Sunday, August 17, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [4.4]

4.5 कहानी यात्रा के ठोस क़दम
दया नरायन निगम की सूचना के अनुसार 1911 ई० के मध्य तक ज़माना की अनुमति से उसमें प्रकाशित कहानियाँ गुजराती, पंजाबी, हिन्दी तथा मराठी भाषाओँ में अनूदित हो चुकी थीं. स्वयं निगम के शब्दों में सुनिए- "हमसे बार-बार ताकीद की जाती है कि प्रेमचंद साहब का एक-एक किस्सा ज़माना के हर नंबर में शाया किया जाय. हमको उम्मीद है कि यह नादिर किस्से अरसे तक ज़माना की खुसूसियत बने रहेंगे. जमाना के लिए यह फख्र की बात है कि उसकी इजाज़त से इन किस्सों के गुजराती, पंजाबी, हिन्दी और मरह्ठी ज़बानों में तर्जुमे हो चुके है. (27)
सप्त सरोज के प्रकाशन के लगभग पाँच माह बाद प्रेमचंद की कहानियों का दूसरा संग्रह ‘नव निधि’, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर बंबई से 1918 ई० में प्रकाशित हुआ. संग्रहः में कुल नौ कहानियाँ हैं जो ज़माना के विभिन्न अंकों से ली गयी हैं. इनका हिन्दी अनुवाद किसी अन्य व्यक्ति का किया हुआ प्रतीत होता है. प्रेमचंद ने इस तथ्य का संकेत उसी समय कर दिया था जब वे अपने प्रथम कहानी संग्रह सप्त सरोज के लिए तीन मौलिक कहानियाँ लिखने में व्यस्त थे. निगम के नाम 24 नवम्बर 1915 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था.
"किस्से लिख रहा हूँ. ज्यों ही तैयार हो गए भेजूंगा. अभी तक हिन्दी मजमूआ तैयार नहीं हुआ है. यह किस्से पहले पहल हिन्दी में निकलेंगे. इसके बाद उर्दू में भी. अभी छाप देने से इनका नयापन जाता रहेगा. कोशिश कर रहा हूँ कि अपनी और कहानियाँ भी तर्जुमा करके छापूँ. एक साहब रूपया लगाने के लिए तैयार हैं. " (28)
"तर्जुमे कराके छापने" के निर्णय से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने कहानियों का चयन करके उन्हें अनुवादक के सुपुर्द कर दिया। सम्भव है कि यह भार प्रकाशक ने अपने ऊपर ले लिया हो और उसने प्रेमचंद द्वारा चुनी गयी कहानियों के अनुवाद स्वयं कराये हों। इस अनुवाद में प्रेमचंद की सीधी सादी और पैनी भाषा को कृत्रिम, फूहड़ और पंडिताऊ शब्द ठूंस कर प्रभावहीन बना दिया गया है। सामने की बात है कि ‘अमावस की रात’ जैसे कंठमधुर शीर्षक को अनुवादक ने ‘अमावस्या की रात्रि’ के रूप में बदलकर उसकी सहजता समाप्त कर दी है. ये न तो प्रेमचंद कर सकते थे न ही उनके सहयोगी मन्नन द्विवेदी. सप्त सरोज की भाषा भी यद्यपि स्तरीय नहीं कही जा सकती फिर भी नव निधि की तुलना में कहीं अधिक परिष्कृत और सहज है.
प्रेमचंद की कहानियों का तीसरा संग्रह प्रेमपूर्णिमा हिन्दी पुस्तक एजेंसी कलकत्ता से 1919 ई० में प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियाँ संकलित थीं. इनमे से शंखनाद, बलिदान और सच्चाई का उपहार पहली बार इसी संग्रह के लिए लिखी गयी थीं.शेष कहानियों में से दुर्गा का मन्दिर, और महा तीर्थ (हज्जे अकबर) क्रमशः ज़खीरा और कहकशां से, ईश्वरीय न्याय निगम द्वारा प्रकाशित आजाद से और बाकी ज़माना उर्दू मासिक से हिन्दी में अनूदित हुईं. सच्चाई का उपहार इस संग्रह की एक ऐसी कहानी है जिसका रूपांतर उर्दू की किसी पत्रिका में नहीं हुआ.
प्रेमपूर्णिमा के प्रकाशन तक प्रेमचंद को हिन्दी लिखने का पर्याप्त अभ्यास हो चुका था. हिन्दी में मौलिक लेखन की क्षमता उनमें न केवल पूरी तरह विकसित हो चुकी थी, अपितु उनहोंने अपनी शैली की पहचान भी बना ली थी. इस संग्रह की अनूदित कहानियो को ध्यानपूर्वक देखने से इस तथ्य की पुष्टि की जा सकती है कि या तो यह अनुवाद लेखक ने स्वयं किए हैं या किसी से अपनी देख-रेख में कराये हैं. संग्रह में संकलित कहानियो की बुनावट और अभिव्यक्ति में अपेक्षित काट-छांट और संशोधन की प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है. कहानियो के उर्दू पाठ जहाँ मुस्लिम पाठकों की रूचि को सामने रखकर तैयार किए गए हैं वहीं हिन्दी पाठ में हिंदू पाठकों की रूचि का ध्यान रखा गया है.
यहाँ दो भाई और महातीर्थ शीर्षक कहानियों के सन्दर्भ गैर प्रासंगिक न होंगे. दो भाई पहली बार ज़माना के जनवरी 1916 ई० के अंक में प्रकाशित हुई. मूल उर्दू कहानी में पात्रों के नाम वासुदेव, जसोदा, कृष्ण, बलराम, राधा और श्यामा हैं. कृष्ण के भगवत पढ़ने, मुरली बजाने और गोकुल वासियों का उद्धार करने के सन्दर्भ भी कहानी में उपलब्ध हैं. प्रेमपूर्णिमा में इन नामों को बदलकर क्रमशः शिवदत्त, कलावती, केदार, माधव कर दिया गया है. श्यामा के नाम में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं महसूस की गयी है. गोकुल, भागवत और मुरली के सन्दर्भ भी निकाल दिए गये हैं. इस प्रकार जहाँ उर्दू पाठ में सनातन धर्मियों के ईष्टदेव भगवन कृष्ण की खिल्ली उड़ाई गयी है वहीं हिन्दी पाठ को एक सामान्य और सरल सी कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है.
महातीर्थ शीर्षक कहानी पहली बार उर्दू पत्रिका कहकशां के नवम्बर 1918 अंक में हज्जे-अकबर शीर्षक से छपी थी. कहानी के मुख्य पात्र थे मुंशी साबिर हुसैन, शाकिरा, नसीर और अब्बासी. प्रेम पूर्णिमा में इन पत्रों की शुद्धि कर दी गयी है और इनके नाम और धर्म सभी कुछ बदल दिए गए हैं. इनके परिवर्तित नाम क्रमशः इन्द्रमणि, सुखदा, रुद्रमणि और कैलासी .कहानी के अंत में धर्म परिवर्तन के प्रभाव से हज्जे- अकबर महातीर्थ में बदल गया है. उर्दू में इस कहानी के दोनों ही पाठ उपलब्ध हैं. एक वह जो प्रेमबत्तीसी भाग-2में कहकशां से लिया गया है और दूसरा वह जो मेरे बेहतरीन अफ़साने में हिन्दी से अनूदित है।
प्रेमचंद का चौथा कहानी संग्रह प्रेमपचीसी के नाम से हिन्दी पुस्तक एजेंसी कलकत्ता से 1923 में छपा. संग्रह में कुल पचीस कहानियाँ संकलित हैं. प्रेमचंद की 2 मार्च 1917 की चिट्ठी को यदि इस प्रसंग से जोड़ कर देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी प्रेमपचीसी उर्दू प्रेमपचीसी का ही हिन्दी संस्करण है और इसका प्रकाशन उर्दू प्रेमपचीसी के साथ ही प्रारम्भ हो गया था. चिट्ठी का यह अंश द्रष्टव्य है, "प्रेमपचीसी का हिंदी एडिशन छप रहा है. उसका मराठी एडिशन भी छप रहा है."(29)
वस्तुतः यह एक विशुद्ध मनोवैज्ञानिक खुराक है जो इस चिट्ठी के माध्यम से दया नरायन निगम को दी जा रही है अन्यथा इस वक्तव्य का कोई भी अंश सच्चाई पर आधारित नहीं है. फारसी भाषा में एक कहावत प्रसिद्ध है, " दरोग गोयां रा हफ्ज़ा न दारंद" अर्थात झूठों के पास स्मरणशक्ति नहीं होती. प्रेमचंद यह भूल गए थे कि ठीक अट्ठारह दिन पहले वे निगम को एक और चिट्ठी प्रेमपचीसी के प्रसंग में भेज चुके थे जिसमें उनहोंने स्पष्ट लिखा था "कई हिन्दी के बुकसेलर प्रेमपचीसी को शाया करने की इजाज़त मांग रहे हैं. मैं हिस्सा दोयम का इंतज़ार कर रहा हूँ. किताब पूरी हो जाय तो किसी को दे दूँ."(30)
स्पष्ट है कि 1917 ई0 के मध्य तक हिन्दी प्रेमपचीसी के छपने का कोई सिलसिला शुरू नहीं हुआ था और मराठी संस्करण के प्रकाशन की जानकारी तो आज भी उपलब्ध नहीं है. रोचक बात यह है कि हिन्दी प्रेमपचीसी की कहानियाँ उर्दू प्रेमपचीसी से कोई मेल नहीं खातीं. केवल एक कहानी विस्मृति ऐसी है जो उर्दू प्रेमपचीसी भाग-2में भी छपी थी. संग्रह की आठ कहानियाँ- ब्रह्म का स्वांग, सुहाग की साड़ी, हार की जीत, बैर का अंत, स्वत्व रक्षा, बौड़म, पूर्व संस्कार तथा नैराश्य लीला ऐसी है जो मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गयीं.शेष सत्रह कहानियाँ ज़माना, कहकशां, तह्ज़ीबे निसवां, हुमायूँ, अलअस्र तथा हज़ार दास्तान के मूल उर्दू पाठ से अनूदित है.
नवम्बर 1923 ई० में ही प्रेमचंद का एक और कहानी संग्रह प्रेम प्रसून हिन्दी पुस्तक माला, लखनऊ से प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल बारह कहानियाँ है जिनमें से केवल पाँच आपबीती, आभूषण, राजभक्त, अधिकार, चिंता और गृहदाह मूल रूप से हिन्दी में लिखी गयीं. शेष सात कहानियाँ ज़माना, हज़ार दास्तान, सोजे वतन तथा सुभे उम्मीद से ली गयी है. इन्हें अनूदित कहानियो की श्रेणी में रखना ही समीचीन होगा.
उपर्युक्त दोनों संग्रहों की चर्चा करते हुए प्रेमचंद ने 25 अप्रैल 1923 ई० को दया नरायन निगम को लिखा था-" सिरे दरवेश (शाप) का तर्जुमा अनक़रीब ख़त्म होने वाला है. अब सोजे वतन की ज़रूरत है. उसमें से दो-तीन कहानियाँ ले लूँगा ......दिसम्बर से पहले यह मज्मूआ (संग्रह) अपने प्रेस से निकाल दूँगा. इसका नाम होगा प्रेम प्रसून. पचीस कहानियो का एक अलहदा मज्मूआ कलकत्ता से निकल रहा है जो हिन्दी की प्रेमपचीसी होगी."(31)
तीन वर्ष बाद 1926 ई० में प्रेमचंद का छठा कहानी संग्रह प्रेम प्रमोद चाँद कार्यालय इलाहबाद से प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल सोलह कहानियाँ संकलित है. इस संग्रह की सभी कहानियाँ चाँद हिन्दी मासिक में जनवरी 1923 ई० से अक्टूबर 1925 ई० के मध्य प्रकाशित हुईं. मूल रूप से यह कहानियाँ हिन्दी में ही लिखी गयीं और इनके उर्दू अनुवाद उर्दू चाँद में बाद में निकले. किंतु यह अनुवाद प्रेमचंद द्वारा नहीं किए गए. सच पूछा जाय तो प्रेम प्रमोद प्रेमचंद की मौलिक हिन्दी कहानियो का पहला संग्रह है. इसकी भाषा और अभिव्यक्ति को स्तरीय मानकर हिन्दी में उपलब्ध प्रेमचंद की अन्य कहानियो का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
1926 ई० में ही प्रेमचंद का एक और कहानी संग्रह प्रेम प्रतिमा सरस्वती प्रेस बनारस से छपा. इसमें कुल उन्नीस कहानियाँ संकलित थीं जो मार्च 1920 ई० से लेकर जनवरी 1926 ई० तक की हिन्दी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं थीं. हाँ, गुरु मन्त्र, बाबा जी का भोग, और सुअभाग्य के कोड़े पहली बार इसी संग्रह में छपीं. इस संग्रह की भी सभी कहानियाँ मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गयीं. उर्दू में इनके भ्रष्ट अनुवाद प्रकाशित हुए जो उर्दू पत्रिकाओं के संपादकों ने प्रेमचंद की अनुमति के बिना ही साधारण अनुवादकों से करा लिए.
प्रेमचंद का आठवां कहानी संग्रह प्रेम द्वादशी गंगा पुस्तक माला लखनऊ से 1926 ई० में छपा। इसमें कुल बारह कहानियाँ संकलित हैं. इस संग्रह की केवल तीन कहानियाँ ऐसी हैं, जो इससे पहले के संग्रहों में नहीं हैं. किंतु इन कहानियो को बहुत पहले उर्दू में लिखा गया था. बड़े घर की बेटी, दिसम्बर 1910 ई० के ज़माना में छपी थी. शान्ति जिसका उर्दू नाम बाज़याफ़्त था तहजीबेनिसवां के अप्रैल 1918 ई० के अंक में निकली थी और बैंक का दिवाला फरवरी 1919 ई० के कहकशां में प्रकाशित हुई थी. कदाचित इसी लिए इनमें उर्दू मूल पाठ की सरसता नहीं आ सकी है. वस्तुतः यह संग्रह स्कूलों के पाठ्यक्रम की दृष्टि से तैयार किया गया प्रतीत होता है. आगे के भी सभी संग्रह- प्रेमतीर्थ (1928 ई०), प्रेम चतुर्थी (1929 ई०), अग्नि समाधि तथा अन्य कहानियाँ (1929 ई०), पाँच फूल (1929 ई०), समर यात्रा और ग्यारह और राजनीतिक कहानियाँ (1930 ई०), प्रेम पंचमी (1930 ई०), प्रेरणा और अन्य कहानियाँ (1932 ई०) तथा प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (1933 ई०) इसी उद्देश्य से प्रकाशित किए गए प्रतीत होते हैं. प्रेमचंद ने अपने जीवनकाल में मानसरोवर श्रृंखला की जो बुनियाद रखी वह आठवें खंड पर आकर समाप्त हो गयी. हाँ, इस श्रृंखला के दो खंड प्रेमचंद के जीवनकाल में निकल चुके थे. उसके बाद 1962 ई० में अमृत राय ने गुप्तधन भाग-1 और भाग-2 में छप्पन और कहानियाँ छापीं. इनमें से अधिकतर कहानियाँ उर्दू से अनूदित हैं और प्रेमचंद की हिन्दी कहानियो के साथ इनकी गणना नहीं की जा सकती.
टिप्पणी
(27). ज़माना, 1911, पृ0 314
(28). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 50
(29). वही, पृ0 60
(30). वही, पृ0 60-61
(31). वही, प्र० 158
***********************क्रमशः

Thursday, August 14, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4.3]

4.4. असली नाम और नकली कहानियाँ

उर्दू में प्रेमचंद के नाम से जो साहित्य प्राप्त हुआ है उसमें पंजाब के अनेक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित सत्रह कहानी संग्रह ऐसे उपलब्ध हैं जिनके लेखक प्रेमचंद, फितरतनिगार प्रेमचंद और मुंशी प्रेमचंद हैं. उर्दू पत्रिकाओं में प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी अथवा फितरतनिगार लिखा जाना सामान्य सी बात थी. यद्यपि कुछ हिन्दी लेखकों ने यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया है कि के. एम्. मुंशी के साथ हंस का संपादन करने के कारण प्रेमचन्द मुंशी प्रेमचंद कहलाने लगे. सच तो यह है कि उस समय गैर पंडित लेखकों के नाम से पूर्व हिन्दी तथा उर्दू में क्रमशः बाबू और मुंशी शब्द जोड़ने की आम प्रथा थी. उर्दू पत्रिकाएँ प्रारम्भ से ही प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी शब्द लगा रही थीं.
बात प्रेमचंद नाम से प्राप्त कहानी संग्रहों की चल रही थी इसलिए यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन संग्रहों में उपलब्ध कहानियाँ प्रेमचंद के असली नाम की छाप के बावजूद नक़ली हैं. इनका प्रेमचंद से कोई सम्बन्ध नहीं है. उर्दू संग्रहों के नाम इस प्रकार हैं- 1- औरत की मुहब्बत 2- मुसाफिर और दूसरे अफसाने, 3- इश्के खामोश, 4- मनोरमा, 5- सपेरन, 6- ठोकर, 7- दुल्हन, 8- कोचवान 9- इश्क का राग, 10- तूफ़ान, 11- प्रभात, 12- खामोश तबीयत, 13- कपाल कुंडला, 14- कशमकश, 15- लडकी, 16- ज़लज़ला, 17-तिलिस्मे मजाज़.
डॉ। क़मर रईस का विचार है कि इन संग्रहों में प्रत्येक पृष्ठ पर भाषा और बयान की जो दुर्बलताएँ हैं वह पुकार-पुकार कर कहती हैं कि मैं किसी साधरण प्रतिभा के पंजाबी साहित्यकार की रचना हूँ. गऊदान वाले प्रेमचंद से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं. यह अन्तः साक्ष्य इतना प्रबल है कि फिर किसी बाहरी सबूत की अपेक्षा नहीं रहती. (9)
प्रेमचंद के नाम का लाभ उठाकर अच्छा धंधा कर लेना पंजाब के प्रकाशकों के लिए बड़ा ही सुविधाजनक था. डॉ. रईस ने इस पहलू पर विचार करने के बजाय यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इन कहानियों की भाषा प्रेमचंद की उर्दू थी ही नहीं. हिन्दी गोदान का गऊदान के नाम से उर्दू अनुवाद इक़बाल वर्मा सेहर हत्गामी ने प्रेमचंद के निधनोपरांत शिवरानी देवी के निवेदन पर उपयुक्त पारिश्रमिक लेकर किया था. यह अनुवाद जनवरी 1938 ई० में समाप्त करके जामिया में प्रकाशनार्थ भेज दिया गया था. उर्दू गऊदान का प्रथम संस्करण मक्तबा जामिया से फरवरी 1939 ई० में निकला था. ऐसी स्थिति में उर्दू गऊदान की भाषा को प्रेमचंद की भाषा का आधार नहीं बनाया जा सकता. उर्दू गऊदान अनुवाद होने के कारण इकबाल वर्मा सेहर हत्गामी की भाषा का नमूना है, प्रेमचंद की भाषा का नहीं.
कुछ भी हो, उपर्युक्त कहानियों के लेखक प्रेमचंद नहीं हैं। किंतु किसी ग़लत बुनियाद के आधार पर कोई निर्णय लेकर शोध की दिशाएँ अवरुद्ध नहीं की जा सकतीं. जहाँ तक भाषा और अभिव्यक्ति की दुर्बलताओं का प्रश्न है, इस तथ्य का संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि प्रेमचंद उर्दू अनुवाद का कार्य अधिकतर दूसरों को सौंप दिया करते थे. इसलिए उनकी हिन्दी रचनाओं के अनेक उर्दू अनुवाद भाषा की दृष्टि से कमज़ोर हैं.
उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक मिर्जा जाफ़र अली खान असर ने करबला नाटक की भाषा संबन्धी दुर्बलताओं का जब संकेत किया तो प्रेमचंद ने उसे स्वीकार करते हुए निगम को लिखा था- "वाकेया ये है कि मैंने हिन्दी से ख़ुद तर्जुमा नहीं किया। मेरे एक नार्मल स्कूल के दोस्त मुनीर हैदर कुरैशी हैं, इन्हीं से करा लिया है."(10) यही स्थिति जस्टिस, सिल्वर बाक्स तथा स्ट्राइफ के साथ भी पेश आई. प्रेमचंद ने 10 अप्रैल 1932 ई० के पत्र में यह स्वीकार कर लिया था कि यह अनुवाद बाबू हरी परशाद सक्सेना की शिरकत से किया गया था."(11) यहाँ शिरकत शब्द बात रखने के लिए डाल दिया गया है.प्रेमचंद ने लेखन के प्रारंभिक काल में विशेष रूप से और बाद में भी अनेक ऐसी कहानियाँ और लेख उर्दू पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजे जिनके अनुवाद बंगला, गुजराती और अंग्रेज़ी से उर्दू में किए गए. किंतु इनके अनूदित होने का उल्लेख पत्रिकाओं में नहीं किया. फलस्वरूप उर्दू से रूपांतरित करके प्रेमचंद के नाम से अनेक ऐसी कहानियाँ हिन्दी में छापी गयीं जिनकी हैसियत मात्र अनूदित कहानियों की है. प्रेमचंद ने 1926 ई० के समालोचक में अंग्रेज़ी से उर्दू में किए गए अनुवादों का संकेत भी किया है.(12)
प्रेमचंद के नाम से गोयनका ने एक कहानी छापी है "अपने फ़न का उस्ताद" .(13) यह कहानी ज़माना के सितम्बर 1916 ई० के अंक में छपी थी. डॉ. गोयनका ने प्रेमचंद की 16 दिसम्बर 1915, 3 मई 1916 और 22 अप्रैल 1916 की चिट्ठियां मिलाकर पढ़ने का कष्ट नहीं किया है. करते भी कैसे. अमृत राय ने चिट्ठियों की तारीखें ग़लत लिखकर सबकुछ गडमड कर दिया है.(14) प्रेमचंद ने 22 मई 1916 ई० को ‘सरे पुरगुरूर’ और अपने फ़न का उस्ताद शीर्षक कहानियाँ ज़माना के लिए एक साथ भेजी थीं जो क्रमशः अगस्त और सितम्बर के अंकों में छपी थीं. पहली कहानी मौलिक थी और दूसरी एक बंगला कहानी से अनूदित थी. कहानी लेखक के रूप में प्रेमचंद का नाम नहीं दिया गया था. हाँ कहानी के समापन पर दाल० रे० अर्थात् धनपत राय अंकित था. कहानी के साथ भेजी गयी चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था- "सरे पुरगुरूर जाता है. एक और किस्सा भी भेजता हूँ. यह कुछ अरसा हुआ बंगला से तर्जुमा होकर मर्यादा में निकला था. किस्सा निहायत दिलचस्प है वरना मैं तर्जुमा क्यों करता."(15) द्रष्टव्य यह है कि कहानी के सभी पात्र बंगाली हैं. कथानक भी कलकत्ता का है. फलस्वरूप इस कहानी का हिन्दी पाठ जिसे मूल बंगला से रूपांतरित किया गया है, मर्यादा में तलाश किया जाना चाहिए. प्रेमचंद इस कहानी के लेखक नहीं हो सकते.
प्रेमचंद के नाम से एक अन्य कहानी ‘पर्वत यात्रा’ अमृत राय ने गुप्तधन में प्रकाशित की है, जबकि तथ्य यह है कि यह कहानी प्रेमचंद की मौलिक रचना न होकर उर्दू से अनूदित है। इस प्रसंग में प्रेमचंद की 1929 ई० की डायरी की कुछ टिप्पणियाँ अंकित करना अनुपयुक्त न होगा.
11 फरवरी, सैरे- कोहसार के दो पन्ने तर्जुमा किए.
13 फरवरी, करीब तीन पेज रूपांतर किया.
14 फरवरी, कोहसार के दो पन्नों का रूपांतर किया.(16)
आश्चर्य यह देखकर होता है कि डायरी के इन पृष्ठों को कलम का सिपाही में उद्धृत करने के बाद भी अमृत राय पर्वत यात्रा को प्रेमचंद की मौलिक रचना मानते हैं. तथ्य यह है कि यह कहानी उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार रतन नाथ सरशार की मशहूर रचना है. इस दृष्टि से पर्वतयात्रा को प्रेमचंद की मौलिक रचना स्वीकार करना आंखों में धूल झोंकना है.
प्रेमचंद के जीवनकाल में ऐसा अकसर हुआ है कि यदि उनके द्वारा किया गया कोई अनुवाद उनकी मौलिक रचना के ठप्पे के साथ चल निकलता था तो सामान्य रूप से वे चुप्पी साध जाते थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है रूठी रानी. जमाना में रूठी रानी की कथा के समापन पर अगस्त 1907 ई० के अंक में स्पष्ट अक्षरों में अंकित है-"माखूज़ व तर्जुमा अज़ हिन्दी", अर्थात् हिन्दी से लिया और रूपांतरित किया गया.किंतु प्रेमचंद के जीवनकाल में भी और उनके निधनोपरांत भी मुंशी देवी प्रसाद द्वारा लिखित एवं भारत मित्र प्रेस कलकत्ता से 1906 ई० में हिन्दी में प्रकाशित रूठी रानी नवाब राय के मनाने पर ऐसा सध गयी कि उन्हीं की होकर रह गयी.
अपनी इस प्रवृत्ति के नतीजे में प्रेमचंद को पर्याप्त छीछालेदर का सामना करना पड़ा. ज़माना के फरवरी 1916 ई० के अंक में प्रकाशित प्रेमचंद के हंसी शीर्षक लेख का सन्दर्भ देना यहाँ अनुपयुक्त न होगा. 3 मई 1916 ई० को प्रेमचंद ने निगम को इस प्रसंग में सूचना दी थी-"मैंने तर्जुमा नहीं किया है, बस नफ़स (केन्द्रीय विचार) ले लिया है.(17) किंतु जब 1926 ई० में हंसी को लेकर पर्याप्त ले-दे मची तो प्रेमचंद ने शरद संवत् 1983 वि० के समालोचक में वक्तव्य दिया कि इस लेख की स्थिति केवल अनुवाद की है जिसकी सूचना ज़माना के सम्पादक को दे दी गयी थी.(18)

रोचक बात ये है कि मूल लेख से अनुवाद करने की सूचना देने के साथ-साथ प्रेमचंद ने निगम का विचार भी जानना चाहा। "नागरी प्रचारिणी में ज़राफ़त पर एक इन्तेहाई आलिमाना मज़मून छपा है, तर्जुमा है, कहिये तो कुछ नए उनवान से उसी पर कुछ लिख दूँ. सिरक़ा बिलजब्र (ज़बरदस्ती उड़ा लेना) हो या लेखक की अनुमति प्राप्त करके ?(19)" ज़ाहिर है कि यह सिरक़ा ज़बरदस्ती ही प्राप्त किया गया था और सूचना यह दी गयी थी कि केवल केन्द्रीय विचार लिया गया है. इससे प्रेमचंद की प्रकृति का भी अनुमान किया जा सकता है.
कहते हैं कि दूध की जली बिल्ली छाछ भी फूँक कर पीती है. 1920 ई० में प्रेमचंद के नाम से आबे-हयात और अश्के-नदामत शीर्षक दो अनूदित कहानियाँ कहकशां में प्रकाशित हुईं जिनपर उर्दू पाठकों ने पर्याप्त टिप्पणियाँ कीं. फस्वरूप 29 जून 1920 ई० को प्रेमचंद ने जब इम्तियाज़ अली ताज के पास आस्कर वाइल्ड की एक कहानी कैंटर विलेज घोस्ट का उर्दू अनुवाद भेजा तो यह लिखना नहीं भूले कि "इसके आखीर में मेरा नाम देने की ज़रूरत नहीं क्योंकि आबे-हयात और अश्के- नदामत के बाद मैंने अहद कर लिया है कि तर्जुमा न करूंगा."(20)

डॉ। गोयनका ने अश्के नदामत को प्रेमचंद की मौलिक कहानी मानते हुए प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य में प्रकाशित किया है.(21) सम्भव है कि उनहोंने प्रेमचंद की चिट्ठी पर ध्यान न दिया हो. हाँ, कहानी के शिल्प पर यदि डॉ. गोयनका थोड़ा भी विचार करते तो सहज ही यह निष्कर्ष निकाल सकते थे कि कथ्य और शैली की दृष्टि से यह कहानी प्रेमचंद की कहानियो के साथ मेल नहीं खाती. ऐसी ही ग़लती उर्दू में प्रेमचंद द्वारा अनूदित सगे लैला शीर्षक कहानी के साथ भी की गयी है जिसके अनूदित होने का संकेत सम्पादक ने भूमिकास्वरुप लिखी गयी अपनी टिप्पणी में कर दिया है.(22) डॉ. गोयनका ने डॉ. जाफ़र रज़ा द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर (23) उनका कोई सन्दर्भ दिए बिना इस कहानी को भी अप्राप्य साहित्य के साथ छाप दिया है.(24) कहानी के पात्रों उसके वातावरण और उसकी बुनावट पर भी ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी है. अनूदित कहानियो को प्रेमचंद की मौलिक रचनाएं बता कर छापना किसी प्रकार भी उचित नहीं कहा जा सकता.
प्रेमचंद अनुवाद न करने का बार-बार संकल्प करके भी अनुवादों के छपने में रूचि लेते रहे. दूसरों से अनुवाद कराके अपने नाम से छपवा लेने में भी उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ. प्रेमचन्द की कुछ चिट्ठियों से मेरे विचार की पुष्टि की जा सकती है. 16 दिसम्बर 1919 को ताज के नाम अपने पत्र में लिखते हैं, "मैं अनक़रीब चार्ल्स डिकेंस का एक क़िस्सा भेजूंगा. नादिर क़िस्सा है. तर्जुमा मुकम्मल है. अदीमुल्फुर्सती के बाइस एक साहब से नक़ल करा रहा हूँ.(25)
इस अनुवाद की वास्तविकता यह थी कि प्रेमचंद के बजाय रघुपति सहाय फ़िराक़ संदर्भित कहानी का अनुवाद कर रहे थे। ताज को लिखे गए पत्र से ठीक नौ दिन पूर्व इसी कहानी के अनुवाद के सम्बन्ध में 7 दिसम्बर 1919 ई० को इस प्रकार सूचित किया गया था-" दो चार दिन में अपने एक ग्रेजुएट दोस्त की तर्जुमा की हुई एक कहानी भेजूंगा जो डिकेंस से ली गयी है.(26) बात केवल एक कहानी की नहीं है. प्रेमचंद का एक और पत्र भी देखिये जिसमें बर्नार्ड शा की एक रचना के अनुवाद की बात की गयी है:
“प्रिय बनारसी दास जी, बन्दे
यह एक छोटा सा ड्रामा शा की एक नयी रचना का अनुवाद है. इसे बड़े परिश्रम से कराया है. रचना कितनी उच्च कोटि की है, पढने से ज्ञात होगा. किसी नाम की बहुत ज़रूरत हो तो ध० (धनपत) रा० (राय) दे दें. पुरस्कार वही दें, जो आप अच्छे अनुवादों को दे सकें. आशा है आप सानंद होंगे.
भवदीय,
ध० राय
यह चिट्ठी मुरारी लाल केडिया के वाराणसी स्थित राम रत्न पुस्तकालय में सुरक्षित है। ध्यान देने की बात यह कि बर्नार्ड शा का यह अनुवाद प्रेमचंद के निधनोपरांत हंस के मार्च, अप्रैल 1937 ई० के अंकों में बिना अनुवादक के नाम के छपा था. बाद में यही रचना 1938 ई० में सृष्टि का आरम्भ शीर्षक से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई जिसपर अनुवादक के रूप में प्रेमचंद का नाम छापा गया. डॉ. गोयनका ने भी अप्राप्य साहित्य में इसे स्थान देकर अनुवादक का नाम प्रेमचंद ही अंकित किया है. डॉ. गोयनका ने अनुवादक के रूप में प्रेमचंद का नाम देने के पीछे क्या तर्क है, इसकी कोई चर्चा नहीं की है.
अनुवाद के उपर्युक्त सन्दर्भों से हटकर प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित कुछ अन्य कहानियों पर भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। धोखे की टट्टी ( उर्दू मासिक, अदीब, नवम्बर 1912 ई०) खौफे रुसवाई ( अदीब, सितम्बर 1911 ई०) वफ़ा की देवी (उर्दू कहानी संग्रह आख़िरी तोहफा) और कातिल (गुप्त धन भाग-2) ऐसी ही कहानियाँ हैं. द्रष्टव्य यह है कि प्रेमचंद दूसरी भाषाओँ से ली गयी कहानियो पर अपना नाम देने के बजाय कहानी के समापन पर दाल० रे० अथवा ध० रा० लिखवाने का निर्देश सम्पादकों को कहानी भेजते समय ही दे दिया करते थे. यह इस तथ्य को संकेतित करता था कि ये कहानियाँ प्रेमचंद की मौलिक कहानियाँ नहीं हैं. प्रेमचंद नाम स्वीकार कर लेने के बाद नवाब राय के नाम से छपने वाली कहानियो की मौलिकता भी संदिग्ध है. धोके की टट्टी और खौफे रुसवाई कहानियों के पात्र, उनके कथानक, कथानक की सांस्कृतिक आधारभूमि आदि सभी कुछ बंगला कहानियो से मेल खाते हैं. प्रेमचंद की मौलिक कहानियो में उनका कथानक और उनके पात्र उत्तर प्रदेश की भौगोलिक परिधियों के भीतर ही विकसित होते हैं. इस दृष्टि से इन कहानियों की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है.
कातिल शीर्षक कहानी भी एक तोड़ी मरोड़ी हुई कहानी है। शिवरानी देवी की हत्यारा कहानी में थोड़ी उलट-पुलट करके गढी गयी यह कहानी भाषा और शिल्प की दुर्बलताओं के कारण प्रेमचन्द की कहानियो के साथ मेल नहीं खातीं. वफ़ा की देवी शीर्षक कहानी के किसी पत्र या पत्रिका में छपने की कोई सूचना उपलब्ध नहीं है. आख़िरी तोहफा (उर्दू कहानी संग्रह, 1938 ई०) में यह कहानी पहली बार प्रकाश में आई. ध्यानपूर्वक देखने पर यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है कि यह कहानी प्रेमचंद की मौलिक रचना नहीं है. किसी उठाईगीरे कहानीकार का फूहड़ प्रयास है. कहानी का प्रथम अंश काया कल्प के प्रारंभिक अंश से चुराया गया है. जहाँ कुंवर विशाल सिंह की कन्यां माघ मेले में खो जाती है. मध्य का अंश प्रेमचंद की लैला शीर्षक कहानी से उड़ाया गया है और इंदिरा पर कुंवर विशाल सिंह की कन्या का मुखौटा इस प्रकार फिट किया गया है कि प्रत्येक जोड़ अलग दिखाई देता है. इतना ही नहीं, बीच में शिवरानी देवी के कहानी वर यात्रा का भी कुछ अंश झपट लिया गया है. अंत में कुंवर साहब को उनकी कन्या इंदिरा से मिलाया गया है. किंतु इंदिरा अपने पिता के साथ जाने से इंकार कर देती है. इसी प्रकार की ढेर सारी ऊटपटांग बातें इस कहानी में भरी पडी हैं. घटनाओं की प्रस्तुति इतनी भद्दी और ब्योरात्मक है कि रचनाकार के अनाडी होने का स्पष्ट संकेत करती है
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह विचार बनता है कि पंजाबी प्रकाशकों के जिन सत्रह कहानी संग्रहों की चर्चा की गयी थी उन्हें केवल जालसाजी का नतीजा मानकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन संग्रहों की अधिकतर कहानियाँ बंगला या अंग्रेजी से अनूदित हैं. प्रेमचंद ने पारिश्रमिक के मोह में इस प्रकार के अनेक अनुवाद स्वयं भी किए थे और दूसरों से भी कराये थे. उनकी चिट्ठियों में पंजाबी पत्रिकाओं को भेजी गयी जिन अनूदित कहानियों के संकेत मिलते हैं उनकी छानबीन की जानी चाहिए. हाँ, इतना निश्चित है कि यह कहानियाँ प्रेमचंद की मौलिक रचनाएं नहीं हैं.
प्रेमचंद की लोकप्रियता को देखते हुए हिन्दी-उर्दू भाषाओँ में उनके नाम का मुखौटा ओढ़ने वाले कुछ अन्य लेखक भी पैदा हो गए थे। उर्दू पत्रिका रहनुमाए- तालीम, लाहौर के जनवरी 1934 के अंक में पॉँच रूपये शीर्षक प्रेमचंद नामक लेखक की एक कहानी देखी जा सकती है. यह एक साधारण सी कहानी है जिसकी भाषा प्रेमचंद की भाषा से बिल्कुल मेल नहीं खाती. इसी प्रकार सुधा लखनऊ के मार्च 1939 ई० के अंक में श्रीयुत प्रेमचंद एम० ए० की प्रेम का बलिदान शीर्षक कहानी भी उपलब्ध है. प्रेमचंद की एक कहानी डिमान्स्ट्रेशन गुप्त धन भाग 2 में संकलित है. यह कहानी पहली बार हुमायूं उर्दू मासिक के जनवरी 1932 ई० के अंक में छपी थी. महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रिका में प्रेमचंद के नाम के साथ देहलवी भी जोड़ा गया था. इस तथ्य की खोज की जानी चाहिए कि मुंशी प्रेमचंद देहलवी नामक कोई अन्य लेखक कहीं प्रेमचंद का समकालीन तो नहीं था. प्रेमचंद का एक और भी रोचक नाम देखने को मिलता है, लाला प्रेमचंद. खतीब उर्दू मासिक में कर्मों का फल शीर्षक कहानी के साथ यही नाम पाया जाता है.
टिप्पणी
(9 )। डॉ। कमर रईस, तलाशो-तवाजुन, पृ0 110 (10)। प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0150(11)।वही, पृ0 193 (12). वही, विविध-प्रसंग, पृ0 70 (13). डॉ. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 134(14).प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 51 तथा 30(15). वही, भाग 1, पृ0 30(16). अमृत राय, कलम का सिपाही, पृ0 385(17). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 30 (18). विविध-प्रसंग, भाग 3, पृ0 70(19). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 51(20). चिट्ठी-पत्री भाग 2, पृ0 115(21). प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 179(22). अदीब उर्दू मासिक, इलाहाबाद, अप्रैल 1913,पृ0 17(23). डॉ. जाफर रज़ा, प्रेमचंद : फ़न और तामीरे-फ़न, पृ0 114(24). प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 119(25). चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 110 (26).चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 ९२
******************** क्रमशः

Wednesday, August 13, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4/2]

4.3 नक़ली नाम और नक़ली कहानियाँ -
प्रेमचंद का मामला भी बड़ा दिलचस्प है। शोध की ललक में जिसका जो जी चाहता है एक नयी बात प्रेमचंद के साथ जोड़ देता है. उर्दू के दो आलोचकों- डॉ. क़मर रईस और डॉ जाफ़र रज़ा (इलाहाबाद) ने अलअस्र उर्दू मासिक में पलशम के नाम से प्रकाशित कहानियो में प्रेमचंद की झलक देखने का प्रयास किया और इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि यह कहानियाँ प्रेमचंद ने पलशम के छदम नाम से लिखी हैं. क़मर रईस इस प्रसंग में लिखते हैं, "मेरा ख्याल है कि अलअस्र में 1918 ई० तक पलशम के फर्जी नाम से जो कहानियाँ शाया हुईं, वो प्रेमचंद ही के ज़ेहन की तखलीक हैं. इन कहानियो के मौजूआत (विषय), इनका अंदाज़े-तहरीर (लेखन शैली ), और फन्नी उस्लूब (शिल्प) प्रेमचंद की उस दौर की कहानियो से गहरी मुशाबेहत (एकरूपता) रखता है।(4)
डॉ. जाफ़र रज़ा ने शब्दों के थोड़े हेर-फेर के साथ इन्हीं विचारों को अपनी निजी अवधारणा के रूप में टांक दिया है. -"प्रेमचंद की कहानियो पर विचार करते हुए पशलम को भी दृष्टि में रखना चाहिए जिनकी कहानियाँ प्रेमचंद के इस काल की कहानियो से बड़ी समानता रखती हैं. उदाहरणार्थ इसी नाम से प्रकाशित कहानी मजमून निगार की बीवी (अलअस्र, फरवरी,1917 ई०) की बनावट, विचारों का क्रम और लेखन शैली प्रेमचंद की कहानियो का चरबा मालूम होती हैं."(5)
रोचक बात यह है कि डॉ। जाफ़र रज़ा ने मूल उर्दू नाम ‘पलशम’ को बदलकर ‘पशलम’ कर दिया है ताकि यह समस्या सुलझाई ही न जा सके. हो सकता है कि इसे मुद्रण की भूल मान लिया जाय. किंतु उनकी यही पुस्तक छ: वर्ष पूर्व उर्दू में छप चुकी थी. उसमें भी लेखक का नाम पशलम ही अंकित किया गया है.
सच पूछिए तो इसी को कहते हैं राई का पर्वत बनाना. बात बहुत सीधी सी है. अलअस्र उर्दू मासिक के संपादक कविता और कहानियाँ दोनों लिखते थे. पलशम शब्द उन्हीं के नाम का संक्षिप्त रूप था जिनके अक्षरों को पृथक-पृथक लिखने के बजाय मिलाकर लिख दिया गया है. इस शब्द को पे. (प्यारे) लाम. (लाल) शीन. (शाकिर), मीम. (मेरठी) पढ़ा जाना चाहिए. यह कहानियाँ निश्चित रूप से प्यारे लाल शाकिर मेरठी की ही रचनाएँ हैं. प्रेमचंद नाम स्वीकार करने के बाद धनपतराय अथवा नवाबराय ने किसी भी छद्म नाम से कोई कहानी कभी नहीं लिखी.
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अमृतराय के मस्तिष्क की एक उपज पर भी विचार कर लेना अपेक्षित जान पड़ता है। ‘बम्बूक’ नामक उर्दू के एक कहानी लेखक की दो रचनाएँ तांगे वाले की बड़ (ज़माना, सितम्बर 1929) और शादी की वजह (ज़माना, मार्च 1927) अमृतराय ने गुप्तधन में इस आधार पर छापी हैं कि कानपूर की मित्र मंडली में (उनकी समझ से) प्रेमचंद बम्बूक के नाम से याद किए जाते थे. पहली बात तो यह है कि अमृतराय ने जमाना के वे अंक जिनमें यह कहानियाँ छपी हैं, स्वयं नहीं देखे हैं. इन अंकों में बम्बूक नाम के साथ ब्रैकेट में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि "एक एम्. एस. सी”. ज़ाहिर है कि प्रेमचंद एम्. एस. सी. नहीं थे. फिर ज़माना वाले बम्बूक महोदय की एक कन्यां भी थीं जिनका नाम अनीस फातमा था और जो कहानियाँ भी लिखती थीं. निश्चित सी बात है कि प्रेमचंद अनीस फातमा बिन्ते बम्बूक के पिता नहीं थे.
नैरंगे ख़याल के जून 1932 ई० के अंक में अनीस फातमा की ‘घूर’ शीर्षक एक कहानी और फरवरी 1933 ई० के अंक में ‘हम और हमारी शायरी’ शीर्षक एक लेख देखा जा सकता है। दोनों ही स्थलों पर लेखिका का नाम ‘अनीस फातमा बिन्ते बम्बूक’ अंकित है. फिर अमृत राय का यह अनुमान भी निराधार है कि प्रेमचंद कानपूर की मित्र मंडली में बम्बूक के नाम से जाने जाते थे. निगम को जून 1906 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था-"कोई बीस दिन से ज़्यादा गुज़रे मगर क़सम ले लो जो ज़बान से प्यारा लफ्ज़ बम्बूक एक बार भी निकला हो."(6) द्रष्टव्य यह है कि प्रेमचंद ने यह नहीं लिखा है कि बम्बूक शब्द एक बार भी सुनने का अवसर नहीं मिला. ज़बान से बम्बूक शब्द अदा करने की इच्छा इस तथ्य का संकेत करती है कि प्रेमचंद अपने किसी मित्र विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे. इस स्थिति में बम्बूक नामक लेखक की कहानियों को प्रेमचंद की कहानियाँ घोषित करना सर्वथा निर्मूल और निराधार है.
प्रेमचंद के दो कहानी संग्रहों ‘आख़िरी तोहफ़ा’ और ‘वारदात’ में उनकी दो ऐसी कहानियाँ संकलित हैं जिनकी मूल लेखिका श्रीमती शिवरानी देवी प्रेमचंद हैं. इन कहानियों के शीर्षक हैं ‘बारात’ और ‘क़ातिल की मां.’ शिवरानी देवी उर्दू पढ़ना-लिखना नहीं जानती थीं. फिर भी उनकी कहानियाँ नैरंगे ख़याल और लैला जैसी उर्दू पत्रिकाओं में बराबर छपती रहती थीं. उपर्युक्त दोनों कहानियाँ शिवरानी देवी के हिन्दी कहानी संग्रह नारी ह्रदय में भी सम्मिलित है. इस संकलन से पूर्व हंस में भी इनका प्रकाशन हो चुका था. नैरंगे ख़याल के जून 1932 ई० के अंक में बारात शीर्षक कहानी के साथ लेखिका का नाम इस प्रकार अंकित है-"हिन्दी की मशहूर अदीबा शिवरानी साहिबा ज़ौजा मुंशी प्रेमचंद साहब."

अमृत राय ने उपर्युक्त दोनों कहानियों को गुप्त धन में प्रकाशित करना उपयुक्त नहीं समझा। किंतु डॉ. जाफ़र रज़ा ने अमृत राय से असहमति व्यक्त करते हुए इन कहानियों की गणना प्रेमचंद की कहानियों के साथ की है. उनकी अवधारणा है कि वारदात और आख़िरी तोहफ़ा कहानी संग्रहों का संपादन प्रेमचन्द ने स्वयं किया था (7) डॉ. कमल किशोर गोयनका ने डॉ. जाफ़र रज़ा का कोई सन्दर्भ दिए बिना लगभग वही बात दोहराई है.(8) यदि यह कहानियाँ संग्रहों में संकलित होने से पूर्व उर्दू में कहीं प्रकाशित न हुई होतीं तो भी एक बात थी. उर्दू के पाठक इन कहानियों को उर्दू पत्रिकाओं में शिवरानी के नाम से पढ़ चुके थे. फिर प्रेमचंद उन्हें अपने नाम से प्रकाशित करना क्यों पसंद करते. डॉ. गोयनका और डॉ. रज़ा की यह सूचनाएँ भी निराधार हैं कि आख़िरी तोहफ़ा 1934 ई० में प्रकाशित हुआ था. इस संग्रह का पहली बार प्रकाशन नारायन दत्त सहगल एंड सन्स ने 1938 ई० में किया था. हुसामुद्दीन गोरी को, मार्च 1935 ई० के पत्र में जो सूचना दी गयी है उससे डॉ. गोयनका ने यह अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कि संग्रह प्रेस में जा चुका है. मक्तबा जामिया देहली ने वारदात का प्रकाशन फरवरी 1938 ई० में किया था. प्रेमचन्द ने यदि संग्रह तैयार करके जामिया प्रेस को दे दिया होता तो उसके प्रकाशन में तीन-चार वर्ष का समय लग जाने की बात सोची भी नहीं जा सकती. स्पष्ट है कि बारात और क़ातिल की मां प्रेमचंद की कहानियाँ नहीं हैं और इन संग्रहों का संपादन भी प्रेमचंद ने नहीं किया है;

टिप्पणी
(4). डॉ. क़मर रईस, तलाशो-तवाजुन, पृ0 109
(5). डॉ. जाफ़र रज़ा, प्रेमचंद : उर्दू हिन्दी कथाकार, पृ0 107
(6). प्रेमचंद , चिट्ठी-पटरी, भाग 1, पृ0 4
(7).डॉ. जाफ़र रज़ा, प्रेमचंद : कहानी का रहनुमा, पृ0 355
(8). डॉ. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 ३०
********************* क्रमशः

Tuesday, August 12, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4/1]

अध्याय चार

हिन्दी-उर्दू कहानियाँ : मौलिकता की परख

4.1. पहली कहानी और पहला कहानी संग्रह

प्रेमचंद ने अपने पाठकों के मन की किवाड़ पर दस्तक दी: "मेरी प्रकाशित कहानियो की संख्या तीन सौ है " (अगस्त 1933 ई० )। यह दस्तक हिन्दी पाठकों को प्रेमचंद की ‘सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ’ और उर्दू पाठकों को ‘मेरे बेहतरीन अफ़साने’ की भूमिका में मिली। आश्चर्य इस बात का है कि दोनों ही संग्रह दिल्ली और लाहौर से एक साथ छपे और कहानियों के पाठ में रत्ती भर कोई अन्तर नहीं आया. बहरहाल अगर यह मान लिया जाय कि अगस्त 1933 ई० तक प्रेमचंद की तीन सौ कहानियाँ छप चुकी थीं, तो प्रेमचंद के निधन तक और उसके बाद भी जो कहानियाँ छपीं उन्हें जोड़ने पर कहानियों की कुल संख्या तीन सौ चालीस के आस-पास बैठती है. किंतु प्रेमचंद की याददाश्त पर भरोसा नहीं किया जा सकता. कारण यह है कि लगभग एक वर्ष बाद डॉ0. इंद्रनाथ मदान को दिए गए पत्र इंटरव्यू में 26 दिसम्बर 1934 ई० को वे अपनी कहानियो की कुल संख्या 250 के आस-पास बताते हैं."(1)

हंस के फरवरी 1932 ई० के अंक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित हुआ था ‘जीवन सार।’ और इस लेख में जो वक्तव्य है वह प्रेमचंद की याददाश्तों को पूरी तरह अविश्वसनीय बना देता है. लिखते हैं -"पहले पहल 1907 ई० में मैंने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ किया. …. डॉ. रवीन्द्रनाथ की कहानियाँ मैंने अंग्रेज़ी में पढ़ी थीं. उनमें से कुछ का अनुवाद किया …. मेरी पहली कहानी का नाम था ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन.’ यह 1907 ई० में ज़माना में प्रकाशित हुई. इसके बाद मैंने ज़माना में चार-पाँच कहानियाँ और लिखीं. 1909 ई० में पाँच कहानियों का संग्रह ‘सोज़े-वतन’ के नाम से ज़माना प्रेस कानपूर से प्रकाशित हुआ. "(हंस फरवरी 1932 ई०).

प्रेमचंद का यह वक्तव्य सरासर निर्मूल और निराधार है कि उनकी पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ है और यह कहानी 1907 ई० में ज़माना में छपी थी. सच तो यह है कि सोज़े-वतन के प्रकाशन से पूर्व यह कहानी कहीं प्रकाशित नहीं हुई. उपलब्ध तथ्यों के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद की कहानियों के प्रकाशन का सफ़र ‘इश्केदुनिया और हुब्बे-वतन’ से प्रारम्भ हुआ, और यह कहानी ज़माना के अप्रैल 1908 ई० के अंक में प्रकाशित हुई. प्रेमचंद की इस कहिनी का शीर्षक उनके सम्पूर्ण लेखकीय जीवन की अक्कासी करता है. उस जीवन की जो सांसारिक प्रेम में अंगुल-अंगुल, पोर-पोर डूबा रहा और जिसपर देशभक्ति का नशा इतना हावी रहा कि प्रेमचंद अपने लेखन के माध्यम से जीवन पर्यन्त इसी के आनंद में शराबोर रहे. उनकी ज़िंदगी सांसारिक प्रेम और देशभक्ति के मध्य की कश्मकश से जूझती रही और 8 अक्टूबर 1936 ई० को हिन्दी-उर्दू लेखन की एक लम्बी यात्रा तय करके, अंत में थक हार कर, सदैव के लिए मौन हो गयी.
कहानी यात्रा के प्रारंभिक चरणों में प्रेमचंद ने कुछ एक कहनियों के अनुवाद भी किए जिनमें से अधिकतर टैगोर की अंग्रेज़ी में प्रकाशित कहनियों के उर्दू रूपांतर थे.(2) यदि प्रेमचंद के इस वक्तव्य पर विचार किया जाय तो, उन कहनियों को रेखांकित करना ज़रूरी होगा. पर तत्कालीन उर्दू पत्रिकाओं में प्रेमचंद द्वारा किए गए अनुवादों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता. ऐसी कहनियों की पहचान या तो प्रेमचंद की चिट्ठियों के माध्यम से होती है या कहनियों के कथानक से उनके अनूदित होने का संकेत मिलता है.
‘सोज़े-वतन’ वस्तुतः प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह है जो उर्दू में अगस्त 1908 ई० में प्रकाशित हुआ। ज़माना के जुलाई 1908 ई० के अंक मे इसका विज्ञापन देख कर यह अनुमान किया जा सकता है कि संग्रह इस समय तक बाज़ार मे आ चुका था. किंतु किसी पुस्तक के प्रकाश मे आने से पूर्व उसका विज्ञापन छापने की प्रवृत्ति ज़माना की एक ख़ास विशेषता थी. उर्दू ‘प्रेम पचीसी’ का विज्ञापन ज़माना मे उसके प्रकाशन से चार माह पूर्व निकल गया था. ‘सोज़े-वतन’ तथा ‘प्रेम पचीसी’ भाग 1 और 2 प्रेमचंद ने अपने पैसों से प्रकाशित कराये थे. ज़माना के अतिरिक्त ‘सोज़े-वतन’ का विज्ञापन आज़ाद उर्दू मासिक लाहौर के अगस्त 1908 ई० के अंक में भी निकला था. स्पष्ट है कि ये संग्रह जुलाई के अंत अथवा अगस्त 1908 ई० के प्रारंभ में प्रकाश में आया. विज्ञापन मे ज़माना प्रेस का पता न देकर मुंशी नवाबराय, अलवरगंज, कानपूर का पता दिया गया है. पर सरस्वती के सितम्बर 1908 ई० के अंक मे जब इसकी समीक्षा प्रकाशित हुई तो पुस्तक प्राप्त करने का पता बाबू विजय नारायण लाल, नया चौक कानपूर प्रकाशित हुआ.

‘सोज़े-वतन’ की एक संक्षिप्त भूमिका स्वयं उसके लेखक नवाबराय ने लिखी थी. यहाँ उसका उद्धरण देना असंगत न होगा. नवाबराय ने लिखा था कि "हर एक कौम का अदब अपने ज़माने की सच्ची तस्वीर होता है और जो ख़याल ज़हन में घूमते हैं और जो एहसास कौम के दिलों में गूंजते हैं वो नस्र और नज़्म में ऐसी सफ़ाई से नज़र आते हैं जैसे आईने में सूरत. ... बंगाल के बंटवारे ने लोगों के दिलों में बगावत का एहसास भर दिया है. ये बातें अदब को कैसे मुतास्सिर न करतीं. ये कुछ कहानियाँ इसी असर की शुरुआत हैं."
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती में ‘सोज़े-वतन’ कि समीक्षा लिखकर और उसके महत्व को रेखांकित करके प्रेमचंद का अपूर्व प्रोत्साहन किया। किंतु प्रेमचंद ने अपने जीवन काल में इस संग्रह की केवल एक कहानी ‘यही मेरा वतन है’ 1924 ई० में ‘प्रेम-प्रसून’ में प्रकाशित की. शेष कहानियाँ अमृतराय के प्रयास से गुप्तधन भाग 2 मे छपीं. यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है. प्रेमचंद ने 3 जून 1930 ई० की चिट्ठी मे बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा था कि "सोज़े-वतन को हमीरपुर के कलेक्टर ने मुझसे लेकर जलवा डाला था. उनके ख़याल में यह विद्रोहात्मक था. हालांकि तब से उनका अनुवाद कई संग्रहों में और पत्रिकाओं में निकल चुका है." मेरी जानकारी में ऐसा कोई संग्रह या पत्रिका नहीं है जिसमें इन कहनियों के अनुवाद छपे हों. कुछ भी हो ‘गुप्तधन’ में छप जाने के बाद ‘सोज़े-वतन की कहानियाँ हिन्दी की मौलिक कहानियाँ नहीं कही जा सकतीं. ‘सोज़े-वतन’ के जलाए जाने की बात भी निराधार है. प्रेमचंद की सर्विसबुक में भी प्रताड़ित अथवा दण्डित किए जाने की कोई चर्चा नहीं मिलती. बल्कि इसके विपरीत "कर्मचारी को दिए गए उल्लेख्य दंड अथवा पुरस्कार" शीर्षक खाने में 8 फरवरी 1910 ई० को हमीरपुर के कलेक्टर जे. बी. स्टीवेंसन ने उनके कार्यों की प्रशंसा की है.

हिन्दी में प्रेमचंद का प्रथम कहानी संग्रह सप्तसरोज 1917 ई० में हिन्दी पुस्तक एजेंसी, कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। किंतु इस संग्रह की ‘सौत’ कहानी को छोड़कर शेष 6 कहानियाँ उर्दू मूल से रूपांतरित की गयी थीं. यह रूपंतार्ण मन्नन द्विवेदी गजपुरी की सहायता से किया गया था. संग्रह की भूमिका में गजपुरी ने प्रेमचंद को उर्दू और हिन्दी के प्रसिद्ध गल्प लेखक के रूप में परिचित कराया था, जबकि इस संग्रह से पूर्व हिन्दी पाठकों के मध्य प्रेमचंद मात्र तीन कहानियों सौत, सज्जनता का दण्ड और पंचपर्मेश्वर के लेखक थे और उन्हें अभी उल्लेख्य ख्याति नहीं मिल पाई थी. ऎसी स्थिति में प्रसिद्ध गल्प लेखक के रूप में मान्यता देने का उद्देश्य, मात्र उत्साह बढ़ाना प्रतीत होता है.

4.2. प्रेमचंद नाम से लिखी गई पहली कहानी

प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित प्रथम कहानी बड़े घर की बेटी है जो ज़माना के दिसम्बर 1910 ई० के अंक में छपी। किंतु प्रेमचंद नाम से पहली कहानी जो ज़माना को भेजी गयी थी वह विक्रमादित्य का तेगा थी. प्रेमचंद ने सितम्बर 1910 ई० की जिस चिट्ठी में निगम के सुझाव पर प्रेमचंद नाम पसंद करने की चर्चा की है उसी में विक्रमादित्य का तेगा के प्रकाशनार्थ शीघ्र ही भेजे जाने का भी उल्लेख किया है. साथ ही इस नयी कहानी को मिलाकर बरगेसब्ज़ शीर्षक से पाँच कहानियो का एक संग्रह निकालने की भी इच्छा व्यक्त की है. यद्यपि यह संग्रह किन्हीं कारणों से प्रकाशित न हो सका. किंतु द्रष्टव्य यह है कि प्रस्तावित कहानियो में बड़े घर की बेटी का नाम नहीं है. स्पष्ट है कि बड़े घर की बेटी उस समय तक लिखी नहीं जा सकी थी.

प्रेमचंद का एक निबंध सूबए-मुत्तहिदा में इब्तिदाई तालीम (संयुक्त प्रान्त में प्रारंभिक शिक्षा) शीर्षक से ज़माना के मई जून 1909 ई० के संयुक्तांक में प्रकाशित हुआ. जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद को प्रशासन की झिडकियां सुननी पडीं और इस आशय का एक लिखित अनुबंध भी करना पड़ा कि भविष्य में उनकी रचनाएँ ज़िलाधीश की अनुमति के बिना प्रकाशनार्थ नहीं जायेंगी. इस अनुबंध का पालन न करने पर उन्हें इसकी याद दहनी भी कराई गयी. इन तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि लेखक प्रेमचंद का जन्म विवश्तावश किए गए उस लिखित अनुबंध का नतीजा था जिससे नौकरी भी सुरक्षित रहे और देश के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह भी किया जा सके. यानी धनपतराय के अनुबंध और प्रेमचंद के जन्म के मूल में इश्के-दुनिया (सांसारिक प्रेम) और हुब्बे-वतन (देशभक्ति) की भावना कार्य कर रही थी. फिर भी अधिकारियों की दृष्टि शायद ज़माना प्रेस और उससे प्रकाशित होने वाली सामग्री तक ही केंद्रित थी. जभी तो अदीब उर्दू मासिक में 1911 और 1912 ई० में नवाबराय के नाम से छपने वाली प्रेमचंद की कहानियो पर कोई आपत्ति नहीं की गयी.
मदन गोपाल का विचार है कि प्रेमचंद का नाम (जो कि अत्यन्त गोपनीय था) केवल ज़माना में प्रकाशित होने वाली उनकी रचनाओं के लिए इस्तेमाल किया गया।(3) किंतु तथ्य यह है कि 1912 से 1914 ई० के मध्य हमदर्द में छपने वाली कहानियों में लेखक का नाम प्रेमचंद ही मिलता है. हिन्दी में भी उनकी पहली कहानी प्रेमचंद के नाम से ही प्रकाशित हुई.

ज़माना कानपूर में इश्के दुनिया और हुब्बे वतन (अप्रैल 1908 ई०) और बड़े घर की बेटी (दिसम्बर 1910 ई०) के बीच जो चार उर्दू कहानियाँ प्रकाशित हुईं उनमें या तो लेखक का कोई नाम नहीं दिया गया था या कहानी के अंत में लेखक के नाम के स्थान पर "अफ्सानाए- कुहन" ( वह कथा जो अतीत बन चुकी ) छाप कर नवाबराय के नाम को गोपनीय रखा गया। हाँ सैरे-दरवेश(शाप) की एक किस्त में निगम की भूल या कातिब की असावधानी से नवाबराय नाम अवश्य छप गया. अदीब मासिक, इलाहबाद के सितम्बर 1910 ई० के अंक में छपने वाली कहानी बेगरज मोहसिन (नेकी) दाल. रे. के नाम से छपी जो धनपतराय का संछिप्त रूप है. उस समय उर्दू में नाम का संछिप्त रूप लिखने की आम प्रथा थी.

टिप्पणी :

(1). प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 238

(2). प्रेमचंद, विविध-प्रसंग, भाग 3, ७०

(3). मदन गोपाल (संपा.), प्रेमचंद के खुतूत, पृ0 17

Thursday, July 31, 2008

सम्पादक नैरंगे-ख़याल के नाम फ़िल्म जगत से सम्बंधित प्रेमचंद की एक अप्राप्य चिट्ठी / प्रोफेसर शैलेश ज़ैदी

फ़िल्म जगत से सम्बंधित प्रेमचंद की अनेक चिट्ठियां उनके चिट्ठी-पत्री संग्रहों में उपलब्ध हैं. सब में एक नैराश्य, एक पछतावा, एक ताल-मेल न बैठने का एहसास है जो साफ़ दिखायी देता है. कहीं डाइरेक्टरों की मानसिकता का रोना, कहीं 'बाज़ारे-हुस्न की मिटटी पलीद' होने का एहसास, कहीं 'मिल' से कुछ साधारण सा संतोष, एक विचित्र प्रकार की उकताहट. प्रेमचंद का स्वभाव कुछ और, निर्माता की फरमाइश कुछ और. यहाँ स्थिति यह कि प्लाट सोचने और लिखने में आदर्शवाद अनायास घुस आता है वहाँ हालत यह की उसमें कोई इंटरटेनमेंट वैल्यू नहीं है. और इस इंटरटेनमेंट का अर्थ है वल्गैरिटी यानी बोसे-बाज़ी, बरहना रक्स, औरतों का जबरन उठाया जाना और बलात्कार के दृश्य. इतना ही नहीं कुछ अचम्भा भी चाहिए जैसे नकली और हास्यजनक लडाइयां. एक-दो बातें होतीं तो प्रेमचंद झेल भी जाते. तुर्रा यह कि निर्देशक की पूरी बादशाहत. मुंह भी नहीं खोल सकते उसके सामने जनरुचि की बात निकल आए तो निर्देशक पूरे ज़ोर से कहता है 'आप नहीं जानते जनरुचि क्या है. मैं जनता हूँ जनता क्या चाहती है.' प्रेमचंद के मित्र अशफाक हुसैन प्रेमचन्द से सहमत न थे. उनका ख़याल था कि धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जायेगा. किंतु प्रेमचंद के लिए समूचा माहौल ही घुटन भरा था. यही सब बातें हैं उन प्रकाशित चिट्ठियों में जो संग्रहों में उपलब्ध हैं.
यहाँ मैं प्रेमचंद की जिस चिट्ठी को प्रस्तुत कर रहा हूँ वह हिन्दी उर्दू के किसी भी चिट्ठी संग्रह में प्रकाशित नहीं हो पायी है. यह चिट्ठी प्रेमचंद ने 'नैरंगे ख़याल' उर्दू मासिक दिल्ली के संपादक इशरत रहमानी को मार्च 1935 में उनके पत्र के उत्तर में लिखी थी. सम्पादक ने इसे पत्रिका के अप्रैल 1935 के अंक में छापा है. नैरंगे ख़याल के साथ प्रेमचंद का पुराना पत्र-व्यवहार था. सम्पादक महोदय जिज्ञासावश प्रेमचंद से कुछ सवाल कर बैठते थे और उत्तर में पूरी सहृदयता के साथ प्रेमचंद अपने विचार लिख भेजते थे. सम्पादक नैरंगे ख़याल के नाम मदन गोपाल और अमृत राय ने भी फरवरी 1934 की प्रेमचंद कि एक चिट्ठी छापी थी जिसमें प्रेमचंद ने कहानी लेखन के अपने मनोवैज्ञानिक आधार का संकेत किया था. सिनेमा से सम्बंधित इस चिट्ठी की विशेषता यह है कि अन्य चिट्ठियों में लिखे गए विचारों की अपेक्षा यहाँ प्रेमचंद निर्देशकों के प्रति कुछ नर्म और सहानुभूतिशील दिखायी देते हैं. यहाँ प्रेमचंद की सारी शिकायत भारत के शिक्षित समाज से है. इस चिट्ठी में प्रेमचंद ने कुछ ऐसे प्रश्न उठाये हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. प्रेमचंद ने 25 मार्च 1935 को बंबई छोड़ दिया था. यह चिट्ठी मार्च के मध्य की है. चिट्ठी इस प्रकार है -
बेरादरम- तस्लीम
याद आवरी के लिए ममनून (आभारी) हूँ. 'सेवासदन' से मेरा उतना ही तअल्लुक़ है कि उसका अफसाना (कथा) मेरी तसनीफ 'बाज़ारे-हुस्न' से माखूज़ (लिया गया) है. उसके गीतों का मुझसे उतना ही तअल्लुक़ है जितना जुबैदा के नाच से. यह डाइरेक्टर को अख्तियार है कि वो किस्से में जो तरमीम (संशोधन) आम मजाक (रूचि) के लिए मुनासिब और ज़रूरी समझता है करे. हिन्दोस्तानी फिल्मों में हमारा पढ़ा-लिखा तबका शाज़ो-नादिर (यदा-कदा) जाता है. उसे तो ग्रीटा गार्बो और हेराल्ड लायेड से इश्क़ है. उसी तरह जैसे उसे एक मग्रिबी चीज़ से गुलामाना उन्स (लगाव) है. जब हिन्दोस्तानी फिल्मों को अवाम की ही कद्रदानियों पर जिंदा रहना है तो ये लाज़िम है कि वो वही चीज़ें स्क्रीन पर लाएं जो अवाम को पसंद हैं. खवास के पसंद की चीज़ें बनाकर वो अपनी जिंदगी खतरे में डालना कैसे पसंद कर सकते हैं. ऐसे फ़िल्म बनाना जो आम और ख़ास दोनों ही में मकबूल हों, हर एक डाइरेक्टर का काम नहीं.
मैं ने पहले ये हकीकत न समझी थी और डाइरेक्टरों की हिमाक़तों पर अफ़सोस किया करता था. लेकिन यहाँ आकर मुझे इस सीगे को अन्दर से देखने का मौक़ा मिला और अब मुझे डाइरेक्टरों से उतनी शिकायत नहीं रही जितनी अपने आप से. आख़िर क्यों अंग्रेज़ी रसायल और अख्बारत जो हिन्दोस्तान ही में छपते हैं लाखों की तादाद में बिकते हैं और उर्दू हिन्दी रसायल बमुश्किल अपना खर्च निकाल पाते हैं. बेशतर तो क़र्ज़ से दबे रहते हैं. वही पढ़े-लिखे तबके की बे-नियाज़ (लगाव रहित) गुलामाना ज़हनियत. हम क्यों 'शा' और गाल्सवर्दी और आस्कर वाइल्ड और मैक्सिम गोरकी की किताबें हिर्जे-जां (अत्यधिक प्रिय) समझते हैं और क्यों अपने अहले-क़लम की तसानीफ़ पर नज़र डालना भी कस्रे-शान (शान के ख़िलाफ़) समझते हैं ? किसी कल्चर्ड जेंटिलमैन के कुतुबखाने में जाइए. आपको अंग्रेज़ी किताबें क़तार-दर-क़तार सजी हुई नज़र आएँगी लेकिन आपकी आँखें ब-हज़ार जुस्तुजू एक भी उर्दू या हिन्दी की किताब वहाँ देखेंगी. उसकी वजह यही है कि हम ख़ुद अपनी चीज़ों की क़द्र नहीं करते. हाँ नुक्ताचीनी (आलोचना) करने के लिए सबसे पहले दौड़ते हैं.
फ़िल्म कोई कल्चरल इदारा नहीं है, तिजारत है. और ताजिर वही चीज़ बाज़ार में लाता है जिसकी मांग होती है. उसको अदब से दुश्मनी नहीं है. हमारी और आपकी तरह वो भी अवाम की बद-मजाकी (कुरुचि) से नालां है. मगर गरीब क्या करे ! एक तस्वीर में पचास-साठ हज़ार रूपये लगा चुकने के बाद सबसे पहली बात ये होती है कि किसी तरह ये रूपए मै नफ़ा के लौट आयें. अगर डाइरेक्टर या प्रोड्यूसर को यकीन हो कि फ़ाइन-आर्ट के मूइद उसकी तस्वीरों को कामियाब बना देंगे तो वह उसी आइडियल को सामने रखेगा. और हुस्ने-मजाक (सुरुचि) से जौ भर भी इधर-उधर न जायेगा.
पोलिटिकल पस्ती का एक सबब ज़हनी और अक़ली पस्ती भी होती है. जब हमारे अदीबों में 'शा', और गोरकी और रोमां रोलां नहीं हैं तो फिर फ़िल्म में वो कैरेक्टर कहाँ से आ जायेंगे जो गार्बो और हेराल्ड लायेड और मेवेस्ट की अदाकारी के फिदाइयों को मह्जूज़ (आनंदित) कर सकें ? मेरे इस तरफ़ आने का यही मंशा ख़ास था कि मुमकिन हो तो इस बद-मजाकी के सैलाब को रोकूँ. लेकिन मालूम हुआ कि ये काम मेरे बूते का नहीं. तालीम-याफ्ता पब्लिक को चाहिए कि या तो वो फ़िल्म देखने ही न जाय या जाय तो ये समझ कर जाय कि भांडों का तमाशा देखने जा रहे हैं और इतनी देर के लिए उन्हें अपनी तन्कीदी आँखें बंद कर लेनी पड़ेंगी.
नियाज़ मंद
प्रेमचंद (मुसव्विरे-फ़ितरत)
टिप्पणी :
[Reta Garbo ] रीटा गार्बो (1905-1990) हालीवूड की बे-आवाज़ फ़िल्मों की मानी हुई स्वीडिश अदाकारा थीं. प्रेमचंद के समय की उनकी 'द टेम्पट्रेस,' (1926), लव (1927),द किस (1929) इत्यादि चर्चित फिल्में थीं.
[Lloyd, Herold] हेराल्ड लायेड प्रेमचंद युगीन बे-आवाज़ फिल्मों के प्रसिद्ध कामेडियन तथा अभिनेता थे। 'गर्ल शाई (1924),फ्रेशी (1925), फार हैवेंस सेक (1926) आदि उनकी चर्चित फिल्में थीं.
[Mae West ] मेवेस्ट (1893-1980) न्यूयार्क सिटी के वुडहैवेन में जन्मी प्रतिभा-संपन्न अभिनेत्री थीं. आइयम नो ऐंगर (1933) और शी डन हिम (1933) उनकी चर्चित फिल्में थीं.

Thursday, July 24, 2008

मुंशी (प्रेमचंद) शब्द को लेकर भ्रांतियां / प्रो. शैलेश ज़ैदी

1951 में जब मैं छठीं कक्षा में था संस्कृत के पंडित जी ने एक कहानी सुनाई थी. कहने लगे 'एक गाँव ऐसा था जहाँ लोगों ने कभी हाथी नहीं देखा था. एक बार ऐसा हुआ कि रात में उस गाँव से एक हाथी गुज़र गया. सुबह होने पर गाँव वालों ने ज़मीन पर विचित्र प्रकार के निशान देखे. किसी की कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसा कौन सा जीव इस गाँव में आया था. गाँव में एक लाल बुझक्कड़ रहते थे. गाँव वाले सीधे उनके पास पहुंचे. 'अब आप ही हमारे मन को शांत कर सकते हैं. जाने कौन सी बला गाँव पर आने वाली है. धरती पर जगह-जगह विचित्र से निशान बने हैं. आप ही चलकर समस्या का समाधान कीजिए. लाल बुझक्कड़ पूरी तैयारी के साथ उस स्थल पर आए. निशान को चश्मा लगाकर बारीकी से देखा. और फिर लगभग झूम कर बोले "लाल बुझक्कड़ बूझ गए, और न बूझा कोय / पैर में चक्की बाँध के हिरन न कूदा होय.
लगभग यही स्थिति मुंशी प्रेमचंद के नाम में 'मुंशी' शब्द की हो गई है. मैंने abhivyakti-hindi.org पर डॉ. जगदीश व्योम का लेख 'प्रेमचंद मुंशी कैसे बने' जब पढ़ा तो बड़ी मुश्किलों से अपनी हँसी रोक पाया. रोचक बात यह है कि हिन्दी विकिपीडिया में भी ऐसी ही बात पढने को मिली. अनावश्यक रूप से विकिपीडिया में अमृत राय के नाम को भी घसीटा गया है. शोध की प्रवृत्ति तो हिन्दी में बहुत पहले से विलुप्त हो चुकी है. अटकलों के आधार पर तिल का पहाड़ बना देना भी अब हिन्दी लेखकों ने सीख लिया है. प्रेमचंद युगीन पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों को उठाकर देखिये. उस ज़माने में हिन्दी में गैर पंडित लेखकों के नाम के साथ हिन्दी में 'बाबू' तथा उर्दू में 'मुंशी' लिखने का आम रिवाज था. बाबू गुलाबराय और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे अनेक गैर पंडित लेखक इन्हीं नामों से जाने जाते हैं. बाबू मैथिली शरण गुप्त के नाम के साथ भी 'बाबू' शब्द चिपका हुआ है. ठीक इसी प्रकार उर्दू में मुंशी नवल किशोर, मुंशी दया नरायन निगम और मुंशी प्रेमचंद भी हैं.
अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है. प्रेमचंद की प्रारंभिक पुस्तकें उठाकर देखिए जिनमें उनका नाम नवाबराय और धनपत राय है. 8 अकतूबर 1903 के आवाज़ए-खल्क़ उर्दू अखबार में जब प्रेमचंद के प्रथम उपन्यास 'असरारे-म'आबिद की पहली किस्त छपी तो उसपर उनका नाम 'मुंशी धनपतराय साहब उर्फ़ नवाबराय इलाहाबादी छपा. प्रेमचंद उन दिनों इलाहबाद में ही रहते थे. अब प्रेमचंद के उपन्यास 'हमखुर्मा व् हमसवाब' पर दृष्टि डालिए. इसपर लेखक का नाम इस प्रकार दिया गया है "जनाब मुंशी नवाब राय साहब मुसन्निफ़ किशना वगैरा" इसी प्रकार इंडियन प्रेस इलाहबाद से 1907 में हिन्दी में छपने वाले उपन्यास 'प्रेमा' को भी देखिये. इसके प्रथम संस्करण पर लेखक का नाम 'बाबू नवाबराय बनारसी' छापा गया है. मैंने इन उपन्यासों के प्रथम पृष्ठ के फोटो चित्र अपनी पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन (1978) के परिशिष्ट भाग में छाप दिए थे, जिन्हें कोई भी देख सकता है.
आश्चर्य है कि डॉ.जगदीश व्योम केवल अटकलों और तुक्कों के आधार पर किस प्रकार दो टूक लिख गए "प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एक मात्र कारण यही है कि 'हंस' नामक पत्र कन्हैया लाल मुंशी के सह संपादन में निकलता था. जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र ‘मुंशी’ छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - मुंशी, प्रेमचंद ..कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रमचंद' को एक समझ लिया और प्रेमचंद मुंशी प्रेमचंद बन गए."
मुझे याद आता है कि 1976 में पं0. सीताराम चतुर्वेदी अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पधारे थे और उन्होंने अपने एक भाषण में यही सारे तर्क दिए थे. मैं ने सभा में उनकी गरिमा का ख़याल करते हुए उन्हें नहीं टोका. बाद में जब उनसे मेरी बात हुई और मैं ने उनके सामने तथ्य रखे तो उन्होंने नितांत आत्मीय भाव से अपनी भूल स्वीकार की. मैं नहीं जनता था की आज भी हिन्दी के अध्येता इन्हीं भ्रांतियों को जी रहे हैं. प्रेमचंद की चिट्ठियां ही ध्यान पूर्वक पढ़ ली जाएँ तो स्वयं प्रेमचंद द्वारा 'मुंशी' और 'बाबू' शब्दों के प्रयोग को देखा जा सकता है. मुंशी के कुछ उदाहरण देखिये. 1908 में निगम को लिखते हैं 'मुंशी नौबतराय चले गए. क्या होली की तकरीब में ?' 1924 में निगम को लिखते हैं ' मेरे नार्मल स्कूल के दोस्त मुंशी मुनीर हैदर साहब कुरैशी हैं' 1925 में इक़बाल वर्मा सेहर को लिखते हैं "मुकर्रमी मुंशी राज बहादुर का ख़त भी देखा" इत्यादि.
इनके अतिरिक्त जो चिट्ठियाँ प्रेमचंद को दूसरों द्बारा लिखी गई हैं उनमें भी 'मुंशी जी' का संबोधन देखा जा सकता है. उस समय तक कन्हैयालाल मुंशी का प्रेमचंद के साथ कोई जुडाव नहीं था. लाजपतराय एंड साँस के लाजपतराय ने 19 नवम्बर 1926 को लिखा 'श्रीमान मुंशी प्रेमचंद जी, नमस्ते,' 12 अप्रैल 1928 को घनश्याम शर्मा ने लिखा 'प्रिय मुंशी जी, जे राम जी की,'30 जनवरी 1929 को हनीफ हाशमी ने लिखा 'मुकर्रामी मुंशी साहब, हदयए-नियाज़,' 7 जुलाई 1930 को लाहौर से जगतराम ने लिखा 'बखिदमते-गिरामी जनाब मुंशी प्रेमचंद जी, आदाब अर्ज़' इत्यादि. हिन्दी ब्लॉग पर सस्ती लोकप्रियता के मोह में बिना जांच पड़ताल के इस प्रकार की ढेर सारी बातें छ्प रही है जो हिन्दी के लिए दुःख का विषय है. विवेचन और व्याख्या करने के लिए आप स्वतंत्र हैं, किंतु तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के लिए निश्चित रूप से आप स्वतंत्र नहीं हैं.

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Sunday, June 8, 2008

डॉ. अब्दुल हक़ के नाम प्रेमचंद की एक अप्राप्य महत्वपूर्ण चिट्ठी / प्रो. शैलेश ज़ैदी

हिन्दी,उर्दू और हिन्दुस्तानी का विवाद 1935 के अंत तक पर्याप्त गर्म हो चुका था. महात्मा गाँधी यद्यपि जीवन के अंत तक हिन्दुस्तानी के पक्षधर बने रहे किंतु बीच-बीच में उनके कुछ वक्तव्य ऐसे भ्रामक प्रतीत हुए जिनसे हिन्दी उर्दू प्रेमियों में परस्पर खिंचाव की गुंजाइश देखी गई. हिन्दी के अनेक पक्षधर ऐसे थे जो महात्मा गाँधी के 'हिन्दुस्तानी' शब्द से संतुष्ट नहीं थे. डॉ. सम्पूर्णानंद का विचार था कि " जो लोग हिन्दुस्तानी के स्वरूप को समझते थे, वह जानते थे कि वह उर्दू का नामांतर मात्र है. इस बात को खुलकर सामने नहीं आने देते थे." डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की स्पष्ट धारण थी कि "हिन्दुस्तानी नाम यूरोपीय लोगों का दिया हुआ है. उर्दू का बोलचाल वाला रूप हिन्दुस्तानी कहलाता है. उधर उर्दू वाले, विशेष रूप से डॉ. अब्दुल हक़, हिन्दुस्तानी शब्द को, उर्दू वालों को इसकी थपकियों से सुला देने के लिए, हिन्दी के पक्ष में गढ़ी गई लोरी समझते थे. फिर महात्मा गाँधी ने एक बार जब भारतीय साहित्य परिषद् में उर्दू को मुसलमानों की भाषा और उसकी लिपि को कुरआन कि लिपि कह दिया, तो उर्दू वालों का मन महात्मा गाँधी की भाषा नीति कि ओर से कुछ खट्टा हो गया. यद्यपि महात्मा गाँधी को अपनी भूल का एहसास शीघ्र ही हो गया और उन्होंने इसक स्पष्टीकरण भी दे दिया, किंतु इस वक्तव्य से जो आग भड़क चुकी थी वह ठंडी न हो सकी.
दुखद स्थिति यह हुई की 1936 के भारतीय साहित्य परिषद् के सम्मेलन में उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी से इतर एक नया शब्द महात्मा गाँधी की ओर से वोट के लिए रखा गया -'हिन्दी-हिन्दुस्तानी.' यह शब्द हिन्दुस्तानी को उर्दू का पर्याय मानने वाले हिन्दी के पक्षधरों के दबाव का परिणाम था. हिन्दुस्तानी के पक्ष में केवल पन्द्रह वोट आए और 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' को पच्चीस वोट मिले. डॉ. अब्दुलहक़ की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र और आक्रामक हुई. उन्होंने उर्दू त्रैमासिक के अप्रैल 1936 के अंक में "भारतीय साहित्य परिषद् की अस्ल हकीकत" शीर्षक एक आक्रामक आलेख लिखा, जिसे पढ़कर प्रेमचंद को बहुत कष्ट हुआ. इस आलेख में अन्य बातों के साथ 'हंस' की भाषा पर भी चोटें की गई थीं. प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद ने 4 जून 1936 को डॉ. अब्दुल हक़ को एक चिट्ठी लिखी जिसमें बहुत दुःख के साथ भाषा सम्बन्धी आक्षेपों का स्पष्टीकरण दिया और गांधी जी के नज़रिये पर गहरी चोट की. यह चिट्ठी फ़रोगे-उर्दू, जनवरी-फरवरी 1968 में उर्दू में छप चुकी है. किंतु हिन्दी के किसी भी चिट्ठी-पत्री संग्रह में नहीं है. चिट्ठी के अतिरिक्त भी प्रेमचंद ने डॉ. अब्दुल हक़ के इस रवैये की आलोचना की. उन्होंने लिखा "हमें मौलाना अब्दुल हक़ जैसे वयोवृद्ध, विचारशील और नीति-चतुर बुजुर्ग के कलम से यह शब्द देख कर दुःख हुआ. जिस सभा में वह बैठे हुए थे, उसमें हिन्दी वालों की कसरत थी. उर्दू के प्रतिनिधि तीन से ज़्यादा न थे. फिर भी जब 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' और अकेले 'हिन्दुस्तानी' पर वोट लिए गए तो हिन्दुस्तानी के पक्ष में आधी से कुछ ही कम रायें आयीं. अगर मेरी याद ग़लती नहीं कर रही है तो शायद पन्द्रह और पचीस का बंटवारा था. एक हिन्दी प्रधान जलसे में जहाँ उर्दू के प्रतिनिधि कुल तीन हों, पन्द्रह रायों का 'हिन्दुस्तानी' के पक्ष में मिल जाना हार होने पर भी जीत ही है."
यहाँ डॉ, अब्दुल हक़ को लिखी गई प्रेमचंद की चिट्ठी मूल उर्दू से रूपांतरित की जा रही है.
दफ़्तर, रिसाला हंस
बनारस कैंटोनमेंट
4 जून 36 ई0
भाई साहब किब्ला, तस्लीम
इस माह के 'उर्दू' में भारतीय साहित्य परिषद् पर आपका मक़ाला (आलेख) देखा तो मुझे अफ़सोस हुआ. जिस काम को इतने नेक इरादों से उठाया गया, उसकी बिस्मिल्लाह ही ग़लत होती नज़र आती है. आपने परिषद् में हाज़रीने-जलसा का रुख़ देख कर शायद अंदाजा नहीं लगाया के मज़हबी पब्लिक को इसकी मुतलक़ पर्वाह नहीं है. इतना ही नहीं, बिलउमूम (सामान्यतः) लोग इसे इश्ताबाह ( संदेह ) की नज़रों से देखते हैं. हर एक ज़बान की जानिब से मुखालिफत हो रही है. एलानिया नहीं तो दर परदा सही. किसी ज़बान ने भी इसका खैर-मक़दम नहीं किया. कुछ मुट्ठी भर लीडर ज़रूर शामिल हो गए हैं. शायद इस ख़याल से के यहाँ भी कुछ शोहरत कमाई जा सकती है. वरना इस तहरीक से बहोत कम किसी को दिलचस्पी है. उर्दू में जिस तरह इसका अदम वुजूद (होना न होना ) बराबर है उसी तरह हिन्दी में भी. चूँकि महात्मा जी का इस बड़े काम से तअल्लुक बतलाया गया है इस लिए थोड़े से खरीदार हो गए हैं. ये तो है असली हालत. आप शायद समझते है के इदारों (संस्थाओं) के पास खूब पैसा है, खूब जोश है. वाकेआ इसके ख़िलाफ़ है. ये तहरीक इस खयाल से जारी की गई थी के हिन्दोस्तान के अदीबों में और उर्दू अदबियात में बेरादराना और हम्दर्दाना एहसास पैदा हो. ज़बान इसकी हत्तलइमकान (भर्सख) सलीस रखने की कोशिश की जाती थी. मगर चूँकि मजामीन लिखने वाले मुखतलिफ सूबों के लोग होते थे और हंस का एडिटोरियल स्टाफ अकेला मेरा दम है, इसलिए हर एक मज़मून की इस्लाह मुश्किल थी.यह ख़याल भी तहतुशशऊर (अन्तश्चेतन) में था के हंस में दिलचस्पी रखने वाले 99 फीसदी गैर उर्दूदाँ हैं इस लिए फ़ारसी और अरबी का इस्तेमाल बेमहल होगा. क्योंकि जैसा काका कालेलकर साहब ने फ़रमाया था हमारी सलीस उर्दू ही गैर उर्दू दाँ असहाब के लिए बईद-अज़-फ़हम (समझ से बाहर) है. ज़बान की इस्लाह तो रफ़ता-रफ़ता ही हो सकती है. जिस तरह संस्कृत से भरी हुई हिन्दी, उर्दू ख़त (लिपि) में लिखी जाय तो उसे कोई न समझेगा, उसी तरह नागरी में उर्दू समझने वाले हिन्दी में या दीगर सूबेजात (अन्य प्रान्तों) में खाल-खाल (इक्का-दुक्का) हैं. इस एतबार से न सही अदबी लेन-देन के ख़याल से भी यह ज़रूरी है कि हमारे अदीबों में इश्ताराके-अमल (व्यावहारिक मेल-मिलाप) हो.उनमें अदबी और इल्मी और ज़ौकी मसाएल (रुचिकर समस्याओं) पर तबाद्लए-ख़याल (वैचारिक आदान-प्रदान) हो.
इस परिषद् में तो कुछ हुआ ही नहीं. मगर आपने यह तो महसूस ही किया कि तीन-चार उर्दू दाँ अहबाब की मौजूदगी ने लोगों पर इतना असर किया कि क़रार्दादों (प्रस्तावों) की ज़बान वो हो गई जो अब है वरना इसके क़ब्ल वह खालिस हिन्दी ज़बान में थी. अगर यह इर्तिबात (सम्पर्क) रोज़-अफ्जूं (नित्य-प्रति)बढ़ता जाता तो क्या आपके ख़याल में ज़बान और अदब पर इसका असर न पड़ता और इससे क़तअतअल्लुक कर लेने पर या मुसलमानों में यह ख़याल पैदा हो जाने पर के एक पोलिटिकल तहरीक है जो हिन्दी ज़बान के प्रचार के लिए जारी की गई है, क्या सूरते-हाल बेहतर होगी ? जो बोद फिलहाल है, उसके ज़्यादा हो जाने का इमकान है. मुझे यकीन है के अगले साल आप हालात में तगैयुर (परिवर्तन) पाते और दो-चार साल में जब उर्दू दाँ तबके को इस तहरीक से उन्स हो जाता, आप देखते के आप ही इस पर काबिज़ हैं.
मेरे लिए इस तहरीक से ज़रूर इतनी दिलचस्पी थी कि मैं हिन्दी और उर्दू को हिन्दुस्तानी के घर में लाकर मिला दूँ. मुझे इस साल कामयाबी न होती. लेकिन अगर उर्दू दाँ तबका मेरी इमदाद करता तो यह मुश्किल आसान हो जाती. मगर जब आपने एलाने-जंग कर दिया तो मुझे भी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है. यह इफ्तेराक (भेद-भाव) वाली पालिसी मालूम नहीं क्यों इस क़दर जल्द हमें खींच लेती है, मेरी समझ में नहीं आता. महात्मा गांधी हिन्दी के खुदा नहीं और न उनकी तावील (विकल्प) मानने के लिए हम मजबूर हैं. हमारा दावा है की परिषद की ज़बान हिन्दुस्तानी होना चाहिए. हम हैं जिन्हें ज़बान के मस्अले से कुछ शगफ है. उन्हें अपने असर, इल्म और मशवरे से इस मंज़िल की तरफ़ उसे ले जाना चाहिए. अगर उर्दू दां तबका साथ देता है तो वह हिन्दुस्तानी बनेगी. सच्चे मानों में. वह अलग हो जाता है तो फिर वह हिन्दी-हिन्दुस्तानी होकर रह जायेगी. आप का आख़िरी जुमला 'हम भी हेठे नहीं हैं' बुरा न मानिएगा, आपके शायाने-शान न था. भाई अख्तर (अख्तर हुसैन रायपूरी) अगर इस जुमले का इस्तेमाल करते तो उनकी पीठ ठोंकता. मगर आपको इन तंग-खयालियों से बालातर समझता हूँ और वह भी जबकि आप परिषद की इन्तजामी समिति में हैं और आप ने अभी उस से इस्तीफा नहीं दिया है. यह नारए-जंग तो बगली घूँसा जैसा लगता है.
ज़बान का मस्अला यूं ही हल हो सकता है कि दो-चार असहाब मिलकर सोलह सफ़हे का रिसाला हिन्दुस्तानी में निकालें. इसमें से दो आदमियों को इसका बार सौंपा जाय. और जो लोग इस स्कूल के हामी हों वो इसमें हिन्दुस्तानी ज़बान में लिखें. अगर दिल्ली वाले उर्दू में कर लें तो मैं यहाँ इसी का हिन्दी एडिशन हू-ब-हू बनारस से निकलने पर तैयार हूँ. अपने बल पर. हालांकि मेरी हालत फाका-कशी से एक ही क़दम पीछे है. इस तरह यह भूत जेर किया जा सकता है. अलग हो जाने से तो वह और भी शेर हो जायेगा. ज़बान का मस्अला परिषद से बिल्कुल अलग कर दिया जाय. वो खालिस अदबी तहरीक हो. हिन्दुस्तानी की तदवीन के लिए एक माहवार सोलह सफ्हे का रिसाला निकला जाय, जिसमें चार मज़ामीन जिम्मेदार असहाब के कलम से लिखे हुए हों. इस तरह हमारी दोनों गरज़ें पूरी हो जायेंगी. ज़बान की भी और अदब की भी. मुझे उम्मीद है कि आप मेरी तजवीज़ से मुत्तफिक़ होंगे. मैं तो आपकी रहनुमाई में दोज़ख में जाने को भी तैयार हूँ. हलांके वो काम बगैर आपकी रहनुमाई के ज़्यादा सफाई से कर सकता हूँ. इसके रस्ते मुझे खूब मालूम हैं.
उम्मीद है आप खुश हैं.
नियाज़ मंद
प्रेमचन्द

Wednesday, May 21, 2008

प्रेमचंद : कहानी यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 3]

अध्याय-३

प्रामाणिक जीवनी का प्रश्न

डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद और उनका युग' के पांचवें परिवर्धित संस्करण (1989ई०) में इसी शीर्षक के अंतर्गत प्रेमचंद की प्रामाणिक जीवनी का प्रश्न उठाया है और मेरी पुस्तक 'प्रेमचंद की उपन्यास-यात्रा : नवमूल्यांकन' (1978ई०) के जीवनी से सम्बद्ध अध्याय को लेकर अपनी तीखी प्रतिक्रया भी व्यक्त की है. यह अध्याय 558 पृष्ठों की पुस्तक के केवल 57 पृष्ठों में लिखा गया है. मेरी इस पुस्तक की कई समीक्षाएं हिन्दी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, किंतु समीक्षा त्रैमासिक के सम्पादक डॉ. गोपाल के अतिरिक्त सभी ने शोध की मौलिकता और प्रामाणिकता की प्रशंसा की. किसी ने लिखा 'इस पुस्तक का हर पृष्ठ नया है और विचारोत्तेजक भी.' किसी ने लिखा 'पुस्तक पढ़ते समय उपन्यास का आनंद आया.' किसी ने खुले मन से स्वीकार किया 'डॉ. जैदी के निष्कर्ष तर्कसंगत हैं और प्रेमचंद साहित्य पर नए कोण से सोचने की प्रेरणा देते हैं.' इन समीक्षाओं के अतिरक्त कई विद्वानों के पत्र भी मुझे प्राप्त हुए. बनारसी दास चतुर्वेदी ने मुझे 5 जुलाई 1979 ई० के पत्र में लिखा- " यू हैव इंडीड परफार्मड ए मिरैकिल एंड आई एड्मायर योर डिवोटेड लेबर." फिर इतना लिख कर शायद उन्हें संतोष नहीं हुआ. अगले ही दिन अर्थात 6 जुलाई को उन्होंने मुझे लिखा - "योर थीसिस ऑन प्रेमचंद इज रीअली अ रिमार्केबिल अचीवमेंट, दो वन मे नॉट ऐग्री विध योर व्यूज़. आफ्कोर्स प्रेमचंद हैड हिज़ पोर्शन ऑफ़ डिफेक्ट्स ऐंड हू हैज़ नॉट ? अपनी गरीबी का वे अत्युक्तिपूर्ण वर्णन कर देते थे. वह उनकी एक अदा थी. ही वाज़ राइटिंग इवेन व्हेन ही वाज़ स्प्लिटिंग ब्लड." इस चिट्ठी का एक-एक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें चतुर्वेदी जी और प्रेमचंद के आत्मीय संबंधों की गहरी झलक भी है और कड़वे यथार्थ को स्वीकार करने का आत्मबल भी. प्रो. इन्द्र नाथ मदान ने जब मेरी पुस्तक पढी तो उसपर विस्तार से समीक्षा करने का आश्वासन देते हुए 19 मार्च 1979 ई0 की चिट्ठी में यह भी लिखा - "मन करता है सौ में से एक सौ पाँच दे दूँ."
पुस्तक की एक प्रति मैंने अमृत राय को भी भेजी थी. यह बात १९७८ ई० के अक्टूबर की है. उन दिनों अमृत राय हिन्दी, हिन्दवी के आदिकाल पर काम कर रहे थे. उन्हें मुझसे अपेक्षित सामग्री की बिब्लियोग्रैफी दरकार थी. 15 नवम्बर 1978 ई० को बांदा से लौटने पर अपनी व्यस्तताओं की चर्चा करने के बाद अपने पत्र में उन्होंने पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रिया भेजने का आश्वासन दिया. किंतु जब पुस्तक पढी तो आगबबूला हो गए. उनका मन किया की लेखक की खाल उधेड़ दी जाय. मुक़दमा करने की भी योजना बनाई. पर वकील के समझाने पर मौन हो गए.
अगस्त 1983 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ. अमृत राय ने वक्तव्य दिया कि शैलेश जैदी की पुस्तक मैं पढ़ना चाहता था किंतु पत्नी ने हाथ से यह कहकर छीन लिया कि यह पढने योग्य नहीं है. 28 अगस्त से 3 सितम्बर 1983 ई० के अंक में इस प्रसंग में मेरी चिट्ठी छपी, जिसमें मैंने बताया कि अमृत राय ने मेरी पुस्तक न केवल पढी है, बल्कि लाल रोशनाई से उसके हाशिये पर उनकी टिप्पणियां भी हैं और वे मुझपर मुक़दमा करने का भी विचार रखते थे. सारांश यह कि काफी गर्म-गर्म बातें रहीं.
डॉ. गोपाल राय के बार-बार के आग्रह पर मैंने मार्च 1980 ई० में अपनी पुस्तक की एक प्रति उनके पास भेज दी. सुखद आश्चर्य यह देखकर हुआ कि उन्होंने समीक्षा के अप्रैल-जून अंक में उसपर अपनी समीक्षा भी छापने की कृपा की. पुस्तक पढ़कर उनकी प्रतिक्रिया शायद इतनी तीखी हुई कि इस अंक का ‘प्रेमचंद : शताब्दी वर्ष में’ शीर्षक सम्पादकीय भी मेरी पुस्तक को केन्द्र में रखकर, बिना नाम लिए मुझ पर तीखी चोटें करते हुए, लिखा गया. डॉ. गोपाल ने मेरी 'गणना नये शोधार्थियों' में करके पत्रिका के पाठकों के समक्ष, यह जानते हुए भी कि मैं 1966 में पी-एच. डी. कर चुका था, मुझे एक उत्साही शोध-छात्र बना दिया. डॉ. गोपाल सम्पादकीय में यदि मेरा नाम लेकर यही बातें लिखते और इसी प्रकार मेरी पुस्तक के उद्धरण देते तो समीक्षा के पाठकों के बीच बहुत सी बातें सामने आ जीतीं. रोचक बात यह है कि डॉ. गोपाल ने अपने सम्पादकीय में, मेरी ही बातों को घुमा-फिराकर अपने शब्दों में ढाल दिया है और अपने ज्ञान की मुहर बिठाने का प्रयास कुछ इस ढंग से किया है जैसे उन्होंने पहले भी इस प्रकार के विचार व्यक्त किए हों.
पत्रिका में मेरी पुस्तक की समीक्षा पृष्ठ 39 से प्रारम्भ होकर पृष्ठ 42 पर समाप्त होती है. यहाँ इस समीक्षा के कुछ अंश देना अनुपयुक्त न होगा.
1. ‘विवेच्य पुस्तक में, जो संभवतः अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से डी.लिट.उपाधि के लिए स्वीकृत शोध-प्रबंध का मुद्रित रूप है, प्रेमचंद के जीवन और कृतित्व पर विचार किया गया है.'
यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि यह पुस्तक शोध-प्रबंध के रूप में नहीं लिखी गई थी. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में डी. लिट. के लिए कोई पंजीकरण नहीं होता. कोई भी प्रकाशित उच्च-स्तरीय शोध-कार्य/समालोचनात्मक ग्रन्थ, डी. लिट.उपाधि के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है. मेरी छपी हुई पुस्तक पर ही मुझे विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की उपाधि प्रदान की थी.
2. "प्रेमचंद की जीवनी लिखने वाले पूर्ववर्ती लेखकों ने प्रेमचंद को जमाने के सताए हुए आदमी के रूप में प्रस्तुत किया है. शैलेश जैदी तथ्यों के आधार पर इस धारणा का खंडन करते हैं. इसके साथ ही उनकी शिकायत है कि प्रेमचंद के जीवनीकारों ने और खासकर अमृत राय ने, प्रेमचंद के चरित्र के दुर्बल पक्षों पर परदा डालकर उन्हें 'साहित्य के शहीद' के रूप में पेश किया है."
डॉ. गोपाल किसी वाक्य को तोड़-मरोड़ कर उसका क्या अर्थ निकाल सकते हैं, यह देखने-समझने के लिए आवश्यक है कि मैंने क्या लिखा है यह भी देख लिया जाय. मेरा वाक्य इस प्रकार है -'प्रेमचंद : कलम का सिपाही' पढ़कर "मुझे लगा कि अमृत राय ने बड़े कलात्मक ढंग से प्रेमचंद के जीवन के दुर्बल पक्षों को दबा दिया है."इस वाक्य से कहीं यह ध्वनित नहीं होता कि अमृत राय ने प्रेमचंद को 'साहित्य के शहीद’ के रूप में पेश किया है.'अपनी ओर से कोई बात कहने के लिए डॉ. गोपाल स्वतंत्र हैं. किंतु मेरी अवधारणाओं में फेर बदल करके मुझे निशाना बनाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है.
3. "जैदी मियां की बहुत सी बातें तथ्यतः सही हैं पर ‘बहुत कुछ जेहाद' के अंदाज़ में’ डॉ. जैदी तथ्यों को तोड़ने- मरोड़ने और ग़लत व्याख्या करने की कोशिश करते हैं."
डॉ.गोपाल यह भूल गए कि वे पुस्तक समीक्षा लिख रहे है. वी.एच.पी. के किसी नेता की तरह 'मियाँ' और 'जेहाद' जैसे शब्दों का प्रयोग कर के उन्होंने केवल अपनी मनोवृत्ति का परिचय दिया है. अच्छा होता कि डॉ. गोपाल यह भी बता देते कि मैं ने कहाँ-कहाँ किन-किन तथ्यों को तोडा-मरोडा है और क्या-क्या ग़लत व्याख्याएँ की हैं. क्या मैंने किसी चिट्ठी का कोई अंश बीच से उड़ा दिया है, उसके शब्द बदल दिए हैं, किसी दूसरे सन्दर्भ की बात किसी दूसरे सन्दर्भ से जोड़ दी है ? अगर ऐसा कुछ भी नहीं किया है तो फिर तोड़ने-मरोड़ने और ग़लत व्याख्या करने से क्या अभिप्राय है ?
4. डॉ. गोपाल ने रजनी पाम दत्त के आधार पर बताया है कि 1936 ई० की तुलना में 1980 का मूल्य सूचकांक तीस गुना है. फिर यह निष्कर्ष निकाला कि "डॉ. जैदी की त्रुटि यह है कि उन्होंने प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर प्रेमचंद की आय का निर्धारण न करके अनुमान का सहारा लिया है." बकौल डॉ. गोपाल मुझे लिखना चाहिए था कि 1927 के दो सौ रूपये आज के (1980) छे हज़ार रूपये और 1934-35 के सात हज़ार रूपये आज के (1980) दो लाख दस हज़ार रूपये होंगे. मैं अर्थशास्त्र का विशेषग्य नहीं हूँ किंतु इतना जानता हूँ कि मात्र मूल्य सूचकांक के आधार पर रूपये के मूल्य और उसकी क्रय-शक्ति का निर्धारण नहीं किया जा सकता. खैर. डॉ.गोपाल ने मेरी पुस्तक पढ़ कर कम-से-कम इस दिशा में कुछ सोंचने की कोशिश तो की.
मैंने अपनी पुस्तक की भूमिका में बड़े-बड़े दावे तो किए नहीं थे, बस इतना लिखा था- "मेरे इस प्रयास से प्रेमचंद पर पुनर्विचार की दिशाएं खुल सकेंगी, यह मेरा पूर्ण विश्वास है." अब मेरे बाद पुनर्विचार की यह दिशाएं चाहे डॉ. गोपाल प्रशस्त करें या मदन गोपाल या डॉ. कमल किशोर गोयनका, क्या अन्तर पड़ता है.
5. समीक्षा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. गोपाल ने लिखा- "डॉ. जैदी ने प्रेमचंद के जीवनीकारों की दुर्बलताओं की ओर संकेत करके बहुत सही काम किया है." किंतु "डॉ. जैदी के पैमाने और कसौटियां पवित्रतावादी क़िस्म की हैं, जिनपर कदाचित् केवल वे ख़ुद ही खरे उतर सकते हैं."
समालोचना में 'पवित्रतावादी किस्म की कसौटियां' क्या होती हैं, यह डॉ. गोपाल ही अच्छा बता सकते हैं. प्रश्न तो केवल इतना है कि जिस साहित्यकार का जैसा भी जीवन है उसे उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहिए या नहीं ?
6. डॉ. गोपाल का मत है कि "डॉ. जैदी के अनेक कथन और निष्कर्ष उनके कमज़ोर अध्ययन और दृष्टि के उलझाव को व्यक्त करते हैं. डॉ. जैदी का एक वाक्य है- "प्रेमचंद रोमांसवादी-याथार्थवाद की उपज अवश्य हैं, किंतु प्रगतिशील एवं आलोचनात्मक सोपानों को तय करते हुए 'गोदान' में वे समाजवादी यथार्थ की विचारभूमि को प्राप्त कर लेते हैं." इससे यथार्थवाद के रोमांसवादी, प्रगतिशील, आलोचनात्मक और समाजवादी सोपानों के होने का आभास मिलता है. हमने आलोचनात्मक और समाजवादी यथार्थ की चर्चा तो पढी- समझी है पर रोमांसवादी और प्रगतिशील यथार्थवाद से डॉ. जैदी का क्या तात्पर्य है, समझ में नहीं आता."
अब मैं यह बात कैसे कहूं कि मेरे कमज़ोर अध्ययन को रेखांकित करने के बजाय डॉ. गोपाल थोड़ा अपने अध्ययन का विस्तार कर लेते तो सब कुछ उनकी समझ में आ जाता.
7. डॉ. गोपाल ने पुस्तक की भाषा को “आवेशपूर्ण, बचकानी और ग्राम्य” बताया है जो उनकी दृष्टि में “शिष्ट्जनोचित नहीं है.” हो सकता है कि मेरे पास डॉ. गोपाल जैसी ‘परिष्कृत’, ‘परिमार्जित’ और ‘परिपक्व’ भाषा न हो, पर इसे क्या किया जाय कि इसी पुस्तक की भाषा के संबंध में बनारसीदास चतुर्वेदी ने मुझे लिखा था- "मैं 1912 से बराबर लिख रहा हूँ पर आप जैसी बढ़िया भाषा नहीं लिख पाता." सम्भव है डॉ. गोपाल इसे बनारसी दास जी का व्यंग्य समझ बैठें.
रोचक बात यह है कि मेरी पुस्तक के प्रकाश में आने से पूर्व अर्थात् 1978 ई० से पूर्व, किसी ने प्रेमचंद की जीवनी के सम्बन्ध में वे तथ्य नहीं प्रस्तुत किए जिसका मैंने रेखांकन किया. किंतु उसके बाद स्थिति कुछ ऐसी बनी कि मदन गोपाल और डॉ. कमल किशोर गोयनका बड़े-बड़े दावों के साथ मेरी अवधारणाओं का विस्तार अपने नामों से करने लगे और मैंने परिश्रम पूर्वक उर्दू पत्र-पत्रिकाओं से प्रेमचंद की जिन कहानियो और पत्रों (हिन्दी में अप्राप्य) को खोज निकाला था, प्रचार और प्रसार के माध्यम से डॉ. गोयनका उनका श्रेय लेने से भी नहीं चूके. मदन गोपाल ने तो फिर भी पुस्तक की उपलब्धियों के लिए मुझे बधाई का पत्र लिखा, पर डॉ. गोयनका ने इसकी भी आवश्यकता नहीं समझी. हाँ कभी-कभी मिलने पर मौखिक रूप से या पोस्टकार्ड लिखकर मेरे लेखों में संदर्भित प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियो और चिट्ठियों से सम्बद्ध तथ्यों की विस्तृत जानकारी अवश्य लेते रहे.
1981 ई0 में डॉ. कमल किशोर गोयनका की एक पुस्तक प्रकाशित हुई "प्रेमचंद : अध्ययन की नई दिशाएं." इस पुस्तक का 'नयी दिशाएं' वाला लेख डॉ. गोयनका ने पहली बार 2 फरवरी 1980 को मेरी पुस्तक के बाज़ार में आने के दो वर्ष बाद पढा था. किंतु पुस्तक की भूमिका में उन्होंने ऐसे दावे किए कि पाठक को आभास हो, सब कुछ उन्हीं की खोज का परिणाम है. डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि से उपर्युक्त तथ्य नहीं छुप सके. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा- ""नयी दिशाएँ (1981 ई०) की भूमिका में गोयनका ने अपने लेखों का महत्व बता दिया है: "यह लेख विगत 7-8 वर्षों में देश की अधिकांश प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छ्प चुके हैं." प्रेमचंद : अध्ययन की नयी दिशाएं संकलन का अन्तिम लेख प्रेमचंद शताब्दी समारोह में 2 फरवरी 1980 को पढ़ा गया" था. इससे पहले 1978 में जैदी की उपन्यास-यात्रा प्रकाशित हो चुकी थी. उक्त निबंध में इस पुस्तक का ज़िक्र नहीं है.----गोयनका ने पाठक से कुछ बातों पर गौर करने को कहा है. इनमें पहली बात यह है, "प्रेमचंद जैसे महान लेखक तथा महात्मा गांधी जैसे अमर नेता के सम्बन्ध में हम क्यों मान लेते हैं कि उनमें साधारण मनुष्य के समान दुर्बलताएँ नहीं होंगी ? (पृष्ठ-23). यह प्रश्न नयी दिशाएं के गोयनका ने शिल्प विधान के गोयनका से किया है. इस बीच जैदी की उपन्यास-यात्रा निकल गयी है. जैदी ने लिखा था- "हमारी कमजोरी यह है कि हम अपने प्रत्येक श्रेष्ठ साहित्यकार को भगवान् का अवतार, महापुरुष और दिव्यात्मा समझ बैठते हैं. गोया हमारी समझ में एक चरित्रहीन व्यक्ति कोई श्रेष्ठ साहित्यिक रचना करने की सामर्थ्य ही नहीं रखता."
"साहित्य के अध्ययन के लिए साहित्यकार के जीवन का ठीक-ठीक परिचय आवश्यक है, यह मानकर जैदी ने प्रेमचंद का प्रामाणिक जीवन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. (पृष्ठ-11). प्रामाणिक जीवनी की आवश्यकता गोयनका ने भी महसूस की. यह आवश्यकता उन्होंने शिल्प विधान वाले दौर में नहीं, नयी दिशाओं वाले दौर में (1981 में) महसूस की. ----जैदी को जो बात सबसे ज़्यादा खटकी, वह प्रेमचंद की गरीबी की चर्चा थी (पृष्ठ-10). यह बात गोयनका को भी खटकी. उन्होंने मानो पहली बार विषय प्रवर्तन करते हुए कहा, “यहाँ प्रेमचंद की निर्धनता और निर्धनता में जीवन यापन करने की स्थापित मान्यताओं के सम्बन्ध में कुछ कह देना चाहता हूँ.” ‘दरिद्रता की परिभाषा की टीका जैदी लिख चुके थे- " मैं नहीं समझ पाता कि जिस युग में एक मजदूर को दो पैसे से एक आने तक मजूरी मिलती हो, उसी युग के एक ऐसे छात्र को जो दो-तीन आने तक की चाट खा जाता हो और बड़े संकोच से दो आने निकालकर रामलीला के रामचन्द्र को दे देता हो, निर्धन और दरिद्र किस प्रकार कहा जा सकता है ?---1895 ई० में जब एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक को ढाई रूपये मासिक मिलते हों और वह उसमें अपने पूरे परिवार का खर्च चलाता हो, पाँच रूपये मासिक पाने वाले छात्र की दरिद्रता और गरीबी की चर्चा करना सर्वथा निर्मूल है." (गोयनका की) मौलिकता केवल अभिव्यक्ति की शैली में है.’
डॉ. राम विलास शर्मा ने जहाँ इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि प्रेमचंद के जीवन से सम्बद्ध जो सूचनाएं शैलेश जैदी ने 'उपन्यास-यात्रा' में दी थीं, डॉ. गोयनका ने अपनी शैली में उन्हीं सूचनाओं को 'नई दिशाएं' में दे कर, अपनी मौलिक खोज के दावे किए हैं, वहीं डॉ. शर्मा ने अनुभव-जन्य अहसास के आधार पर यह भी रेखांकित किया है कि "जैदी ने यह मान लिया है कि प्रेमचंद को अपने पिता से हर महीने पढाई के खर्च के लिए पाँच रूपए मिलते थे. यह बात शिवरानी देवी की पुस्तक 'प्रेमचंद : घर में' के आधार पर उन्होंने लिखी है. पर अन्य प्रसंग में (शिवरानी-प्रेमचंद-विवाह-तिथि-प्रसंग) इस गवाह को वह अत्यन्त अविश्वसनीय मानते हैं. उस विवाह का सन् उन्हें (शिवरानी देवी को) याद नहीं. प्रेमचंद के पिता ने पाँच रूपए देने को कहा था, यह उन्हें ठीक-ठीक याद रहा, यह कैसे मान लिया जाय ?"
डॉ. राम विलास शर्मा के प्रश्न का उत्तर केवल इतना है कि मैंने अपनी पुस्तक में यह कहीं नहीं लिखा है कि शिवरानी देवी मेरी दृष्टि में अविश्वसनीय हैं. मेरे वाक्यों से यह अर्थ तो निकाला जा सकता है कि शिवरानी देवी ने जान-बूझ कर विवाह का सन्-संवत गोलमोल कर के प्रस्तुत किया है. अब यदि तथ्य यह न हो कि प्रेमचंद के पिता हर महीने पढने के लिए उन्हें पाँच रूपए देते थे, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि शिवरानी देवी ने जान-बूझ कर प्रेमचंद को संपन्न साबित करने के उद्देश्य से ऐसा लिखा. किंतु कोई प्रश्न करने से पूर्व डॉ. राम विलास शर्मा को अमृत राय ने इस प्रसंग में क्या लिखा है उसे भी देख लेना चाहिए था. कलम का सिपाही में अमृत राय पृष्ठ 31पर लिखते हैं- 'नवाब को अब नवें दर्जे में नाम लिखवाना था जो कि बनारस में ही सम्भव था. पिताजी ने पूछा, कितना खर्च लगेगा ? नवाब ने कहा, पाँच रूपए दे दिया कीजिएगा. मगर पाँच रूपए में भला क्या होता. बड़ी मुश्किल का सामना था.'आश्चर्य है कि डॉ. राम विलास शर्मा, अमृत राय की यह बात अबतक किस आधार पर मानते आए थे ? यही बात मेरे लिखने पर वह इतना तिलमिला क्यों उठे ? क्या केवल इस लिए कि अमृत राय ने लिखा था कि पाँच रूपए में भला क्या होता है, और मैंने यह बता दिया कि पाँच रूपए में बहुत कुछ हो सकता था.
डॉ. राम विलास शर्मा को मेरी जो बात सब से अधिक अरुचिकर लगी वह है प्रेमचंद को कलम का मजदूर या कलम का सिपाही स्वीकार न करना और कलम का सौदागर घोषित करना. सौदागर शब्द ऐसा नहीं है जिससे प्रेमचंद के सम्मान को चोट पहुँचती हो. अरब सौदागरों की कहानियाँ निश्चित रूप से डॉ. राम विलास शर्मा ने भी पढी होंगी. प्रसिद्ध पर्यटक और यात्रा-विवरण लेखक इब्ने बतूता मूलतः एक सौदागर था. एक सौदागर को हीरे जवाहरात और अन्य मूल्यवान वस्तुएं एकत्र करने के लिए कितने संघर्ष करने पड़ते थे और समुद्र की कितनी तूफानी लहरों के बीच से होकर गुज़रना पड़ता था, यह किसी से छुपा नहीं है. फिर यदि प्रेमचंद को जीवन के संघर्ष झेलने पड़े तो इसमें विरोधाभास का क्या पहलू है ?
डॉ. राम विलास शर्मा की विशेषता यह है कि वे पूरे प्रसंग से मेरा एक वाक्य निकालकर किसी अन्य प्रसंग के दूसरे वाक्य के साथ बड़ी सहजता के साथ जोड़ देते हैं और फिर उसकी मनचाही व्याख्या करते हैं. बचाव पक्ष का वकील होना कोई बुरी बात नहीं है. किंतु शोध और आलोचना की अदालत में, अर्थ का अनर्थ कर देना बुरी बात ज़रूर है. डॉ. शर्मा वकील के साथ-साथ न्यायधीश भी बन जाते हैं. मैंने एक स्थल पर लिखा था - "व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था. साहित्यकार प्रेमचंद ने व्यक्ति प्रेमचंद की दुर्बलताओं को बहुत निकट से देखा था और जहाँ-तहां अपनी कृतियों के कथानक की गहरी तहों में उसे अभिव्यक्ति भी दी."डॉ. राम विलास शर्मा ने जब यह पढ़ा, तो उन्होंने न जाने किस आधार पर 'बौना' का अर्थ 'क्षुद्र' कर लिया और निर्णय सुना दिया -"जैदी ने क्षुद्र व्यक्ति और महान लेखक में भेद करते हुए लिखा -'व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था.'" विवेच्य प्रसंग से ध्यान हटाने का यह एक कारगर तरीका है. प्रसंग बदलकर डॉ. राम विलास शर्मा को अब मुझ पर प्रहार करने का अच्छा अवसर मिल गया. उन्होंने लिखा -" व्यक्ति प्रेमचंद ने (नोकरी से) इस्तीफा दिया. क्यों इस्तीफा दिया ? यह बौना व्यक्ति अचानक देश-भक्त क्यों बन गया ? ..व्यक्ति राजभक्त, लेखक देशभक्त ? या दोनों ही बौने ? व्यंग्य की यह शैली पर्याप्त दमदार है.
कौन कह सकता है कि सरकारी नोकरी से इस्तीफा देना एक असाधारण, और उन परिस्थियों में प्रशंसनीय कार्य नहीं था. किंतु प्रेमचंद के सम्पूर्ण जीवन में ऐसे असाधारण कार्य अपवादस्वरूप दो-एक ही मिलेंगे, इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता. केवल इस आधार पर व्यक्ति प्रेमचंद की अन्य दुर्बलताओं की ओर से आँखें नहीं मूंदी जा सकतीं.
डॉ.राम विलास शर्मा ने गुड की चोरी वाले प्रसंग में मन्मथनाथ गुप्त से मेरी असहमति में फटकार की झलक देखी है. लिखते हैं - "इसे गरीबी का चित्र मानने वाले मन्मथनाथ गुप्त को फटकारते हुए जैदी ने लिखा है -'मैं नहीं समझ पता कि इसमें गरीबी का चित्र प्रस्तुत करने वाली कौन सी बात है. इसके प्रकाश में एक असंयमी, गैर-जिम्मेदार, यार-बाश, खिलंदरे और चटोरे व्यक्ति का रूप उभरकर सामने आता है' जिस बात की कैफियत जैदी ने नही दी, वह यह कि ऐसा लड़का एंटरेन्स परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास कैसे कर सकता है."
यहाँ डॉ. राम विलास शर्मा का तर्क कमज़ोर भी है और अमान्य भी. पहली बात तो यह है कि मैं मन्मथनाथ गुप्त या किसी अन्य सम्मानित लेखक को फटकारने का साहस भी नहीं कर सकता. रह गई एंटरेन्स द्वितीय श्रेणी में पास करने की बात. यह प्रतिभावान होने का प्रमाण है. और प्रेमचंद के प्रतिभावान होने में कभी किसी ने संदेह नहीं किया. डॉ. राम विलास शर्मा इस सन्दर्भ में मुझ पर कोई टिप्पणी करने से पहले कलम का सिपाही की यह पंक्तियाँ भी देख लेते तो अधिक उपयुक्त होता. अमृत राय लिखते हैं -"थोडी सी पढ़ाई थी, ढेरों उछल-कूद. चिबिल्लेपन की इन्तेहा नहीं. ..इस दो अंगुल की जीभ ने क्या-क्या नाच नचाया है. ..कोठरी में ताला डालकर एक बार उसकी चाभी दीवार की संधि में दाल दी जाती है और दूसरी बार कुएँ में फेक दी जाती है, मगर तब भी रिहाई नहीं मिलती और यह मन भर (गुड) का मटका पेट में समा जाता है (पृष्ठ 21)" स्पष्ट है कि अमृत राय गुड की चोरी के प्रसंग में प्रेमचंद को चिबिल्ला, दो अंगुल की जीभ के इशारों पर नाचने वाला, मटरगश्त और चटोरा सभी कुछ कह जाते हैं और राम विलास शर्मा को उनकी कोई बात नहीं अखरती.
अंत में डॉ. राम विलास शर्मा वही पद्धति अपना लेते हैं जिसका गोयनका को विशेष अभ्यास है. वे प्रेमचंद और उनका युग (पांचवां संस्करण) के पृ0 267 पर लिखते हैं -"ऐसा नहीं था कि उनके जीवन और साहित्य में अंतर्विरोध न रहा हो. उनका जन्म सर्वहारा वर्ग में न हुआ था. न उन्होंने सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी दर्शन मार्क्सवाद को पूरी तरह अपनाया था. प्रेमचंद की संपत्ति के बारे में मैं ने लिखा था (कहाँ और कब लिखा था ?)-'प्रेमचंद व्यवहार कुशलता से उतनी दूर न थे जितना अमृत राय ने उन्हें दिखलाया है. साझेदारी का प्रेस घाटा भले देता हो, अंत में रह गया वह अकेले प्रेमचंद का. वह अपने भाई को भी यह घाटे वाला प्रेस बेचने को तैयार न थे. उन्होंने गाँव में माकन बनवाया था और रक्षा-बन्धन के अवसर पर,उस ज़माने में, एक सौ पैंतीस रूपए की लौंग बेटी के लिए, पैतालीस-पैतालीस रूपए की घडियाँ बेटों के ल्लिए लाए थे. अमृत राय ने इस घटना का ज़िक्र नहीं किया, न यह लिखा कि प्रेमचंद अपनी पुस्तकों के रूप में जो संपत्ति छोड़ गए, उससे उनके बेटों को कितना मुनाफा हुआ." काश डॉ. राम विलास शर्मा ने यह बातें मेरी पुस्तक प्रकाशित होने (1978 ) से पहले लिखी होतीं. अब मेरी ही बातें अपनी शैली में दुहराकर मौलिकता के दावेदार बन रहे हैं, यह उन जैसे प्रतिष्ठित आलोचक को शोभा नहीं देता.
मैं 1995 में भी यह बात उतने ही विश्वास के साथ कह सकता हूँ जितने विश्वास के साथ मैंने 1978 में कही थी कि व्यक्ति प्रेमचंद में वह सभी दुर्बलताएँ थीं जो किसी संस्कारित परिवार के व्यक्ति में नहीं होतीं. हाँ साहित्यकार प्रेमचंद रचना-स्तर की उस ऊंचाई पर था जिसे आज भी लेखकों का एक बड़ा वर्ग छू पाने में असमर्थ है. अपने पुराने शब्दों को ही यदि दुहराऊं तो मैं कहूँगा कि व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था और बौना का अर्थ क्षूद्र नहीं होता जैसा कि डॉ. राम विलास शर्मा समझते हैं.
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Saturday, May 17, 2008

प्रेमचंद रचनावली : खंड उन्नीस (चिट्ठी-पत्री) / डॉ.परवेज़ फ़ातिमा

मैं प्रेमचंद की विशेष अध्येता नहीं हूँ और न ही मेरा इस सन्दर्भ में अधिकारी विद्वान होने का दावा है. साहित्य के एक साधारण पाठक के रूप में मैंने प्रेमचंद को समझा और पढ़ा है. फिर भी शैलेश जैदी का रचना संसार शीर्षक शोधप्रबंध लिखते समय डॉ. जैदी की प्रेमचंद विषयक पुस्तक पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि अमृत राय और मदन गोपाल के प्रयासों के बावजूद प्रेमचंद की चिट्ठियों का वैज्ञानिक संपादन नहीं हो पाया है. चिट्ठियों का कथ्य पढ़ने का भी कष्ट नहीं किया गया है और जहाँ उनके लिखे जाने की तिथियाँ मिट गई हैं या धुंधली पड़ गई हैं वहाँ बिना सोचे-समझे अनुमान के आधार पर कोई तिथि डाल दी गई है. परिणाम यह हुआ है कि प्रेमचंद के शोधार्थी उन चिट्ठियों को आधार बनाकर अनेक ऐसे निष्कर्ष निकालने के लिए विवश हुए हैं जिनका कोई औचित्य नहीं है. प्रोफेसर शैलेश जैदी ने "प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन शीर्षक पुस्तक (प्रकाशन काल 1978) के परिशिष्ट भाग में अमृत राय और मदन गोपाल द्वारा संपादित चिट्ठी-पत्री की अनेक ऐसी त्रुटियों का रेखांकन किया है, किंतु सम्पादकों ने पुस्तक के नए संस्करण आने पर भी इस ओर ध्यान नहीं दिया.
जनवाणी प्रकाशन नई दिल्ली ने 1996 ई० में प्रेमचंद रचनावली शीर्षक से २० खंडों में प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य प्रकाशित किया है जिसका मूल्य नौ हज़ार रूपये है. रोचक बात ये है कि इस पूरे सेट का मार्गदर्शन डॉ. रामविलास शर्मा ने किया है और इसके शुद्ध और वैज्ञानिक होने का भी दावा किया गया है. प्रकाशक की दृष्टि में यह कार्य भले ही ‘ऐतिहासिक महत्व’ का हो, किंतु मुझ जैसा प्रेमचंद का साधारण अध्येता भी यह कहने के लिए विवश है कि रचनावली के प्रकाशन के पीछे केवल एक व्यावसायिक मनोवृत्ति है और प्रेमचंद के नाम को भरपूर बाजारवादी मानसिकता के साथ भुनाया गया है.
इस समय मेरे समक्ष रचनावली का उन्नीसवाँ खंड है. अर्थात प्रेमचंद की चिट्ठी-पत्री का संकलन. इस आलेख में यही मेरा विवेच्य-विषय भी है. सामान्य रूप से देखा गया है कि हर अगला कार्य पिछले कार्य की तुलना में कहीं अधिक बेहतर, उच्च-स्तरीय और उपयोगी होता है. किंतु यहाँ स्थिति ठीक इसके विपरीत है. मदन गोपाल-अमृत राय का संकलन 1962 में प्रकाशित हुआ था. उस समय इतने साधन भी नहीं थे. फिर भी संकलन से इतना तो पता चलता ही है कि प्रेमचन्द ने चिट्ठी में किसे संबोधित किया है और कुल चिट्ठियों की संख्या क्या है इत्यादि. किंतु प्रेमचंद रचनावली का खंड उन्नीस इस प्रकार के सभी बंधनों से मुक्त है.
पाँच सौ चव्वालिस पृष्ठों का यह खंड जिसके प्रारंभिक दस पृष्ठ पुस्तक के शीर्षक, प्रकाशकीय वक्तव्य, प्रेमचंद के परिवार की तस्वीरों, उनकी अंग्रेज़ी लिखावट की प्रतिलिपि और चिट्ठी-पत्री (अमृत राय-मदन गोपाल) के भीतरी पृष्ठ की चित्र-प्रतिलिपि पर नष्ट किए गए हैं. संकलित सामग्री के विषय में एक शब्द भी नहीं है. . न तो चिट्ठियों की कोई सूची दी गई है, न संख्या का उल्लेख किया गया है. चिट्ठियां कहाँ से प्राप्त हुईं, यह बताना भी आवश्यक नहीं समझा गया. अमृत राय और मदन गोपाल कम से कम हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू तथा अंग्रेज़ी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे. रचनावली के संपादक राम आनंद को उर्दू तो निश्चित रूप से नहीं आती, हाँ अंग्रेज़ी का थोड़ा बहुत ज्ञान है, यह बात इस सम्पादन के प्रकाश में विश्वास के साथ कही जा सकती है.
बिना किसी संपादकीय भूमिका के, उपलब्ध चिट्ठियों को धडा-धड़ एक क्रम में और कहीं-कहीं बिना क्रम के, प्रकाशित कर देने वाला यह खंड पृष्ठ ग्यारह से प्रारम्भ होता है. दूसरी ही चिट्ठी जो 20 फरवरी 1905 की है परिष्कृत हिन्दी में है. कहीं भी ‘उर्दू से अनूदित’ जैसी कोई टिपण्णी नहीं है. अनुवादक ने यह भी ध्यान नहीं दिया कि प्रेमचंद अपने मित्र निगम को किन शब्दों से संबोधित करते थे. जनाब मुकर्रम बन्दा, बिरादरम, भाईजान जैसे शब्द उड़ाकर, चिट्ठी में संबोधन के शब्द इस प्रकार लिखे गए हैं- 'प्रिय बाबू दयानरायन साहब'. प्रेमचंद का शोधार्थी निश्चित रूप से यह समझेगा कि 1905 में प्रेमचंद स्तरीय हिन्दी लिखते थे.
इस खंड की तीसरी चिट्ठी पर लेखन-तिथि जून 1905 अंकित है. अमृतराय ने भी यही तिथि डाली थी. किंतु प्रो. जैदी ने उपन्यास-यात्रा के परिशिष्ट में स्पष्ट कर दिया था कि यह चिट्ठी 1906 की है. राम आनंद जी को प्रकाशक महोदय ने श्रीपत राय के मार्गदर्शन में प्रेमचंद के ‘अप्राप्य साहित्य’ पर शोध करने वाला अध्येता बताया है. बिना परिश्रम के उपाधि जब मिल रही हो तो चिट्ठी-पत्री के पाठ में कौन जान खपाए. इस चिट्ठी में प्रेमचंद ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-'खतोकिताबत जो मुआमले की है वो मैं करूँगा. ..हिम्मते-मर्दां मददे खुदा..हाँ यह एलान करना ज़रूरी होगा कि नवाब राय स्टाफ में दाखिल हो गए.' ज़माना की फाइलें उठाकर देखने का कष्ट न अमृतराय ने किया न राम आनंद ने. प्रेमचंद जून 1906 से ज़माना के सम्पादकीय स्टाफ में शामिल हुए थे. स्पष्ट है कि चिट्ठी भी 1906 की है.
रचनावली के पृ0 19 की चिट्ठी पर कोई तिथि नहीं हैं. केवल लिख दिया गया है -'स्थान और तिथि नहीं है. अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया" संपादक महोदय ने अमृत राय की चिट्ठी पत्री की भूमिका पढने का भी कष्ट नहीं किया. अमृत राय ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए लिखा था कि यह चिट्ठी अप्रैल 1929 के आस-पास की होनी चाहिए. प्रो. शैलेश जैदी ने चिट्ठी में संदर्भित ज़माना पत्रिका के 'आतश विशेषांक' के आधार पर चिट्ठी की तिथि अगस्त 1929 निश्चित की है जो तर्क-संगत है.
रचनावली के पृ0 23 की चिट्ठी पर लिखा गया है "स्थान और तिथि नहीं है, अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया". यह अंश अमृत राय की चिट्ठी-पत्री से ज्यों का त्यों नक़ल कर लिया गया है. इस 'अनुमानतः' का कोई आधार तो होना चाहिए. चिट्ठी में कुछ महत्वपूर्ण सन्दर्भ हैं - 'अदीब में आज तीर्थ राम का आज़माइश देखा/ हमदर्द को अच्छा किस्सा नहीं दिया/मुस्लिम गजेट में शिबली का मजमून मुसलमानों की पोलिटिकल करवट काबिले दाद है'. इन संदर्भों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह चिट्ठी मई 1913 की है.
रचनावली के पृ0 30 की चिट्ठी पर अनुमानित तिथि सितम्बर 1913 दर्ज है जो अमृत राय की नकल है. प्रो. शैलेश जैदी ने इसकी तिथि 27-28 सितम्बर 1913 निश्चित की है और संकेत किया है कि अमृत राय इसका एक वाक्य छोड़ गए हैं जो मदन गोपाल संपादित खुतूत के उर्दू संस्करण में मौजूद है. राम आनंद ने मदन गोपाल द्वारा उर्दू में संपादित ‘प्रेमचंद के खुतूत’ देखने का कोई कष्ट नहीं किया है.
1915 की कई चिट्ठियों कि तिथियाँ और उनके क्रम जिस प्रकार अमृत राय ने उलट-पुलट दिए, राम आनंद ने भी उन्हें उसी रूप में छाप दिया. प्रो. शैलेश जैदी ने इनके क्रम मिला कर इनकी तिथियाँ निश्चित की हैं. 20 मार्च 1915 की चिट्ठी का पहला वाक्य है -'मैं कल यहाँ पहुँच गया.' यह पांडेपूर पहुँचने की सूचना है. अब रचनावली के पृ0 51 की चिट्ठी देखिए- 'मुझे यहाँ आए करीबन दो हफ्ते हुए'. 19 मार्च में दो हफ्ता और जोड़ देने पर अप्रैल की पहली या दूसरी तारीख होती है. इसलिए चिट्ठी पर 'अनुमानतः जून 1915' लिखने का कोई आधार नहीं है. रचनावली की पृ0 50 की चिट्ठी भी पांडेपूर से ही लिखी गई है. चिट्ठी का पहला वाक्य है -' कल बस्ती जा रहा हूँ.' राम आनंद ने इस चिट्ठी पर लिखा है - 'अनुमानतः बस्ती, आरंभ 1915.' इससे अधिक लापरवाही और क्या हो सकती है. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी पांडेपूर से बस्ती के लिए प्रस्थान करने से एक दिन पहले लिखी गई.
रचनावली के पृ0 73 की चिट्ठी पर 'तिथि नहीं, अनुमानतः मार्च 1918' लिखा गया है. यही अमृत राय ने भी लिखा था. इस प्रसंग में प्रो. शैलेश जैदी कि टिप्पणी द्रष्टव्य है - '10 फरवरी 1916 के पत्र में प्रेमचंद ने निगम को लिखा था कि वे राना जंग बहादुर आफ नेपाल की सवानेह-उमरी लिखना चाहते हैं साथ ही यह भी निवेदन किया था कि फरवरी के ज़माना में प्रेम-पचीसी का इश्तेहार छपवा दें. प्रस्तुत चिट्ठी में वे फरवरी में इश्तेहार न छपने की शिकायत करते हैं और राना जंग बहादुर वाले लेख के समाप्तप्राय होने की सूचना देते हैं. प्रेमचंद का यह लेख ज़माना के जुलाई 1916 के अंक में प्रकाशित हुआ था. इन तथ्यों के प्रकाश में इस चिट्ठी को 1916 की ही होनी चाहिए. ' प्रो.जैदी ने इसकी तिथि मार्च, द्वितीय सप्ताह 1916 स्वीकार की है जो तर्क-संगत है.
रचनावली के पृ0 69 की चिट्ठी, अमृत राय को प्रमाण मान कर, 22 अगस्त 1918 की स्वीकार की गई है जबकि अमृत राय से सन् पढने में गलती हुई है. प्रो.जैदी के अनुसार यह 1917 की चिट्ठी है. इसमें लिखा गया है - प्रेम-पचीसी बेहतर है लखनऊ में ही छपवा लीजिए'. अब इसे 11 सितम्बर 1917 की चिट्ठी के इस वाक्य से मिला कर पढ़िए- ‘प्रेम-पचीसी के मुतअल्लिक आपने क्या किया? लखनऊ आ गई या कानपूर ही में कोई दूसरा इन्तेजाम हुआ?' स्पष्ट है कि विचाराधीन चिट्ठी 22 अगस्त 1917 की है.
रचनावली पृ0 78 की पहली चिट्ठी पर 2 अप्रैल 1919 अंकित है, जबकि यह चिट्ठी 1920 की है. इस चिट्ठी में सूचित किया गया है – ‘बाज़ारे-हुस्न बज़रिया रजिस्टर्ड पैकेट खिदमत में पहोंचेगा. ख़त्म हो गया. पैकेट बना हुआ तैयार है. आज डाक-खाना बंद है". अब इसे 24 मार्च 1920 की चिट्ठी के साथ मिलाकर पढिए. इसमें लिखा गया है –‘बाज़ारे-हुस्न के अब कुल अड़तालीस सफ्हात बाकी हैं. पहली अप्रैल को आपके पास रजिस्टर्ड पहोंच जायेगा. स्पष्ट है कि रचनावली पृ0 78 वाली चिट्ठी इसके बाद की है जब बाज़ारे-हुस्न का पैकेट भेजने के लिए तैयार हो गया. फलस्वरूप उसकी तिथि 2 अप्रैल 1920 होना चाहिए. इसी 2 अप्रैल वाली चिट्ठी में प्रेमचंद ने यह सूचना भी दी है -'प्रेम-बत्तीसी हिस्सा अव्वल के 12 फार्म छप चुके हैं.' यह संग्रह निगम के प्रेस से छप रहा था. इसका दूसरा भाग इम्तियाज़ अली ताज लाहौर में छाप रहे थे. 27 मई 1920 को प्रेमचंद ने ताज को प्रेम बत्तीसी भाग एक की प्रगति सूचना देते हुए लिखा -'प्रेम-बत्तीसी हिस्सा अव्वल के 120 सफ्हात छपे हैं.' ऐसी स्थिति में रचनावली पृ0 80-81 की चिट्ठी 27 मई 1919 की न होकर 27 मई 1920 की मानी जायेगी.
अब रचनावली पृ0 89 की चिट्ठी देखिए. तिथि दी गई है- 30 सितम्बर 1919'. इसमें ताज साहब ने जंजीरे-हवस (कहानी) पर पाठकों की जो प्रतिक्रिया लिखी थी उसके उत्तर में प्रेमचंद लिखते हैं -'जंजीरे-हवस कोई तारीखी वाकेआ नहीं है'. प्रेमचंद की कहानी जंजीरे-हवस कहकशां में सितम्बर-अक्तूबर संयुक्तांक में 1918 में छपी थी. यदि यह मान लिया जाय कि यह अंक सितंबर के मध्य तक लोगों के पास पहुँच गया था, तो इस चिट्ठी की तिथि 30 सितंबर 1918 मानी जायेगी. प्रो.जैदी ने यही तिथि स्वीकार की है.
इम्तियाज़ अली ताज को लिखी गई रचनावली पृ0 86 की चिट्ठी 11 सितंबर 1919 की न होकर 1918 की है. प्रेमचंद ने इसमें ताज को लिखा था-'एक ताज़ा किस्सा हज्जे-अकबर (महातीर्थ) इर्साले-खिदमत है.' हज्जे-अकबर शीर्षक कहानी कहकशां (सं. इम्तियाज़ अली ताज) के नवम्बर 1918 के अंक में पहली बार प्रकाशित हुई. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी सितंबर 1918 में लिखी गई. प्रो. शैलेश जैदी ने इस प्रसंग में कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं भी दी हैं. उनके अनुसार 'अमृत राय ने चिट्ठी के प्रारंभ की दो पंक्तियाँ उड़ा दी हैं. यह पंक्तियाँ इस प्रकार हैं – ‘बेहतर है बाज़ारे-हुस्न आपकी खिदमत में हाजिर होगा. कल से इसे दो सफ्हे रोजाना साफ कराऊंगा. और गालिबन दसहरे की तातील के बाद इसके चन्द जुज्व आप मुलाहिजा कर सकेंगे'.(प्रेमचंद के खुतूत, पृ0 74). राम आनंद ने भी यह अंश छोड़ दिया है. रोचक बात यह है कि अमृत राय ने लिखा है कि हज्जे-अकबर पहली बार ज़माना के सितंबर 1917 के अंक में छपी. (कलम का सिपाही, पृ0 662) जबकि प्रो. जैदी के अनुसार यह कहानी ज़माना में कभी छपी ही नहीं. इस कहानी को इसके नए नामकरण महातीर्थ के साथ हिन्दी में पहली बार प्रेम-पूर्णिमा संग्रह में 1920 में प्रकाशित किया गया.
रचनावली पृ0 117 की दूसरी चिट्ठी की तिथि 10 नवम्बर 1920 लिखी गई है. अमृत राय और मदन गोपाल ने भी यही तिथि स्वीकार की है. जबकि तथ्य यह है कि यह चिट्ठी 1918 की है. इस चिट्ठी को भी पढने का कष्ट नहीं किया गया. प्रेमचंद ने इसमें लिखा है - 'एक किस्सा बैंक का दिवाला जाता है. लंबा हो गया है. देखिये पसंद आए तो रख लीजिए. दो नंबरों में निकल जाएगा.’ बैंक का दिवाला शीर्षक कहानी कहकशां के फरवरी 1919 के अंक में छपी थी. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी उस से पहले लिखी गई. इस आधार पर चिट्ठी कि सही तिथि 10 नवम्बर 1918 स्वीकार की जानी चाहिए.
रचनावली की सभी चिट्ठियों पर पुनर्विचार के लिए एक पूरी पुस्तक के डेढ़ सौ पृष्ठ भी कम होंगे. इस लिए केवल एक चिट्ठी की और चर्चा कर के अन्य बिन्दुओं की ओर मात्र संकेत कर देना पर्याप्त समझती हूँ. रचनावली पृ0 341 की तीसरी चिट्ठी पर तिथि डाली गई है 3 जून 1932 .चिट्ठी किसे लिखी गई है, राम आनंद ने अपनी सम्पादन कला के अनुरूप, बताने की कृपा नहीं की है. यह चिट्ठी कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण इस लिए भी है कि इसमें प्रेमचंद ने अपने लेखन से सम्बद्ध सात प्रश्नों के उत्तर दिए हैं. प्रेमचंद का साधारण पाठक भी इतना जनता है कि प्रेमचंद से यह सात प्रश्न उनके मित्र बनारसी दास चतुर्वेदी ने किए थे. आश्चर्य यह देख कर होता है कि अमृत राय मदन गोपाल ने भी इस चिट्ठी की तिथि 3 जून 1932 ही लिखी है. चिट्ठी के प्रारम्भ में प्रेमचंद ने सूचना दी है - 'शहर पर फौज का कब्जा है. अमीनाबाद में दोनों पार्कों में सिपाही और गोरे डेरे डाले पड़े हुए हैं. 144 धारा लगी हुई है, पुलिस लोगों को गिरफ्तार कर रही है.' स्पष्ट है कि यह घटना 1932 की न होकर 1930 की है. फिर 11 मई 1930 के पत्र में बनारसी दास चतुर्वेदी ने किसी अंग्रेज़ी पत्र में प्रेमचंद पर कुछ लिखने के लिए उनसे इन सात प्रश्नों को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की थी. रचनावली की पृ0 341 की चिट्ठी उसी के उत्तर में है. इस आधार पर इस चिट्ठी की प्रमाणिक तिथि 3 जून 1930 है. दुःख की बात यह है कि राम आनंद संपादित यह खंड ऐसी त्रुटियों से भरा पड़ा है.
रचनावली के पृष्ठ 485 की एक चिट्ठी संपादक राम आनंद की संपादन कला का परिचय प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है. चिट्ठी पर तिथि 'संभवतः जुलाई 1935' दी गई है. 'संभवतः' शब्द संकेतित करता है कि चिट्ठी ध्यान पूर्वक पढी गई होगी. चिट्ठी का पहला वाक्य इस प्रकार है -"हंस पर एक मज़मून हस्बे वादा रवानए-खिदमत है." राम आनंद ने 'हँसी' को 'हंस' पढ़ लिया और इसे हंस पत्रिका से जोड़ दिया. दूसरे वाक्य में 'अस्ल मज़मून' को 'एहसास मज़मून' पढ़ा गया जिसका यहाँ कोई औचित्य नहीं है. उन्हें इस चिट्ठी का सबसे महत्त्वपूर्ण वाक्य नहीं दिखाई दिया -"प्रेम-पच्चीसी हिस्सा दोयम कातिब के पास गई या नहीं ?" यदि राम आनंद इस पर ध्यान देते तो सहज ही पता चल जाता कि प्रेम-पच्चीसी कातिब के पास कब गई और चिट्ठी किस तिथि की है. ज़माना के फरवरी 1916 के अंक में प्रेमचंद का 'हँसी' शीर्षक एक लेख प्रकशित हुआ था जिसके भेजे जाने की सूचना इस पत्र में दी गई है. इस चिट्ठी से पहले 16 दिसम्बर 1915 को प्रेमचंद ने निगम से इस लेख के विषय में सुझाव माँगा था "नागरी प्रचारिणी में ज़राफत (हँसी) पर एक बहोत आलिमाना मज़मून छपा है.कही तो ज़माना के लिए कुछ नए उनवान से इसी पर लिख दूँ." स्पष्ट है कि यह चिट्ठी १६ दिसम्बर वाली चिट्ठी के दस-बारह दिन बाद की है अर्थात 27/28 दिसम्बर 1915 की. रोचक बात यह है कि स्वयं राम आनंद ने रचनावली के पृष्ठ 52 पर यह चिट्ठी छापी भी है और वहाँ इसकी तिथि 'अनुमानतः बस्ती अंत 1915' दी गई है. इतना गैर-दायित्वपूर्ण संपादन शायद किसी ने इससे पहले न देखा होगा.
अंत में मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगी कि संपादन के लिए किसी न किसी नियम का तो पालन करना ही पड़ता है. राम आनंद की दृष्टि में सारे नियमों को तोड़ना ही वैज्ञानिकता है. रचनावली के पृ0 68 से 132 के बीच की चिट्ठियां इस प्रकार गडमड हो गई हैं कि प्रेमचंद के सामान्य पाठक के लिए यह निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है कि कौन सी चिट्ठी इम्तियाज़ अली ताज को और मख्ज़न के संपादक को और कौन सी दया नरायन निगम को लिखी गई हैं. कुछ चिट्ठियां केवल अंग्रेज़ी भाषा में हैं कुछ अंग्रेज़ी हिन्दी दोनों में. कुछ ऐसी हैं जो बिना सिर पैर की हैं. (द्रष्टव्य हैं पृ0 197, 199, 201, 210, 278, 280, 397, 437 की चिट्ठियां), कुछ ऐसी जो दो-दो बार छप गई हैं, कुछ ऐसी चिट्ठियां भी हैं जिन्हें अमृत राय ने कलम का सिपाही में तो उद्धृत किया है, चिट्ठी पत्री में नहीं दिया है.किंतु इनमें भी, किसे और कब लिखी गयीं, नहीं बताया गया है. रोचक बात यह है कि चिट्ठी-पत्री के नाम पर इस खंड में राम आनंद ने जगदीश प्रसाद चीफ सेक्रेटरी संयुक्त प्रान्त सरकार द्वारा जारी किया गया दिनांक 24 जुलाई 1930 का, प्रेस आर्डिनेंस का नोटिस, रामचंद्र टंडन द्वारा लिखित स्वर्गीय प्रेमचंद जी की एक योजना शीर्षक टिपण्णी और अनुवादक मंडल की योजना आदि को भी शामिल कर लिया है जिसका कोई औचित्य नहीं है.
प्रेमचंद शताब्दी वर्ष पर और उसके बाद भी प्रो. शैलेश जैदी ने प्रेमचंद की अनेक अप्राप्य चिट्ठियाँ हिन्दी पत्रिकाओं में संपादित रूप में प्रकाशित की थीं. सज्जाद ज़हीर को लिखे गए पत्र इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेख्य हैं जो आवश्यक पाद-टिप्पणियों एवं भूमिका के साथ दस्तावेज़ के प्रेमचंद-विशेषांक में छपे थे. राम आनंद ने इनका कोई लाभ नहीं उठाया. आश्चर्य होता है कि राम आनंद का पी-एच.डी. का विषय प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य है, डॉ. कमल किशोर गोयनका की भी इसी विषय पर पुस्तक है, जिस से राम आनंद का प्रेरणा-स्रोत कुछ-कुछ समझ में आता है. अब इस विषय में क्या कहा जा सकता है. शायद कबीर ने ठीक कहा था – ‘अँधा अंधे ठेलिया दोऊ कूअ परंध.’
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Tuesday, May 13, 2008

अक्षयवट : मूल्यांकन की एक और दिशा / डॉ. इफफ़त असग़र

नासिरा शर्मा कहानीकार भी हैं, उपन्यासकार भी और पत्रकारिता में भी पर्याप्त दक्ष हैं. किंतु यही उनकी सीमा नहीं है. वस्तुतः रचनात्मकता उनके जीवन और व्यक्तित्व में इस प्रकार रच-बस गई है कि उनके साक्षात्कार, अनुवाद, राजनीतिक-विश्लेषण और सामजिक तथा साहित्यिक आलेख, सभी में इसकी ध्वनि सुनी जा सकती है. उन्होंने केवल भारतीय ही नहीं, ईरानी, अफगानिस्तानी और मध्य एशियाई देशों की सामजिक ज़िंदगी को उसके भीतर घुस कर देखने-परखने का प्रयास किया है. इलाहाबाद के संभ्रांत मुस्लिम परिवार में जन्मी हैं इसलिए उनमें सांस्कृतिक नोक-पलक के साथ रची हुई एक मधुर कोमल-भाषी सुगंध भी है. स्वभाव की गंभीरता के बावजूद व्यवहार की नरमी और उनकी हंसती मुस्कुराती बात-चीत उनके व्यक्तित्व को और भी आकर्षक बना देती है.
नासिरा शर्मा का इलाहाबाद से वही रिश्ता है जो राही मासूम रज़ा का गाजीपूर के एक छोटे से गाँव 'गंगोली' से है. कदाचित इसीलिए राही के यहाँ जिस प्रकार अंचल विशेष की खट्टी-मीठी और कड़वी तस्वीरें हैं, नासिरा के यहाँ इलाहबाद के महानगरीय विस्तार में व्याप्त गंगा-जमुनी तहजीब की करवटें और सिलवटें हैं जो स्मृति पटल पर कोई 'स्टिल फोटोग्रैफ़' नहीं उभारतीं, बल्कि एक गतिशील 'विडियो क्लिप' में भरपूर गुनगुनाहट भरकर खामोश साज़ छेड़ती दिखाई देती हैं. उनकी अधिकतर कहानियों में इलाहाबाद की सड़कें, गलियां, मोहल्ले किसी-न-किसी रूप में इधर-उधर से झांकते ज़रूर हैं और अवसर पाकर बीचोबीच खड़े भी हो जाते हैं. बिल्कुल अपने स्वाभाविक और सहज रूप में. इलाहबाद से नासिरा शर्मा के इस लगाव को उनके महत्वपूर्ण उपन्यास अक्षयवट में बिना किसी प्रयास के देखा जा सकता है.
अक्षयवट का प्रमुख पात्र ज़हीर, जिसके भीतर "परतदार चट्टानों का सिलसिला दूर तक फैला हुआ है", इलाहाबाद के इतिहास का समूचा धरोहर उसके वक्ष में टीस बनकर चुभता रहता है. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और गिरिजादत्त शुक्ल की कविताओं से उसके शरीर की नसें तक भीगी हुई हैं. वह जानता है कि इलाहाबाद का महत्त्व 'परीक्षा पास करने' या 'इतिहास रटने' में नहीं है - "इलाहाबाद में राजकुमार नूरुद्दीन जहांगीर ने अपने पिता मुग़ल सम्राट अकबर के खिलाफ पहली बार विद्रोह किया था और अबुल फज़ल जो कि अकबर का संदेश लेकर जा रहे थे उन्हें रास्ते में रोक कर क़त्ल कर दिया था. खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी को उसके भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने बड़ी बेरहमी से गर्दन काट के अपने आप को सुलतान घोषित किया था. नॉन काप्रेशन एंड खिलाफत मूवमेंट महात्मा गांधी द्वारा 1920 में इलाहाबाद से शुरू हुआ. ...इलाहबाद में ही पहली बार 1931 में मुस्लिम लीग अधिवेशन में अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान का तज़किरा किया था. चन्द्रशेखर आजाद को कम्पनी बाग़ में 1931 में गोली मारी गई थी ...अमृत मंथन, जो कि केवल चार स्थानों पर हुआ था, उनमें से एक इलाहबाद है. बाक़ी उज्जैन, नासिक एवं हरिद्वार हैं. और इसी कारण से यहाँ हर बारह वर्षों बाद महाकुम्भ मेला आयोजित किया जाता है." (पृष्ठ-18). ज़हीर की निगाह में इलाहबाद केवल इसी इतिहास का नाम नहीं है.
ज़हीर की सूक्ष्म दृष्टि उन सभी मोहल्लों में प्रवेश करती है जो बहुत पुराने भी हैं और बहुत घने भी. जहाँ हिंदू-मुसलमान, छोटी जात-बड़ी जात, नोकरीपेशा, गुंडे, नोकर, पेशेवर बदमाश सभी हैं. दशहरा देखने के लिए यहाँ लोग दूर-दूर से आते हैं. सिविल लाइन, कटरा, पंजाबा, खुल्दाबाद, घास की सट्टी, और पत्थर-चट्टी के दल एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में जम कर तैय्यारियां करते हैं. अतर्सुइया वाली रामलीला का अपना ढंग है. संगम तक श्रद्धालुओं से भरा रहता है. ब्राहमणों को श्राद्ध में भोजन कराना, पंक्तिबद्ध नाइयों से बाल उतरवाना और अंत में अक्षयवट और बड़े हनुमान जी के दर्शन करना इन श्रद्धालुओं की आस्था का अभिन्न अंग है. और फिर इसी इलाहाबाद में बलुआ घाट के चौराहे पर स्थित शाह बाबा के मज़ार का उर्स, नात शरीफ के पूरी आवाज़ में बजते कैसेट, रमजान के चाँद का एलान, बताश्फेनी और खजूर से भरे बाज़ार, मह्मूदन रंडी के घर से भेजी जाने वाली शानदार इफ्तारी, टूटी मस्जिद के पास वाले अंधे मोलवी साहब की तावीज़ में मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुओं की गहरी आस्था, नौचंदी जुमेरात पर निकलने वाला अलम, हजरत अब्बास की दरगाह पर अकीदत्मंदों की भीड़, कभी-कभार शहर की शांति भंग करने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों में पुलिस की भूमिका, कानून के नाम पर गैर-कानूनी हरकतें, क्या कुछ नहीं है इस इलाहाबाद में ?
नासिरा शर्मा की यह सांस्कृतिक परख सप्रयास नहीं है. उसमें एक सहजता है. एक ऐसी सहजता जहाँ 'आक्सफोर्ड आफ द ईस्ट' का अतीत कहीं पीछे छूट गया है. जहाँ अक्षयवट ऊंची दीवारों के बीच घिरा हुआ है और उसकी फुनगियाँ गर्दन उठाकर बाहर झाँकने का प्रयास कर रही हैं –
"इलाहाबाद के लिए दशहरा केवल धार्मिक पर्व भर नहीं है, यह स्थानीय परिवेश से निकली एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो अपनी ही बोली-बानी में इंसानी दुःख का बयान करती है. आम इंसान की ज़िंदगी से इतनी मिलती-जुलती उसकी व्यथा है कि हर कोई उसमें अपने को शामिल पाता है. उसमें मानवीय सरोकार, सामजिक चिंता एवं ज़मीनी रंग बड़े चटक हैं जो बरबस ही अपनी तरफ़ खींच लेते हैं. जिसमें भाव और विचार की समानता होती है. नैतिक और अनैतिक का भेद तर्क के साथ सामने आता है. जिसमें दुःख-सुख इतने सहज लगते हैं कि हर वर्ग का इंसान जीवन के किसी-न-किसी स्तर पर उससे गुजरा ज़रूर होता है." (पृष्ठ 23)
अक्षयवट का इलाहबाद एक स्वप्न नहीं है, जीता जागता यथार्थ है. जहाँ ज़हीर और उसके मित्र शहर के इतिहास को दागदार नहीं देखना चाहते. इन्सपेक्टर श्यामलाल और उसके गुर्गे अपनी समूची नकारात्मक भूमिका के साथ इस इलाहाबाद के चेहरे पर खरोंच के निशान छोड़ देने के लिए तत्पर हैं. उन्हें कामयाबी भी मिलती है, किन्तु क़दम-क़दम पर चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है. नासिरा शर्मा ने अन्य उपन्यासकारों की भांति अराजक तत्वों के विरुद्ध कोई संगठित आन्दोलन छेड़ने का प्रयास नहीं किया है. कारण यह है कि यहाँ समूची पुलिस-व्यवस्था ही भीतर से चरमराई हुई है. त्रिपाठी बेलगाम है और जो कुछ करता है सबकी आंखों के सामने करता है. यहाँ ज़िंदगी की कचोट से घायल और आहत नवयुवक एक दूसरे से बिना किसी पूर्व योजना के जुड़ते चले जाते हैं और सहज ही एक छोटा सा बेनाम संगठन बन जाता है. यह नवयुवक संख्या में कितने ही कम क्यों न हों और इनकी पीठ थपथपाने के लिए भले ही कोई राजनीतिक संगठन न हो, इनकी चारित्रिक उठान और निर्लिप्त भाव से की जाने वाली कोशिशें इन्हें इलाहाबाद के उन सभी बाशिंदों से जोड़ देती है जिनकी चेतना अभी मरी नहीं है. यह और बात है कि यह डरे सहमे स्वकल्पित इज्ज़त्दार लोग अपनी वाणी की प्रखरता और संघर्ष का उत्साह खो चुके हैं.
ज़हीर की माँ सिपतुन का सरल व्यक्तित्व और ज़हीर की दादी के सीने में दबा इलाहाबाद का विराट वैभव , ज़हीर के माध्यम से पूरी युवा टोली में एक ऐसी ऊर्जा भर देता है जो उन्हें फिर पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं देती. अपने जीवन का लक्ष्य वे स्वयं निर्धारित नहीं करते, परिस्थितियां निर्धारित करती हैं. यह परिस्थितियां उनके गुट को एक-एक कर के तोड़ने के कितने ही प्रयास करती हैं किन्तु अंत में पराजित दिखायी देती हैं. विजय अक्षयवट की होती है. उस अक्षयवट की जिसकी हर शाखा धरती का स्पर्श पाकर स्वयं तना बन जाती है. यह अक्षयवट खुसरो बाग़ में क़ैद नहीं है. यह पूरे इलाहाबाद में फैला हुआ है.
वस्तुतः नासिरा शर्मा के इस उपन्यास को 'काला जल' या 'आधा गाँव' के साथ रख कर नहीं देखा जा सकता.यह तुलना किसी दृष्टि से उपयुक्त नहीं है. आधा गाँव के पात्र और उनकी परिस्थितियां अंचल विशेष तक ही सीमित रह जाती हैं. देश विभाजन के मुद्दे का विराट फलक उन्हें आकृष्ट अवश्य करता है. किंतु उनकी सोंच भारत के तमाम मुसलमानों की सोंच का प्रतिनिधित्व नहीं करती. अक्षयवट का इलाहाबाद किसी वर्ग विशेष या धर्म अथवा सम्प्रदाय विशेष की सोंच का नतीजा नहीं है. उसके फैलाव में समूचे देश की सोंच, और बदलती परिस्थितियों के साथ टकराने का जुझारूपन है जो पाठक को आत्मीय स्तर पर जोड़ता है. नासिरा ने ज़बान के चटखारे लेने के लिए उपन्यास में ऐसे शब्द चित्र नहीं टांके हैं जो सस्ती लोकप्रियता तो दे सकते हैं, स्थायी प्रेरणा का स्रोत नहीं बन सकते. कदाचित इसी लिए उनके इस उपन्यास में गुंजाइश होने के बावजूद यौन-संबंधों का वह लिज्लिजापन नहीं है और भाषा की बोल्डनेस के नाम पर इस्तेमाल की जाने वाली वह छिछली अभिव्यक्ति नदारद है जिसे बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से हिन्दी समीक्षकों का एक वर्ग सिहर उठने के लिए आवश्यक समझता रहा है. रुखसाना की घटना हो या कुकी और ज़हीर के प्रेम संबंधों की झलक, मह्मूदन रंडी का व्यक्तित्व हो या हंगामा बेगम का तीन-तीन खिले गुलाबों वाला घर, नासिरा की लेखनी कहीं लडखडाती नहीं. श्याम लाल त्रिपाठी यह कहावत ज़रूर दुहराता है कि 'शेर के साथ बदकारी करो, जंगल ख़ुद-बखुद कब्जे में आ जायेगा'. किंतु उसका यह वक्तव्य भी उसके सीमित नंगेपन की परिधियों से आगे नहीं बढ़ता.
श्यामलाल त्रिपाठी एक विचित्र पात्र है. विचित्र इस दृष्टि से कि मल्लाह होते हुए भी नाम से ब्राह्मण लगता है, व्यवहार से पक्का तिकड़मबाज़ और चरित्र से दिल-फ़ेंक बाजारू आशिक की सभी सीमाएं लांघता हुआ. छिछली और सस्ती औरतों से भी सम्बन्ध जोड़ने में उसे कोई गुरेज़ नहीं है. उपन्यासकार की विशेषता यह है कि उसने उपन्यास के अंत तक आते-आते श्यामलाल के असहज, असामान्य, गिरे हुए क्रूर व्यवहार और उसकी उन हीन ग्रंथियों का अनावरण कर दिया है जो किशोरावस्था से युवा होने तक उसके भीतर निरंतर विकसित होती रही हैं - "मल्लाह बस्ती की कीचड भरी गलियां और झोंपडों में बासी भात की देग्चियाँ...स्वार्थ के लिए डरा-धमका कर जवान तगडे मल्लाहों से अवैध धंधा और अनैतिक कार्य कराने वाले पुलिस दारोगा.....ठेकेदारों की शिकायत पर हवालात की सैर और औरतों की बेहुर्मती . (पृ0439).
नंदलाल केवट का लड़का श्यामलाल विद्रोह की आग में पलकर बड़ा हुआ, इस लिए उसने झुकना नहीं सीखा. 'किसी ने चवन्नी की कमाई करनी चाही, उसको रूपया कमवाया. सड़क के किनारे पड़े लोगों को पचास गज़ की कोठरी का मालिक बना दिया. श्याम लाल त्रिपाठी का यह आतंरिक उद्घोष - 'अपने भाग्य को मैं ने स्वयं लिखा है, किसी मालिक, दानी, परोपकारी या अनाथालय के मैनेजर ने नहीं. इस लिए अपनी तकदीर का अन्तिम अध्याय स्वयं निषाद लिखेगा. श्याम लाल त्रिपाठी कोई अनपढ़ नहीं है' (पृ0440), उसे जमुना की गोद में विश्राम करने के लिए बाध्य कर देता है. यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उपन्यास का पाठक श्याम लाल की मौत पर आंसू नहीं बहाता, बस उसकी आँखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं. शायद सुधीर टारज़न ने उसके सम्बन्ध में ठीक ही सोंचा था - "त्रिपाठी एक तनावर दरख्त था. उसके गिरने से इतनी बड़ी क्षति अपराध की दुनिया को नहीं पहुँची जितनी पेड़ के गिरने के बाद उसकी गहरी जड़ों ने आस-पास की ज़मीन पर उखाड़-पछाड़ मचा दी है और मीलों तक मिटटी उखाड़ फेंकी है."(पृ0442)
अक्षयवट का सम्यक विवेचन करते हुए यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि विगत दस वर्षों में हिन्दी में जितने भी उपन्यास लिखे गए, उनमें इस उपन्यास की पहचान निश्चय ही सबसे अलग है. मेरी समझ से हिन्दी में इस कोटि का उपन्यास लिखा ही नहीं जा रहा है. इस उपन्यास की सब से बड़ी विशेषता यह है कि नैराश्य के बीच साँस लेती जिंदगियाँ भी टूटना नहीं जानतीं. नकारात्मक जीवन मूल्यों की सेंध और नैतिकता की भसभसाती दीवारें उन्हें तोड़ने के कितने ही प्रयास करें, ज़मीन में गहराई तक धंसी अक्षयवट की जड़ें, हिलने का भी नाम नहीं लेतीं.
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रीडर, हिन्दी-विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय