हिन्दी,उर्दू और हिन्दुस्तानी का विवाद 1935 के अंत तक पर्याप्त गर्म हो चुका था. महात्मा गाँधी यद्यपि जीवन के अंत तक हिन्दुस्तानी के पक्षधर बने रहे किंतु बीच-बीच में उनके कुछ वक्तव्य ऐसे भ्रामक प्रतीत हुए जिनसे हिन्दी उर्दू प्रेमियों में परस्पर खिंचाव की गुंजाइश देखी गई. हिन्दी के अनेक पक्षधर ऐसे थे जो महात्मा गाँधी के 'हिन्दुस्तानी' शब्द से संतुष्ट नहीं थे. डॉ. सम्पूर्णानंद का विचार था कि " जो लोग हिन्दुस्तानी के स्वरूप को समझते थे, वह जानते थे कि वह उर्दू का नामांतर मात्र है. इस बात को खुलकर सामने नहीं आने देते थे." डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की स्पष्ट धारण थी कि "हिन्दुस्तानी नाम यूरोपीय लोगों का दिया हुआ है. उर्दू का बोलचाल वाला रूप हिन्दुस्तानी कहलाता है. उधर उर्दू वाले, विशेष रूप से डॉ. अब्दुल हक़, हिन्दुस्तानी शब्द को, उर्दू वालों को इसकी थपकियों से सुला देने के लिए, हिन्दी के पक्ष में गढ़ी गई लोरी समझते थे. फिर महात्मा गाँधी ने एक बार जब भारतीय साहित्य परिषद् में उर्दू को मुसलमानों की भाषा और उसकी लिपि को कुरआन कि लिपि कह दिया, तो उर्दू वालों का मन महात्मा गाँधी की भाषा नीति कि ओर से कुछ खट्टा हो गया. यद्यपि महात्मा गाँधी को अपनी भूल का एहसास शीघ्र ही हो गया और उन्होंने इसक स्पष्टीकरण भी दे दिया, किंतु इस वक्तव्य से जो आग भड़क चुकी थी वह ठंडी न हो सकी.
दुखद स्थिति यह हुई की 1936 के भारतीय साहित्य परिषद् के सम्मेलन में उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी से इतर एक नया शब्द महात्मा गाँधी की ओर से वोट के लिए रखा गया -'हिन्दी-हिन्दुस्तानी.' यह शब्द हिन्दुस्तानी को उर्दू का पर्याय मानने वाले हिन्दी के पक्षधरों के दबाव का परिणाम था. हिन्दुस्तानी के पक्ष में केवल पन्द्रह वोट आए और 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' को पच्चीस वोट मिले. डॉ. अब्दुलहक़ की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र और आक्रामक हुई. उन्होंने उर्दू त्रैमासिक के अप्रैल 1936 के अंक में "भारतीय साहित्य परिषद् की अस्ल हकीकत" शीर्षक एक आक्रामक आलेख लिखा, जिसे पढ़कर प्रेमचंद को बहुत कष्ट हुआ. इस आलेख में अन्य बातों के साथ 'हंस' की भाषा पर भी चोटें की गई थीं. प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद ने 4 जून 1936 को डॉ. अब्दुल हक़ को एक चिट्ठी लिखी जिसमें बहुत दुःख के साथ भाषा सम्बन्धी आक्षेपों का स्पष्टीकरण दिया और गांधी जी के नज़रिये पर गहरी चोट की. यह चिट्ठी फ़रोगे-उर्दू, जनवरी-फरवरी 1968 में उर्दू में छप चुकी है. किंतु हिन्दी के किसी भी चिट्ठी-पत्री संग्रह में नहीं है. चिट्ठी के अतिरिक्त भी प्रेमचंद ने डॉ. अब्दुल हक़ के इस रवैये की आलोचना की. उन्होंने लिखा "हमें मौलाना अब्दुल हक़ जैसे वयोवृद्ध, विचारशील और नीति-चतुर बुजुर्ग के कलम से यह शब्द देख कर दुःख हुआ. जिस सभा में वह बैठे हुए थे, उसमें हिन्दी वालों की कसरत थी. उर्दू के प्रतिनिधि तीन से ज़्यादा न थे. फिर भी जब 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' और अकेले 'हिन्दुस्तानी' पर वोट लिए गए तो हिन्दुस्तानी के पक्ष में आधी से कुछ ही कम रायें आयीं. अगर मेरी याद ग़लती नहीं कर रही है तो शायद पन्द्रह और पचीस का बंटवारा था. एक हिन्दी प्रधान जलसे में जहाँ उर्दू के प्रतिनिधि कुल तीन हों, पन्द्रह रायों का 'हिन्दुस्तानी' के पक्ष में मिल जाना हार होने पर भी जीत ही है."
यहाँ डॉ, अब्दुल हक़ को लिखी गई प्रेमचंद की चिट्ठी मूल उर्दू से रूपांतरित की जा रही है.
दफ़्तर, रिसाला हंस
बनारस कैंटोनमेंट
4 जून 36 ई0
भाई साहब किब्ला, तस्लीम
इस माह के 'उर्दू' में भारतीय साहित्य परिषद् पर आपका मक़ाला (आलेख) देखा तो मुझे अफ़सोस हुआ. जिस काम को इतने नेक इरादों से उठाया गया, उसकी बिस्मिल्लाह ही ग़लत होती नज़र आती है. आपने परिषद् में हाज़रीने-जलसा का रुख़ देख कर शायद अंदाजा नहीं लगाया के मज़हबी पब्लिक को इसकी मुतलक़ पर्वाह नहीं है. इतना ही नहीं, बिलउमूम (सामान्यतः) लोग इसे इश्ताबाह ( संदेह ) की नज़रों से देखते हैं. हर एक ज़बान की जानिब से मुखालिफत हो रही है. एलानिया नहीं तो दर परदा सही. किसी ज़बान ने भी इसका खैर-मक़दम नहीं किया. कुछ मुट्ठी भर लीडर ज़रूर शामिल हो गए हैं. शायद इस ख़याल से के यहाँ भी कुछ शोहरत कमाई जा सकती है. वरना इस तहरीक से बहोत कम किसी को दिलचस्पी है. उर्दू में जिस तरह इसका अदम वुजूद (होना न होना ) बराबर है उसी तरह हिन्दी में भी. चूँकि महात्मा जी का इस बड़े काम से तअल्लुक बतलाया गया है इस लिए थोड़े से खरीदार हो गए हैं. ये तो है असली हालत. आप शायद समझते है के इदारों (संस्थाओं) के पास खूब पैसा है, खूब जोश है. वाकेआ इसके ख़िलाफ़ है. ये तहरीक इस खयाल से जारी की गई थी के हिन्दोस्तान के अदीबों में और उर्दू अदबियात में बेरादराना और हम्दर्दाना एहसास पैदा हो. ज़बान इसकी हत्तलइमकान (भर्सख) सलीस रखने की कोशिश की जाती थी. मगर चूँकि मजामीन लिखने वाले मुखतलिफ सूबों के लोग होते थे और हंस का एडिटोरियल स्टाफ अकेला मेरा दम है, इसलिए हर एक मज़मून की इस्लाह मुश्किल थी.यह ख़याल भी तहतुशशऊर (अन्तश्चेतन) में था के हंस में दिलचस्पी रखने वाले 99 फीसदी गैर उर्दूदाँ हैं इस लिए फ़ारसी और अरबी का इस्तेमाल बेमहल होगा. क्योंकि जैसा काका कालेलकर साहब ने फ़रमाया था हमारी सलीस उर्दू ही गैर उर्दू दाँ असहाब के लिए बईद-अज़-फ़हम (समझ से बाहर) है. ज़बान की इस्लाह तो रफ़ता-रफ़ता ही हो सकती है. जिस तरह संस्कृत से भरी हुई हिन्दी, उर्दू ख़त (लिपि) में लिखी जाय तो उसे कोई न समझेगा, उसी तरह नागरी में उर्दू समझने वाले हिन्दी में या दीगर सूबेजात (अन्य प्रान्तों) में खाल-खाल (इक्का-दुक्का) हैं. इस एतबार से न सही अदबी लेन-देन के ख़याल से भी यह ज़रूरी है कि हमारे अदीबों में इश्ताराके-अमल (व्यावहारिक मेल-मिलाप) हो.उनमें अदबी और इल्मी और ज़ौकी मसाएल (रुचिकर समस्याओं) पर तबाद्लए-ख़याल (वैचारिक आदान-प्रदान) हो.
इस परिषद् में तो कुछ हुआ ही नहीं. मगर आपने यह तो महसूस ही किया कि तीन-चार उर्दू दाँ अहबाब की मौजूदगी ने लोगों पर इतना असर किया कि क़रार्दादों (प्रस्तावों) की ज़बान वो हो गई जो अब है वरना इसके क़ब्ल वह खालिस हिन्दी ज़बान में थी. अगर यह इर्तिबात (सम्पर्क) रोज़-अफ्जूं (नित्य-प्रति)बढ़ता जाता तो क्या आपके ख़याल में ज़बान और अदब पर इसका असर न पड़ता और इससे क़तअतअल्लुक कर लेने पर या मुसलमानों में यह ख़याल पैदा हो जाने पर के एक पोलिटिकल तहरीक है जो हिन्दी ज़बान के प्रचार के लिए जारी की गई है, क्या सूरते-हाल बेहतर होगी ? जो बोद फिलहाल है, उसके ज़्यादा हो जाने का इमकान है. मुझे यकीन है के अगले साल आप हालात में तगैयुर (परिवर्तन) पाते और दो-चार साल में जब उर्दू दाँ तबके को इस तहरीक से उन्स हो जाता, आप देखते के आप ही इस पर काबिज़ हैं.
मेरे लिए इस तहरीक से ज़रूर इतनी दिलचस्पी थी कि मैं हिन्दी और उर्दू को हिन्दुस्तानी के घर में लाकर मिला दूँ. मुझे इस साल कामयाबी न होती. लेकिन अगर उर्दू दाँ तबका मेरी इमदाद करता तो यह मुश्किल आसान हो जाती. मगर जब आपने एलाने-जंग कर दिया तो मुझे भी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है. यह इफ्तेराक (भेद-भाव) वाली पालिसी मालूम नहीं क्यों इस क़दर जल्द हमें खींच लेती है, मेरी समझ में नहीं आता. महात्मा गांधी हिन्दी के खुदा नहीं और न उनकी तावील (विकल्प) मानने के लिए हम मजबूर हैं. हमारा दावा है की परिषद की ज़बान हिन्दुस्तानी होना चाहिए. हम हैं जिन्हें ज़बान के मस्अले से कुछ शगफ है. उन्हें अपने असर, इल्म और मशवरे से इस मंज़िल की तरफ़ उसे ले जाना चाहिए. अगर उर्दू दां तबका साथ देता है तो वह हिन्दुस्तानी बनेगी. सच्चे मानों में. वह अलग हो जाता है तो फिर वह हिन्दी-हिन्दुस्तानी होकर रह जायेगी. आप का आख़िरी जुमला 'हम भी हेठे नहीं हैं' बुरा न मानिएगा, आपके शायाने-शान न था. भाई अख्तर (अख्तर हुसैन रायपूरी) अगर इस जुमले का इस्तेमाल करते तो उनकी पीठ ठोंकता. मगर आपको इन तंग-खयालियों से बालातर समझता हूँ और वह भी जबकि आप परिषद की इन्तजामी समिति में हैं और आप ने अभी उस से इस्तीफा नहीं दिया है. यह नारए-जंग तो बगली घूँसा जैसा लगता है.
ज़बान का मस्अला यूं ही हल हो सकता है कि दो-चार असहाब मिलकर सोलह सफ़हे का रिसाला हिन्दुस्तानी में निकालें. इसमें से दो आदमियों को इसका बार सौंपा जाय. और जो लोग इस स्कूल के हामी हों वो इसमें हिन्दुस्तानी ज़बान में लिखें. अगर दिल्ली वाले उर्दू में कर लें तो मैं यहाँ इसी का हिन्दी एडिशन हू-ब-हू बनारस से निकलने पर तैयार हूँ. अपने बल पर. हालांकि मेरी हालत फाका-कशी से एक ही क़दम पीछे है. इस तरह यह भूत जेर किया जा सकता है. अलग हो जाने से तो वह और भी शेर हो जायेगा. ज़बान का मस्अला परिषद से बिल्कुल अलग कर दिया जाय. वो खालिस अदबी तहरीक हो. हिन्दुस्तानी की तदवीन के लिए एक माहवार सोलह सफ्हे का रिसाला निकला जाय, जिसमें चार मज़ामीन जिम्मेदार असहाब के कलम से लिखे हुए हों. इस तरह हमारी दोनों गरज़ें पूरी हो जायेंगी. ज़बान की भी और अदब की भी. मुझे उम्मीद है कि आप मेरी तजवीज़ से मुत्तफिक़ होंगे. मैं तो आपकी रहनुमाई में दोज़ख में जाने को भी तैयार हूँ. हलांके वो काम बगैर आपकी रहनुमाई के ज़्यादा सफाई से कर सकता हूँ. इसके रस्ते मुझे खूब मालूम हैं.
उम्मीद है आप खुश हैं.
नियाज़ मंद
प्रेमचन्द
दुखद स्थिति यह हुई की 1936 के भारतीय साहित्य परिषद् के सम्मेलन में उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी से इतर एक नया शब्द महात्मा गाँधी की ओर से वोट के लिए रखा गया -'हिन्दी-हिन्दुस्तानी.' यह शब्द हिन्दुस्तानी को उर्दू का पर्याय मानने वाले हिन्दी के पक्षधरों के दबाव का परिणाम था. हिन्दुस्तानी के पक्ष में केवल पन्द्रह वोट आए और 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' को पच्चीस वोट मिले. डॉ. अब्दुलहक़ की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र और आक्रामक हुई. उन्होंने उर्दू त्रैमासिक के अप्रैल 1936 के अंक में "भारतीय साहित्य परिषद् की अस्ल हकीकत" शीर्षक एक आक्रामक आलेख लिखा, जिसे पढ़कर प्रेमचंद को बहुत कष्ट हुआ. इस आलेख में अन्य बातों के साथ 'हंस' की भाषा पर भी चोटें की गई थीं. प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद ने 4 जून 1936 को डॉ. अब्दुल हक़ को एक चिट्ठी लिखी जिसमें बहुत दुःख के साथ भाषा सम्बन्धी आक्षेपों का स्पष्टीकरण दिया और गांधी जी के नज़रिये पर गहरी चोट की. यह चिट्ठी फ़रोगे-उर्दू, जनवरी-फरवरी 1968 में उर्दू में छप चुकी है. किंतु हिन्दी के किसी भी चिट्ठी-पत्री संग्रह में नहीं है. चिट्ठी के अतिरिक्त भी प्रेमचंद ने डॉ. अब्दुल हक़ के इस रवैये की आलोचना की. उन्होंने लिखा "हमें मौलाना अब्दुल हक़ जैसे वयोवृद्ध, विचारशील और नीति-चतुर बुजुर्ग के कलम से यह शब्द देख कर दुःख हुआ. जिस सभा में वह बैठे हुए थे, उसमें हिन्दी वालों की कसरत थी. उर्दू के प्रतिनिधि तीन से ज़्यादा न थे. फिर भी जब 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' और अकेले 'हिन्दुस्तानी' पर वोट लिए गए तो हिन्दुस्तानी के पक्ष में आधी से कुछ ही कम रायें आयीं. अगर मेरी याद ग़लती नहीं कर रही है तो शायद पन्द्रह और पचीस का बंटवारा था. एक हिन्दी प्रधान जलसे में जहाँ उर्दू के प्रतिनिधि कुल तीन हों, पन्द्रह रायों का 'हिन्दुस्तानी' के पक्ष में मिल जाना हार होने पर भी जीत ही है."
यहाँ डॉ, अब्दुल हक़ को लिखी गई प्रेमचंद की चिट्ठी मूल उर्दू से रूपांतरित की जा रही है.
दफ़्तर, रिसाला हंस
बनारस कैंटोनमेंट
4 जून 36 ई0
भाई साहब किब्ला, तस्लीम
इस माह के 'उर्दू' में भारतीय साहित्य परिषद् पर आपका मक़ाला (आलेख) देखा तो मुझे अफ़सोस हुआ. जिस काम को इतने नेक इरादों से उठाया गया, उसकी बिस्मिल्लाह ही ग़लत होती नज़र आती है. आपने परिषद् में हाज़रीने-जलसा का रुख़ देख कर शायद अंदाजा नहीं लगाया के मज़हबी पब्लिक को इसकी मुतलक़ पर्वाह नहीं है. इतना ही नहीं, बिलउमूम (सामान्यतः) लोग इसे इश्ताबाह ( संदेह ) की नज़रों से देखते हैं. हर एक ज़बान की जानिब से मुखालिफत हो रही है. एलानिया नहीं तो दर परदा सही. किसी ज़बान ने भी इसका खैर-मक़दम नहीं किया. कुछ मुट्ठी भर लीडर ज़रूर शामिल हो गए हैं. शायद इस ख़याल से के यहाँ भी कुछ शोहरत कमाई जा सकती है. वरना इस तहरीक से बहोत कम किसी को दिलचस्पी है. उर्दू में जिस तरह इसका अदम वुजूद (होना न होना ) बराबर है उसी तरह हिन्दी में भी. चूँकि महात्मा जी का इस बड़े काम से तअल्लुक बतलाया गया है इस लिए थोड़े से खरीदार हो गए हैं. ये तो है असली हालत. आप शायद समझते है के इदारों (संस्थाओं) के पास खूब पैसा है, खूब जोश है. वाकेआ इसके ख़िलाफ़ है. ये तहरीक इस खयाल से जारी की गई थी के हिन्दोस्तान के अदीबों में और उर्दू अदबियात में बेरादराना और हम्दर्दाना एहसास पैदा हो. ज़बान इसकी हत्तलइमकान (भर्सख) सलीस रखने की कोशिश की जाती थी. मगर चूँकि मजामीन लिखने वाले मुखतलिफ सूबों के लोग होते थे और हंस का एडिटोरियल स्टाफ अकेला मेरा दम है, इसलिए हर एक मज़मून की इस्लाह मुश्किल थी.यह ख़याल भी तहतुशशऊर (अन्तश्चेतन) में था के हंस में दिलचस्पी रखने वाले 99 फीसदी गैर उर्दूदाँ हैं इस लिए फ़ारसी और अरबी का इस्तेमाल बेमहल होगा. क्योंकि जैसा काका कालेलकर साहब ने फ़रमाया था हमारी सलीस उर्दू ही गैर उर्दू दाँ असहाब के लिए बईद-अज़-फ़हम (समझ से बाहर) है. ज़बान की इस्लाह तो रफ़ता-रफ़ता ही हो सकती है. जिस तरह संस्कृत से भरी हुई हिन्दी, उर्दू ख़त (लिपि) में लिखी जाय तो उसे कोई न समझेगा, उसी तरह नागरी में उर्दू समझने वाले हिन्दी में या दीगर सूबेजात (अन्य प्रान्तों) में खाल-खाल (इक्का-दुक्का) हैं. इस एतबार से न सही अदबी लेन-देन के ख़याल से भी यह ज़रूरी है कि हमारे अदीबों में इश्ताराके-अमल (व्यावहारिक मेल-मिलाप) हो.उनमें अदबी और इल्मी और ज़ौकी मसाएल (रुचिकर समस्याओं) पर तबाद्लए-ख़याल (वैचारिक आदान-प्रदान) हो.
इस परिषद् में तो कुछ हुआ ही नहीं. मगर आपने यह तो महसूस ही किया कि तीन-चार उर्दू दाँ अहबाब की मौजूदगी ने लोगों पर इतना असर किया कि क़रार्दादों (प्रस्तावों) की ज़बान वो हो गई जो अब है वरना इसके क़ब्ल वह खालिस हिन्दी ज़बान में थी. अगर यह इर्तिबात (सम्पर्क) रोज़-अफ्जूं (नित्य-प्रति)बढ़ता जाता तो क्या आपके ख़याल में ज़बान और अदब पर इसका असर न पड़ता और इससे क़तअतअल्लुक कर लेने पर या मुसलमानों में यह ख़याल पैदा हो जाने पर के एक पोलिटिकल तहरीक है जो हिन्दी ज़बान के प्रचार के लिए जारी की गई है, क्या सूरते-हाल बेहतर होगी ? जो बोद फिलहाल है, उसके ज़्यादा हो जाने का इमकान है. मुझे यकीन है के अगले साल आप हालात में तगैयुर (परिवर्तन) पाते और दो-चार साल में जब उर्दू दाँ तबके को इस तहरीक से उन्स हो जाता, आप देखते के आप ही इस पर काबिज़ हैं.
मेरे लिए इस तहरीक से ज़रूर इतनी दिलचस्पी थी कि मैं हिन्दी और उर्दू को हिन्दुस्तानी के घर में लाकर मिला दूँ. मुझे इस साल कामयाबी न होती. लेकिन अगर उर्दू दाँ तबका मेरी इमदाद करता तो यह मुश्किल आसान हो जाती. मगर जब आपने एलाने-जंग कर दिया तो मुझे भी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है. यह इफ्तेराक (भेद-भाव) वाली पालिसी मालूम नहीं क्यों इस क़दर जल्द हमें खींच लेती है, मेरी समझ में नहीं आता. महात्मा गांधी हिन्दी के खुदा नहीं और न उनकी तावील (विकल्प) मानने के लिए हम मजबूर हैं. हमारा दावा है की परिषद की ज़बान हिन्दुस्तानी होना चाहिए. हम हैं जिन्हें ज़बान के मस्अले से कुछ शगफ है. उन्हें अपने असर, इल्म और मशवरे से इस मंज़िल की तरफ़ उसे ले जाना चाहिए. अगर उर्दू दां तबका साथ देता है तो वह हिन्दुस्तानी बनेगी. सच्चे मानों में. वह अलग हो जाता है तो फिर वह हिन्दी-हिन्दुस्तानी होकर रह जायेगी. आप का आख़िरी जुमला 'हम भी हेठे नहीं हैं' बुरा न मानिएगा, आपके शायाने-शान न था. भाई अख्तर (अख्तर हुसैन रायपूरी) अगर इस जुमले का इस्तेमाल करते तो उनकी पीठ ठोंकता. मगर आपको इन तंग-खयालियों से बालातर समझता हूँ और वह भी जबकि आप परिषद की इन्तजामी समिति में हैं और आप ने अभी उस से इस्तीफा नहीं दिया है. यह नारए-जंग तो बगली घूँसा जैसा लगता है.
ज़बान का मस्अला यूं ही हल हो सकता है कि दो-चार असहाब मिलकर सोलह सफ़हे का रिसाला हिन्दुस्तानी में निकालें. इसमें से दो आदमियों को इसका बार सौंपा जाय. और जो लोग इस स्कूल के हामी हों वो इसमें हिन्दुस्तानी ज़बान में लिखें. अगर दिल्ली वाले उर्दू में कर लें तो मैं यहाँ इसी का हिन्दी एडिशन हू-ब-हू बनारस से निकलने पर तैयार हूँ. अपने बल पर. हालांकि मेरी हालत फाका-कशी से एक ही क़दम पीछे है. इस तरह यह भूत जेर किया जा सकता है. अलग हो जाने से तो वह और भी शेर हो जायेगा. ज़बान का मस्अला परिषद से बिल्कुल अलग कर दिया जाय. वो खालिस अदबी तहरीक हो. हिन्दुस्तानी की तदवीन के लिए एक माहवार सोलह सफ्हे का रिसाला निकला जाय, जिसमें चार मज़ामीन जिम्मेदार असहाब के कलम से लिखे हुए हों. इस तरह हमारी दोनों गरज़ें पूरी हो जायेंगी. ज़बान की भी और अदब की भी. मुझे उम्मीद है कि आप मेरी तजवीज़ से मुत्तफिक़ होंगे. मैं तो आपकी रहनुमाई में दोज़ख में जाने को भी तैयार हूँ. हलांके वो काम बगैर आपकी रहनुमाई के ज़्यादा सफाई से कर सकता हूँ. इसके रस्ते मुझे खूब मालूम हैं.
उम्मीद है आप खुश हैं.
नियाज़ मंद
प्रेमचन्द