Thursday, July 31, 2008

सम्पादक नैरंगे-ख़याल के नाम फ़िल्म जगत से सम्बंधित प्रेमचंद की एक अप्राप्य चिट्ठी / प्रोफेसर शैलेश ज़ैदी

फ़िल्म जगत से सम्बंधित प्रेमचंद की अनेक चिट्ठियां उनके चिट्ठी-पत्री संग्रहों में उपलब्ध हैं. सब में एक नैराश्य, एक पछतावा, एक ताल-मेल न बैठने का एहसास है जो साफ़ दिखायी देता है. कहीं डाइरेक्टरों की मानसिकता का रोना, कहीं 'बाज़ारे-हुस्न की मिटटी पलीद' होने का एहसास, कहीं 'मिल' से कुछ साधारण सा संतोष, एक विचित्र प्रकार की उकताहट. प्रेमचंद का स्वभाव कुछ और, निर्माता की फरमाइश कुछ और. यहाँ स्थिति यह कि प्लाट सोचने और लिखने में आदर्शवाद अनायास घुस आता है वहाँ हालत यह की उसमें कोई इंटरटेनमेंट वैल्यू नहीं है. और इस इंटरटेनमेंट का अर्थ है वल्गैरिटी यानी बोसे-बाज़ी, बरहना रक्स, औरतों का जबरन उठाया जाना और बलात्कार के दृश्य. इतना ही नहीं कुछ अचम्भा भी चाहिए जैसे नकली और हास्यजनक लडाइयां. एक-दो बातें होतीं तो प्रेमचंद झेल भी जाते. तुर्रा यह कि निर्देशक की पूरी बादशाहत. मुंह भी नहीं खोल सकते उसके सामने जनरुचि की बात निकल आए तो निर्देशक पूरे ज़ोर से कहता है 'आप नहीं जानते जनरुचि क्या है. मैं जनता हूँ जनता क्या चाहती है.' प्रेमचंद के मित्र अशफाक हुसैन प्रेमचन्द से सहमत न थे. उनका ख़याल था कि धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जायेगा. किंतु प्रेमचंद के लिए समूचा माहौल ही घुटन भरा था. यही सब बातें हैं उन प्रकाशित चिट्ठियों में जो संग्रहों में उपलब्ध हैं.
यहाँ मैं प्रेमचंद की जिस चिट्ठी को प्रस्तुत कर रहा हूँ वह हिन्दी उर्दू के किसी भी चिट्ठी संग्रह में प्रकाशित नहीं हो पायी है. यह चिट्ठी प्रेमचंद ने 'नैरंगे ख़याल' उर्दू मासिक दिल्ली के संपादक इशरत रहमानी को मार्च 1935 में उनके पत्र के उत्तर में लिखी थी. सम्पादक ने इसे पत्रिका के अप्रैल 1935 के अंक में छापा है. नैरंगे ख़याल के साथ प्रेमचंद का पुराना पत्र-व्यवहार था. सम्पादक महोदय जिज्ञासावश प्रेमचंद से कुछ सवाल कर बैठते थे और उत्तर में पूरी सहृदयता के साथ प्रेमचंद अपने विचार लिख भेजते थे. सम्पादक नैरंगे ख़याल के नाम मदन गोपाल और अमृत राय ने भी फरवरी 1934 की प्रेमचंद कि एक चिट्ठी छापी थी जिसमें प्रेमचंद ने कहानी लेखन के अपने मनोवैज्ञानिक आधार का संकेत किया था. सिनेमा से सम्बंधित इस चिट्ठी की विशेषता यह है कि अन्य चिट्ठियों में लिखे गए विचारों की अपेक्षा यहाँ प्रेमचंद निर्देशकों के प्रति कुछ नर्म और सहानुभूतिशील दिखायी देते हैं. यहाँ प्रेमचंद की सारी शिकायत भारत के शिक्षित समाज से है. इस चिट्ठी में प्रेमचंद ने कुछ ऐसे प्रश्न उठाये हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. प्रेमचंद ने 25 मार्च 1935 को बंबई छोड़ दिया था. यह चिट्ठी मार्च के मध्य की है. चिट्ठी इस प्रकार है -
बेरादरम- तस्लीम
याद आवरी के लिए ममनून (आभारी) हूँ. 'सेवासदन' से मेरा उतना ही तअल्लुक़ है कि उसका अफसाना (कथा) मेरी तसनीफ 'बाज़ारे-हुस्न' से माखूज़ (लिया गया) है. उसके गीतों का मुझसे उतना ही तअल्लुक़ है जितना जुबैदा के नाच से. यह डाइरेक्टर को अख्तियार है कि वो किस्से में जो तरमीम (संशोधन) आम मजाक (रूचि) के लिए मुनासिब और ज़रूरी समझता है करे. हिन्दोस्तानी फिल्मों में हमारा पढ़ा-लिखा तबका शाज़ो-नादिर (यदा-कदा) जाता है. उसे तो ग्रीटा गार्बो और हेराल्ड लायेड से इश्क़ है. उसी तरह जैसे उसे एक मग्रिबी चीज़ से गुलामाना उन्स (लगाव) है. जब हिन्दोस्तानी फिल्मों को अवाम की ही कद्रदानियों पर जिंदा रहना है तो ये लाज़िम है कि वो वही चीज़ें स्क्रीन पर लाएं जो अवाम को पसंद हैं. खवास के पसंद की चीज़ें बनाकर वो अपनी जिंदगी खतरे में डालना कैसे पसंद कर सकते हैं. ऐसे फ़िल्म बनाना जो आम और ख़ास दोनों ही में मकबूल हों, हर एक डाइरेक्टर का काम नहीं.
मैं ने पहले ये हकीकत न समझी थी और डाइरेक्टरों की हिमाक़तों पर अफ़सोस किया करता था. लेकिन यहाँ आकर मुझे इस सीगे को अन्दर से देखने का मौक़ा मिला और अब मुझे डाइरेक्टरों से उतनी शिकायत नहीं रही जितनी अपने आप से. आख़िर क्यों अंग्रेज़ी रसायल और अख्बारत जो हिन्दोस्तान ही में छपते हैं लाखों की तादाद में बिकते हैं और उर्दू हिन्दी रसायल बमुश्किल अपना खर्च निकाल पाते हैं. बेशतर तो क़र्ज़ से दबे रहते हैं. वही पढ़े-लिखे तबके की बे-नियाज़ (लगाव रहित) गुलामाना ज़हनियत. हम क्यों 'शा' और गाल्सवर्दी और आस्कर वाइल्ड और मैक्सिम गोरकी की किताबें हिर्जे-जां (अत्यधिक प्रिय) समझते हैं और क्यों अपने अहले-क़लम की तसानीफ़ पर नज़र डालना भी कस्रे-शान (शान के ख़िलाफ़) समझते हैं ? किसी कल्चर्ड जेंटिलमैन के कुतुबखाने में जाइए. आपको अंग्रेज़ी किताबें क़तार-दर-क़तार सजी हुई नज़र आएँगी लेकिन आपकी आँखें ब-हज़ार जुस्तुजू एक भी उर्दू या हिन्दी की किताब वहाँ देखेंगी. उसकी वजह यही है कि हम ख़ुद अपनी चीज़ों की क़द्र नहीं करते. हाँ नुक्ताचीनी (आलोचना) करने के लिए सबसे पहले दौड़ते हैं.
फ़िल्म कोई कल्चरल इदारा नहीं है, तिजारत है. और ताजिर वही चीज़ बाज़ार में लाता है जिसकी मांग होती है. उसको अदब से दुश्मनी नहीं है. हमारी और आपकी तरह वो भी अवाम की बद-मजाकी (कुरुचि) से नालां है. मगर गरीब क्या करे ! एक तस्वीर में पचास-साठ हज़ार रूपये लगा चुकने के बाद सबसे पहली बात ये होती है कि किसी तरह ये रूपए मै नफ़ा के लौट आयें. अगर डाइरेक्टर या प्रोड्यूसर को यकीन हो कि फ़ाइन-आर्ट के मूइद उसकी तस्वीरों को कामियाब बना देंगे तो वह उसी आइडियल को सामने रखेगा. और हुस्ने-मजाक (सुरुचि) से जौ भर भी इधर-उधर न जायेगा.
पोलिटिकल पस्ती का एक सबब ज़हनी और अक़ली पस्ती भी होती है. जब हमारे अदीबों में 'शा', और गोरकी और रोमां रोलां नहीं हैं तो फिर फ़िल्म में वो कैरेक्टर कहाँ से आ जायेंगे जो गार्बो और हेराल्ड लायेड और मेवेस्ट की अदाकारी के फिदाइयों को मह्जूज़ (आनंदित) कर सकें ? मेरे इस तरफ़ आने का यही मंशा ख़ास था कि मुमकिन हो तो इस बद-मजाकी के सैलाब को रोकूँ. लेकिन मालूम हुआ कि ये काम मेरे बूते का नहीं. तालीम-याफ्ता पब्लिक को चाहिए कि या तो वो फ़िल्म देखने ही न जाय या जाय तो ये समझ कर जाय कि भांडों का तमाशा देखने जा रहे हैं और इतनी देर के लिए उन्हें अपनी तन्कीदी आँखें बंद कर लेनी पड़ेंगी.
नियाज़ मंद
प्रेमचंद (मुसव्विरे-फ़ितरत)
टिप्पणी :
[Reta Garbo ] रीटा गार्बो (1905-1990) हालीवूड की बे-आवाज़ फ़िल्मों की मानी हुई स्वीडिश अदाकारा थीं. प्रेमचंद के समय की उनकी 'द टेम्पट्रेस,' (1926), लव (1927),द किस (1929) इत्यादि चर्चित फिल्में थीं.
[Lloyd, Herold] हेराल्ड लायेड प्रेमचंद युगीन बे-आवाज़ फिल्मों के प्रसिद्ध कामेडियन तथा अभिनेता थे। 'गर्ल शाई (1924),फ्रेशी (1925), फार हैवेंस सेक (1926) आदि उनकी चर्चित फिल्में थीं.
[Mae West ] मेवेस्ट (1893-1980) न्यूयार्क सिटी के वुडहैवेन में जन्मी प्रतिभा-संपन्न अभिनेत्री थीं. आइयम नो ऐंगर (1933) और शी डन हिम (1933) उनकी चर्चित फिल्में थीं.

Thursday, July 24, 2008

मुंशी (प्रेमचंद) शब्द को लेकर भ्रांतियां / प्रो. शैलेश ज़ैदी

1951 में जब मैं छठीं कक्षा में था संस्कृत के पंडित जी ने एक कहानी सुनाई थी. कहने लगे 'एक गाँव ऐसा था जहाँ लोगों ने कभी हाथी नहीं देखा था. एक बार ऐसा हुआ कि रात में उस गाँव से एक हाथी गुज़र गया. सुबह होने पर गाँव वालों ने ज़मीन पर विचित्र प्रकार के निशान देखे. किसी की कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसा कौन सा जीव इस गाँव में आया था. गाँव में एक लाल बुझक्कड़ रहते थे. गाँव वाले सीधे उनके पास पहुंचे. 'अब आप ही हमारे मन को शांत कर सकते हैं. जाने कौन सी बला गाँव पर आने वाली है. धरती पर जगह-जगह विचित्र से निशान बने हैं. आप ही चलकर समस्या का समाधान कीजिए. लाल बुझक्कड़ पूरी तैयारी के साथ उस स्थल पर आए. निशान को चश्मा लगाकर बारीकी से देखा. और फिर लगभग झूम कर बोले "लाल बुझक्कड़ बूझ गए, और न बूझा कोय / पैर में चक्की बाँध के हिरन न कूदा होय.
लगभग यही स्थिति मुंशी प्रेमचंद के नाम में 'मुंशी' शब्द की हो गई है. मैंने abhivyakti-hindi.org पर डॉ. जगदीश व्योम का लेख 'प्रेमचंद मुंशी कैसे बने' जब पढ़ा तो बड़ी मुश्किलों से अपनी हँसी रोक पाया. रोचक बात यह है कि हिन्दी विकिपीडिया में भी ऐसी ही बात पढने को मिली. अनावश्यक रूप से विकिपीडिया में अमृत राय के नाम को भी घसीटा गया है. शोध की प्रवृत्ति तो हिन्दी में बहुत पहले से विलुप्त हो चुकी है. अटकलों के आधार पर तिल का पहाड़ बना देना भी अब हिन्दी लेखकों ने सीख लिया है. प्रेमचंद युगीन पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों को उठाकर देखिये. उस ज़माने में हिन्दी में गैर पंडित लेखकों के नाम के साथ हिन्दी में 'बाबू' तथा उर्दू में 'मुंशी' लिखने का आम रिवाज था. बाबू गुलाबराय और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे अनेक गैर पंडित लेखक इन्हीं नामों से जाने जाते हैं. बाबू मैथिली शरण गुप्त के नाम के साथ भी 'बाबू' शब्द चिपका हुआ है. ठीक इसी प्रकार उर्दू में मुंशी नवल किशोर, मुंशी दया नरायन निगम और मुंशी प्रेमचंद भी हैं.
अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है. प्रेमचंद की प्रारंभिक पुस्तकें उठाकर देखिए जिनमें उनका नाम नवाबराय और धनपत राय है. 8 अकतूबर 1903 के आवाज़ए-खल्क़ उर्दू अखबार में जब प्रेमचंद के प्रथम उपन्यास 'असरारे-म'आबिद की पहली किस्त छपी तो उसपर उनका नाम 'मुंशी धनपतराय साहब उर्फ़ नवाबराय इलाहाबादी छपा. प्रेमचंद उन दिनों इलाहबाद में ही रहते थे. अब प्रेमचंद के उपन्यास 'हमखुर्मा व् हमसवाब' पर दृष्टि डालिए. इसपर लेखक का नाम इस प्रकार दिया गया है "जनाब मुंशी नवाब राय साहब मुसन्निफ़ किशना वगैरा" इसी प्रकार इंडियन प्रेस इलाहबाद से 1907 में हिन्दी में छपने वाले उपन्यास 'प्रेमा' को भी देखिये. इसके प्रथम संस्करण पर लेखक का नाम 'बाबू नवाबराय बनारसी' छापा गया है. मैंने इन उपन्यासों के प्रथम पृष्ठ के फोटो चित्र अपनी पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन (1978) के परिशिष्ट भाग में छाप दिए थे, जिन्हें कोई भी देख सकता है.
आश्चर्य है कि डॉ.जगदीश व्योम केवल अटकलों और तुक्कों के आधार पर किस प्रकार दो टूक लिख गए "प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एक मात्र कारण यही है कि 'हंस' नामक पत्र कन्हैया लाल मुंशी के सह संपादन में निकलता था. जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र ‘मुंशी’ छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - मुंशी, प्रेमचंद ..कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रमचंद' को एक समझ लिया और प्रेमचंद मुंशी प्रेमचंद बन गए."
मुझे याद आता है कि 1976 में पं0. सीताराम चतुर्वेदी अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पधारे थे और उन्होंने अपने एक भाषण में यही सारे तर्क दिए थे. मैं ने सभा में उनकी गरिमा का ख़याल करते हुए उन्हें नहीं टोका. बाद में जब उनसे मेरी बात हुई और मैं ने उनके सामने तथ्य रखे तो उन्होंने नितांत आत्मीय भाव से अपनी भूल स्वीकार की. मैं नहीं जनता था की आज भी हिन्दी के अध्येता इन्हीं भ्रांतियों को जी रहे हैं. प्रेमचंद की चिट्ठियां ही ध्यान पूर्वक पढ़ ली जाएँ तो स्वयं प्रेमचंद द्वारा 'मुंशी' और 'बाबू' शब्दों के प्रयोग को देखा जा सकता है. मुंशी के कुछ उदाहरण देखिये. 1908 में निगम को लिखते हैं 'मुंशी नौबतराय चले गए. क्या होली की तकरीब में ?' 1924 में निगम को लिखते हैं ' मेरे नार्मल स्कूल के दोस्त मुंशी मुनीर हैदर साहब कुरैशी हैं' 1925 में इक़बाल वर्मा सेहर को लिखते हैं "मुकर्रमी मुंशी राज बहादुर का ख़त भी देखा" इत्यादि.
इनके अतिरिक्त जो चिट्ठियाँ प्रेमचंद को दूसरों द्बारा लिखी गई हैं उनमें भी 'मुंशी जी' का संबोधन देखा जा सकता है. उस समय तक कन्हैयालाल मुंशी का प्रेमचंद के साथ कोई जुडाव नहीं था. लाजपतराय एंड साँस के लाजपतराय ने 19 नवम्बर 1926 को लिखा 'श्रीमान मुंशी प्रेमचंद जी, नमस्ते,' 12 अप्रैल 1928 को घनश्याम शर्मा ने लिखा 'प्रिय मुंशी जी, जे राम जी की,'30 जनवरी 1929 को हनीफ हाशमी ने लिखा 'मुकर्रामी मुंशी साहब, हदयए-नियाज़,' 7 जुलाई 1930 को लाहौर से जगतराम ने लिखा 'बखिदमते-गिरामी जनाब मुंशी प्रेमचंद जी, आदाब अर्ज़' इत्यादि. हिन्दी ब्लॉग पर सस्ती लोकप्रियता के मोह में बिना जांच पड़ताल के इस प्रकार की ढेर सारी बातें छ्प रही है जो हिन्दी के लिए दुःख का विषय है. विवेचन और व्याख्या करने के लिए आप स्वतंत्र हैं, किंतु तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के लिए निश्चित रूप से आप स्वतंत्र नहीं हैं.

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