Sunday, August 17, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [4.4]

4.5 कहानी यात्रा के ठोस क़दम
दया नरायन निगम की सूचना के अनुसार 1911 ई० के मध्य तक ज़माना की अनुमति से उसमें प्रकाशित कहानियाँ गुजराती, पंजाबी, हिन्दी तथा मराठी भाषाओँ में अनूदित हो चुकी थीं. स्वयं निगम के शब्दों में सुनिए- "हमसे बार-बार ताकीद की जाती है कि प्रेमचंद साहब का एक-एक किस्सा ज़माना के हर नंबर में शाया किया जाय. हमको उम्मीद है कि यह नादिर किस्से अरसे तक ज़माना की खुसूसियत बने रहेंगे. जमाना के लिए यह फख्र की बात है कि उसकी इजाज़त से इन किस्सों के गुजराती, पंजाबी, हिन्दी और मरह्ठी ज़बानों में तर्जुमे हो चुके है. (27)
सप्त सरोज के प्रकाशन के लगभग पाँच माह बाद प्रेमचंद की कहानियों का दूसरा संग्रह ‘नव निधि’, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर बंबई से 1918 ई० में प्रकाशित हुआ. संग्रहः में कुल नौ कहानियाँ हैं जो ज़माना के विभिन्न अंकों से ली गयी हैं. इनका हिन्दी अनुवाद किसी अन्य व्यक्ति का किया हुआ प्रतीत होता है. प्रेमचंद ने इस तथ्य का संकेत उसी समय कर दिया था जब वे अपने प्रथम कहानी संग्रह सप्त सरोज के लिए तीन मौलिक कहानियाँ लिखने में व्यस्त थे. निगम के नाम 24 नवम्बर 1915 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था.
"किस्से लिख रहा हूँ. ज्यों ही तैयार हो गए भेजूंगा. अभी तक हिन्दी मजमूआ तैयार नहीं हुआ है. यह किस्से पहले पहल हिन्दी में निकलेंगे. इसके बाद उर्दू में भी. अभी छाप देने से इनका नयापन जाता रहेगा. कोशिश कर रहा हूँ कि अपनी और कहानियाँ भी तर्जुमा करके छापूँ. एक साहब रूपया लगाने के लिए तैयार हैं. " (28)
"तर्जुमे कराके छापने" के निर्णय से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने कहानियों का चयन करके उन्हें अनुवादक के सुपुर्द कर दिया। सम्भव है कि यह भार प्रकाशक ने अपने ऊपर ले लिया हो और उसने प्रेमचंद द्वारा चुनी गयी कहानियों के अनुवाद स्वयं कराये हों। इस अनुवाद में प्रेमचंद की सीधी सादी और पैनी भाषा को कृत्रिम, फूहड़ और पंडिताऊ शब्द ठूंस कर प्रभावहीन बना दिया गया है। सामने की बात है कि ‘अमावस की रात’ जैसे कंठमधुर शीर्षक को अनुवादक ने ‘अमावस्या की रात्रि’ के रूप में बदलकर उसकी सहजता समाप्त कर दी है. ये न तो प्रेमचंद कर सकते थे न ही उनके सहयोगी मन्नन द्विवेदी. सप्त सरोज की भाषा भी यद्यपि स्तरीय नहीं कही जा सकती फिर भी नव निधि की तुलना में कहीं अधिक परिष्कृत और सहज है.
प्रेमचंद की कहानियों का तीसरा संग्रह प्रेमपूर्णिमा हिन्दी पुस्तक एजेंसी कलकत्ता से 1919 ई० में प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियाँ संकलित थीं. इनमे से शंखनाद, बलिदान और सच्चाई का उपहार पहली बार इसी संग्रह के लिए लिखी गयी थीं.शेष कहानियों में से दुर्गा का मन्दिर, और महा तीर्थ (हज्जे अकबर) क्रमशः ज़खीरा और कहकशां से, ईश्वरीय न्याय निगम द्वारा प्रकाशित आजाद से और बाकी ज़माना उर्दू मासिक से हिन्दी में अनूदित हुईं. सच्चाई का उपहार इस संग्रह की एक ऐसी कहानी है जिसका रूपांतर उर्दू की किसी पत्रिका में नहीं हुआ.
प्रेमपूर्णिमा के प्रकाशन तक प्रेमचंद को हिन्दी लिखने का पर्याप्त अभ्यास हो चुका था. हिन्दी में मौलिक लेखन की क्षमता उनमें न केवल पूरी तरह विकसित हो चुकी थी, अपितु उनहोंने अपनी शैली की पहचान भी बना ली थी. इस संग्रह की अनूदित कहानियो को ध्यानपूर्वक देखने से इस तथ्य की पुष्टि की जा सकती है कि या तो यह अनुवाद लेखक ने स्वयं किए हैं या किसी से अपनी देख-रेख में कराये हैं. संग्रह में संकलित कहानियो की बुनावट और अभिव्यक्ति में अपेक्षित काट-छांट और संशोधन की प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है. कहानियो के उर्दू पाठ जहाँ मुस्लिम पाठकों की रूचि को सामने रखकर तैयार किए गए हैं वहीं हिन्दी पाठ में हिंदू पाठकों की रूचि का ध्यान रखा गया है.
यहाँ दो भाई और महातीर्थ शीर्षक कहानियों के सन्दर्भ गैर प्रासंगिक न होंगे. दो भाई पहली बार ज़माना के जनवरी 1916 ई० के अंक में प्रकाशित हुई. मूल उर्दू कहानी में पात्रों के नाम वासुदेव, जसोदा, कृष्ण, बलराम, राधा और श्यामा हैं. कृष्ण के भगवत पढ़ने, मुरली बजाने और गोकुल वासियों का उद्धार करने के सन्दर्भ भी कहानी में उपलब्ध हैं. प्रेमपूर्णिमा में इन नामों को बदलकर क्रमशः शिवदत्त, कलावती, केदार, माधव कर दिया गया है. श्यामा के नाम में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं महसूस की गयी है. गोकुल, भागवत और मुरली के सन्दर्भ भी निकाल दिए गये हैं. इस प्रकार जहाँ उर्दू पाठ में सनातन धर्मियों के ईष्टदेव भगवन कृष्ण की खिल्ली उड़ाई गयी है वहीं हिन्दी पाठ को एक सामान्य और सरल सी कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है.
महातीर्थ शीर्षक कहानी पहली बार उर्दू पत्रिका कहकशां के नवम्बर 1918 अंक में हज्जे-अकबर शीर्षक से छपी थी. कहानी के मुख्य पात्र थे मुंशी साबिर हुसैन, शाकिरा, नसीर और अब्बासी. प्रेम पूर्णिमा में इन पत्रों की शुद्धि कर दी गयी है और इनके नाम और धर्म सभी कुछ बदल दिए गए हैं. इनके परिवर्तित नाम क्रमशः इन्द्रमणि, सुखदा, रुद्रमणि और कैलासी .कहानी के अंत में धर्म परिवर्तन के प्रभाव से हज्जे- अकबर महातीर्थ में बदल गया है. उर्दू में इस कहानी के दोनों ही पाठ उपलब्ध हैं. एक वह जो प्रेमबत्तीसी भाग-2में कहकशां से लिया गया है और दूसरा वह जो मेरे बेहतरीन अफ़साने में हिन्दी से अनूदित है।
प्रेमचंद का चौथा कहानी संग्रह प्रेमपचीसी के नाम से हिन्दी पुस्तक एजेंसी कलकत्ता से 1923 में छपा. संग्रह में कुल पचीस कहानियाँ संकलित हैं. प्रेमचंद की 2 मार्च 1917 की चिट्ठी को यदि इस प्रसंग से जोड़ कर देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी प्रेमपचीसी उर्दू प्रेमपचीसी का ही हिन्दी संस्करण है और इसका प्रकाशन उर्दू प्रेमपचीसी के साथ ही प्रारम्भ हो गया था. चिट्ठी का यह अंश द्रष्टव्य है, "प्रेमपचीसी का हिंदी एडिशन छप रहा है. उसका मराठी एडिशन भी छप रहा है."(29)
वस्तुतः यह एक विशुद्ध मनोवैज्ञानिक खुराक है जो इस चिट्ठी के माध्यम से दया नरायन निगम को दी जा रही है अन्यथा इस वक्तव्य का कोई भी अंश सच्चाई पर आधारित नहीं है. फारसी भाषा में एक कहावत प्रसिद्ध है, " दरोग गोयां रा हफ्ज़ा न दारंद" अर्थात झूठों के पास स्मरणशक्ति नहीं होती. प्रेमचंद यह भूल गए थे कि ठीक अट्ठारह दिन पहले वे निगम को एक और चिट्ठी प्रेमपचीसी के प्रसंग में भेज चुके थे जिसमें उनहोंने स्पष्ट लिखा था "कई हिन्दी के बुकसेलर प्रेमपचीसी को शाया करने की इजाज़त मांग रहे हैं. मैं हिस्सा दोयम का इंतज़ार कर रहा हूँ. किताब पूरी हो जाय तो किसी को दे दूँ."(30)
स्पष्ट है कि 1917 ई0 के मध्य तक हिन्दी प्रेमपचीसी के छपने का कोई सिलसिला शुरू नहीं हुआ था और मराठी संस्करण के प्रकाशन की जानकारी तो आज भी उपलब्ध नहीं है. रोचक बात यह है कि हिन्दी प्रेमपचीसी की कहानियाँ उर्दू प्रेमपचीसी से कोई मेल नहीं खातीं. केवल एक कहानी विस्मृति ऐसी है जो उर्दू प्रेमपचीसी भाग-2में भी छपी थी. संग्रह की आठ कहानियाँ- ब्रह्म का स्वांग, सुहाग की साड़ी, हार की जीत, बैर का अंत, स्वत्व रक्षा, बौड़म, पूर्व संस्कार तथा नैराश्य लीला ऐसी है जो मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गयीं.शेष सत्रह कहानियाँ ज़माना, कहकशां, तह्ज़ीबे निसवां, हुमायूँ, अलअस्र तथा हज़ार दास्तान के मूल उर्दू पाठ से अनूदित है.
नवम्बर 1923 ई० में ही प्रेमचंद का एक और कहानी संग्रह प्रेम प्रसून हिन्दी पुस्तक माला, लखनऊ से प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल बारह कहानियाँ है जिनमें से केवल पाँच आपबीती, आभूषण, राजभक्त, अधिकार, चिंता और गृहदाह मूल रूप से हिन्दी में लिखी गयीं. शेष सात कहानियाँ ज़माना, हज़ार दास्तान, सोजे वतन तथा सुभे उम्मीद से ली गयी है. इन्हें अनूदित कहानियो की श्रेणी में रखना ही समीचीन होगा.
उपर्युक्त दोनों संग्रहों की चर्चा करते हुए प्रेमचंद ने 25 अप्रैल 1923 ई० को दया नरायन निगम को लिखा था-" सिरे दरवेश (शाप) का तर्जुमा अनक़रीब ख़त्म होने वाला है. अब सोजे वतन की ज़रूरत है. उसमें से दो-तीन कहानियाँ ले लूँगा ......दिसम्बर से पहले यह मज्मूआ (संग्रह) अपने प्रेस से निकाल दूँगा. इसका नाम होगा प्रेम प्रसून. पचीस कहानियो का एक अलहदा मज्मूआ कलकत्ता से निकल रहा है जो हिन्दी की प्रेमपचीसी होगी."(31)
तीन वर्ष बाद 1926 ई० में प्रेमचंद का छठा कहानी संग्रह प्रेम प्रमोद चाँद कार्यालय इलाहबाद से प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल सोलह कहानियाँ संकलित है. इस संग्रह की सभी कहानियाँ चाँद हिन्दी मासिक में जनवरी 1923 ई० से अक्टूबर 1925 ई० के मध्य प्रकाशित हुईं. मूल रूप से यह कहानियाँ हिन्दी में ही लिखी गयीं और इनके उर्दू अनुवाद उर्दू चाँद में बाद में निकले. किंतु यह अनुवाद प्रेमचंद द्वारा नहीं किए गए. सच पूछा जाय तो प्रेम प्रमोद प्रेमचंद की मौलिक हिन्दी कहानियो का पहला संग्रह है. इसकी भाषा और अभिव्यक्ति को स्तरीय मानकर हिन्दी में उपलब्ध प्रेमचंद की अन्य कहानियो का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
1926 ई० में ही प्रेमचंद का एक और कहानी संग्रह प्रेम प्रतिमा सरस्वती प्रेस बनारस से छपा. इसमें कुल उन्नीस कहानियाँ संकलित थीं जो मार्च 1920 ई० से लेकर जनवरी 1926 ई० तक की हिन्दी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं थीं. हाँ, गुरु मन्त्र, बाबा जी का भोग, और सुअभाग्य के कोड़े पहली बार इसी संग्रह में छपीं. इस संग्रह की भी सभी कहानियाँ मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गयीं. उर्दू में इनके भ्रष्ट अनुवाद प्रकाशित हुए जो उर्दू पत्रिकाओं के संपादकों ने प्रेमचंद की अनुमति के बिना ही साधारण अनुवादकों से करा लिए.
प्रेमचंद का आठवां कहानी संग्रह प्रेम द्वादशी गंगा पुस्तक माला लखनऊ से 1926 ई० में छपा। इसमें कुल बारह कहानियाँ संकलित हैं. इस संग्रह की केवल तीन कहानियाँ ऐसी हैं, जो इससे पहले के संग्रहों में नहीं हैं. किंतु इन कहानियो को बहुत पहले उर्दू में लिखा गया था. बड़े घर की बेटी, दिसम्बर 1910 ई० के ज़माना में छपी थी. शान्ति जिसका उर्दू नाम बाज़याफ़्त था तहजीबेनिसवां के अप्रैल 1918 ई० के अंक में निकली थी और बैंक का दिवाला फरवरी 1919 ई० के कहकशां में प्रकाशित हुई थी. कदाचित इसी लिए इनमें उर्दू मूल पाठ की सरसता नहीं आ सकी है. वस्तुतः यह संग्रह स्कूलों के पाठ्यक्रम की दृष्टि से तैयार किया गया प्रतीत होता है. आगे के भी सभी संग्रह- प्रेमतीर्थ (1928 ई०), प्रेम चतुर्थी (1929 ई०), अग्नि समाधि तथा अन्य कहानियाँ (1929 ई०), पाँच फूल (1929 ई०), समर यात्रा और ग्यारह और राजनीतिक कहानियाँ (1930 ई०), प्रेम पंचमी (1930 ई०), प्रेरणा और अन्य कहानियाँ (1932 ई०) तथा प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (1933 ई०) इसी उद्देश्य से प्रकाशित किए गए प्रतीत होते हैं. प्रेमचंद ने अपने जीवनकाल में मानसरोवर श्रृंखला की जो बुनियाद रखी वह आठवें खंड पर आकर समाप्त हो गयी. हाँ, इस श्रृंखला के दो खंड प्रेमचंद के जीवनकाल में निकल चुके थे. उसके बाद 1962 ई० में अमृत राय ने गुप्तधन भाग-1 और भाग-2 में छप्पन और कहानियाँ छापीं. इनमें से अधिकतर कहानियाँ उर्दू से अनूदित हैं और प्रेमचंद की हिन्दी कहानियो के साथ इनकी गणना नहीं की जा सकती.
टिप्पणी
(27). ज़माना, 1911, पृ0 314
(28). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 50
(29). वही, पृ0 60
(30). वही, पृ0 60-61
(31). वही, प्र० 158
***********************क्रमशः

7 comments:

sandhyagupta said...

Pehli baar yeh blog dekha. Aapka prayaas vaastav me sarahniya hai.

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Bahadur Patel said...

itana badhiya. premchand ko yaad kiya. sadhuwad.

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकारें

Unknown said...

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Mere Seenay Main Kaye Aur Bhi Ghum Paltay Hain
Mere Chehray Par Dikhaway Ka Tabassum Hai Magar
Meri Aankhon Main Udaasi Kay Diye Jalte Hain

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thank you

Pawan Kumar said...

क्या बढ़िया ब्लॉग है.पहली बार आपके ब्लॉग पर आया लगा कि एक अधूरी सी तलाश पूरी हो गयी. प्रेमचंद जी जैसी हस्ती को याद करने का जो आन्दोलन आपने चलाया है वाकई तारीफ़ के काबिल है...आपके इस आन्दोलन में हम आपके साथ हैं......बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद

Prabhakar Pandey said...

अति सुंदर, सराहनीय एवं अति आवश्यक काम करने के लिए आपका सादर अभिनन्दन।

मेरे ब्लाग पोस्ट पर आपकी टिप्पणी मिली, बहुत-बहुत धन्यवाद।
प्रिय पाण्डेय जी,
मैं भोजपुरी कुछ उलटी-सीधी बोल सकता हूँ. आपका प्रयास अच्छा है. किंतु एक बात मेरी जानकारी के लिए स्पष्ट कर दें. आपने 'वह कल जा रहा होगा' का अनुवाद 'उ बिहने जा रहल होई' किया है. 'बिहने' का अर्थ सवेरे होता है जबकि मूल वाक्य में समय निश्चित नहीं है. ' उ कल जा रहल होई' अनुवाद करना क्या ग़लत है ?
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बिहने का मतलब भोजपुरी में कल हो ता है जबकि बिहाने का सुबह।
ये दोनों शब्द बिहान के रूप हैं और बिहान द्विअर्थी है-1. कल 2. सुबह।
आशा है आगे भी आपका आशिर्वाद मिलता रहेगा।

Randhir Singh Suman said...

good