिखा- " मैं तो अब बेहद कमज़ोर हो गया हूँ. उठ-बैठ नहीं सकता. लेकिन मर्ज़ घट रहा है. डाक्टर का कहना है कि 15 दिन में मर्ज़ बिल्कुल घट जायेगा. "
डाक्टर ने शायद ठीक ही कहा था. बस कुछ दिन जोड़ने की भूल हुई थी उससे. 8 अक्टूबर 1936 ई० को मर्ज़ सचमुच बिल्कुल घट गया और मरीज़ को पूर्ण शान्ति मिल गयी. हाँ इतना अवश्य हुआ कि मरीज़ के लहू से शिवरानी देवी का आँचल और पैरों के नीचे की धरती लाल हो गयी.