Thursday, July 24, 2008

मुंशी (प्रेमचंद) शब्द को लेकर भ्रांतियां / प्रो. शैलेश ज़ैदी

1951 में जब मैं छठीं कक्षा में था संस्कृत के पंडित जी ने एक कहानी सुनाई थी. कहने लगे 'एक गाँव ऐसा था जहाँ लोगों ने कभी हाथी नहीं देखा था. एक बार ऐसा हुआ कि रात में उस गाँव से एक हाथी गुज़र गया. सुबह होने पर गाँव वालों ने ज़मीन पर विचित्र प्रकार के निशान देखे. किसी की कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसा कौन सा जीव इस गाँव में आया था. गाँव में एक लाल बुझक्कड़ रहते थे. गाँव वाले सीधे उनके पास पहुंचे. 'अब आप ही हमारे मन को शांत कर सकते हैं. जाने कौन सी बला गाँव पर आने वाली है. धरती पर जगह-जगह विचित्र से निशान बने हैं. आप ही चलकर समस्या का समाधान कीजिए. लाल बुझक्कड़ पूरी तैयारी के साथ उस स्थल पर आए. निशान को चश्मा लगाकर बारीकी से देखा. और फिर लगभग झूम कर बोले "लाल बुझक्कड़ बूझ गए, और न बूझा कोय / पैर में चक्की बाँध के हिरन न कूदा होय.
लगभग यही स्थिति मुंशी प्रेमचंद के नाम में 'मुंशी' शब्द की हो गई है. मैंने abhivyakti-hindi.org पर डॉ. जगदीश व्योम का लेख 'प्रेमचंद मुंशी कैसे बने' जब पढ़ा तो बड़ी मुश्किलों से अपनी हँसी रोक पाया. रोचक बात यह है कि हिन्दी विकिपीडिया में भी ऐसी ही बात पढने को मिली. अनावश्यक रूप से विकिपीडिया में अमृत राय के नाम को भी घसीटा गया है. शोध की प्रवृत्ति तो हिन्दी में बहुत पहले से विलुप्त हो चुकी है. अटकलों के आधार पर तिल का पहाड़ बना देना भी अब हिन्दी लेखकों ने सीख लिया है. प्रेमचंद युगीन पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों को उठाकर देखिये. उस ज़माने में हिन्दी में गैर पंडित लेखकों के नाम के साथ हिन्दी में 'बाबू' तथा उर्दू में 'मुंशी' लिखने का आम रिवाज था. बाबू गुलाबराय और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे अनेक गैर पंडित लेखक इन्हीं नामों से जाने जाते हैं. बाबू मैथिली शरण गुप्त के नाम के साथ भी 'बाबू' शब्द चिपका हुआ है. ठीक इसी प्रकार उर्दू में मुंशी नवल किशोर, मुंशी दया नरायन निगम और मुंशी प्रेमचंद भी हैं.
अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है. प्रेमचंद की प्रारंभिक पुस्तकें उठाकर देखिए जिनमें उनका नाम नवाबराय और धनपत राय है. 8 अकतूबर 1903 के आवाज़ए-खल्क़ उर्दू अखबार में जब प्रेमचंद के प्रथम उपन्यास 'असरारे-म'आबिद की पहली किस्त छपी तो उसपर उनका नाम 'मुंशी धनपतराय साहब उर्फ़ नवाबराय इलाहाबादी छपा. प्रेमचंद उन दिनों इलाहबाद में ही रहते थे. अब प्रेमचंद के उपन्यास 'हमखुर्मा व् हमसवाब' पर दृष्टि डालिए. इसपर लेखक का नाम इस प्रकार दिया गया है "जनाब मुंशी नवाब राय साहब मुसन्निफ़ किशना वगैरा" इसी प्रकार इंडियन प्रेस इलाहबाद से 1907 में हिन्दी में छपने वाले उपन्यास 'प्रेमा' को भी देखिये. इसके प्रथम संस्करण पर लेखक का नाम 'बाबू नवाबराय बनारसी' छापा गया है. मैंने इन उपन्यासों के प्रथम पृष्ठ के फोटो चित्र अपनी पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन (1978) के परिशिष्ट भाग में छाप दिए थे, जिन्हें कोई भी देख सकता है.
आश्चर्य है कि डॉ.जगदीश व्योम केवल अटकलों और तुक्कों के आधार पर किस प्रकार दो टूक लिख गए "प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एक मात्र कारण यही है कि 'हंस' नामक पत्र कन्हैया लाल मुंशी के सह संपादन में निकलता था. जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र ‘मुंशी’ छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - मुंशी, प्रेमचंद ..कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रमचंद' को एक समझ लिया और प्रेमचंद मुंशी प्रेमचंद बन गए."
मुझे याद आता है कि 1976 में पं0. सीताराम चतुर्वेदी अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पधारे थे और उन्होंने अपने एक भाषण में यही सारे तर्क दिए थे. मैं ने सभा में उनकी गरिमा का ख़याल करते हुए उन्हें नहीं टोका. बाद में जब उनसे मेरी बात हुई और मैं ने उनके सामने तथ्य रखे तो उन्होंने नितांत आत्मीय भाव से अपनी भूल स्वीकार की. मैं नहीं जनता था की आज भी हिन्दी के अध्येता इन्हीं भ्रांतियों को जी रहे हैं. प्रेमचंद की चिट्ठियां ही ध्यान पूर्वक पढ़ ली जाएँ तो स्वयं प्रेमचंद द्वारा 'मुंशी' और 'बाबू' शब्दों के प्रयोग को देखा जा सकता है. मुंशी के कुछ उदाहरण देखिये. 1908 में निगम को लिखते हैं 'मुंशी नौबतराय चले गए. क्या होली की तकरीब में ?' 1924 में निगम को लिखते हैं ' मेरे नार्मल स्कूल के दोस्त मुंशी मुनीर हैदर साहब कुरैशी हैं' 1925 में इक़बाल वर्मा सेहर को लिखते हैं "मुकर्रमी मुंशी राज बहादुर का ख़त भी देखा" इत्यादि.
इनके अतिरिक्त जो चिट्ठियाँ प्रेमचंद को दूसरों द्बारा लिखी गई हैं उनमें भी 'मुंशी जी' का संबोधन देखा जा सकता है. उस समय तक कन्हैयालाल मुंशी का प्रेमचंद के साथ कोई जुडाव नहीं था. लाजपतराय एंड साँस के लाजपतराय ने 19 नवम्बर 1926 को लिखा 'श्रीमान मुंशी प्रेमचंद जी, नमस्ते,' 12 अप्रैल 1928 को घनश्याम शर्मा ने लिखा 'प्रिय मुंशी जी, जे राम जी की,'30 जनवरी 1929 को हनीफ हाशमी ने लिखा 'मुकर्रामी मुंशी साहब, हदयए-नियाज़,' 7 जुलाई 1930 को लाहौर से जगतराम ने लिखा 'बखिदमते-गिरामी जनाब मुंशी प्रेमचंद जी, आदाब अर्ज़' इत्यादि. हिन्दी ब्लॉग पर सस्ती लोकप्रियता के मोह में बिना जांच पड़ताल के इस प्रकार की ढेर सारी बातें छ्प रही है जो हिन्दी के लिए दुःख का विषय है. विवेचन और व्याख्या करने के लिए आप स्वतंत्र हैं, किंतु तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के लिए निश्चित रूप से आप स्वतंत्र नहीं हैं.

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3 comments:

Manish Kumar said...

शुक्रिया इस जानकारी के लिए !

आलोक said...

फ़ातिमा जी, जानकारी के लिए धन्यवाद।

rakhshanda said...

first time,aapko padha..bahut achha laga,kafi jaankari mili is post se...jaari rakhen..thanks