"मैं केवल एक सूखा वृक्ष भर रह गई हूँ। न फल, न फूल, न शाख, न पत्ती न ठंडक, ऐसे सूखे वृक्ष की शरण में भला कौन आना पसंद करेगा ? धरती ने भी जैसे अपने स्रोत समेट लिए हैं, तभी तो मेरी जड़ें तरावट को तरसती ,धरती छोड़ने लगी हैं।"
शाल्मली की यह सोंच शब्दों में ढलकर, अपनी पूरी गूँज के साथ पाठकों को उद्वेलित करती है। कितनी गहरी टीस है इन शब्दों में ! शाल्मली एक नारी है, एक पत्नी है और एक बेटी भी। यह नारी, नासिरा शर्मा के उपन्यास शाल्मली को रूप, आकार और अर्थ-फलक का विस्तार प्रदान करती है। इस नारी का नाम यदि शाल्मली न होकर सुजाता, सरिता, मधु, , कल्पना कुछ भी होता - यहाँ तक कि नासिरा शर्मा भी , इसलिए कि यह सभी नारियों के ही नाम हैं , तो भी कोई अन्तर न पड़ता। बात तो नारी होने की है, जिसे नरेश जैसे लोग "बेजान लिबास" समझते हैं और अपनी इच्छानुरूप पहनने और उतारने के अभ्यस्त हैं। उसके ह्रदय की थाह लेना और उसकी पीड़ा को समझने का प्रयास करना उनके स्वभाव में नहीं है। उनकी संतुष्टि के लिए इतना पर्याप्त है कि वे पुरूष हैं और उन्हीं के कारण किसी नारी को "सौभाग्यवती" बनने का अवसर मिलता है।
शाल्मली बखूबी जानती है कि हर नारी की एक ज़मीन होती है, एक ठोस ज़मीन, जिसमें उसकी जड़ें गहरी पेवस्त हैं। यह ज़मीन उसके माँ-बाप का अपना घर है जहाँ एक पिता बीस वर्षों तक उसे परिवार की डाली के एक खूबसूरत फूल के रूप में अपनी आँखों के जलाशय से बूँद-बूँद सींचता है और अपनी भावनाओं में प्यार के साथ संजोकर रखता है। अब अगर पति के घर में शाल्मली की जड़ें तरावट को तरस जायं, और उसे ठूंठ बनने के लिए तेज़ हवा के थपेडों के बीच छोड़ दिया जाय, तो उसे अपना समूचा वजूद खिसकता सा क्यों न प्रतीत हो। शाल्मली के लिए ज़रूरी है कि वह अपने वजूद को बरक़रार रखे। अपने भीतर उस नारी को तलाश करे जो चकमक की आग की तरह कहीं दबी पड़ी है। चकमक की यह आग उसका आत्मविश्वास है। और यह आत्मविश्वास उसकी अपनी पहचान है। पर्याप्त सोंच-विचार के बाद शाल्मली अपने भीतर की नारी को खोज निकालती है। यही शाल्मली की अपनी वास्तविक पहचान है जो उसे एक नए रास्ते पर पूरे आत्मविश्वास के साथ गतिशील रहने की प्रेरणा देती है। यह आत्मविश्वास नासिरा शर्मा ने शाल्मली पर थोपा नहीं है। यह सुषुप्तावस्था के घने जालों को साफ करके, जागती और चौकन्नी आंखों से सब कुछ देखने-परखने और ज़िंदगी को नया अर्थ देने की स्थिति है जिसका प्रकाश शाल्मली के आत्म-मंथन की उपलब्धि है।
कबीर को शाल्मली ने कभी पढा था या नहीं। किंतु कबीर का यह दोहा शाल्मली के अंतर्मन में कहीं गूंजता ज़रूर है -ऐसा यह संसार है, जैसे सेमल फूल/ दिन दस के व्यवहार को, झूठे रंग न भूल। आख़िर शाल्मली भी तो सेमल का फूल ही है। कदाचित इसीलिए पूर्ण सुख पा लेने की इच्छा शाल्मली को उद्वेलित नहीं करती। पूर्ण सुख, आनंदमय और सुखी-जीवन जैसे शब्द शाल्मली के लिए अर्थहीन हो जाते हैं। जिस जीवन में सुबह-शाम आनंद की वर्षा हो, सुख की अनुभूति हो, वह नीरस भी है , कुंठित भी, ठहरा हुआ भी है और ठस भी । यह है शाल्मली का वह अहसास जो उसे यथार्थ के ठोस धरातल पर खडा कर देता है। शाल्मली ऐसे जीवन का आशीर्वाद अपने पिता से नहीं चाहती। वह जानती है कि ज़िंदगी का उतार -चढाव ही ज़िंदगी को सार्थक बनाता है। कार्य-क्षेत्र में शाल्मली के सहकर्मियों के बीच शोषण, अत्याचार, संबंधों के तनाव और टूटन की झुंझलाहट का आलाप-विलाप गूंजता रहता है और भाग-दौड़ तथा असंतोष की शिकायतें भी सुनाई पड़ती हैं किंतु शाल्मली इस भीड़ में शामिल होकर अपनी पहचान नहीं खोती । वह जानती है कि "भीड़ के नारों की अपनी कोई आवाज़ नहीं होती। " वह यह भी जानती है कि परिस्थितियों का अपना एक वृत्त होता है जो किसी से पूछकर नहीं बनाया जाता। उस वृत्त में रहकर भी अपने स्वाभिमान को ठेस पहुँचाये बिना ज़िंदगी को एक नया आयाम दिया जा सकता है। इसे आस-पास के माहौल के प्रति तटस्थ हो जाना नहीं कह सकते। यह गर्द-ओ-गुबार से बचते हुए एक नए छितिज में सार्थक रंग भरने की प्रतिबद्धता है।