अध्याय- 1
प्रेमचंद का रचना-संसार : एक संगम, एक त्रिवेणी
संगम और त्रिवेणी , दोनों ही इलाहबाद में हैं. उस इलाहबाद में जहाँ गंगा-जमुनी तहजीब की पुरवाई बहती है. प्रेमचंद बनारस के लमही क़स्बे में जन्मे अवश्य, किंतु उनके प्रारंभिक लेख और उपन्यास इलाहबाद के ही निवास काल में लिखे गए. प्रेमचंद का यह वक्तव्य विश्वसनीय नहीं है कि उन्होंने 1901 ई0 से साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया (चि०-प०, १/पृ0 62). सच्चाई यह है कि 1903 ई0 से पूर्व की उनकी एक भी रचना उपलब्ध नहीं है. इसलिए यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इलाहबाद के गंगा-जमुनी जल के स्पर्श से धनपतराय के भीतर एक कथाकार ने आँखें खोलीं और एक लेखक ने जन्म लिया. इस इलाहबाद का एक महत्त्व यह भी है कि प्रेमचंद के रूप में ख्याति अर्जित कर लेने के बाद भी धनपतराय काशी के साहित्य सम्राटों की भीड़ से निकलने के लिए छटपटाते रहे, तलाशते रहे अपने लिए एक न्यायमार्ग और खोजते रहे धूप-छाँव से निर्मित एक आवास. आवास तो उन्हें नहीं मिला, किंतु वह तहजीब अवश्य मिल गई जिसमें हिन्दी उर्दू भाषाएं परस्पर गले मिल रही थीं. प्रेमचंद का रचना-संसार उसी तहजीब का एक संगम है और प्रेमचंद का व्यक्तित्व एक ऐसी त्रिवेणी है जहाँ नवाब, धनपत और प्रेमचंद तीन महत्वपूर्ण नदियों की तरह एक बिन्दु पर मिलकर साहित्यिक तीर्थ की ऊंचाइयां छू लेते हैं.
वैसे तो प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू , दोनों ही भाषाओं के एक जाने-माने लेखक थे, हैं और रहेंगे. पर बकौल काजी अब्दुल सत्तार उनका "पहला लफ्ज़ उर्दू में छपा और आखरी हिन्दी में" (सारिका, दिल्ली, प्रेमचंद-विशेषांक, पृ058). सुनने में यह वक्तव्य काफी दिलचस्प है. पर जहाँ तक छपने का सम्बन्ध है, ओलिवर क्रामवेल (1903 ई0 ) से लेकर क्रिकेट मैच ( 1937 ई0 ) तक की यात्रा संकेत करती है कि साहित्य के महानगर में प्रेमचंद उर्दू के दरवाजे से दाखिल हुए और उसी दरवाजे पर आकर स्थायी नींद सो गए. कारण शायद यह था कि प्रेमचंद ने जिस फ़िज़ा में आँखें खोली थीं वह स्वयं उन्हीं के शब्दों में -" हिन्दी न थी खालिस उर्दू थी ".
प्रेमचंद का उर्दू से हिन्दी लेखन की ओर हिजरत करना भाषा के इतिहास की एक महत्त्व पूर्ण कड़ी है. भाषागत हिजरत उस युग के अन्य कई लेखकों ने की . भारतेंदु, श्रीधर पाठक, बालमुकुन्द गुप्त, राजा शिव प्रसाद, सुदर्शन इत्यादि के नाम इस प्रसंग में लिए जा सकते हैं. किंतु प्रेमचंद और उन लेखकों की मानसिकता में एक स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है. प्रेमचंद से इतर, उर्दू के हिंदू लेखकों का उर्दू लेखन उनकी विवशता थी, उनका भावनात्मक लगाव उर्दू के साथ नहीं था. नागरी आन्दोलन और नागरी संस्कृति में उनकी गहरी श्रद्धा थी और " हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान " के तत्कालीन नारे से किसी-न-किसी रूप में उनका जुडाव भी था. प्रेमचंद की भाषागत हिजरत का लक्ष्य अपने विचारों को भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग तक पहुँचाना था. उसे रूढियों की जकडन से निकालकर एक स्वस्थ एवं समुन्नत वैचारिक धरातल प्रदान करना था. उनकी भाषागत हिजरत में भावुकता से जन्मी संकीर्णता नहीं थी. प्रेमचंद ने हिन्दी में उसी प्रकार लिखना प्रारम्भ किया जिस प्रकार गालिब और इकबाल ने फारसी के प्रति मोह बनाये रखते हुए भी उर्दू में लिखा. प्रेमचंद का उर्दू मोह अन्तिम क्षणों तक बना रहा. गालिब और इकबाल को ख्याति भी उर्दू से ही मिली. ठीक इसी प्रकार प्रेमचंद को वास्तविक ख्याति हिन्दी से प्राप्त हुई. वे यदि केवल उर्दू में लिखते तो अन्य कई लेखकों की तरह इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाते.
प्रेमचंद पाठकों की एक बड़ी संख्या देखने के पक्षधर थे. उर्दू के माध्यम से यह सम्भव नहीं था. उज़रे-तक्सीर शीर्षक से शाहकार लाहौर के मई 1936 ई0 के अंक में उन्हों ने स्पष्ट लिखा था- "मैं हिन्दी इसलिए नहीं लिखने लगा कि हिन्दी वालों ने मुझपर सोने की थैलियाँ निसार कर दीं. बल्कि सिर्फ़ इसलिए के हर अदीब की यह तमन्ना होती है के उसकी तसानीफ़ ज़्यादा-से-ज़्यादा हाथों में पहोंचे. "
सच पूछिये तो जिस प्रकार गालिब और इकबाल उर्दू शायरी के पैगम्बर समझे जाते हैं, प्रेमचंद को हिन्दी कथा साहित्य का पैगम्बर कहने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए. और चूँकि हिजरत या प्रवास पैगम्बरी का हिस्सा है, प्रेमचंद की भाषागत हिजरत भी पैगम्बराना शान रखती है. प्रेमचंद ने उस भाषा और साहित्य की ओर प्रस्थान किया जों "सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न कर सकता हो. " जिसमें सौन्दर्यानुभूति को जगाकर सम्पूर्ण अंतःकरण को प्रकाशित करने की क्षमता हो." यह हिजरत वही कर सकते हैं जिन्होंने प्रेमचंद के शब्दों में "सेवा को ही अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो. " यह पैगाम्बराना आदर्श जिसकी बुनियादें यथार्थ की गहराई में थीं, उस समूचे युग में , शायरी की दुनिया में इकबाल में था और कथा-संसार में प्रेमचंद में.
बात पैगम्बरी की निकल आई है इसलिए यह जानना आवश्यक है कि पैगम्बरी जान जोखिम की चीज़ है. कारण यह है कि "जों कुछ असुंदर है, अभद्र है, मनुष्यता से रहित है, वह उसके लिए असह्य हो जाता है." और सबसे बड़ी बात यह है कि " वह परमात्मा के सामने जवाबदेह हो या न हो, मनुष्य के सामने निश्चित रूप से जवाबदेह है." प्रेमचंद इस जवाबदेही में एक कथाकार की हैसियत से पूरी तरह खरे उतरते हैं. वे भली प्रकार जानते हैं कि "साहित्यकार का लक्ष्य महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दर्जा इतना न गिराइए. वह देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुयी चलने वाली सच्चाई है. " इस सच्चाई में प्रेमचंद का विश्वास , कथा साहित्य में उन्हें वैचारिक स्तर पर महात्मा गांधी के बराबर खड़ा कर देता है.
महात्मा गांधी कि बात आने से हिन्दी उर्दू का प्रसंग और भी ताज़ा हो गया. युग कि हवा ही कुछ ऐसी थी कि उर्दू का विरोध राष्ट्रीयता का पर्याय बन गया था. महात्मा गाँधी का स्वर भी इस हवा कि लय में बह गया. वे उर्दू को मुसलमानों कि भाषा और उसकी लिपि को कुरआन की लिपि घोषित कर बैठे. इस बात को लेकर उर्दू प्रेमियों के मध्य खासा बवंडर खड़ा हुआ. हिन्दुस्तानी की वकालत करने वाले गाँधी जी हिन्दी-हिन्दुस्तानी के वकील बन गए. डॉ. अब्दुल हक ने इसकी कड़ी आलोचना की. बात यहाँ तक पहुंच गई- "गांधी जी शौक़ से हिन्दी का प्रचार करें. वे हिन्दी नहीं छोड़ सकते तो हम भी उर्दू नहीं छोड़ सकते. उनको यदि अपने व्यापक साधनों पर घमंड है, तो हम भी कुछ ऐसे हेटे नहीं हैं. " उर्दू त्रैमासिक के अप्रैल 1936 के अंक में जब प्रेमचंद ने डॉ0 अब्दुल हक के इस वक्तव्य को उनके भारतीय साहित्य परिषद् की असल हकीकत शीर्षक लेख में पढ़ा, तो वे तड़प गए. उर्दू के मामले को लेकर कोई मनमुटाव पैदा हो यह उन्हें कत्तई पसंद नहीं था. तत्काल 4 जून 1936 को उन्होंने डॉ0 अब्दुल हक को पत्र लिखा - "महात्मा गाँधी हिन्दी के खुदा नहीं और न उनका विकल्प मानने के लिए हम विवश हैं. हमारा दावा है की परिषद् की भाषा हिन्दुस्तानी होनी चाहिए. (फरोगे-उर्दू लखनऊ, जनवरी- फरवरी, 1968 में प्रकाशित प्रेमचंद के पत्र से उद्धृत).
प्रेमचंद के इस तेवर ने परिषद् की बैठक में ही महात्मा गांधी को अपनी भूल का अहसास दिला दिया था. एक ऐसा अहसास जिसके बाद उनहोंने फिर कभी ऐसा वक्तव्य नहीं दिया. शायद इसीलिए प्रेमचंद के सम्बन्ध में डॉ0 अब्दुल हक को भी यह मानना पड़ा कि "प्रेमचंद की दिली तमन्ना थी कि हिन्दी उर्दू के झगडे को मिटाकर कोई ऐसी सूरत पैदा की जाय जो दोनों फरीकों में मकबूल हो सके. " यह सूरत हिन्दी उर्दू का संगम बनने की थी, जिसकी घोषणा खुले शब्दों में प्रेमचंद ने 8 मार्च 1936 को जामिया मिल्लिया दिल्ली में कर दी थी.
किंतु यही प्रेमचंद जब उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी कहानियां लिखने लगे और एक प्रतिष्ठित लेखक के रूप में उभरे, तो उर्दू लेखक समुदाय में खल्भली मच गई. कहीं धनोपार्जन और अर्थलाभ की गंध देखी गई, कहीं हिंदू मानसिकता के बीज तलाश किए गए. तमद्दुन उर्दू मासिक के संपादक ने आरोप लगाया कि प्रेमचंद की कहानी इज्ज़त का खून ( उर्दू में यह कहानी खूने-हुरमत शीर्षक से सुबहे-उम्मीद में सितम्बर १९१९ में छपी थी ) हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालती है और साम्प्रदायिक सिलसिले की बुनियाद रखती है. (तमद्दुन, लखनऊ नवम्बर 1919 ई0 ). शाहकार उर्दू मासिक लाहौर के दिसम्बर 1935 के अंक में बज्मे-तहकीक स्तंभ के अंतर्गत, सम्पादकीय टिप्पणी के साथ, हिन्दी-उर्दू विवाद पर विचारार्थ, प्रेमचंद लिखित एक गुजारिश छापी गई, जिसकी प्रतिक्रिया में उर्दू पाठकों ने उनपर अनेक आरोप लगाए. प्रेमचंद ने इन आरोपों का खंडन करते हुए लिखा -"हम उर्दू ज़बान और फारसी रस्मुल्खत (लिपि) को सिफारती (दूतावासी) बैनुलअक्वामी (अंतर्राष्ट्रीय ) ज़बान तसलीम कर लेने के लिए हमेशा तैयार थे, लेकिन हिन्दी ज़बान और नागरी रस्मुल्खत को मुल्की और कौमी ज़बान समझने के लिए भी, दलीलों की बिना पर, अपने को मजबूर पाते हैं. (शाहकार- मई 1936 ).इन बहसों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रेमचंद के मन में हिन्दी के लिए एक अतिरिक्त उत्साह ज़रुर था किन्तु उर्दू के प्रति भावनात्मक लगाव भी निरंतर बना हुआ था.
महात्मा कबीर, प्रेमचंद की अपेक्षा कहीं अधिक भाग्यशाली थे कि उनके साथ उर्दू हिन्दी जैसा कोई पचड़ा नहीं था. उनके युग में भाषागत विवाद की बात सोंची भी नहीं जा सकती थी. प्रेमचंद का युग कबीर के युग से बहुत भिन्न था. लगभग एक जैसे व्याकरणिक सांचों में ढले होने के बावजूद, हिन्दी उर्दू दो स्वतंत्र भाषाओं के रूप में विकसित हो चुकी थीं जिनके बीच दो अलग अलग संस्कार और तह्जीबें जी रही थीं. एक वह तहजीब थी जो शिबली नोमानी, अब्दुल हलीम शरर, राशिदुल्खैरी और डिप्टी नज़ीर अहमद की थी, दूसरी वह थी जो भारतेंदु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, श्रीधर पाठक और महावीर प्रसाद द्विवेदी की लेखनी में मुखर थी. सच्चाई यह थी कि इन दोनों तह्जीबों के बीच गहरी खायीं थी. यह खायीं उर्दू और हिन्दी को ही अलग नहीं कर रही थी, उर्दू को भी बीच से भीतर ही भीतर कट रही थी. उर्दू के हिंदू लेखक, उर्दू के मुस्लमान लेखकों के तह्जीबी धरातल को स्वीकार काने के लिए आमादा नहीं थे. फिर इन लेखकों कि त्रासदी यह भी थी कि इनके सहधर्मी हिन्दी लेखक इन्हें हिन्दी विरोधी और इस रिश्ते से राष्ट्र-विरोधी भी समझते थे. अल्ताफ हुसैन हाली और दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबदी तथा अब्दुल हलीम शरर और रतन नाथ सरशार की तह्जीबी बुनियादें एक दुसरे से अलग थीं. यह अलगाव भाषा के रूप-सौन्दर्य अथवा बुनावट के आधार पर नहीं था. इसके मूल में वह मानसिकता थी जो उर्दू साहित्य को भी हिंदू मुस्लिम खेमों में बाँट रही थी. इस प्रसंग में प्रेमचंद कि पीडा देखने योग्य है - "मुस्लिम भाइयों को शायद यह मालूम नहीं है कि उर्दू लिखने वाले हिंदू लेखक की स्थिति बहुत सराहनीय नहीं है. कोई उसे अपनी हिन्दी भाषा की बुराई चाहने वाला समझता है ,कोई उसे अपनी उर्दू ज़बान के हरमसरा में अनधिकार प्रवेश का दोषी. " ( विविध-प्रसंग 1/248 ).
प्रेमचंद की अधिकांश प्रारम्भिक उर्दू रचनाएं (१९०३ से १९१४ तक ) उनके आर्य समाजी संस्कारों से प्रेरित थीं. उनकी यह वैचारिकता उर्दू के मुस्लिम पाठकों की रूचि के अनुकूल नहीं थी. आगे चलकर भी प्रेमचंद अपनी आर्यसमाजी मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाये. डॉ. नामवर सिंह इस प्रसंग में मुझ से सहमत नहीं हैं. अन्य लेखक भी १९१३ के बाद प्रेमचंद का आर्यसमाज से जुडाव स्वीकार नहीं करते. किंतु उपलब्ध दस्तावेजों से पता चलता है कि जीवन के अंत तक प्रेमचंद आर्य समाज संगठन से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे. १९२८ में अब्दुल माजिद दर्याबदी ने आर्यसमाज से उनके जुडाव को लेकर सीधा प्रश्न कर लिया था. उत्तर में २६ अक्तूबर १९२८ को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा - " हाँ मैं आर्य संगठन का सदस्य हूँ. वह मज़हबी संगठन नहीं, बल्कि कौमी संगठन है " ( पत्र की मूल प्रति मेरे पास सुरक्षित है ). इस तथ्य को अनावश्यक रूप से दबा दिया जाता है कि वही प्रेमचंद जो 9 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक संगठन की अध्यक्षता कर रहे थे , 10अप्रैल 1936 को लाहौर में आर्य भाषा सम्मेलन की अध्यक्षता करते भी देखे गए. प्रेमचंद की इसी वैचारिकता ने, उन्हें उर्दू के सामान्य मुस्लिम पाठकों के बीच संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया था. हाँ, मुसलमानों में जो बहुत उदार थे, पारस्परिक भाईचारे में विश्वास रखते थे और देश की भावनात्मक एकता को सुदृढ़ देखना चाहते थे, सहज भाव से प्रेमचंद से जुड़ते चले गए. इम्तियाज़ अली ताज, अब्दुल माजिद दरियाबदी, अख्तर हुसैन रायपुरी, रशीद अहमद सिद्दीकी, ख्वाजा गुलामुस्सय्य्दैन ,मुनीर हैदर कुरैशी, सुहैल अज़ीमाबादी, सज्जाद ज़हीर इत्यादि कितने ही ऐसे मुस्लिम लेखक थे जिनसे प्रेमचंद की गहरी आत्मीयता थी.
प्रेमचंद की आर्यसमाजी वैचारिकता ने अपने सह्धर्मियों में भी उनकी एक ब्रह्मण विरोधी छवि बना दी थी और इस मुद्दे पर पर्याप्त चील-पों भी हुई. फिर भी प्रेमचंद के जितने आत्मीय सम्बन्ध मन्नन द्विवेदी और बनारसीदास चतुर्वेदी से थे, दया नरायन निगम को छोड़ कर अन्य किसी के साथ नहीं थे. कारण कदाचित यह था कि सैद्धांतिक स्तर पर प्रेमचंद किसी समझौते के पक्ष में नहीं थे.
प्रारम्भ में प्रेमचंद की रचनाओं को उर्दू की उन्हीं पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया, जिनके संपादक हिंदू थे. उर्दू के मुस्लिम संपादकों की पत्रिकाओं के द्वार प्रेमचंद के लिए लगभग बंद थे. लगभग इसलिए कि अपवाद स्वरुप प्रेमचंद का एक लेख मख्ज़न, लाहौर में १९०९ ई0 में प्रकाशित हुआ था. आवजए-खल्क बनारस, अदीब इलाहाबाद, ज़माना कानपूर, आजाद लाहौर इत्यादि सभी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक हिंदू थे और हिंदू ही नहीं कायस्थ भी थे. क्या इसे उस समय की मानसिकता समझा जाय, या यह मन लिया जाय कि प्रेमचंद की प्रारंभिक रचनाएँ इतनी कमज़ोर थीं कि गैर-कायस्थ संपादकों ने उन्हें प्रकाशन योग्य नहीं माना ? सच तो यह है कि प्रेमचंद युगीन समाज इतने छोटे-छोटे खानों में बँटा हुआ था कि आज उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. इसका अनुमान इस साधारण सी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय ब्राह्मण लेखक के नाम के साथ "पंडित" और गैर- ब्राह्मण लेखकों के नाम के साथ हिन्दी में "बाबू" और उर्दू में "मुंशी" जोड़ा जाना अनिवार्य सा था. बाबू श्याम सुंदर दास, बाबू गुलाब राय, बाबू बालमुकुन्द गुप्त आदि के नाम आज भी कुछ लोग इसी प्रकार लिखते हैं. डॉ. नामवर सिंह और कमलेश्वर यदि उस ज़माने के लेखक होते तो बाबू नामवर सिंह और बाबू कमलेश्वर कहलाते. मूळ रूप से उर्दू लेखक होने के कारण "मुंशी" शब्द प्रेमचंद के नाम के साथ चिपक सा गया.
नागरी आन्दोलन के प्रभाव से जितने भी गैर-मुस्लिम उर्दू लेखक ,हिन्दी की ओर झुके थे, एक बार हिन्दी को अपना लेने के बाद, उनका उर्दू लेखन सदैव के लिए विलुप्त हो गया. हाँ, कुछ कायस्थ लेखकों की आस्था उर्दू के साथ इतनी गहरी थी कि वे इसका मोह, हिन्दी में लिखते रहने के बाद भी, न छोड़ सके. प्रेमचंद एक ऐसे ही लेखक थे. वैसे यह एक तथ्य है कि अस्रारे-माबिद (१९०३ ई0), हम्खुर्मा- व-हम्सवाब (१९०५ ई0 ), और किशना (1906 ईo) जैसे प्रेमचंद के प्रारंभिक उर्दू उपन्यासों में तत्कालीन मुस्लिम पाठकों के सांस्कृतिक लगाव अथवा सामजिक संतोष की कोई सामग्री नहीं थी. सोज़े-वतन (1908 ई0) की कहानियाँ और दाराशिकोह का दरबार (1908 ई0 ) जैसे कथात्मक लेख पढ़ कर मुस्लिम पाठक चौंक तो सकते थे, पर उनकी रूचि इनसे मेल नहीं खाती थी. गोपालकृष्ण गोखले, स्वामी विवेकानन्द , हिंदू सभ्यता और लोकहित , रामायन और महाभारत, तथा भरत आदि प्रेमचंद के निबंध हिंदू पाठकों की रूचि को दृष्टि में रख कर लिखे गए. रूठी रानी (1907 ई0 ) शीर्षक राजपूताने की कथा को हिन्दी से उर्दू में अनूदित कर के प्रेमचंद ने हिंदू आदर्शों की ही बुनियाद रक्खी. फलस्वरूप उर्दू के हिंदू पाठकों में प्रेमचंद को लोकप्रियता भले ही मिल गई हो, मुस्लिम पाठकों का मन इन रचनाओं के साथ नहीं जुड़ा.
प्रेमचंद के प्रारंभिक लेखन की भावुक एवं अपरिपक्व चिंतन दृष्टि उनके सम्बन्ध में एक स्वस्थ नजरिया कायम करने से रोकती है. उनहोंने 1912 ई0 में दया नरायन निगम कों स्पष्ट शब्दों में लिखा था- " अब मेरा हिन्दोस्तानी कौम (भारतीय राष्ट्र ) पर एतबार नहीं रहा और उसकी कोशिश फुजूल है ". (चि0-प0 1/13) यह बात उस समय लिखी गई थी जब निगम एक साप्ताहिक निकालना चाहते थे. भारतीय राष्ट्र के पक्षधर होने के कारण निगम साप्ताहिक को किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय की आवाज़ बनाने के हामी नहीं थे. जबकि प्रेमचंद का विचार था कि साप्ताहिक का नाम हिंदू रखा जाय और उसकी पालीसी भी हिंदू हो. निगम प्रेमचंद से सहमत नहीं थे और वो साप्ताहिक की पॉलिसी को हिंदू-मुस्लिम खानों में बांटना पसंद नहीं करते थे. नतीजे में उन्होंने साप्ताहिक का नाम आजाद रखा.प्रेमचंद और निगम के तह्जीबी रचाव का यह अंतराल समूची युग चेतना का संकेत करता है
कुछ भी हो, लेखन के प्रारम्भ काल में, हिन्दोस्तानी कौम के प्रति प्रेमचंद की अविश्वस्नीयता पर्याप्त दुखद कही जायेगी. प्रेमचन्द के इस दो-राष्ट्रीय नज़रिये में उनका वह हिन्दूपन स्पष्ट मुखर था जिसका पल्लवन उनके आर्य समाजी संस्कार कर रहे थे. दुखद स्थिति यह थी कि यह नजरिया किसी हिंदू द्वारा संपादित किसी पत्रिका में इस्लामी गंध भी देखना पसंद नहीं करता था. नौबत राय नज़र उन दिनों इलाहबाद से अदीब उर्दू मासिक का संपादन कर रहे थे. प्रेमचंद को उसकी रविश कुछ अच्छी नहीं लगी. निगम को कड़वाहट भरी शिकायत लिख भेजी -"नज़र साहब ने अपने रिसाले को बिल्कुल इस्लामी ढंग पर चलाने का बीडा उठाया है" (चि0-प0 1/9). उर्दू पत्रिकाओं को हिंदू और इस्लामी खानों में बाँट कर देखने का प्रेमचंद का यह ढंग, अन्य लेखकों के यहाँ नहीं मिलता. दिलचस्प बात यह है कि प्रेमचंद का यह नजरिया पत्रिकाओं तक ही सीमित नहीं था. वो कहानियों का भी हिंदू और मुस्लमान होना स्वीकार करते थे. इम्तियाज़ अली ताज को उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा था - "मैं ने इन्हीं दिनों एक और किस्सा लिखा है - आत्माराम, वह ज़माना में भेज रहा हूँ. वह इस कदर हिन्दू हो गया है कि कहकशां के लायक नहीं ( चि0-प0 2/107)
ऊपर से देखने पर प्रेमचंद की यह बातें विचित्र सी लगती हैं और उनकी जो छवि अन्तश्चेतन में बनी हुई है, उससे जरा भी मेल नहीं खातीं. किंतु इनके भीतर एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे सहज ही नकारा नहीं जा सकता. प्रेमचंद के प्रारंभिक काल में उर्दू लेखन निश्चित रूप से दो खेमों में बँटा हुआ था. हिन्दी लेखन में उर्दू की भांति अलग अलग खेमों की झलक इसलिए नहीं थी कि वहां मुस्लिम लेखकों का सर्वथा अभाव था. फिर भी हिन्दी लेखन में दो प्रकार कि विचारधाराएँ भीतर ही भीतर साँस ले रही थीं. एक विचारधारा सनातनधर्मी थी और दूसरी आर्यसमाजी . प्रेमचंद आर्यसमाजी वैचारिकता के साथ अंतरंग थे. हाँ उनकी आर्यसामाजिकता तत्कालीन कट्टरता से मुक्त थी. इसलिए प्रेमचंद के व्यक्तित्व का विश्लेषण पर्याप्त इह्तियात की अपेक्षा रखता है. आर्यसमाज के प्रति जीवन के अंत तक कोमल भावना रखते हुए भी विशिष्ट परंपरागत अर्थों में प्रेमचंद आर्यसमाजी नहीं थे. और प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ने के बावजूद पारिभाषिक अर्थों में वे प्रगतिवादी नहीं कहे जा सकते. वे किसी भी आन्दोलन के साथ बहुत भीतर तक नहीं जुड़े. उनके समक्ष केवल भारत को स्वतंत्र और समुन्नत देखने का स्वप्न था. इसलिए उनका आर्य समाज से जुड़ना या प्रगतिशील वैचारिकता की ओर आकृष्ट होना, युगीन ऐतिहासिक यथार्थ से आंदोलित उनके अंतस की सच्चाई थी. .
किस्से के हिंदू होने की बात को यदि ध्यान में रखा जाय और आत्माराम को एक हिंदू किस्से का नमूना स्वीकार कर लिया जाय, तो यह धारणा निश्चित रूप से कायम की जा सकती है कि 1916 तक की प्रेमचंद की अनेक कहानियाँ हिंदू हो गई हैं. बाद की कहानियों में भी इस हिन्दूपन का रंग कहीं गहरा और कहीं बहुत हल्का होकर उभरा है. हाँ वह कहानियां जो प्रथम बार उर्दू की उन पत्रिकाओं में छपीं जिनके संपादक मुसलमान थे , इस अवधारणा का अपवाद हैं. इसलिए कि वे हिंदू कौमियत की कहानियाँ न होकर हिन्दुस्तानी कौमियत की कहानियां हैं. प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली कहानी कफ़न जामिया मिल्लिया में रहकर जामि'आ उर्दू मासिक के लिए लिखी गई. चाँद को प्रेमचंद ने उर्दू कहानियों के हिन्दी अनुवाद का अधिकार दे दिया था. इसलिए कहानी की उर्दू लिखावट की एक नकल चाँद के पास भेज दी. हिन्दी में छपी कफ़न कहानी, उर्दू कफ़न का एक भ्रष्ट हिन्दी अनुवाद है.
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि कहानियों का हिन्दू होना हरगिज़ इसका प्रमाण नहीं है कि वह कहानियाँ साम्प्रदायिक भी हैं. ऐसा नहीं कि प्रेमचंद से पूर्व साम्प्रदायिक कहानियां नहीं लिखी गयीं. यह भी सम्भव है कि युगीन दबाव से प्रेमचंद की कुछ कहानियों में साम्प्रदायिकता की हलकी-फुल्की झलक आ गई हो. पर अपनी प्रकृति और स्वभाव से प्रेमचंद साम्प्रदायिकता के ज़बरदस्त विरोधी थे. हिंदू तहज़ीब से उनका गहरा लगाव ज़रुर था, पर इस्लामी तहजीब से उनकी कोई दुश्मनी नहीं थी.
वैसे तो देवनागरी आन्दोलन के मूल में ही हिंदुत्व के प्रति अटूट प्रेम और उर्दू विरोध की तेजाबी गंध विद्यमान थी. भारतेंदु हरिश्चन्द्र -"है है उर्दू हाय हाय, कहाँ सिधारी हाय हाय " के रूप में उर्दू का मर्सिया लिख चुके थे. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी प्रदीप (अंक, 8 मई 1882) में स्पष्ट शब्दों में लिखा था- " कचहरियों में उर्दू अपना दबदबा जमाये हुए है. अपने सहोदर पुत्र मुसलमानों के सिवा हिदू जो उसके सौतेले पुत्र हैं उन्हें भी ऐसा फंसाय रक्खा है कि उसी के संगत प्रेम में बंध, ऐसे महानीच निठुर स्वभाव हो गए हैं कि अपनी निजी जननी सकल गुन आगरी, नगरी की ओर नज़र उठाय भी अब नहीं देखते. " इस वक्तव्य का प्रभाव इतना गहरा था कि उर्दू के अनेक हिंदू लेखक हिन्दी की ओर सहज ही खिंचते चले गए. प्रेमचंद इस विवशता को समझते थे. किंतु अपने उर्दू प्रेम को अपना "महानीच निठुर स्वभाव" होना , स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें उर्दू का "सौतेला पुत्र " कहलाना भी बर्दाश्त नहीं था. कदाचित इसीलिए वे उर्दू और हिन्दी के मध्य सुलह-सफाई का प्रयास जीवन के अंत तक करते रहे.
इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी के प्रति प्रेमचंद का प्रेम निरंतर गहराता गया. उन्होंने हिन्दी में केवल कहानियाँ ,उपन्यास, निबंध, नाटक और सम्पादकीय ही नहीं लिखे, हिन्दी के लिए की जाने वाली महात्मा गांधी की मुहिम में भी सक्रीय रहे. वे हिन्दी को समूचे देश की भाषा देखने के पक्षधर थे. उनकी यह पक्षधरता सशक्त तर्कों पर आधारित थी. अन्य प्रांतीय भाषाओं के भी हिन्दी के साथ मधुर सम्बन्ध देखना उनके लिए सुखद था. वे जानते थे कि समय की गति के साथ " हिन्दी हिन्दुओं की ज़बान हो गई और उर्दू मुसलमानों की. हिन्दुओं ने उर्दू से मुंह मोड़ना शुरू किया, मुसलमानों ने हिन्दी से. अलग अलग दो कैम्प हो गए और दोनों ज़बानें और साहित्य राजनीति के चक्कर में पड़ गए." ( विविध-प्रसंग ,3/109).
प्रेमचंद के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को अलग अलग कोंणों से देखने पर उन्हें साम्प्रदायिक भी ठहराया जा सकता है और संकीर्ण भी. उनपर ब्रह्मण विरोधी होने का आरोप भी लगाया जा सकता है और मंदिरों, पुजारियों, देवी देवताओं तथा सनातन धर्मी आस्थाओं पर तीखा प्रहार करने वाले एक लेखक के रूप में भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है. किंतु इस प्रकार के निष्कर्ष वही आलोचक निकाल सकते हैं जो प्रेमचंद युगीन यथार्थ से आँखें मिला पाने की स्थिति में नहीं हैं.
प्रेमचंद ने उर्दू हिन्दी के सम्बन्ध में जो विचार भी व्यक्त किए किसी को खुश या नाखुश करने के लिए नहीं किए. उनका निश्चित मत था कि उर्दू की तुलना में हिन्दी समूचे राष्ट्र में कहीं अधिक आसानी से सीखी और समझी जा सकती है. उन्होंने अपने ये विचार उर्दू वालों के बीच धंसकर उनके रु-ब-रु खुले मन से व्यक्त किए और उन्हें इस विषय पर बहस में भागीदार भी बनाया. वे उर्दू से बहुत अधिक प्यार भी करते थे और उसकी कमियों पर संजीदगी से सोंचना भी जानते थे. शाकुंतलम का उर्दू अनुवाद पढ़कर संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा की तुलना में उन्हें उर्दू की दरिद्रता का अहसास भी होता था. ( विविध-प्रसंग,1/227).ब्राह्मण विरोधी कहे जाने पर, उन्होंने चुप्पी नहीं साधी. कलम की पूरी प्रखरता के साथ अपने विचारों के पक्ष में ठोस दलीलें प्रस्तुत करते दिखाई दिए. ( विविध-प्रसंग, 3/58).उन्हें जहाँ भारत की एक हज़ार वर्षों की गुलामी का दुःख था, (विविध-प्रसंग,3/143),वहीं हिंदू समाज में प्रचलित वीभत्स दृश्यों की बखिया उधेड़ने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. (विविध-प्रसंग,3/154-162).मुसलमानों के रवैये से वे कुछ दुखी अवश्य थे, पर किसी ने यदि श्रीप्रद कुरान या नाबिश्री हजरत मुहम्मद पर कोई टीका-टिप्पणी कर दी तो उनका दुःख और भी गहरा हो जाता था. इस प्रसंग में धर्मपाल कृत विष लता, दर्शनानंदकृत छानबीन, रामचन्द्र वर्मा द्वारा अनूदित कुरान, और स्वामी श्रद्धानन्दकृत अंधा एत्काद और खुफिया जिहाद जैसी पुस्तकों पर माधुरी के जून 1924 के अंक में प्रेमचंद लिखित समीक्षाएं देखने योग्य हैं.
समूचे प्रेमचंद को हर प्रकार की पराधीनता का विरोध करने वाले उनके अदभुत व्यक्तित्व में ही देखा और पहचाना जा सकता है. सच तो यह है कि प्रेमचंद तुलसीदास की प्रसिद्ध उक्ति - "पराधीन सपनेउ सुख नाही " के ज़बरदस्त पक्षधर थे. उनकी पराधीनता की कल्पना उन जीवन मूल्यों को लेकर थी जिनके अभाव में सब कुछ लकवाग्रस्त होकर रह गया था. इसलिए उनका विरोध किसी प्रकार का लाग-लपेट नहीं रखता था. उनके असहमातिमूलक आक्रोश में उनके वैचारिक खरेपन की झलक थी, देश की प्राचीन संस्कृति के प्रति अटूट लगाव था और आदमी को आदमी से स्वस्थ शर्तों पर जोड़ने की भरपूर ललक थी.
प्रेमचंद का रचना संसार भारतीय तहजीब के इन्द्रधनुषी रंगों से अपनी ऊर्जा ग्रहण करता है. उसमें गंगा के विस्तार, यमुना के लालित्य और सरस्वती के सारल्य से अर्जित एक सहज मिठास है. एक बेमिसाल सोंधापन है. उनकी रचनाएं संस्कृति की उस आधारशिला पर खड़ी हैं जो पारस्परिक मेलजोल को बढ़ावा देती है और भारत को एक स्वस्थ राष्ट्र के रूप में देखने की मांग करती है.
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संगम और त्रिवेणी , दोनों ही इलाहबाद में हैं. उस इलाहबाद में जहाँ गंगा-जमुनी तहजीब की पुरवाई बहती है. प्रेमचंद बनारस के लमही क़स्बे में जन्मे अवश्य, किंतु उनके प्रारंभिक लेख और उपन्यास इलाहबाद के ही निवास काल में लिखे गए. प्रेमचंद का यह वक्तव्य विश्वसनीय नहीं है कि उन्होंने 1901 ई0 से साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया (चि०-प०, १/पृ0 62). सच्चाई यह है कि 1903 ई0 से पूर्व की उनकी एक भी रचना उपलब्ध नहीं है. इसलिए यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इलाहबाद के गंगा-जमुनी जल के स्पर्श से धनपतराय के भीतर एक कथाकार ने आँखें खोलीं और एक लेखक ने जन्म लिया. इस इलाहबाद का एक महत्त्व यह भी है कि प्रेमचंद के रूप में ख्याति अर्जित कर लेने के बाद भी धनपतराय काशी के साहित्य सम्राटों की भीड़ से निकलने के लिए छटपटाते रहे, तलाशते रहे अपने लिए एक न्यायमार्ग और खोजते रहे धूप-छाँव से निर्मित एक आवास. आवास तो उन्हें नहीं मिला, किंतु वह तहजीब अवश्य मिल गई जिसमें हिन्दी उर्दू भाषाएं परस्पर गले मिल रही थीं. प्रेमचंद का रचना-संसार उसी तहजीब का एक संगम है और प्रेमचंद का व्यक्तित्व एक ऐसी त्रिवेणी है जहाँ नवाब, धनपत और प्रेमचंद तीन महत्वपूर्ण नदियों की तरह एक बिन्दु पर मिलकर साहित्यिक तीर्थ की ऊंचाइयां छू लेते हैं.
वैसे तो प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू , दोनों ही भाषाओं के एक जाने-माने लेखक थे, हैं और रहेंगे. पर बकौल काजी अब्दुल सत्तार उनका "पहला लफ्ज़ उर्दू में छपा और आखरी हिन्दी में" (सारिका, दिल्ली, प्रेमचंद-विशेषांक, पृ058). सुनने में यह वक्तव्य काफी दिलचस्प है. पर जहाँ तक छपने का सम्बन्ध है, ओलिवर क्रामवेल (1903 ई0 ) से लेकर क्रिकेट मैच ( 1937 ई0 ) तक की यात्रा संकेत करती है कि साहित्य के महानगर में प्रेमचंद उर्दू के दरवाजे से दाखिल हुए और उसी दरवाजे पर आकर स्थायी नींद सो गए. कारण शायद यह था कि प्रेमचंद ने जिस फ़िज़ा में आँखें खोली थीं वह स्वयं उन्हीं के शब्दों में -" हिन्दी न थी खालिस उर्दू थी ".
प्रेमचंद का उर्दू से हिन्दी लेखन की ओर हिजरत करना भाषा के इतिहास की एक महत्त्व पूर्ण कड़ी है. भाषागत हिजरत उस युग के अन्य कई लेखकों ने की . भारतेंदु, श्रीधर पाठक, बालमुकुन्द गुप्त, राजा शिव प्रसाद, सुदर्शन इत्यादि के नाम इस प्रसंग में लिए जा सकते हैं. किंतु प्रेमचंद और उन लेखकों की मानसिकता में एक स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है. प्रेमचंद से इतर, उर्दू के हिंदू लेखकों का उर्दू लेखन उनकी विवशता थी, उनका भावनात्मक लगाव उर्दू के साथ नहीं था. नागरी आन्दोलन और नागरी संस्कृति में उनकी गहरी श्रद्धा थी और " हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान " के तत्कालीन नारे से किसी-न-किसी रूप में उनका जुडाव भी था. प्रेमचंद की भाषागत हिजरत का लक्ष्य अपने विचारों को भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग तक पहुँचाना था. उसे रूढियों की जकडन से निकालकर एक स्वस्थ एवं समुन्नत वैचारिक धरातल प्रदान करना था. उनकी भाषागत हिजरत में भावुकता से जन्मी संकीर्णता नहीं थी. प्रेमचंद ने हिन्दी में उसी प्रकार लिखना प्रारम्भ किया जिस प्रकार गालिब और इकबाल ने फारसी के प्रति मोह बनाये रखते हुए भी उर्दू में लिखा. प्रेमचंद का उर्दू मोह अन्तिम क्षणों तक बना रहा. गालिब और इकबाल को ख्याति भी उर्दू से ही मिली. ठीक इसी प्रकार प्रेमचंद को वास्तविक ख्याति हिन्दी से प्राप्त हुई. वे यदि केवल उर्दू में लिखते तो अन्य कई लेखकों की तरह इतिहास का हिस्सा बनकर रह जाते.
प्रेमचंद पाठकों की एक बड़ी संख्या देखने के पक्षधर थे. उर्दू के माध्यम से यह सम्भव नहीं था. उज़रे-तक्सीर शीर्षक से शाहकार लाहौर के मई 1936 ई0 के अंक में उन्हों ने स्पष्ट लिखा था- "मैं हिन्दी इसलिए नहीं लिखने लगा कि हिन्दी वालों ने मुझपर सोने की थैलियाँ निसार कर दीं. बल्कि सिर्फ़ इसलिए के हर अदीब की यह तमन्ना होती है के उसकी तसानीफ़ ज़्यादा-से-ज़्यादा हाथों में पहोंचे. "
सच पूछिये तो जिस प्रकार गालिब और इकबाल उर्दू शायरी के पैगम्बर समझे जाते हैं, प्रेमचंद को हिन्दी कथा साहित्य का पैगम्बर कहने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए. और चूँकि हिजरत या प्रवास पैगम्बरी का हिस्सा है, प्रेमचंद की भाषागत हिजरत भी पैगम्बराना शान रखती है. प्रेमचंद ने उस भाषा और साहित्य की ओर प्रस्थान किया जों "सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न कर सकता हो. " जिसमें सौन्दर्यानुभूति को जगाकर सम्पूर्ण अंतःकरण को प्रकाशित करने की क्षमता हो." यह हिजरत वही कर सकते हैं जिन्होंने प्रेमचंद के शब्दों में "सेवा को ही अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो. " यह पैगाम्बराना आदर्श जिसकी बुनियादें यथार्थ की गहराई में थीं, उस समूचे युग में , शायरी की दुनिया में इकबाल में था और कथा-संसार में प्रेमचंद में.
बात पैगम्बरी की निकल आई है इसलिए यह जानना आवश्यक है कि पैगम्बरी जान जोखिम की चीज़ है. कारण यह है कि "जों कुछ असुंदर है, अभद्र है, मनुष्यता से रहित है, वह उसके लिए असह्य हो जाता है." और सबसे बड़ी बात यह है कि " वह परमात्मा के सामने जवाबदेह हो या न हो, मनुष्य के सामने निश्चित रूप से जवाबदेह है." प्रेमचंद इस जवाबदेही में एक कथाकार की हैसियत से पूरी तरह खरे उतरते हैं. वे भली प्रकार जानते हैं कि "साहित्यकार का लक्ष्य महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दर्जा इतना न गिराइए. वह देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुयी चलने वाली सच्चाई है. " इस सच्चाई में प्रेमचंद का विश्वास , कथा साहित्य में उन्हें वैचारिक स्तर पर महात्मा गांधी के बराबर खड़ा कर देता है.
महात्मा गांधी कि बात आने से हिन्दी उर्दू का प्रसंग और भी ताज़ा हो गया. युग कि हवा ही कुछ ऐसी थी कि उर्दू का विरोध राष्ट्रीयता का पर्याय बन गया था. महात्मा गाँधी का स्वर भी इस हवा कि लय में बह गया. वे उर्दू को मुसलमानों कि भाषा और उसकी लिपि को कुरआन की लिपि घोषित कर बैठे. इस बात को लेकर उर्दू प्रेमियों के मध्य खासा बवंडर खड़ा हुआ. हिन्दुस्तानी की वकालत करने वाले गाँधी जी हिन्दी-हिन्दुस्तानी के वकील बन गए. डॉ. अब्दुल हक ने इसकी कड़ी आलोचना की. बात यहाँ तक पहुंच गई- "गांधी जी शौक़ से हिन्दी का प्रचार करें. वे हिन्दी नहीं छोड़ सकते तो हम भी उर्दू नहीं छोड़ सकते. उनको यदि अपने व्यापक साधनों पर घमंड है, तो हम भी कुछ ऐसे हेटे नहीं हैं. " उर्दू त्रैमासिक के अप्रैल 1936 के अंक में जब प्रेमचंद ने डॉ0 अब्दुल हक के इस वक्तव्य को उनके भारतीय साहित्य परिषद् की असल हकीकत शीर्षक लेख में पढ़ा, तो वे तड़प गए. उर्दू के मामले को लेकर कोई मनमुटाव पैदा हो यह उन्हें कत्तई पसंद नहीं था. तत्काल 4 जून 1936 को उन्होंने डॉ0 अब्दुल हक को पत्र लिखा - "महात्मा गाँधी हिन्दी के खुदा नहीं और न उनका विकल्प मानने के लिए हम विवश हैं. हमारा दावा है की परिषद् की भाषा हिन्दुस्तानी होनी चाहिए. (फरोगे-उर्दू लखनऊ, जनवरी- फरवरी, 1968 में प्रकाशित प्रेमचंद के पत्र से उद्धृत).
प्रेमचंद के इस तेवर ने परिषद् की बैठक में ही महात्मा गांधी को अपनी भूल का अहसास दिला दिया था. एक ऐसा अहसास जिसके बाद उनहोंने फिर कभी ऐसा वक्तव्य नहीं दिया. शायद इसीलिए प्रेमचंद के सम्बन्ध में डॉ0 अब्दुल हक को भी यह मानना पड़ा कि "प्रेमचंद की दिली तमन्ना थी कि हिन्दी उर्दू के झगडे को मिटाकर कोई ऐसी सूरत पैदा की जाय जो दोनों फरीकों में मकबूल हो सके. " यह सूरत हिन्दी उर्दू का संगम बनने की थी, जिसकी घोषणा खुले शब्दों में प्रेमचंद ने 8 मार्च 1936 को जामिया मिल्लिया दिल्ली में कर दी थी.
किंतु यही प्रेमचंद जब उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी कहानियां लिखने लगे और एक प्रतिष्ठित लेखक के रूप में उभरे, तो उर्दू लेखक समुदाय में खल्भली मच गई. कहीं धनोपार्जन और अर्थलाभ की गंध देखी गई, कहीं हिंदू मानसिकता के बीज तलाश किए गए. तमद्दुन उर्दू मासिक के संपादक ने आरोप लगाया कि प्रेमचंद की कहानी इज्ज़त का खून ( उर्दू में यह कहानी खूने-हुरमत शीर्षक से सुबहे-उम्मीद में सितम्बर १९१९ में छपी थी ) हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालती है और साम्प्रदायिक सिलसिले की बुनियाद रखती है. (तमद्दुन, लखनऊ नवम्बर 1919 ई0 ). शाहकार उर्दू मासिक लाहौर के दिसम्बर 1935 के अंक में बज्मे-तहकीक स्तंभ के अंतर्गत, सम्पादकीय टिप्पणी के साथ, हिन्दी-उर्दू विवाद पर विचारार्थ, प्रेमचंद लिखित एक गुजारिश छापी गई, जिसकी प्रतिक्रिया में उर्दू पाठकों ने उनपर अनेक आरोप लगाए. प्रेमचंद ने इन आरोपों का खंडन करते हुए लिखा -"हम उर्दू ज़बान और फारसी रस्मुल्खत (लिपि) को सिफारती (दूतावासी) बैनुलअक्वामी (अंतर्राष्ट्रीय ) ज़बान तसलीम कर लेने के लिए हमेशा तैयार थे, लेकिन हिन्दी ज़बान और नागरी रस्मुल्खत को मुल्की और कौमी ज़बान समझने के लिए भी, दलीलों की बिना पर, अपने को मजबूर पाते हैं. (शाहकार- मई 1936 ).इन बहसों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रेमचंद के मन में हिन्दी के लिए एक अतिरिक्त उत्साह ज़रुर था किन्तु उर्दू के प्रति भावनात्मक लगाव भी निरंतर बना हुआ था.
महात्मा कबीर, प्रेमचंद की अपेक्षा कहीं अधिक भाग्यशाली थे कि उनके साथ उर्दू हिन्दी जैसा कोई पचड़ा नहीं था. उनके युग में भाषागत विवाद की बात सोंची भी नहीं जा सकती थी. प्रेमचंद का युग कबीर के युग से बहुत भिन्न था. लगभग एक जैसे व्याकरणिक सांचों में ढले होने के बावजूद, हिन्दी उर्दू दो स्वतंत्र भाषाओं के रूप में विकसित हो चुकी थीं जिनके बीच दो अलग अलग संस्कार और तह्जीबें जी रही थीं. एक वह तहजीब थी जो शिबली नोमानी, अब्दुल हलीम शरर, राशिदुल्खैरी और डिप्टी नज़ीर अहमद की थी, दूसरी वह थी जो भारतेंदु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, श्रीधर पाठक और महावीर प्रसाद द्विवेदी की लेखनी में मुखर थी. सच्चाई यह थी कि इन दोनों तह्जीबों के बीच गहरी खायीं थी. यह खायीं उर्दू और हिन्दी को ही अलग नहीं कर रही थी, उर्दू को भी बीच से भीतर ही भीतर कट रही थी. उर्दू के हिंदू लेखक, उर्दू के मुस्लमान लेखकों के तह्जीबी धरातल को स्वीकार काने के लिए आमादा नहीं थे. फिर इन लेखकों कि त्रासदी यह भी थी कि इनके सहधर्मी हिन्दी लेखक इन्हें हिन्दी विरोधी और इस रिश्ते से राष्ट्र-विरोधी भी समझते थे. अल्ताफ हुसैन हाली और दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबदी तथा अब्दुल हलीम शरर और रतन नाथ सरशार की तह्जीबी बुनियादें एक दुसरे से अलग थीं. यह अलगाव भाषा के रूप-सौन्दर्य अथवा बुनावट के आधार पर नहीं था. इसके मूल में वह मानसिकता थी जो उर्दू साहित्य को भी हिंदू मुस्लिम खेमों में बाँट रही थी. इस प्रसंग में प्रेमचंद कि पीडा देखने योग्य है - "मुस्लिम भाइयों को शायद यह मालूम नहीं है कि उर्दू लिखने वाले हिंदू लेखक की स्थिति बहुत सराहनीय नहीं है. कोई उसे अपनी हिन्दी भाषा की बुराई चाहने वाला समझता है ,कोई उसे अपनी उर्दू ज़बान के हरमसरा में अनधिकार प्रवेश का दोषी. " ( विविध-प्रसंग 1/248 ).
प्रेमचंद की अधिकांश प्रारम्भिक उर्दू रचनाएं (१९०३ से १९१४ तक ) उनके आर्य समाजी संस्कारों से प्रेरित थीं. उनकी यह वैचारिकता उर्दू के मुस्लिम पाठकों की रूचि के अनुकूल नहीं थी. आगे चलकर भी प्रेमचंद अपनी आर्यसमाजी मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाये. डॉ. नामवर सिंह इस प्रसंग में मुझ से सहमत नहीं हैं. अन्य लेखक भी १९१३ के बाद प्रेमचंद का आर्यसमाज से जुडाव स्वीकार नहीं करते. किंतु उपलब्ध दस्तावेजों से पता चलता है कि जीवन के अंत तक प्रेमचंद आर्य समाज संगठन से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे. १९२८ में अब्दुल माजिद दर्याबदी ने आर्यसमाज से उनके जुडाव को लेकर सीधा प्रश्न कर लिया था. उत्तर में २६ अक्तूबर १९२८ को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा - " हाँ मैं आर्य संगठन का सदस्य हूँ. वह मज़हबी संगठन नहीं, बल्कि कौमी संगठन है " ( पत्र की मूल प्रति मेरे पास सुरक्षित है ). इस तथ्य को अनावश्यक रूप से दबा दिया जाता है कि वही प्रेमचंद जो 9 अप्रैल 1936 को प्रगतिशील लेखक संगठन की अध्यक्षता कर रहे थे , 10अप्रैल 1936 को लाहौर में आर्य भाषा सम्मेलन की अध्यक्षता करते भी देखे गए. प्रेमचंद की इसी वैचारिकता ने, उन्हें उर्दू के सामान्य मुस्लिम पाठकों के बीच संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया था. हाँ, मुसलमानों में जो बहुत उदार थे, पारस्परिक भाईचारे में विश्वास रखते थे और देश की भावनात्मक एकता को सुदृढ़ देखना चाहते थे, सहज भाव से प्रेमचंद से जुड़ते चले गए. इम्तियाज़ अली ताज, अब्दुल माजिद दरियाबदी, अख्तर हुसैन रायपुरी, रशीद अहमद सिद्दीकी, ख्वाजा गुलामुस्सय्य्दैन ,मुनीर हैदर कुरैशी, सुहैल अज़ीमाबादी, सज्जाद ज़हीर इत्यादि कितने ही ऐसे मुस्लिम लेखक थे जिनसे प्रेमचंद की गहरी आत्मीयता थी.
प्रेमचंद की आर्यसमाजी वैचारिकता ने अपने सह्धर्मियों में भी उनकी एक ब्रह्मण विरोधी छवि बना दी थी और इस मुद्दे पर पर्याप्त चील-पों भी हुई. फिर भी प्रेमचंद के जितने आत्मीय सम्बन्ध मन्नन द्विवेदी और बनारसीदास चतुर्वेदी से थे, दया नरायन निगम को छोड़ कर अन्य किसी के साथ नहीं थे. कारण कदाचित यह था कि सैद्धांतिक स्तर पर प्रेमचंद किसी समझौते के पक्ष में नहीं थे.
प्रारम्भ में प्रेमचंद की रचनाओं को उर्दू की उन्हीं पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया, जिनके संपादक हिंदू थे. उर्दू के मुस्लिम संपादकों की पत्रिकाओं के द्वार प्रेमचंद के लिए लगभग बंद थे. लगभग इसलिए कि अपवाद स्वरुप प्रेमचंद का एक लेख मख्ज़न, लाहौर में १९०९ ई0 में प्रकाशित हुआ था. आवजए-खल्क बनारस, अदीब इलाहाबाद, ज़माना कानपूर, आजाद लाहौर इत्यादि सभी पत्र-पत्रिकाओं के संपादक हिंदू थे और हिंदू ही नहीं कायस्थ भी थे. क्या इसे उस समय की मानसिकता समझा जाय, या यह मन लिया जाय कि प्रेमचंद की प्रारंभिक रचनाएँ इतनी कमज़ोर थीं कि गैर-कायस्थ संपादकों ने उन्हें प्रकाशन योग्य नहीं माना ? सच तो यह है कि प्रेमचंद युगीन समाज इतने छोटे-छोटे खानों में बँटा हुआ था कि आज उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. इसका अनुमान इस साधारण सी बात से लगाया जा सकता है कि उस समय ब्राह्मण लेखक के नाम के साथ "पंडित" और गैर- ब्राह्मण लेखकों के नाम के साथ हिन्दी में "बाबू" और उर्दू में "मुंशी" जोड़ा जाना अनिवार्य सा था. बाबू श्याम सुंदर दास, बाबू गुलाब राय, बाबू बालमुकुन्द गुप्त आदि के नाम आज भी कुछ लोग इसी प्रकार लिखते हैं. डॉ. नामवर सिंह और कमलेश्वर यदि उस ज़माने के लेखक होते तो बाबू नामवर सिंह और बाबू कमलेश्वर कहलाते. मूळ रूप से उर्दू लेखक होने के कारण "मुंशी" शब्द प्रेमचंद के नाम के साथ चिपक सा गया.
नागरी आन्दोलन के प्रभाव से जितने भी गैर-मुस्लिम उर्दू लेखक ,हिन्दी की ओर झुके थे, एक बार हिन्दी को अपना लेने के बाद, उनका उर्दू लेखन सदैव के लिए विलुप्त हो गया. हाँ, कुछ कायस्थ लेखकों की आस्था उर्दू के साथ इतनी गहरी थी कि वे इसका मोह, हिन्दी में लिखते रहने के बाद भी, न छोड़ सके. प्रेमचंद एक ऐसे ही लेखक थे. वैसे यह एक तथ्य है कि अस्रारे-माबिद (१९०३ ई0), हम्खुर्मा- व-हम्सवाब (१९०५ ई0 ), और किशना (1906 ईo) जैसे प्रेमचंद के प्रारंभिक उर्दू उपन्यासों में तत्कालीन मुस्लिम पाठकों के सांस्कृतिक लगाव अथवा सामजिक संतोष की कोई सामग्री नहीं थी. सोज़े-वतन (1908 ई0) की कहानियाँ और दाराशिकोह का दरबार (1908 ई0 ) जैसे कथात्मक लेख पढ़ कर मुस्लिम पाठक चौंक तो सकते थे, पर उनकी रूचि इनसे मेल नहीं खाती थी. गोपालकृष्ण गोखले, स्वामी विवेकानन्द , हिंदू सभ्यता और लोकहित , रामायन और महाभारत, तथा भरत आदि प्रेमचंद के निबंध हिंदू पाठकों की रूचि को दृष्टि में रख कर लिखे गए. रूठी रानी (1907 ई0 ) शीर्षक राजपूताने की कथा को हिन्दी से उर्दू में अनूदित कर के प्रेमचंद ने हिंदू आदर्शों की ही बुनियाद रक्खी. फलस्वरूप उर्दू के हिंदू पाठकों में प्रेमचंद को लोकप्रियता भले ही मिल गई हो, मुस्लिम पाठकों का मन इन रचनाओं के साथ नहीं जुड़ा.
प्रेमचंद के प्रारंभिक लेखन की भावुक एवं अपरिपक्व चिंतन दृष्टि उनके सम्बन्ध में एक स्वस्थ नजरिया कायम करने से रोकती है. उनहोंने 1912 ई0 में दया नरायन निगम कों स्पष्ट शब्दों में लिखा था- " अब मेरा हिन्दोस्तानी कौम (भारतीय राष्ट्र ) पर एतबार नहीं रहा और उसकी कोशिश फुजूल है ". (चि0-प0 1/13) यह बात उस समय लिखी गई थी जब निगम एक साप्ताहिक निकालना चाहते थे. भारतीय राष्ट्र के पक्षधर होने के कारण निगम साप्ताहिक को किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय की आवाज़ बनाने के हामी नहीं थे. जबकि प्रेमचंद का विचार था कि साप्ताहिक का नाम हिंदू रखा जाय और उसकी पालीसी भी हिंदू हो. निगम प्रेमचंद से सहमत नहीं थे और वो साप्ताहिक की पॉलिसी को हिंदू-मुस्लिम खानों में बांटना पसंद नहीं करते थे. नतीजे में उन्होंने साप्ताहिक का नाम आजाद रखा.प्रेमचंद और निगम के तह्जीबी रचाव का यह अंतराल समूची युग चेतना का संकेत करता है
कुछ भी हो, लेखन के प्रारम्भ काल में, हिन्दोस्तानी कौम के प्रति प्रेमचंद की अविश्वस्नीयता पर्याप्त दुखद कही जायेगी. प्रेमचन्द के इस दो-राष्ट्रीय नज़रिये में उनका वह हिन्दूपन स्पष्ट मुखर था जिसका पल्लवन उनके आर्य समाजी संस्कार कर रहे थे. दुखद स्थिति यह थी कि यह नजरिया किसी हिंदू द्वारा संपादित किसी पत्रिका में इस्लामी गंध भी देखना पसंद नहीं करता था. नौबत राय नज़र उन दिनों इलाहबाद से अदीब उर्दू मासिक का संपादन कर रहे थे. प्रेमचंद को उसकी रविश कुछ अच्छी नहीं लगी. निगम को कड़वाहट भरी शिकायत लिख भेजी -"नज़र साहब ने अपने रिसाले को बिल्कुल इस्लामी ढंग पर चलाने का बीडा उठाया है" (चि0-प0 1/9). उर्दू पत्रिकाओं को हिंदू और इस्लामी खानों में बाँट कर देखने का प्रेमचंद का यह ढंग, अन्य लेखकों के यहाँ नहीं मिलता. दिलचस्प बात यह है कि प्रेमचंद का यह नजरिया पत्रिकाओं तक ही सीमित नहीं था. वो कहानियों का भी हिंदू और मुस्लमान होना स्वीकार करते थे. इम्तियाज़ अली ताज को उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा था - "मैं ने इन्हीं दिनों एक और किस्सा लिखा है - आत्माराम, वह ज़माना में भेज रहा हूँ. वह इस कदर हिन्दू हो गया है कि कहकशां के लायक नहीं ( चि0-प0 2/107)
ऊपर से देखने पर प्रेमचंद की यह बातें विचित्र सी लगती हैं और उनकी जो छवि अन्तश्चेतन में बनी हुई है, उससे जरा भी मेल नहीं खातीं. किंतु इनके भीतर एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे सहज ही नकारा नहीं जा सकता. प्रेमचंद के प्रारंभिक काल में उर्दू लेखन निश्चित रूप से दो खेमों में बँटा हुआ था. हिन्दी लेखन में उर्दू की भांति अलग अलग खेमों की झलक इसलिए नहीं थी कि वहां मुस्लिम लेखकों का सर्वथा अभाव था. फिर भी हिन्दी लेखन में दो प्रकार कि विचारधाराएँ भीतर ही भीतर साँस ले रही थीं. एक विचारधारा सनातनधर्मी थी और दूसरी आर्यसमाजी . प्रेमचंद आर्यसमाजी वैचारिकता के साथ अंतरंग थे. हाँ उनकी आर्यसामाजिकता तत्कालीन कट्टरता से मुक्त थी. इसलिए प्रेमचंद के व्यक्तित्व का विश्लेषण पर्याप्त इह्तियात की अपेक्षा रखता है. आर्यसमाज के प्रति जीवन के अंत तक कोमल भावना रखते हुए भी विशिष्ट परंपरागत अर्थों में प्रेमचंद आर्यसमाजी नहीं थे. और प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ने के बावजूद पारिभाषिक अर्थों में वे प्रगतिवादी नहीं कहे जा सकते. वे किसी भी आन्दोलन के साथ बहुत भीतर तक नहीं जुड़े. उनके समक्ष केवल भारत को स्वतंत्र और समुन्नत देखने का स्वप्न था. इसलिए उनका आर्य समाज से जुड़ना या प्रगतिशील वैचारिकता की ओर आकृष्ट होना, युगीन ऐतिहासिक यथार्थ से आंदोलित उनके अंतस की सच्चाई थी. .
किस्से के हिंदू होने की बात को यदि ध्यान में रखा जाय और आत्माराम को एक हिंदू किस्से का नमूना स्वीकार कर लिया जाय, तो यह धारणा निश्चित रूप से कायम की जा सकती है कि 1916 तक की प्रेमचंद की अनेक कहानियाँ हिंदू हो गई हैं. बाद की कहानियों में भी इस हिन्दूपन का रंग कहीं गहरा और कहीं बहुत हल्का होकर उभरा है. हाँ वह कहानियां जो प्रथम बार उर्दू की उन पत्रिकाओं में छपीं जिनके संपादक मुसलमान थे , इस अवधारणा का अपवाद हैं. इसलिए कि वे हिंदू कौमियत की कहानियाँ न होकर हिन्दुस्तानी कौमियत की कहानियां हैं. प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली कहानी कफ़न जामिया मिल्लिया में रहकर जामि'आ उर्दू मासिक के लिए लिखी गई. चाँद को प्रेमचंद ने उर्दू कहानियों के हिन्दी अनुवाद का अधिकार दे दिया था. इसलिए कहानी की उर्दू लिखावट की एक नकल चाँद के पास भेज दी. हिन्दी में छपी कफ़न कहानी, उर्दू कफ़न का एक भ्रष्ट हिन्दी अनुवाद है.
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि कहानियों का हिन्दू होना हरगिज़ इसका प्रमाण नहीं है कि वह कहानियाँ साम्प्रदायिक भी हैं. ऐसा नहीं कि प्रेमचंद से पूर्व साम्प्रदायिक कहानियां नहीं लिखी गयीं. यह भी सम्भव है कि युगीन दबाव से प्रेमचंद की कुछ कहानियों में साम्प्रदायिकता की हलकी-फुल्की झलक आ गई हो. पर अपनी प्रकृति और स्वभाव से प्रेमचंद साम्प्रदायिकता के ज़बरदस्त विरोधी थे. हिंदू तहज़ीब से उनका गहरा लगाव ज़रुर था, पर इस्लामी तहजीब से उनकी कोई दुश्मनी नहीं थी.
वैसे तो देवनागरी आन्दोलन के मूल में ही हिंदुत्व के प्रति अटूट प्रेम और उर्दू विरोध की तेजाबी गंध विद्यमान थी. भारतेंदु हरिश्चन्द्र -"है है उर्दू हाय हाय, कहाँ सिधारी हाय हाय " के रूप में उर्दू का मर्सिया लिख चुके थे. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी प्रदीप (अंक, 8 मई 1882) में स्पष्ट शब्दों में लिखा था- " कचहरियों में उर्दू अपना दबदबा जमाये हुए है. अपने सहोदर पुत्र मुसलमानों के सिवा हिदू जो उसके सौतेले पुत्र हैं उन्हें भी ऐसा फंसाय रक्खा है कि उसी के संगत प्रेम में बंध, ऐसे महानीच निठुर स्वभाव हो गए हैं कि अपनी निजी जननी सकल गुन आगरी, नगरी की ओर नज़र उठाय भी अब नहीं देखते. " इस वक्तव्य का प्रभाव इतना गहरा था कि उर्दू के अनेक हिंदू लेखक हिन्दी की ओर सहज ही खिंचते चले गए. प्रेमचंद इस विवशता को समझते थे. किंतु अपने उर्दू प्रेम को अपना "महानीच निठुर स्वभाव" होना , स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें उर्दू का "सौतेला पुत्र " कहलाना भी बर्दाश्त नहीं था. कदाचित इसीलिए वे उर्दू और हिन्दी के मध्य सुलह-सफाई का प्रयास जीवन के अंत तक करते रहे.
इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी के प्रति प्रेमचंद का प्रेम निरंतर गहराता गया. उन्होंने हिन्दी में केवल कहानियाँ ,उपन्यास, निबंध, नाटक और सम्पादकीय ही नहीं लिखे, हिन्दी के लिए की जाने वाली महात्मा गांधी की मुहिम में भी सक्रीय रहे. वे हिन्दी को समूचे देश की भाषा देखने के पक्षधर थे. उनकी यह पक्षधरता सशक्त तर्कों पर आधारित थी. अन्य प्रांतीय भाषाओं के भी हिन्दी के साथ मधुर सम्बन्ध देखना उनके लिए सुखद था. वे जानते थे कि समय की गति के साथ " हिन्दी हिन्दुओं की ज़बान हो गई और उर्दू मुसलमानों की. हिन्दुओं ने उर्दू से मुंह मोड़ना शुरू किया, मुसलमानों ने हिन्दी से. अलग अलग दो कैम्प हो गए और दोनों ज़बानें और साहित्य राजनीति के चक्कर में पड़ गए." ( विविध-प्रसंग ,3/109).
प्रेमचंद के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को अलग अलग कोंणों से देखने पर उन्हें साम्प्रदायिक भी ठहराया जा सकता है और संकीर्ण भी. उनपर ब्रह्मण विरोधी होने का आरोप भी लगाया जा सकता है और मंदिरों, पुजारियों, देवी देवताओं तथा सनातन धर्मी आस्थाओं पर तीखा प्रहार करने वाले एक लेखक के रूप में भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है. किंतु इस प्रकार के निष्कर्ष वही आलोचक निकाल सकते हैं जो प्रेमचंद युगीन यथार्थ से आँखें मिला पाने की स्थिति में नहीं हैं.
प्रेमचंद ने उर्दू हिन्दी के सम्बन्ध में जो विचार भी व्यक्त किए किसी को खुश या नाखुश करने के लिए नहीं किए. उनका निश्चित मत था कि उर्दू की तुलना में हिन्दी समूचे राष्ट्र में कहीं अधिक आसानी से सीखी और समझी जा सकती है. उन्होंने अपने ये विचार उर्दू वालों के बीच धंसकर उनके रु-ब-रु खुले मन से व्यक्त किए और उन्हें इस विषय पर बहस में भागीदार भी बनाया. वे उर्दू से बहुत अधिक प्यार भी करते थे और उसकी कमियों पर संजीदगी से सोंचना भी जानते थे. शाकुंतलम का उर्दू अनुवाद पढ़कर संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा की तुलना में उन्हें उर्दू की दरिद्रता का अहसास भी होता था. ( विविध-प्रसंग,1/227).ब्राह्मण विरोधी कहे जाने पर, उन्होंने चुप्पी नहीं साधी. कलम की पूरी प्रखरता के साथ अपने विचारों के पक्ष में ठोस दलीलें प्रस्तुत करते दिखाई दिए. ( विविध-प्रसंग, 3/58).उन्हें जहाँ भारत की एक हज़ार वर्षों की गुलामी का दुःख था, (विविध-प्रसंग,3/143),वहीं हिंदू समाज में प्रचलित वीभत्स दृश्यों की बखिया उधेड़ने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ. (विविध-प्रसंग,3/154-162).मुसलमानों के रवैये से वे कुछ दुखी अवश्य थे, पर किसी ने यदि श्रीप्रद कुरान या नाबिश्री हजरत मुहम्मद पर कोई टीका-टिप्पणी कर दी तो उनका दुःख और भी गहरा हो जाता था. इस प्रसंग में धर्मपाल कृत विष लता, दर्शनानंदकृत छानबीन, रामचन्द्र वर्मा द्वारा अनूदित कुरान, और स्वामी श्रद्धानन्दकृत अंधा एत्काद और खुफिया जिहाद जैसी पुस्तकों पर माधुरी के जून 1924 के अंक में प्रेमचंद लिखित समीक्षाएं देखने योग्य हैं.
समूचे प्रेमचंद को हर प्रकार की पराधीनता का विरोध करने वाले उनके अदभुत व्यक्तित्व में ही देखा और पहचाना जा सकता है. सच तो यह है कि प्रेमचंद तुलसीदास की प्रसिद्ध उक्ति - "पराधीन सपनेउ सुख नाही " के ज़बरदस्त पक्षधर थे. उनकी पराधीनता की कल्पना उन जीवन मूल्यों को लेकर थी जिनके अभाव में सब कुछ लकवाग्रस्त होकर रह गया था. इसलिए उनका विरोध किसी प्रकार का लाग-लपेट नहीं रखता था. उनके असहमातिमूलक आक्रोश में उनके वैचारिक खरेपन की झलक थी, देश की प्राचीन संस्कृति के प्रति अटूट लगाव था और आदमी को आदमी से स्वस्थ शर्तों पर जोड़ने की भरपूर ललक थी.
प्रेमचंद का रचना संसार भारतीय तहजीब के इन्द्रधनुषी रंगों से अपनी ऊर्जा ग्रहण करता है. उसमें गंगा के विस्तार, यमुना के लालित्य और सरस्वती के सारल्य से अर्जित एक सहज मिठास है. एक बेमिसाल सोंधापन है. उनकी रचनाएं संस्कृति की उस आधारशिला पर खड़ी हैं जो पारस्परिक मेलजोल को बढ़ावा देती है और भारत को एक स्वस्थ राष्ट्र के रूप में देखने की मांग करती है.
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