Sunday, August 17, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [4.4]

4.5 कहानी यात्रा के ठोस क़दम
दया नरायन निगम की सूचना के अनुसार 1911 ई० के मध्य तक ज़माना की अनुमति से उसमें प्रकाशित कहानियाँ गुजराती, पंजाबी, हिन्दी तथा मराठी भाषाओँ में अनूदित हो चुकी थीं. स्वयं निगम के शब्दों में सुनिए- "हमसे बार-बार ताकीद की जाती है कि प्रेमचंद साहब का एक-एक किस्सा ज़माना के हर नंबर में शाया किया जाय. हमको उम्मीद है कि यह नादिर किस्से अरसे तक ज़माना की खुसूसियत बने रहेंगे. जमाना के लिए यह फख्र की बात है कि उसकी इजाज़त से इन किस्सों के गुजराती, पंजाबी, हिन्दी और मरह्ठी ज़बानों में तर्जुमे हो चुके है. (27)
सप्त सरोज के प्रकाशन के लगभग पाँच माह बाद प्रेमचंद की कहानियों का दूसरा संग्रह ‘नव निधि’, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर बंबई से 1918 ई० में प्रकाशित हुआ. संग्रहः में कुल नौ कहानियाँ हैं जो ज़माना के विभिन्न अंकों से ली गयी हैं. इनका हिन्दी अनुवाद किसी अन्य व्यक्ति का किया हुआ प्रतीत होता है. प्रेमचंद ने इस तथ्य का संकेत उसी समय कर दिया था जब वे अपने प्रथम कहानी संग्रह सप्त सरोज के लिए तीन मौलिक कहानियाँ लिखने में व्यस्त थे. निगम के नाम 24 नवम्बर 1915 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था.
"किस्से लिख रहा हूँ. ज्यों ही तैयार हो गए भेजूंगा. अभी तक हिन्दी मजमूआ तैयार नहीं हुआ है. यह किस्से पहले पहल हिन्दी में निकलेंगे. इसके बाद उर्दू में भी. अभी छाप देने से इनका नयापन जाता रहेगा. कोशिश कर रहा हूँ कि अपनी और कहानियाँ भी तर्जुमा करके छापूँ. एक साहब रूपया लगाने के लिए तैयार हैं. " (28)
"तर्जुमे कराके छापने" के निर्णय से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने कहानियों का चयन करके उन्हें अनुवादक के सुपुर्द कर दिया। सम्भव है कि यह भार प्रकाशक ने अपने ऊपर ले लिया हो और उसने प्रेमचंद द्वारा चुनी गयी कहानियों के अनुवाद स्वयं कराये हों। इस अनुवाद में प्रेमचंद की सीधी सादी और पैनी भाषा को कृत्रिम, फूहड़ और पंडिताऊ शब्द ठूंस कर प्रभावहीन बना दिया गया है। सामने की बात है कि ‘अमावस की रात’ जैसे कंठमधुर शीर्षक को अनुवादक ने ‘अमावस्या की रात्रि’ के रूप में बदलकर उसकी सहजता समाप्त कर दी है. ये न तो प्रेमचंद कर सकते थे न ही उनके सहयोगी मन्नन द्विवेदी. सप्त सरोज की भाषा भी यद्यपि स्तरीय नहीं कही जा सकती फिर भी नव निधि की तुलना में कहीं अधिक परिष्कृत और सहज है.
प्रेमचंद की कहानियों का तीसरा संग्रह प्रेमपूर्णिमा हिन्दी पुस्तक एजेंसी कलकत्ता से 1919 ई० में प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियाँ संकलित थीं. इनमे से शंखनाद, बलिदान और सच्चाई का उपहार पहली बार इसी संग्रह के लिए लिखी गयी थीं.शेष कहानियों में से दुर्गा का मन्दिर, और महा तीर्थ (हज्जे अकबर) क्रमशः ज़खीरा और कहकशां से, ईश्वरीय न्याय निगम द्वारा प्रकाशित आजाद से और बाकी ज़माना उर्दू मासिक से हिन्दी में अनूदित हुईं. सच्चाई का उपहार इस संग्रह की एक ऐसी कहानी है जिसका रूपांतर उर्दू की किसी पत्रिका में नहीं हुआ.
प्रेमपूर्णिमा के प्रकाशन तक प्रेमचंद को हिन्दी लिखने का पर्याप्त अभ्यास हो चुका था. हिन्दी में मौलिक लेखन की क्षमता उनमें न केवल पूरी तरह विकसित हो चुकी थी, अपितु उनहोंने अपनी शैली की पहचान भी बना ली थी. इस संग्रह की अनूदित कहानियो को ध्यानपूर्वक देखने से इस तथ्य की पुष्टि की जा सकती है कि या तो यह अनुवाद लेखक ने स्वयं किए हैं या किसी से अपनी देख-रेख में कराये हैं. संग्रह में संकलित कहानियो की बुनावट और अभिव्यक्ति में अपेक्षित काट-छांट और संशोधन की प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है. कहानियो के उर्दू पाठ जहाँ मुस्लिम पाठकों की रूचि को सामने रखकर तैयार किए गए हैं वहीं हिन्दी पाठ में हिंदू पाठकों की रूचि का ध्यान रखा गया है.
यहाँ दो भाई और महातीर्थ शीर्षक कहानियों के सन्दर्भ गैर प्रासंगिक न होंगे. दो भाई पहली बार ज़माना के जनवरी 1916 ई० के अंक में प्रकाशित हुई. मूल उर्दू कहानी में पात्रों के नाम वासुदेव, जसोदा, कृष्ण, बलराम, राधा और श्यामा हैं. कृष्ण के भगवत पढ़ने, मुरली बजाने और गोकुल वासियों का उद्धार करने के सन्दर्भ भी कहानी में उपलब्ध हैं. प्रेमपूर्णिमा में इन नामों को बदलकर क्रमशः शिवदत्त, कलावती, केदार, माधव कर दिया गया है. श्यामा के नाम में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं महसूस की गयी है. गोकुल, भागवत और मुरली के सन्दर्भ भी निकाल दिए गये हैं. इस प्रकार जहाँ उर्दू पाठ में सनातन धर्मियों के ईष्टदेव भगवन कृष्ण की खिल्ली उड़ाई गयी है वहीं हिन्दी पाठ को एक सामान्य और सरल सी कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है.
महातीर्थ शीर्षक कहानी पहली बार उर्दू पत्रिका कहकशां के नवम्बर 1918 अंक में हज्जे-अकबर शीर्षक से छपी थी. कहानी के मुख्य पात्र थे मुंशी साबिर हुसैन, शाकिरा, नसीर और अब्बासी. प्रेम पूर्णिमा में इन पत्रों की शुद्धि कर दी गयी है और इनके नाम और धर्म सभी कुछ बदल दिए गए हैं. इनके परिवर्तित नाम क्रमशः इन्द्रमणि, सुखदा, रुद्रमणि और कैलासी .कहानी के अंत में धर्म परिवर्तन के प्रभाव से हज्जे- अकबर महातीर्थ में बदल गया है. उर्दू में इस कहानी के दोनों ही पाठ उपलब्ध हैं. एक वह जो प्रेमबत्तीसी भाग-2में कहकशां से लिया गया है और दूसरा वह जो मेरे बेहतरीन अफ़साने में हिन्दी से अनूदित है।
प्रेमचंद का चौथा कहानी संग्रह प्रेमपचीसी के नाम से हिन्दी पुस्तक एजेंसी कलकत्ता से 1923 में छपा. संग्रह में कुल पचीस कहानियाँ संकलित हैं. प्रेमचंद की 2 मार्च 1917 की चिट्ठी को यदि इस प्रसंग से जोड़ कर देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी प्रेमपचीसी उर्दू प्रेमपचीसी का ही हिन्दी संस्करण है और इसका प्रकाशन उर्दू प्रेमपचीसी के साथ ही प्रारम्भ हो गया था. चिट्ठी का यह अंश द्रष्टव्य है, "प्रेमपचीसी का हिंदी एडिशन छप रहा है. उसका मराठी एडिशन भी छप रहा है."(29)
वस्तुतः यह एक विशुद्ध मनोवैज्ञानिक खुराक है जो इस चिट्ठी के माध्यम से दया नरायन निगम को दी जा रही है अन्यथा इस वक्तव्य का कोई भी अंश सच्चाई पर आधारित नहीं है. फारसी भाषा में एक कहावत प्रसिद्ध है, " दरोग गोयां रा हफ्ज़ा न दारंद" अर्थात झूठों के पास स्मरणशक्ति नहीं होती. प्रेमचंद यह भूल गए थे कि ठीक अट्ठारह दिन पहले वे निगम को एक और चिट्ठी प्रेमपचीसी के प्रसंग में भेज चुके थे जिसमें उनहोंने स्पष्ट लिखा था "कई हिन्दी के बुकसेलर प्रेमपचीसी को शाया करने की इजाज़त मांग रहे हैं. मैं हिस्सा दोयम का इंतज़ार कर रहा हूँ. किताब पूरी हो जाय तो किसी को दे दूँ."(30)
स्पष्ट है कि 1917 ई0 के मध्य तक हिन्दी प्रेमपचीसी के छपने का कोई सिलसिला शुरू नहीं हुआ था और मराठी संस्करण के प्रकाशन की जानकारी तो आज भी उपलब्ध नहीं है. रोचक बात यह है कि हिन्दी प्रेमपचीसी की कहानियाँ उर्दू प्रेमपचीसी से कोई मेल नहीं खातीं. केवल एक कहानी विस्मृति ऐसी है जो उर्दू प्रेमपचीसी भाग-2में भी छपी थी. संग्रह की आठ कहानियाँ- ब्रह्म का स्वांग, सुहाग की साड़ी, हार की जीत, बैर का अंत, स्वत्व रक्षा, बौड़म, पूर्व संस्कार तथा नैराश्य लीला ऐसी है जो मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गयीं.शेष सत्रह कहानियाँ ज़माना, कहकशां, तह्ज़ीबे निसवां, हुमायूँ, अलअस्र तथा हज़ार दास्तान के मूल उर्दू पाठ से अनूदित है.
नवम्बर 1923 ई० में ही प्रेमचंद का एक और कहानी संग्रह प्रेम प्रसून हिन्दी पुस्तक माला, लखनऊ से प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल बारह कहानियाँ है जिनमें से केवल पाँच आपबीती, आभूषण, राजभक्त, अधिकार, चिंता और गृहदाह मूल रूप से हिन्दी में लिखी गयीं. शेष सात कहानियाँ ज़माना, हज़ार दास्तान, सोजे वतन तथा सुभे उम्मीद से ली गयी है. इन्हें अनूदित कहानियो की श्रेणी में रखना ही समीचीन होगा.
उपर्युक्त दोनों संग्रहों की चर्चा करते हुए प्रेमचंद ने 25 अप्रैल 1923 ई० को दया नरायन निगम को लिखा था-" सिरे दरवेश (शाप) का तर्जुमा अनक़रीब ख़त्म होने वाला है. अब सोजे वतन की ज़रूरत है. उसमें से दो-तीन कहानियाँ ले लूँगा ......दिसम्बर से पहले यह मज्मूआ (संग्रह) अपने प्रेस से निकाल दूँगा. इसका नाम होगा प्रेम प्रसून. पचीस कहानियो का एक अलहदा मज्मूआ कलकत्ता से निकल रहा है जो हिन्दी की प्रेमपचीसी होगी."(31)
तीन वर्ष बाद 1926 ई० में प्रेमचंद का छठा कहानी संग्रह प्रेम प्रमोद चाँद कार्यालय इलाहबाद से प्रकाशित हुआ. संग्रह में कुल सोलह कहानियाँ संकलित है. इस संग्रह की सभी कहानियाँ चाँद हिन्दी मासिक में जनवरी 1923 ई० से अक्टूबर 1925 ई० के मध्य प्रकाशित हुईं. मूल रूप से यह कहानियाँ हिन्दी में ही लिखी गयीं और इनके उर्दू अनुवाद उर्दू चाँद में बाद में निकले. किंतु यह अनुवाद प्रेमचंद द्वारा नहीं किए गए. सच पूछा जाय तो प्रेम प्रमोद प्रेमचंद की मौलिक हिन्दी कहानियो का पहला संग्रह है. इसकी भाषा और अभिव्यक्ति को स्तरीय मानकर हिन्दी में उपलब्ध प्रेमचंद की अन्य कहानियो का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
1926 ई० में ही प्रेमचंद का एक और कहानी संग्रह प्रेम प्रतिमा सरस्वती प्रेस बनारस से छपा. इसमें कुल उन्नीस कहानियाँ संकलित थीं जो मार्च 1920 ई० से लेकर जनवरी 1926 ई० तक की हिन्दी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं थीं. हाँ, गुरु मन्त्र, बाबा जी का भोग, और सुअभाग्य के कोड़े पहली बार इसी संग्रह में छपीं. इस संग्रह की भी सभी कहानियाँ मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गयीं. उर्दू में इनके भ्रष्ट अनुवाद प्रकाशित हुए जो उर्दू पत्रिकाओं के संपादकों ने प्रेमचंद की अनुमति के बिना ही साधारण अनुवादकों से करा लिए.
प्रेमचंद का आठवां कहानी संग्रह प्रेम द्वादशी गंगा पुस्तक माला लखनऊ से 1926 ई० में छपा। इसमें कुल बारह कहानियाँ संकलित हैं. इस संग्रह की केवल तीन कहानियाँ ऐसी हैं, जो इससे पहले के संग्रहों में नहीं हैं. किंतु इन कहानियो को बहुत पहले उर्दू में लिखा गया था. बड़े घर की बेटी, दिसम्बर 1910 ई० के ज़माना में छपी थी. शान्ति जिसका उर्दू नाम बाज़याफ़्त था तहजीबेनिसवां के अप्रैल 1918 ई० के अंक में निकली थी और बैंक का दिवाला फरवरी 1919 ई० के कहकशां में प्रकाशित हुई थी. कदाचित इसी लिए इनमें उर्दू मूल पाठ की सरसता नहीं आ सकी है. वस्तुतः यह संग्रह स्कूलों के पाठ्यक्रम की दृष्टि से तैयार किया गया प्रतीत होता है. आगे के भी सभी संग्रह- प्रेमतीर्थ (1928 ई०), प्रेम चतुर्थी (1929 ई०), अग्नि समाधि तथा अन्य कहानियाँ (1929 ई०), पाँच फूल (1929 ई०), समर यात्रा और ग्यारह और राजनीतिक कहानियाँ (1930 ई०), प्रेम पंचमी (1930 ई०), प्रेरणा और अन्य कहानियाँ (1932 ई०) तथा प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (1933 ई०) इसी उद्देश्य से प्रकाशित किए गए प्रतीत होते हैं. प्रेमचंद ने अपने जीवनकाल में मानसरोवर श्रृंखला की जो बुनियाद रखी वह आठवें खंड पर आकर समाप्त हो गयी. हाँ, इस श्रृंखला के दो खंड प्रेमचंद के जीवनकाल में निकल चुके थे. उसके बाद 1962 ई० में अमृत राय ने गुप्तधन भाग-1 और भाग-2 में छप्पन और कहानियाँ छापीं. इनमें से अधिकतर कहानियाँ उर्दू से अनूदित हैं और प्रेमचंद की हिन्दी कहानियो के साथ इनकी गणना नहीं की जा सकती.
टिप्पणी
(27). ज़माना, 1911, पृ0 314
(28). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 50
(29). वही, पृ0 60
(30). वही, पृ0 60-61
(31). वही, प्र० 158
***********************क्रमशः

Thursday, August 14, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4.3]

4.4. असली नाम और नकली कहानियाँ

उर्दू में प्रेमचंद के नाम से जो साहित्य प्राप्त हुआ है उसमें पंजाब के अनेक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित सत्रह कहानी संग्रह ऐसे उपलब्ध हैं जिनके लेखक प्रेमचंद, फितरतनिगार प्रेमचंद और मुंशी प्रेमचंद हैं. उर्दू पत्रिकाओं में प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी अथवा फितरतनिगार लिखा जाना सामान्य सी बात थी. यद्यपि कुछ हिन्दी लेखकों ने यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया है कि के. एम्. मुंशी के साथ हंस का संपादन करने के कारण प्रेमचन्द मुंशी प्रेमचंद कहलाने लगे. सच तो यह है कि उस समय गैर पंडित लेखकों के नाम से पूर्व हिन्दी तथा उर्दू में क्रमशः बाबू और मुंशी शब्द जोड़ने की आम प्रथा थी. उर्दू पत्रिकाएँ प्रारम्भ से ही प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी शब्द लगा रही थीं.
बात प्रेमचंद नाम से प्राप्त कहानी संग्रहों की चल रही थी इसलिए यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन संग्रहों में उपलब्ध कहानियाँ प्रेमचंद के असली नाम की छाप के बावजूद नक़ली हैं. इनका प्रेमचंद से कोई सम्बन्ध नहीं है. उर्दू संग्रहों के नाम इस प्रकार हैं- 1- औरत की मुहब्बत 2- मुसाफिर और दूसरे अफसाने, 3- इश्के खामोश, 4- मनोरमा, 5- सपेरन, 6- ठोकर, 7- दुल्हन, 8- कोचवान 9- इश्क का राग, 10- तूफ़ान, 11- प्रभात, 12- खामोश तबीयत, 13- कपाल कुंडला, 14- कशमकश, 15- लडकी, 16- ज़लज़ला, 17-तिलिस्मे मजाज़.
डॉ। क़मर रईस का विचार है कि इन संग्रहों में प्रत्येक पृष्ठ पर भाषा और बयान की जो दुर्बलताएँ हैं वह पुकार-पुकार कर कहती हैं कि मैं किसी साधरण प्रतिभा के पंजाबी साहित्यकार की रचना हूँ. गऊदान वाले प्रेमचंद से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं. यह अन्तः साक्ष्य इतना प्रबल है कि फिर किसी बाहरी सबूत की अपेक्षा नहीं रहती. (9)
प्रेमचंद के नाम का लाभ उठाकर अच्छा धंधा कर लेना पंजाब के प्रकाशकों के लिए बड़ा ही सुविधाजनक था. डॉ. रईस ने इस पहलू पर विचार करने के बजाय यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इन कहानियों की भाषा प्रेमचंद की उर्दू थी ही नहीं. हिन्दी गोदान का गऊदान के नाम से उर्दू अनुवाद इक़बाल वर्मा सेहर हत्गामी ने प्रेमचंद के निधनोपरांत शिवरानी देवी के निवेदन पर उपयुक्त पारिश्रमिक लेकर किया था. यह अनुवाद जनवरी 1938 ई० में समाप्त करके जामिया में प्रकाशनार्थ भेज दिया गया था. उर्दू गऊदान का प्रथम संस्करण मक्तबा जामिया से फरवरी 1939 ई० में निकला था. ऐसी स्थिति में उर्दू गऊदान की भाषा को प्रेमचंद की भाषा का आधार नहीं बनाया जा सकता. उर्दू गऊदान अनुवाद होने के कारण इकबाल वर्मा सेहर हत्गामी की भाषा का नमूना है, प्रेमचंद की भाषा का नहीं.
कुछ भी हो, उपर्युक्त कहानियों के लेखक प्रेमचंद नहीं हैं। किंतु किसी ग़लत बुनियाद के आधार पर कोई निर्णय लेकर शोध की दिशाएँ अवरुद्ध नहीं की जा सकतीं. जहाँ तक भाषा और अभिव्यक्ति की दुर्बलताओं का प्रश्न है, इस तथ्य का संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि प्रेमचंद उर्दू अनुवाद का कार्य अधिकतर दूसरों को सौंप दिया करते थे. इसलिए उनकी हिन्दी रचनाओं के अनेक उर्दू अनुवाद भाषा की दृष्टि से कमज़ोर हैं.
उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक मिर्जा जाफ़र अली खान असर ने करबला नाटक की भाषा संबन्धी दुर्बलताओं का जब संकेत किया तो प्रेमचंद ने उसे स्वीकार करते हुए निगम को लिखा था- "वाकेया ये है कि मैंने हिन्दी से ख़ुद तर्जुमा नहीं किया। मेरे एक नार्मल स्कूल के दोस्त मुनीर हैदर कुरैशी हैं, इन्हीं से करा लिया है."(10) यही स्थिति जस्टिस, सिल्वर बाक्स तथा स्ट्राइफ के साथ भी पेश आई. प्रेमचंद ने 10 अप्रैल 1932 ई० के पत्र में यह स्वीकार कर लिया था कि यह अनुवाद बाबू हरी परशाद सक्सेना की शिरकत से किया गया था."(11) यहाँ शिरकत शब्द बात रखने के लिए डाल दिया गया है.प्रेमचंद ने लेखन के प्रारंभिक काल में विशेष रूप से और बाद में भी अनेक ऐसी कहानियाँ और लेख उर्दू पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजे जिनके अनुवाद बंगला, गुजराती और अंग्रेज़ी से उर्दू में किए गए. किंतु इनके अनूदित होने का उल्लेख पत्रिकाओं में नहीं किया. फलस्वरूप उर्दू से रूपांतरित करके प्रेमचंद के नाम से अनेक ऐसी कहानियाँ हिन्दी में छापी गयीं जिनकी हैसियत मात्र अनूदित कहानियों की है. प्रेमचंद ने 1926 ई० के समालोचक में अंग्रेज़ी से उर्दू में किए गए अनुवादों का संकेत भी किया है.(12)
प्रेमचंद के नाम से गोयनका ने एक कहानी छापी है "अपने फ़न का उस्ताद" .(13) यह कहानी ज़माना के सितम्बर 1916 ई० के अंक में छपी थी. डॉ. गोयनका ने प्रेमचंद की 16 दिसम्बर 1915, 3 मई 1916 और 22 अप्रैल 1916 की चिट्ठियां मिलाकर पढ़ने का कष्ट नहीं किया है. करते भी कैसे. अमृत राय ने चिट्ठियों की तारीखें ग़लत लिखकर सबकुछ गडमड कर दिया है.(14) प्रेमचंद ने 22 मई 1916 ई० को ‘सरे पुरगुरूर’ और अपने फ़न का उस्ताद शीर्षक कहानियाँ ज़माना के लिए एक साथ भेजी थीं जो क्रमशः अगस्त और सितम्बर के अंकों में छपी थीं. पहली कहानी मौलिक थी और दूसरी एक बंगला कहानी से अनूदित थी. कहानी लेखक के रूप में प्रेमचंद का नाम नहीं दिया गया था. हाँ कहानी के समापन पर दाल० रे० अर्थात् धनपत राय अंकित था. कहानी के साथ भेजी गयी चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था- "सरे पुरगुरूर जाता है. एक और किस्सा भी भेजता हूँ. यह कुछ अरसा हुआ बंगला से तर्जुमा होकर मर्यादा में निकला था. किस्सा निहायत दिलचस्प है वरना मैं तर्जुमा क्यों करता."(15) द्रष्टव्य यह है कि कहानी के सभी पात्र बंगाली हैं. कथानक भी कलकत्ता का है. फलस्वरूप इस कहानी का हिन्दी पाठ जिसे मूल बंगला से रूपांतरित किया गया है, मर्यादा में तलाश किया जाना चाहिए. प्रेमचंद इस कहानी के लेखक नहीं हो सकते.
प्रेमचंद के नाम से एक अन्य कहानी ‘पर्वत यात्रा’ अमृत राय ने गुप्तधन में प्रकाशित की है, जबकि तथ्य यह है कि यह कहानी प्रेमचंद की मौलिक रचना न होकर उर्दू से अनूदित है। इस प्रसंग में प्रेमचंद की 1929 ई० की डायरी की कुछ टिप्पणियाँ अंकित करना अनुपयुक्त न होगा.
11 फरवरी, सैरे- कोहसार के दो पन्ने तर्जुमा किए.
13 फरवरी, करीब तीन पेज रूपांतर किया.
14 फरवरी, कोहसार के दो पन्नों का रूपांतर किया.(16)
आश्चर्य यह देखकर होता है कि डायरी के इन पृष्ठों को कलम का सिपाही में उद्धृत करने के बाद भी अमृत राय पर्वत यात्रा को प्रेमचंद की मौलिक रचना मानते हैं. तथ्य यह है कि यह कहानी उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार रतन नाथ सरशार की मशहूर रचना है. इस दृष्टि से पर्वतयात्रा को प्रेमचंद की मौलिक रचना स्वीकार करना आंखों में धूल झोंकना है.
प्रेमचंद के जीवनकाल में ऐसा अकसर हुआ है कि यदि उनके द्वारा किया गया कोई अनुवाद उनकी मौलिक रचना के ठप्पे के साथ चल निकलता था तो सामान्य रूप से वे चुप्पी साध जाते थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है रूठी रानी. जमाना में रूठी रानी की कथा के समापन पर अगस्त 1907 ई० के अंक में स्पष्ट अक्षरों में अंकित है-"माखूज़ व तर्जुमा अज़ हिन्दी", अर्थात् हिन्दी से लिया और रूपांतरित किया गया.किंतु प्रेमचंद के जीवनकाल में भी और उनके निधनोपरांत भी मुंशी देवी प्रसाद द्वारा लिखित एवं भारत मित्र प्रेस कलकत्ता से 1906 ई० में हिन्दी में प्रकाशित रूठी रानी नवाब राय के मनाने पर ऐसा सध गयी कि उन्हीं की होकर रह गयी.
अपनी इस प्रवृत्ति के नतीजे में प्रेमचंद को पर्याप्त छीछालेदर का सामना करना पड़ा. ज़माना के फरवरी 1916 ई० के अंक में प्रकाशित प्रेमचंद के हंसी शीर्षक लेख का सन्दर्भ देना यहाँ अनुपयुक्त न होगा. 3 मई 1916 ई० को प्रेमचंद ने निगम को इस प्रसंग में सूचना दी थी-"मैंने तर्जुमा नहीं किया है, बस नफ़स (केन्द्रीय विचार) ले लिया है.(17) किंतु जब 1926 ई० में हंसी को लेकर पर्याप्त ले-दे मची तो प्रेमचंद ने शरद संवत् 1983 वि० के समालोचक में वक्तव्य दिया कि इस लेख की स्थिति केवल अनुवाद की है जिसकी सूचना ज़माना के सम्पादक को दे दी गयी थी.(18)

रोचक बात ये है कि मूल लेख से अनुवाद करने की सूचना देने के साथ-साथ प्रेमचंद ने निगम का विचार भी जानना चाहा। "नागरी प्रचारिणी में ज़राफ़त पर एक इन्तेहाई आलिमाना मज़मून छपा है, तर्जुमा है, कहिये तो कुछ नए उनवान से उसी पर कुछ लिख दूँ. सिरक़ा बिलजब्र (ज़बरदस्ती उड़ा लेना) हो या लेखक की अनुमति प्राप्त करके ?(19)" ज़ाहिर है कि यह सिरक़ा ज़बरदस्ती ही प्राप्त किया गया था और सूचना यह दी गयी थी कि केवल केन्द्रीय विचार लिया गया है. इससे प्रेमचंद की प्रकृति का भी अनुमान किया जा सकता है.
कहते हैं कि दूध की जली बिल्ली छाछ भी फूँक कर पीती है. 1920 ई० में प्रेमचंद के नाम से आबे-हयात और अश्के-नदामत शीर्षक दो अनूदित कहानियाँ कहकशां में प्रकाशित हुईं जिनपर उर्दू पाठकों ने पर्याप्त टिप्पणियाँ कीं. फस्वरूप 29 जून 1920 ई० को प्रेमचंद ने जब इम्तियाज़ अली ताज के पास आस्कर वाइल्ड की एक कहानी कैंटर विलेज घोस्ट का उर्दू अनुवाद भेजा तो यह लिखना नहीं भूले कि "इसके आखीर में मेरा नाम देने की ज़रूरत नहीं क्योंकि आबे-हयात और अश्के- नदामत के बाद मैंने अहद कर लिया है कि तर्जुमा न करूंगा."(20)

डॉ। गोयनका ने अश्के नदामत को प्रेमचंद की मौलिक कहानी मानते हुए प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य में प्रकाशित किया है.(21) सम्भव है कि उनहोंने प्रेमचंद की चिट्ठी पर ध्यान न दिया हो. हाँ, कहानी के शिल्प पर यदि डॉ. गोयनका थोड़ा भी विचार करते तो सहज ही यह निष्कर्ष निकाल सकते थे कि कथ्य और शैली की दृष्टि से यह कहानी प्रेमचंद की कहानियो के साथ मेल नहीं खाती. ऐसी ही ग़लती उर्दू में प्रेमचंद द्वारा अनूदित सगे लैला शीर्षक कहानी के साथ भी की गयी है जिसके अनूदित होने का संकेत सम्पादक ने भूमिकास्वरुप लिखी गयी अपनी टिप्पणी में कर दिया है.(22) डॉ. गोयनका ने डॉ. जाफ़र रज़ा द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर (23) उनका कोई सन्दर्भ दिए बिना इस कहानी को भी अप्राप्य साहित्य के साथ छाप दिया है.(24) कहानी के पात्रों उसके वातावरण और उसकी बुनावट पर भी ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी है. अनूदित कहानियो को प्रेमचंद की मौलिक रचनाएं बता कर छापना किसी प्रकार भी उचित नहीं कहा जा सकता.
प्रेमचंद अनुवाद न करने का बार-बार संकल्प करके भी अनुवादों के छपने में रूचि लेते रहे. दूसरों से अनुवाद कराके अपने नाम से छपवा लेने में भी उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ. प्रेमचन्द की कुछ चिट्ठियों से मेरे विचार की पुष्टि की जा सकती है. 16 दिसम्बर 1919 को ताज के नाम अपने पत्र में लिखते हैं, "मैं अनक़रीब चार्ल्स डिकेंस का एक क़िस्सा भेजूंगा. नादिर क़िस्सा है. तर्जुमा मुकम्मल है. अदीमुल्फुर्सती के बाइस एक साहब से नक़ल करा रहा हूँ.(25)
इस अनुवाद की वास्तविकता यह थी कि प्रेमचंद के बजाय रघुपति सहाय फ़िराक़ संदर्भित कहानी का अनुवाद कर रहे थे। ताज को लिखे गए पत्र से ठीक नौ दिन पूर्व इसी कहानी के अनुवाद के सम्बन्ध में 7 दिसम्बर 1919 ई० को इस प्रकार सूचित किया गया था-" दो चार दिन में अपने एक ग्रेजुएट दोस्त की तर्जुमा की हुई एक कहानी भेजूंगा जो डिकेंस से ली गयी है.(26) बात केवल एक कहानी की नहीं है. प्रेमचंद का एक और पत्र भी देखिये जिसमें बर्नार्ड शा की एक रचना के अनुवाद की बात की गयी है:
“प्रिय बनारसी दास जी, बन्दे
यह एक छोटा सा ड्रामा शा की एक नयी रचना का अनुवाद है. इसे बड़े परिश्रम से कराया है. रचना कितनी उच्च कोटि की है, पढने से ज्ञात होगा. किसी नाम की बहुत ज़रूरत हो तो ध० (धनपत) रा० (राय) दे दें. पुरस्कार वही दें, जो आप अच्छे अनुवादों को दे सकें. आशा है आप सानंद होंगे.
भवदीय,
ध० राय
यह चिट्ठी मुरारी लाल केडिया के वाराणसी स्थित राम रत्न पुस्तकालय में सुरक्षित है। ध्यान देने की बात यह कि बर्नार्ड शा का यह अनुवाद प्रेमचंद के निधनोपरांत हंस के मार्च, अप्रैल 1937 ई० के अंकों में बिना अनुवादक के नाम के छपा था. बाद में यही रचना 1938 ई० में सृष्टि का आरम्भ शीर्षक से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई जिसपर अनुवादक के रूप में प्रेमचंद का नाम छापा गया. डॉ. गोयनका ने भी अप्राप्य साहित्य में इसे स्थान देकर अनुवादक का नाम प्रेमचंद ही अंकित किया है. डॉ. गोयनका ने अनुवादक के रूप में प्रेमचंद का नाम देने के पीछे क्या तर्क है, इसकी कोई चर्चा नहीं की है.
अनुवाद के उपर्युक्त सन्दर्भों से हटकर प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित कुछ अन्य कहानियों पर भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। धोखे की टट्टी ( उर्दू मासिक, अदीब, नवम्बर 1912 ई०) खौफे रुसवाई ( अदीब, सितम्बर 1911 ई०) वफ़ा की देवी (उर्दू कहानी संग्रह आख़िरी तोहफा) और कातिल (गुप्त धन भाग-2) ऐसी ही कहानियाँ हैं. द्रष्टव्य यह है कि प्रेमचंद दूसरी भाषाओँ से ली गयी कहानियो पर अपना नाम देने के बजाय कहानी के समापन पर दाल० रे० अथवा ध० रा० लिखवाने का निर्देश सम्पादकों को कहानी भेजते समय ही दे दिया करते थे. यह इस तथ्य को संकेतित करता था कि ये कहानियाँ प्रेमचंद की मौलिक कहानियाँ नहीं हैं. प्रेमचंद नाम स्वीकार कर लेने के बाद नवाब राय के नाम से छपने वाली कहानियो की मौलिकता भी संदिग्ध है. धोके की टट्टी और खौफे रुसवाई कहानियों के पात्र, उनके कथानक, कथानक की सांस्कृतिक आधारभूमि आदि सभी कुछ बंगला कहानियो से मेल खाते हैं. प्रेमचंद की मौलिक कहानियो में उनका कथानक और उनके पात्र उत्तर प्रदेश की भौगोलिक परिधियों के भीतर ही विकसित होते हैं. इस दृष्टि से इन कहानियों की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है.
कातिल शीर्षक कहानी भी एक तोड़ी मरोड़ी हुई कहानी है। शिवरानी देवी की हत्यारा कहानी में थोड़ी उलट-पुलट करके गढी गयी यह कहानी भाषा और शिल्प की दुर्बलताओं के कारण प्रेमचन्द की कहानियो के साथ मेल नहीं खातीं. वफ़ा की देवी शीर्षक कहानी के किसी पत्र या पत्रिका में छपने की कोई सूचना उपलब्ध नहीं है. आख़िरी तोहफा (उर्दू कहानी संग्रह, 1938 ई०) में यह कहानी पहली बार प्रकाश में आई. ध्यानपूर्वक देखने पर यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है कि यह कहानी प्रेमचंद की मौलिक रचना नहीं है. किसी उठाईगीरे कहानीकार का फूहड़ प्रयास है. कहानी का प्रथम अंश काया कल्प के प्रारंभिक अंश से चुराया गया है. जहाँ कुंवर विशाल सिंह की कन्यां माघ मेले में खो जाती है. मध्य का अंश प्रेमचंद की लैला शीर्षक कहानी से उड़ाया गया है और इंदिरा पर कुंवर विशाल सिंह की कन्या का मुखौटा इस प्रकार फिट किया गया है कि प्रत्येक जोड़ अलग दिखाई देता है. इतना ही नहीं, बीच में शिवरानी देवी के कहानी वर यात्रा का भी कुछ अंश झपट लिया गया है. अंत में कुंवर साहब को उनकी कन्या इंदिरा से मिलाया गया है. किंतु इंदिरा अपने पिता के साथ जाने से इंकार कर देती है. इसी प्रकार की ढेर सारी ऊटपटांग बातें इस कहानी में भरी पडी हैं. घटनाओं की प्रस्तुति इतनी भद्दी और ब्योरात्मक है कि रचनाकार के अनाडी होने का स्पष्ट संकेत करती है
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह विचार बनता है कि पंजाबी प्रकाशकों के जिन सत्रह कहानी संग्रहों की चर्चा की गयी थी उन्हें केवल जालसाजी का नतीजा मानकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन संग्रहों की अधिकतर कहानियाँ बंगला या अंग्रेजी से अनूदित हैं. प्रेमचंद ने पारिश्रमिक के मोह में इस प्रकार के अनेक अनुवाद स्वयं भी किए थे और दूसरों से भी कराये थे. उनकी चिट्ठियों में पंजाबी पत्रिकाओं को भेजी गयी जिन अनूदित कहानियों के संकेत मिलते हैं उनकी छानबीन की जानी चाहिए. हाँ, इतना निश्चित है कि यह कहानियाँ प्रेमचंद की मौलिक रचनाएं नहीं हैं.
प्रेमचंद की लोकप्रियता को देखते हुए हिन्दी-उर्दू भाषाओँ में उनके नाम का मुखौटा ओढ़ने वाले कुछ अन्य लेखक भी पैदा हो गए थे। उर्दू पत्रिका रहनुमाए- तालीम, लाहौर के जनवरी 1934 के अंक में पॉँच रूपये शीर्षक प्रेमचंद नामक लेखक की एक कहानी देखी जा सकती है. यह एक साधारण सी कहानी है जिसकी भाषा प्रेमचंद की भाषा से बिल्कुल मेल नहीं खाती. इसी प्रकार सुधा लखनऊ के मार्च 1939 ई० के अंक में श्रीयुत प्रेमचंद एम० ए० की प्रेम का बलिदान शीर्षक कहानी भी उपलब्ध है. प्रेमचंद की एक कहानी डिमान्स्ट्रेशन गुप्त धन भाग 2 में संकलित है. यह कहानी पहली बार हुमायूं उर्दू मासिक के जनवरी 1932 ई० के अंक में छपी थी. महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रिका में प्रेमचंद के नाम के साथ देहलवी भी जोड़ा गया था. इस तथ्य की खोज की जानी चाहिए कि मुंशी प्रेमचंद देहलवी नामक कोई अन्य लेखक कहीं प्रेमचंद का समकालीन तो नहीं था. प्रेमचंद का एक और भी रोचक नाम देखने को मिलता है, लाला प्रेमचंद. खतीब उर्दू मासिक में कर्मों का फल शीर्षक कहानी के साथ यही नाम पाया जाता है.
टिप्पणी
(9 )। डॉ। कमर रईस, तलाशो-तवाजुन, पृ0 110 (10)। प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0150(11)।वही, पृ0 193 (12). वही, विविध-प्रसंग, पृ0 70 (13). डॉ. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 134(14).प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 51 तथा 30(15). वही, भाग 1, पृ0 30(16). अमृत राय, कलम का सिपाही, पृ0 385(17). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 30 (18). विविध-प्रसंग, भाग 3, पृ0 70(19). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 51(20). चिट्ठी-पत्री भाग 2, पृ0 115(21). प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 179(22). अदीब उर्दू मासिक, इलाहाबाद, अप्रैल 1913,पृ0 17(23). डॉ. जाफर रज़ा, प्रेमचंद : फ़न और तामीरे-फ़न, पृ0 114(24). प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 119(25). चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 110 (26).चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 ९२
******************** क्रमशः

Wednesday, August 13, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4/2]

4.3 नक़ली नाम और नक़ली कहानियाँ -
प्रेमचंद का मामला भी बड़ा दिलचस्प है। शोध की ललक में जिसका जो जी चाहता है एक नयी बात प्रेमचंद के साथ जोड़ देता है. उर्दू के दो आलोचकों- डॉ. क़मर रईस और डॉ जाफ़र रज़ा (इलाहाबाद) ने अलअस्र उर्दू मासिक में पलशम के नाम से प्रकाशित कहानियो में प्रेमचंद की झलक देखने का प्रयास किया और इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि यह कहानियाँ प्रेमचंद ने पलशम के छदम नाम से लिखी हैं. क़मर रईस इस प्रसंग में लिखते हैं, "मेरा ख्याल है कि अलअस्र में 1918 ई० तक पलशम के फर्जी नाम से जो कहानियाँ शाया हुईं, वो प्रेमचंद ही के ज़ेहन की तखलीक हैं. इन कहानियो के मौजूआत (विषय), इनका अंदाज़े-तहरीर (लेखन शैली ), और फन्नी उस्लूब (शिल्प) प्रेमचंद की उस दौर की कहानियो से गहरी मुशाबेहत (एकरूपता) रखता है।(4)
डॉ. जाफ़र रज़ा ने शब्दों के थोड़े हेर-फेर के साथ इन्हीं विचारों को अपनी निजी अवधारणा के रूप में टांक दिया है. -"प्रेमचंद की कहानियो पर विचार करते हुए पशलम को भी दृष्टि में रखना चाहिए जिनकी कहानियाँ प्रेमचंद के इस काल की कहानियो से बड़ी समानता रखती हैं. उदाहरणार्थ इसी नाम से प्रकाशित कहानी मजमून निगार की बीवी (अलअस्र, फरवरी,1917 ई०) की बनावट, विचारों का क्रम और लेखन शैली प्रेमचंद की कहानियो का चरबा मालूम होती हैं."(5)
रोचक बात यह है कि डॉ। जाफ़र रज़ा ने मूल उर्दू नाम ‘पलशम’ को बदलकर ‘पशलम’ कर दिया है ताकि यह समस्या सुलझाई ही न जा सके. हो सकता है कि इसे मुद्रण की भूल मान लिया जाय. किंतु उनकी यही पुस्तक छ: वर्ष पूर्व उर्दू में छप चुकी थी. उसमें भी लेखक का नाम पशलम ही अंकित किया गया है.
सच पूछिए तो इसी को कहते हैं राई का पर्वत बनाना. बात बहुत सीधी सी है. अलअस्र उर्दू मासिक के संपादक कविता और कहानियाँ दोनों लिखते थे. पलशम शब्द उन्हीं के नाम का संक्षिप्त रूप था जिनके अक्षरों को पृथक-पृथक लिखने के बजाय मिलाकर लिख दिया गया है. इस शब्द को पे. (प्यारे) लाम. (लाल) शीन. (शाकिर), मीम. (मेरठी) पढ़ा जाना चाहिए. यह कहानियाँ निश्चित रूप से प्यारे लाल शाकिर मेरठी की ही रचनाएँ हैं. प्रेमचंद नाम स्वीकार करने के बाद धनपतराय अथवा नवाबराय ने किसी भी छद्म नाम से कोई कहानी कभी नहीं लिखी.
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अमृतराय के मस्तिष्क की एक उपज पर भी विचार कर लेना अपेक्षित जान पड़ता है। ‘बम्बूक’ नामक उर्दू के एक कहानी लेखक की दो रचनाएँ तांगे वाले की बड़ (ज़माना, सितम्बर 1929) और शादी की वजह (ज़माना, मार्च 1927) अमृतराय ने गुप्तधन में इस आधार पर छापी हैं कि कानपूर की मित्र मंडली में (उनकी समझ से) प्रेमचंद बम्बूक के नाम से याद किए जाते थे. पहली बात तो यह है कि अमृतराय ने जमाना के वे अंक जिनमें यह कहानियाँ छपी हैं, स्वयं नहीं देखे हैं. इन अंकों में बम्बूक नाम के साथ ब्रैकेट में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि "एक एम्. एस. सी”. ज़ाहिर है कि प्रेमचंद एम्. एस. सी. नहीं थे. फिर ज़माना वाले बम्बूक महोदय की एक कन्यां भी थीं जिनका नाम अनीस फातमा था और जो कहानियाँ भी लिखती थीं. निश्चित सी बात है कि प्रेमचंद अनीस फातमा बिन्ते बम्बूक के पिता नहीं थे.
नैरंगे ख़याल के जून 1932 ई० के अंक में अनीस फातमा की ‘घूर’ शीर्षक एक कहानी और फरवरी 1933 ई० के अंक में ‘हम और हमारी शायरी’ शीर्षक एक लेख देखा जा सकता है। दोनों ही स्थलों पर लेखिका का नाम ‘अनीस फातमा बिन्ते बम्बूक’ अंकित है. फिर अमृत राय का यह अनुमान भी निराधार है कि प्रेमचंद कानपूर की मित्र मंडली में बम्बूक के नाम से जाने जाते थे. निगम को जून 1906 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था-"कोई बीस दिन से ज़्यादा गुज़रे मगर क़सम ले लो जो ज़बान से प्यारा लफ्ज़ बम्बूक एक बार भी निकला हो."(6) द्रष्टव्य यह है कि प्रेमचंद ने यह नहीं लिखा है कि बम्बूक शब्द एक बार भी सुनने का अवसर नहीं मिला. ज़बान से बम्बूक शब्द अदा करने की इच्छा इस तथ्य का संकेत करती है कि प्रेमचंद अपने किसी मित्र विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे. इस स्थिति में बम्बूक नामक लेखक की कहानियों को प्रेमचंद की कहानियाँ घोषित करना सर्वथा निर्मूल और निराधार है.
प्रेमचंद के दो कहानी संग्रहों ‘आख़िरी तोहफ़ा’ और ‘वारदात’ में उनकी दो ऐसी कहानियाँ संकलित हैं जिनकी मूल लेखिका श्रीमती शिवरानी देवी प्रेमचंद हैं. इन कहानियों के शीर्षक हैं ‘बारात’ और ‘क़ातिल की मां.’ शिवरानी देवी उर्दू पढ़ना-लिखना नहीं जानती थीं. फिर भी उनकी कहानियाँ नैरंगे ख़याल और लैला जैसी उर्दू पत्रिकाओं में बराबर छपती रहती थीं. उपर्युक्त दोनों कहानियाँ शिवरानी देवी के हिन्दी कहानी संग्रह नारी ह्रदय में भी सम्मिलित है. इस संकलन से पूर्व हंस में भी इनका प्रकाशन हो चुका था. नैरंगे ख़याल के जून 1932 ई० के अंक में बारात शीर्षक कहानी के साथ लेखिका का नाम इस प्रकार अंकित है-"हिन्दी की मशहूर अदीबा शिवरानी साहिबा ज़ौजा मुंशी प्रेमचंद साहब."

अमृत राय ने उपर्युक्त दोनों कहानियों को गुप्त धन में प्रकाशित करना उपयुक्त नहीं समझा। किंतु डॉ. जाफ़र रज़ा ने अमृत राय से असहमति व्यक्त करते हुए इन कहानियों की गणना प्रेमचंद की कहानियों के साथ की है. उनकी अवधारणा है कि वारदात और आख़िरी तोहफ़ा कहानी संग्रहों का संपादन प्रेमचन्द ने स्वयं किया था (7) डॉ. कमल किशोर गोयनका ने डॉ. जाफ़र रज़ा का कोई सन्दर्भ दिए बिना लगभग वही बात दोहराई है.(8) यदि यह कहानियाँ संग्रहों में संकलित होने से पूर्व उर्दू में कहीं प्रकाशित न हुई होतीं तो भी एक बात थी. उर्दू के पाठक इन कहानियों को उर्दू पत्रिकाओं में शिवरानी के नाम से पढ़ चुके थे. फिर प्रेमचंद उन्हें अपने नाम से प्रकाशित करना क्यों पसंद करते. डॉ. गोयनका और डॉ. रज़ा की यह सूचनाएँ भी निराधार हैं कि आख़िरी तोहफ़ा 1934 ई० में प्रकाशित हुआ था. इस संग्रह का पहली बार प्रकाशन नारायन दत्त सहगल एंड सन्स ने 1938 ई० में किया था. हुसामुद्दीन गोरी को, मार्च 1935 ई० के पत्र में जो सूचना दी गयी है उससे डॉ. गोयनका ने यह अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कि संग्रह प्रेस में जा चुका है. मक्तबा जामिया देहली ने वारदात का प्रकाशन फरवरी 1938 ई० में किया था. प्रेमचन्द ने यदि संग्रह तैयार करके जामिया प्रेस को दे दिया होता तो उसके प्रकाशन में तीन-चार वर्ष का समय लग जाने की बात सोची भी नहीं जा सकती. स्पष्ट है कि बारात और क़ातिल की मां प्रेमचंद की कहानियाँ नहीं हैं और इन संग्रहों का संपादन भी प्रेमचंद ने नहीं किया है;

टिप्पणी
(4). डॉ. क़मर रईस, तलाशो-तवाजुन, पृ0 109
(5). डॉ. जाफ़र रज़ा, प्रेमचंद : उर्दू हिन्दी कथाकार, पृ0 107
(6). प्रेमचंद , चिट्ठी-पटरी, भाग 1, पृ0 4
(7).डॉ. जाफ़र रज़ा, प्रेमचंद : कहानी का रहनुमा, पृ0 355
(8). डॉ. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 ३०
********************* क्रमशः

Tuesday, August 12, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4/1]

अध्याय चार

हिन्दी-उर्दू कहानियाँ : मौलिकता की परख

4.1. पहली कहानी और पहला कहानी संग्रह

प्रेमचंद ने अपने पाठकों के मन की किवाड़ पर दस्तक दी: "मेरी प्रकाशित कहानियो की संख्या तीन सौ है " (अगस्त 1933 ई० )। यह दस्तक हिन्दी पाठकों को प्रेमचंद की ‘सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ’ और उर्दू पाठकों को ‘मेरे बेहतरीन अफ़साने’ की भूमिका में मिली। आश्चर्य इस बात का है कि दोनों ही संग्रह दिल्ली और लाहौर से एक साथ छपे और कहानियों के पाठ में रत्ती भर कोई अन्तर नहीं आया. बहरहाल अगर यह मान लिया जाय कि अगस्त 1933 ई० तक प्रेमचंद की तीन सौ कहानियाँ छप चुकी थीं, तो प्रेमचंद के निधन तक और उसके बाद भी जो कहानियाँ छपीं उन्हें जोड़ने पर कहानियों की कुल संख्या तीन सौ चालीस के आस-पास बैठती है. किंतु प्रेमचंद की याददाश्त पर भरोसा नहीं किया जा सकता. कारण यह है कि लगभग एक वर्ष बाद डॉ0. इंद्रनाथ मदान को दिए गए पत्र इंटरव्यू में 26 दिसम्बर 1934 ई० को वे अपनी कहानियो की कुल संख्या 250 के आस-पास बताते हैं."(1)

हंस के फरवरी 1932 ई० के अंक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित हुआ था ‘जीवन सार।’ और इस लेख में जो वक्तव्य है वह प्रेमचंद की याददाश्तों को पूरी तरह अविश्वसनीय बना देता है. लिखते हैं -"पहले पहल 1907 ई० में मैंने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ किया. …. डॉ. रवीन्द्रनाथ की कहानियाँ मैंने अंग्रेज़ी में पढ़ी थीं. उनमें से कुछ का अनुवाद किया …. मेरी पहली कहानी का नाम था ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन.’ यह 1907 ई० में ज़माना में प्रकाशित हुई. इसके बाद मैंने ज़माना में चार-पाँच कहानियाँ और लिखीं. 1909 ई० में पाँच कहानियों का संग्रह ‘सोज़े-वतन’ के नाम से ज़माना प्रेस कानपूर से प्रकाशित हुआ. "(हंस फरवरी 1932 ई०).

प्रेमचंद का यह वक्तव्य सरासर निर्मूल और निराधार है कि उनकी पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ है और यह कहानी 1907 ई० में ज़माना में छपी थी. सच तो यह है कि सोज़े-वतन के प्रकाशन से पूर्व यह कहानी कहीं प्रकाशित नहीं हुई. उपलब्ध तथ्यों के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद की कहानियों के प्रकाशन का सफ़र ‘इश्केदुनिया और हुब्बे-वतन’ से प्रारम्भ हुआ, और यह कहानी ज़माना के अप्रैल 1908 ई० के अंक में प्रकाशित हुई. प्रेमचंद की इस कहिनी का शीर्षक उनके सम्पूर्ण लेखकीय जीवन की अक्कासी करता है. उस जीवन की जो सांसारिक प्रेम में अंगुल-अंगुल, पोर-पोर डूबा रहा और जिसपर देशभक्ति का नशा इतना हावी रहा कि प्रेमचंद अपने लेखन के माध्यम से जीवन पर्यन्त इसी के आनंद में शराबोर रहे. उनकी ज़िंदगी सांसारिक प्रेम और देशभक्ति के मध्य की कश्मकश से जूझती रही और 8 अक्टूबर 1936 ई० को हिन्दी-उर्दू लेखन की एक लम्बी यात्रा तय करके, अंत में थक हार कर, सदैव के लिए मौन हो गयी.
कहानी यात्रा के प्रारंभिक चरणों में प्रेमचंद ने कुछ एक कहनियों के अनुवाद भी किए जिनमें से अधिकतर टैगोर की अंग्रेज़ी में प्रकाशित कहनियों के उर्दू रूपांतर थे.(2) यदि प्रेमचंद के इस वक्तव्य पर विचार किया जाय तो, उन कहनियों को रेखांकित करना ज़रूरी होगा. पर तत्कालीन उर्दू पत्रिकाओं में प्रेमचंद द्वारा किए गए अनुवादों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता. ऐसी कहनियों की पहचान या तो प्रेमचंद की चिट्ठियों के माध्यम से होती है या कहनियों के कथानक से उनके अनूदित होने का संकेत मिलता है.
‘सोज़े-वतन’ वस्तुतः प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह है जो उर्दू में अगस्त 1908 ई० में प्रकाशित हुआ। ज़माना के जुलाई 1908 ई० के अंक मे इसका विज्ञापन देख कर यह अनुमान किया जा सकता है कि संग्रह इस समय तक बाज़ार मे आ चुका था. किंतु किसी पुस्तक के प्रकाश मे आने से पूर्व उसका विज्ञापन छापने की प्रवृत्ति ज़माना की एक ख़ास विशेषता थी. उर्दू ‘प्रेम पचीसी’ का विज्ञापन ज़माना मे उसके प्रकाशन से चार माह पूर्व निकल गया था. ‘सोज़े-वतन’ तथा ‘प्रेम पचीसी’ भाग 1 और 2 प्रेमचंद ने अपने पैसों से प्रकाशित कराये थे. ज़माना के अतिरिक्त ‘सोज़े-वतन’ का विज्ञापन आज़ाद उर्दू मासिक लाहौर के अगस्त 1908 ई० के अंक में भी निकला था. स्पष्ट है कि ये संग्रह जुलाई के अंत अथवा अगस्त 1908 ई० के प्रारंभ में प्रकाश में आया. विज्ञापन मे ज़माना प्रेस का पता न देकर मुंशी नवाबराय, अलवरगंज, कानपूर का पता दिया गया है. पर सरस्वती के सितम्बर 1908 ई० के अंक मे जब इसकी समीक्षा प्रकाशित हुई तो पुस्तक प्राप्त करने का पता बाबू विजय नारायण लाल, नया चौक कानपूर प्रकाशित हुआ.

‘सोज़े-वतन’ की एक संक्षिप्त भूमिका स्वयं उसके लेखक नवाबराय ने लिखी थी. यहाँ उसका उद्धरण देना असंगत न होगा. नवाबराय ने लिखा था कि "हर एक कौम का अदब अपने ज़माने की सच्ची तस्वीर होता है और जो ख़याल ज़हन में घूमते हैं और जो एहसास कौम के दिलों में गूंजते हैं वो नस्र और नज़्म में ऐसी सफ़ाई से नज़र आते हैं जैसे आईने में सूरत. ... बंगाल के बंटवारे ने लोगों के दिलों में बगावत का एहसास भर दिया है. ये बातें अदब को कैसे मुतास्सिर न करतीं. ये कुछ कहानियाँ इसी असर की शुरुआत हैं."
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती में ‘सोज़े-वतन’ कि समीक्षा लिखकर और उसके महत्व को रेखांकित करके प्रेमचंद का अपूर्व प्रोत्साहन किया। किंतु प्रेमचंद ने अपने जीवन काल में इस संग्रह की केवल एक कहानी ‘यही मेरा वतन है’ 1924 ई० में ‘प्रेम-प्रसून’ में प्रकाशित की. शेष कहानियाँ अमृतराय के प्रयास से गुप्तधन भाग 2 मे छपीं. यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है. प्रेमचंद ने 3 जून 1930 ई० की चिट्ठी मे बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा था कि "सोज़े-वतन को हमीरपुर के कलेक्टर ने मुझसे लेकर जलवा डाला था. उनके ख़याल में यह विद्रोहात्मक था. हालांकि तब से उनका अनुवाद कई संग्रहों में और पत्रिकाओं में निकल चुका है." मेरी जानकारी में ऐसा कोई संग्रह या पत्रिका नहीं है जिसमें इन कहनियों के अनुवाद छपे हों. कुछ भी हो ‘गुप्तधन’ में छप जाने के बाद ‘सोज़े-वतन की कहानियाँ हिन्दी की मौलिक कहानियाँ नहीं कही जा सकतीं. ‘सोज़े-वतन’ के जलाए जाने की बात भी निराधार है. प्रेमचंद की सर्विसबुक में भी प्रताड़ित अथवा दण्डित किए जाने की कोई चर्चा नहीं मिलती. बल्कि इसके विपरीत "कर्मचारी को दिए गए उल्लेख्य दंड अथवा पुरस्कार" शीर्षक खाने में 8 फरवरी 1910 ई० को हमीरपुर के कलेक्टर जे. बी. स्टीवेंसन ने उनके कार्यों की प्रशंसा की है.

हिन्दी में प्रेमचंद का प्रथम कहानी संग्रह सप्तसरोज 1917 ई० में हिन्दी पुस्तक एजेंसी, कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। किंतु इस संग्रह की ‘सौत’ कहानी को छोड़कर शेष 6 कहानियाँ उर्दू मूल से रूपांतरित की गयी थीं. यह रूपंतार्ण मन्नन द्विवेदी गजपुरी की सहायता से किया गया था. संग्रह की भूमिका में गजपुरी ने प्रेमचंद को उर्दू और हिन्दी के प्रसिद्ध गल्प लेखक के रूप में परिचित कराया था, जबकि इस संग्रह से पूर्व हिन्दी पाठकों के मध्य प्रेमचंद मात्र तीन कहानियों सौत, सज्जनता का दण्ड और पंचपर्मेश्वर के लेखक थे और उन्हें अभी उल्लेख्य ख्याति नहीं मिल पाई थी. ऎसी स्थिति में प्रसिद्ध गल्प लेखक के रूप में मान्यता देने का उद्देश्य, मात्र उत्साह बढ़ाना प्रतीत होता है.

4.2. प्रेमचंद नाम से लिखी गई पहली कहानी

प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित प्रथम कहानी बड़े घर की बेटी है जो ज़माना के दिसम्बर 1910 ई० के अंक में छपी। किंतु प्रेमचंद नाम से पहली कहानी जो ज़माना को भेजी गयी थी वह विक्रमादित्य का तेगा थी. प्रेमचंद ने सितम्बर 1910 ई० की जिस चिट्ठी में निगम के सुझाव पर प्रेमचंद नाम पसंद करने की चर्चा की है उसी में विक्रमादित्य का तेगा के प्रकाशनार्थ शीघ्र ही भेजे जाने का भी उल्लेख किया है. साथ ही इस नयी कहानी को मिलाकर बरगेसब्ज़ शीर्षक से पाँच कहानियो का एक संग्रह निकालने की भी इच्छा व्यक्त की है. यद्यपि यह संग्रह किन्हीं कारणों से प्रकाशित न हो सका. किंतु द्रष्टव्य यह है कि प्रस्तावित कहानियो में बड़े घर की बेटी का नाम नहीं है. स्पष्ट है कि बड़े घर की बेटी उस समय तक लिखी नहीं जा सकी थी.

प्रेमचंद का एक निबंध सूबए-मुत्तहिदा में इब्तिदाई तालीम (संयुक्त प्रान्त में प्रारंभिक शिक्षा) शीर्षक से ज़माना के मई जून 1909 ई० के संयुक्तांक में प्रकाशित हुआ. जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद को प्रशासन की झिडकियां सुननी पडीं और इस आशय का एक लिखित अनुबंध भी करना पड़ा कि भविष्य में उनकी रचनाएँ ज़िलाधीश की अनुमति के बिना प्रकाशनार्थ नहीं जायेंगी. इस अनुबंध का पालन न करने पर उन्हें इसकी याद दहनी भी कराई गयी. इन तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि लेखक प्रेमचंद का जन्म विवश्तावश किए गए उस लिखित अनुबंध का नतीजा था जिससे नौकरी भी सुरक्षित रहे और देश के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह भी किया जा सके. यानी धनपतराय के अनुबंध और प्रेमचंद के जन्म के मूल में इश्के-दुनिया (सांसारिक प्रेम) और हुब्बे-वतन (देशभक्ति) की भावना कार्य कर रही थी. फिर भी अधिकारियों की दृष्टि शायद ज़माना प्रेस और उससे प्रकाशित होने वाली सामग्री तक ही केंद्रित थी. जभी तो अदीब उर्दू मासिक में 1911 और 1912 ई० में नवाबराय के नाम से छपने वाली प्रेमचंद की कहानियो पर कोई आपत्ति नहीं की गयी.
मदन गोपाल का विचार है कि प्रेमचंद का नाम (जो कि अत्यन्त गोपनीय था) केवल ज़माना में प्रकाशित होने वाली उनकी रचनाओं के लिए इस्तेमाल किया गया।(3) किंतु तथ्य यह है कि 1912 से 1914 ई० के मध्य हमदर्द में छपने वाली कहानियों में लेखक का नाम प्रेमचंद ही मिलता है. हिन्दी में भी उनकी पहली कहानी प्रेमचंद के नाम से ही प्रकाशित हुई.

ज़माना कानपूर में इश्के दुनिया और हुब्बे वतन (अप्रैल 1908 ई०) और बड़े घर की बेटी (दिसम्बर 1910 ई०) के बीच जो चार उर्दू कहानियाँ प्रकाशित हुईं उनमें या तो लेखक का कोई नाम नहीं दिया गया था या कहानी के अंत में लेखक के नाम के स्थान पर "अफ्सानाए- कुहन" ( वह कथा जो अतीत बन चुकी ) छाप कर नवाबराय के नाम को गोपनीय रखा गया। हाँ सैरे-दरवेश(शाप) की एक किस्त में निगम की भूल या कातिब की असावधानी से नवाबराय नाम अवश्य छप गया. अदीब मासिक, इलाहबाद के सितम्बर 1910 ई० के अंक में छपने वाली कहानी बेगरज मोहसिन (नेकी) दाल. रे. के नाम से छपी जो धनपतराय का संछिप्त रूप है. उस समय उर्दू में नाम का संछिप्त रूप लिखने की आम प्रथा थी.

टिप्पणी :

(1). प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 238

(2). प्रेमचंद, विविध-प्रसंग, भाग 3, ७०

(3). मदन गोपाल (संपा.), प्रेमचंद के खुतूत, पृ0 17

Thursday, July 31, 2008

सम्पादक नैरंगे-ख़याल के नाम फ़िल्म जगत से सम्बंधित प्रेमचंद की एक अप्राप्य चिट्ठी / प्रोफेसर शैलेश ज़ैदी

फ़िल्म जगत से सम्बंधित प्रेमचंद की अनेक चिट्ठियां उनके चिट्ठी-पत्री संग्रहों में उपलब्ध हैं. सब में एक नैराश्य, एक पछतावा, एक ताल-मेल न बैठने का एहसास है जो साफ़ दिखायी देता है. कहीं डाइरेक्टरों की मानसिकता का रोना, कहीं 'बाज़ारे-हुस्न की मिटटी पलीद' होने का एहसास, कहीं 'मिल' से कुछ साधारण सा संतोष, एक विचित्र प्रकार की उकताहट. प्रेमचंद का स्वभाव कुछ और, निर्माता की फरमाइश कुछ और. यहाँ स्थिति यह कि प्लाट सोचने और लिखने में आदर्शवाद अनायास घुस आता है वहाँ हालत यह की उसमें कोई इंटरटेनमेंट वैल्यू नहीं है. और इस इंटरटेनमेंट का अर्थ है वल्गैरिटी यानी बोसे-बाज़ी, बरहना रक्स, औरतों का जबरन उठाया जाना और बलात्कार के दृश्य. इतना ही नहीं कुछ अचम्भा भी चाहिए जैसे नकली और हास्यजनक लडाइयां. एक-दो बातें होतीं तो प्रेमचंद झेल भी जाते. तुर्रा यह कि निर्देशक की पूरी बादशाहत. मुंह भी नहीं खोल सकते उसके सामने जनरुचि की बात निकल आए तो निर्देशक पूरे ज़ोर से कहता है 'आप नहीं जानते जनरुचि क्या है. मैं जनता हूँ जनता क्या चाहती है.' प्रेमचंद के मित्र अशफाक हुसैन प्रेमचन्द से सहमत न थे. उनका ख़याल था कि धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जायेगा. किंतु प्रेमचंद के लिए समूचा माहौल ही घुटन भरा था. यही सब बातें हैं उन प्रकाशित चिट्ठियों में जो संग्रहों में उपलब्ध हैं.
यहाँ मैं प्रेमचंद की जिस चिट्ठी को प्रस्तुत कर रहा हूँ वह हिन्दी उर्दू के किसी भी चिट्ठी संग्रह में प्रकाशित नहीं हो पायी है. यह चिट्ठी प्रेमचंद ने 'नैरंगे ख़याल' उर्दू मासिक दिल्ली के संपादक इशरत रहमानी को मार्च 1935 में उनके पत्र के उत्तर में लिखी थी. सम्पादक ने इसे पत्रिका के अप्रैल 1935 के अंक में छापा है. नैरंगे ख़याल के साथ प्रेमचंद का पुराना पत्र-व्यवहार था. सम्पादक महोदय जिज्ञासावश प्रेमचंद से कुछ सवाल कर बैठते थे और उत्तर में पूरी सहृदयता के साथ प्रेमचंद अपने विचार लिख भेजते थे. सम्पादक नैरंगे ख़याल के नाम मदन गोपाल और अमृत राय ने भी फरवरी 1934 की प्रेमचंद कि एक चिट्ठी छापी थी जिसमें प्रेमचंद ने कहानी लेखन के अपने मनोवैज्ञानिक आधार का संकेत किया था. सिनेमा से सम्बंधित इस चिट्ठी की विशेषता यह है कि अन्य चिट्ठियों में लिखे गए विचारों की अपेक्षा यहाँ प्रेमचंद निर्देशकों के प्रति कुछ नर्म और सहानुभूतिशील दिखायी देते हैं. यहाँ प्रेमचंद की सारी शिकायत भारत के शिक्षित समाज से है. इस चिट्ठी में प्रेमचंद ने कुछ ऐसे प्रश्न उठाये हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. प्रेमचंद ने 25 मार्च 1935 को बंबई छोड़ दिया था. यह चिट्ठी मार्च के मध्य की है. चिट्ठी इस प्रकार है -
बेरादरम- तस्लीम
याद आवरी के लिए ममनून (आभारी) हूँ. 'सेवासदन' से मेरा उतना ही तअल्लुक़ है कि उसका अफसाना (कथा) मेरी तसनीफ 'बाज़ारे-हुस्न' से माखूज़ (लिया गया) है. उसके गीतों का मुझसे उतना ही तअल्लुक़ है जितना जुबैदा के नाच से. यह डाइरेक्टर को अख्तियार है कि वो किस्से में जो तरमीम (संशोधन) आम मजाक (रूचि) के लिए मुनासिब और ज़रूरी समझता है करे. हिन्दोस्तानी फिल्मों में हमारा पढ़ा-लिखा तबका शाज़ो-नादिर (यदा-कदा) जाता है. उसे तो ग्रीटा गार्बो और हेराल्ड लायेड से इश्क़ है. उसी तरह जैसे उसे एक मग्रिबी चीज़ से गुलामाना उन्स (लगाव) है. जब हिन्दोस्तानी फिल्मों को अवाम की ही कद्रदानियों पर जिंदा रहना है तो ये लाज़िम है कि वो वही चीज़ें स्क्रीन पर लाएं जो अवाम को पसंद हैं. खवास के पसंद की चीज़ें बनाकर वो अपनी जिंदगी खतरे में डालना कैसे पसंद कर सकते हैं. ऐसे फ़िल्म बनाना जो आम और ख़ास दोनों ही में मकबूल हों, हर एक डाइरेक्टर का काम नहीं.
मैं ने पहले ये हकीकत न समझी थी और डाइरेक्टरों की हिमाक़तों पर अफ़सोस किया करता था. लेकिन यहाँ आकर मुझे इस सीगे को अन्दर से देखने का मौक़ा मिला और अब मुझे डाइरेक्टरों से उतनी शिकायत नहीं रही जितनी अपने आप से. आख़िर क्यों अंग्रेज़ी रसायल और अख्बारत जो हिन्दोस्तान ही में छपते हैं लाखों की तादाद में बिकते हैं और उर्दू हिन्दी रसायल बमुश्किल अपना खर्च निकाल पाते हैं. बेशतर तो क़र्ज़ से दबे रहते हैं. वही पढ़े-लिखे तबके की बे-नियाज़ (लगाव रहित) गुलामाना ज़हनियत. हम क्यों 'शा' और गाल्सवर्दी और आस्कर वाइल्ड और मैक्सिम गोरकी की किताबें हिर्जे-जां (अत्यधिक प्रिय) समझते हैं और क्यों अपने अहले-क़लम की तसानीफ़ पर नज़र डालना भी कस्रे-शान (शान के ख़िलाफ़) समझते हैं ? किसी कल्चर्ड जेंटिलमैन के कुतुबखाने में जाइए. आपको अंग्रेज़ी किताबें क़तार-दर-क़तार सजी हुई नज़र आएँगी लेकिन आपकी आँखें ब-हज़ार जुस्तुजू एक भी उर्दू या हिन्दी की किताब वहाँ देखेंगी. उसकी वजह यही है कि हम ख़ुद अपनी चीज़ों की क़द्र नहीं करते. हाँ नुक्ताचीनी (आलोचना) करने के लिए सबसे पहले दौड़ते हैं.
फ़िल्म कोई कल्चरल इदारा नहीं है, तिजारत है. और ताजिर वही चीज़ बाज़ार में लाता है जिसकी मांग होती है. उसको अदब से दुश्मनी नहीं है. हमारी और आपकी तरह वो भी अवाम की बद-मजाकी (कुरुचि) से नालां है. मगर गरीब क्या करे ! एक तस्वीर में पचास-साठ हज़ार रूपये लगा चुकने के बाद सबसे पहली बात ये होती है कि किसी तरह ये रूपए मै नफ़ा के लौट आयें. अगर डाइरेक्टर या प्रोड्यूसर को यकीन हो कि फ़ाइन-आर्ट के मूइद उसकी तस्वीरों को कामियाब बना देंगे तो वह उसी आइडियल को सामने रखेगा. और हुस्ने-मजाक (सुरुचि) से जौ भर भी इधर-उधर न जायेगा.
पोलिटिकल पस्ती का एक सबब ज़हनी और अक़ली पस्ती भी होती है. जब हमारे अदीबों में 'शा', और गोरकी और रोमां रोलां नहीं हैं तो फिर फ़िल्म में वो कैरेक्टर कहाँ से आ जायेंगे जो गार्बो और हेराल्ड लायेड और मेवेस्ट की अदाकारी के फिदाइयों को मह्जूज़ (आनंदित) कर सकें ? मेरे इस तरफ़ आने का यही मंशा ख़ास था कि मुमकिन हो तो इस बद-मजाकी के सैलाब को रोकूँ. लेकिन मालूम हुआ कि ये काम मेरे बूते का नहीं. तालीम-याफ्ता पब्लिक को चाहिए कि या तो वो फ़िल्म देखने ही न जाय या जाय तो ये समझ कर जाय कि भांडों का तमाशा देखने जा रहे हैं और इतनी देर के लिए उन्हें अपनी तन्कीदी आँखें बंद कर लेनी पड़ेंगी.
नियाज़ मंद
प्रेमचंद (मुसव्विरे-फ़ितरत)
टिप्पणी :
[Reta Garbo ] रीटा गार्बो (1905-1990) हालीवूड की बे-आवाज़ फ़िल्मों की मानी हुई स्वीडिश अदाकारा थीं. प्रेमचंद के समय की उनकी 'द टेम्पट्रेस,' (1926), लव (1927),द किस (1929) इत्यादि चर्चित फिल्में थीं.
[Lloyd, Herold] हेराल्ड लायेड प्रेमचंद युगीन बे-आवाज़ फिल्मों के प्रसिद्ध कामेडियन तथा अभिनेता थे। 'गर्ल शाई (1924),फ्रेशी (1925), फार हैवेंस सेक (1926) आदि उनकी चर्चित फिल्में थीं.
[Mae West ] मेवेस्ट (1893-1980) न्यूयार्क सिटी के वुडहैवेन में जन्मी प्रतिभा-संपन्न अभिनेत्री थीं. आइयम नो ऐंगर (1933) और शी डन हिम (1933) उनकी चर्चित फिल्में थीं.

Thursday, July 24, 2008

मुंशी (प्रेमचंद) शब्द को लेकर भ्रांतियां / प्रो. शैलेश ज़ैदी

1951 में जब मैं छठीं कक्षा में था संस्कृत के पंडित जी ने एक कहानी सुनाई थी. कहने लगे 'एक गाँव ऐसा था जहाँ लोगों ने कभी हाथी नहीं देखा था. एक बार ऐसा हुआ कि रात में उस गाँव से एक हाथी गुज़र गया. सुबह होने पर गाँव वालों ने ज़मीन पर विचित्र प्रकार के निशान देखे. किसी की कुछ समझ में नहीं आया कि ऐसा कौन सा जीव इस गाँव में आया था. गाँव में एक लाल बुझक्कड़ रहते थे. गाँव वाले सीधे उनके पास पहुंचे. 'अब आप ही हमारे मन को शांत कर सकते हैं. जाने कौन सी बला गाँव पर आने वाली है. धरती पर जगह-जगह विचित्र से निशान बने हैं. आप ही चलकर समस्या का समाधान कीजिए. लाल बुझक्कड़ पूरी तैयारी के साथ उस स्थल पर आए. निशान को चश्मा लगाकर बारीकी से देखा. और फिर लगभग झूम कर बोले "लाल बुझक्कड़ बूझ गए, और न बूझा कोय / पैर में चक्की बाँध के हिरन न कूदा होय.
लगभग यही स्थिति मुंशी प्रेमचंद के नाम में 'मुंशी' शब्द की हो गई है. मैंने abhivyakti-hindi.org पर डॉ. जगदीश व्योम का लेख 'प्रेमचंद मुंशी कैसे बने' जब पढ़ा तो बड़ी मुश्किलों से अपनी हँसी रोक पाया. रोचक बात यह है कि हिन्दी विकिपीडिया में भी ऐसी ही बात पढने को मिली. अनावश्यक रूप से विकिपीडिया में अमृत राय के नाम को भी घसीटा गया है. शोध की प्रवृत्ति तो हिन्दी में बहुत पहले से विलुप्त हो चुकी है. अटकलों के आधार पर तिल का पहाड़ बना देना भी अब हिन्दी लेखकों ने सीख लिया है. प्रेमचंद युगीन पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों को उठाकर देखिये. उस ज़माने में हिन्दी में गैर पंडित लेखकों के नाम के साथ हिन्दी में 'बाबू' तथा उर्दू में 'मुंशी' लिखने का आम रिवाज था. बाबू गुलाबराय और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे अनेक गैर पंडित लेखक इन्हीं नामों से जाने जाते हैं. बाबू मैथिली शरण गुप्त के नाम के साथ भी 'बाबू' शब्द चिपका हुआ है. ठीक इसी प्रकार उर्दू में मुंशी नवल किशोर, मुंशी दया नरायन निगम और मुंशी प्रेमचंद भी हैं.
अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है. प्रेमचंद की प्रारंभिक पुस्तकें उठाकर देखिए जिनमें उनका नाम नवाबराय और धनपत राय है. 8 अकतूबर 1903 के आवाज़ए-खल्क़ उर्दू अखबार में जब प्रेमचंद के प्रथम उपन्यास 'असरारे-म'आबिद की पहली किस्त छपी तो उसपर उनका नाम 'मुंशी धनपतराय साहब उर्फ़ नवाबराय इलाहाबादी छपा. प्रेमचंद उन दिनों इलाहबाद में ही रहते थे. अब प्रेमचंद के उपन्यास 'हमखुर्मा व् हमसवाब' पर दृष्टि डालिए. इसपर लेखक का नाम इस प्रकार दिया गया है "जनाब मुंशी नवाब राय साहब मुसन्निफ़ किशना वगैरा" इसी प्रकार इंडियन प्रेस इलाहबाद से 1907 में हिन्दी में छपने वाले उपन्यास 'प्रेमा' को भी देखिये. इसके प्रथम संस्करण पर लेखक का नाम 'बाबू नवाबराय बनारसी' छापा गया है. मैंने इन उपन्यासों के प्रथम पृष्ठ के फोटो चित्र अपनी पुस्तक प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन (1978) के परिशिष्ट भाग में छाप दिए थे, जिन्हें कोई भी देख सकता है.
आश्चर्य है कि डॉ.जगदीश व्योम केवल अटकलों और तुक्कों के आधार पर किस प्रकार दो टूक लिख गए "प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का एक मात्र कारण यही है कि 'हंस' नामक पत्र कन्हैया लाल मुंशी के सह संपादन में निकलता था. जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र ‘मुंशी’ छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - मुंशी, प्रेमचंद ..कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रमचंद' को एक समझ लिया और प्रेमचंद मुंशी प्रेमचंद बन गए."
मुझे याद आता है कि 1976 में पं0. सीताराम चतुर्वेदी अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पधारे थे और उन्होंने अपने एक भाषण में यही सारे तर्क दिए थे. मैं ने सभा में उनकी गरिमा का ख़याल करते हुए उन्हें नहीं टोका. बाद में जब उनसे मेरी बात हुई और मैं ने उनके सामने तथ्य रखे तो उन्होंने नितांत आत्मीय भाव से अपनी भूल स्वीकार की. मैं नहीं जनता था की आज भी हिन्दी के अध्येता इन्हीं भ्रांतियों को जी रहे हैं. प्रेमचंद की चिट्ठियां ही ध्यान पूर्वक पढ़ ली जाएँ तो स्वयं प्रेमचंद द्वारा 'मुंशी' और 'बाबू' शब्दों के प्रयोग को देखा जा सकता है. मुंशी के कुछ उदाहरण देखिये. 1908 में निगम को लिखते हैं 'मुंशी नौबतराय चले गए. क्या होली की तकरीब में ?' 1924 में निगम को लिखते हैं ' मेरे नार्मल स्कूल के दोस्त मुंशी मुनीर हैदर साहब कुरैशी हैं' 1925 में इक़बाल वर्मा सेहर को लिखते हैं "मुकर्रमी मुंशी राज बहादुर का ख़त भी देखा" इत्यादि.
इनके अतिरिक्त जो चिट्ठियाँ प्रेमचंद को दूसरों द्बारा लिखी गई हैं उनमें भी 'मुंशी जी' का संबोधन देखा जा सकता है. उस समय तक कन्हैयालाल मुंशी का प्रेमचंद के साथ कोई जुडाव नहीं था. लाजपतराय एंड साँस के लाजपतराय ने 19 नवम्बर 1926 को लिखा 'श्रीमान मुंशी प्रेमचंद जी, नमस्ते,' 12 अप्रैल 1928 को घनश्याम शर्मा ने लिखा 'प्रिय मुंशी जी, जे राम जी की,'30 जनवरी 1929 को हनीफ हाशमी ने लिखा 'मुकर्रामी मुंशी साहब, हदयए-नियाज़,' 7 जुलाई 1930 को लाहौर से जगतराम ने लिखा 'बखिदमते-गिरामी जनाब मुंशी प्रेमचंद जी, आदाब अर्ज़' इत्यादि. हिन्दी ब्लॉग पर सस्ती लोकप्रियता के मोह में बिना जांच पड़ताल के इस प्रकार की ढेर सारी बातें छ्प रही है जो हिन्दी के लिए दुःख का विषय है. विवेचन और व्याख्या करने के लिए आप स्वतंत्र हैं, किंतु तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के लिए निश्चित रूप से आप स्वतंत्र नहीं हैं.

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Sunday, June 8, 2008

डॉ. अब्दुल हक़ के नाम प्रेमचंद की एक अप्राप्य महत्वपूर्ण चिट्ठी / प्रो. शैलेश ज़ैदी

हिन्दी,उर्दू और हिन्दुस्तानी का विवाद 1935 के अंत तक पर्याप्त गर्म हो चुका था. महात्मा गाँधी यद्यपि जीवन के अंत तक हिन्दुस्तानी के पक्षधर बने रहे किंतु बीच-बीच में उनके कुछ वक्तव्य ऐसे भ्रामक प्रतीत हुए जिनसे हिन्दी उर्दू प्रेमियों में परस्पर खिंचाव की गुंजाइश देखी गई. हिन्दी के अनेक पक्षधर ऐसे थे जो महात्मा गाँधी के 'हिन्दुस्तानी' शब्द से संतुष्ट नहीं थे. डॉ. सम्पूर्णानंद का विचार था कि " जो लोग हिन्दुस्तानी के स्वरूप को समझते थे, वह जानते थे कि वह उर्दू का नामांतर मात्र है. इस बात को खुलकर सामने नहीं आने देते थे." डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की स्पष्ट धारण थी कि "हिन्दुस्तानी नाम यूरोपीय लोगों का दिया हुआ है. उर्दू का बोलचाल वाला रूप हिन्दुस्तानी कहलाता है. उधर उर्दू वाले, विशेष रूप से डॉ. अब्दुल हक़, हिन्दुस्तानी शब्द को, उर्दू वालों को इसकी थपकियों से सुला देने के लिए, हिन्दी के पक्ष में गढ़ी गई लोरी समझते थे. फिर महात्मा गाँधी ने एक बार जब भारतीय साहित्य परिषद् में उर्दू को मुसलमानों की भाषा और उसकी लिपि को कुरआन कि लिपि कह दिया, तो उर्दू वालों का मन महात्मा गाँधी की भाषा नीति कि ओर से कुछ खट्टा हो गया. यद्यपि महात्मा गाँधी को अपनी भूल का एहसास शीघ्र ही हो गया और उन्होंने इसक स्पष्टीकरण भी दे दिया, किंतु इस वक्तव्य से जो आग भड़क चुकी थी वह ठंडी न हो सकी.
दुखद स्थिति यह हुई की 1936 के भारतीय साहित्य परिषद् के सम्मेलन में उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी से इतर एक नया शब्द महात्मा गाँधी की ओर से वोट के लिए रखा गया -'हिन्दी-हिन्दुस्तानी.' यह शब्द हिन्दुस्तानी को उर्दू का पर्याय मानने वाले हिन्दी के पक्षधरों के दबाव का परिणाम था. हिन्दुस्तानी के पक्ष में केवल पन्द्रह वोट आए और 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' को पच्चीस वोट मिले. डॉ. अब्दुलहक़ की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र और आक्रामक हुई. उन्होंने उर्दू त्रैमासिक के अप्रैल 1936 के अंक में "भारतीय साहित्य परिषद् की अस्ल हकीकत" शीर्षक एक आक्रामक आलेख लिखा, जिसे पढ़कर प्रेमचंद को बहुत कष्ट हुआ. इस आलेख में अन्य बातों के साथ 'हंस' की भाषा पर भी चोटें की गई थीं. प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद ने 4 जून 1936 को डॉ. अब्दुल हक़ को एक चिट्ठी लिखी जिसमें बहुत दुःख के साथ भाषा सम्बन्धी आक्षेपों का स्पष्टीकरण दिया और गांधी जी के नज़रिये पर गहरी चोट की. यह चिट्ठी फ़रोगे-उर्दू, जनवरी-फरवरी 1968 में उर्दू में छप चुकी है. किंतु हिन्दी के किसी भी चिट्ठी-पत्री संग्रह में नहीं है. चिट्ठी के अतिरिक्त भी प्रेमचंद ने डॉ. अब्दुल हक़ के इस रवैये की आलोचना की. उन्होंने लिखा "हमें मौलाना अब्दुल हक़ जैसे वयोवृद्ध, विचारशील और नीति-चतुर बुजुर्ग के कलम से यह शब्द देख कर दुःख हुआ. जिस सभा में वह बैठे हुए थे, उसमें हिन्दी वालों की कसरत थी. उर्दू के प्रतिनिधि तीन से ज़्यादा न थे. फिर भी जब 'हिन्दी-हिन्दुस्तानी' और अकेले 'हिन्दुस्तानी' पर वोट लिए गए तो हिन्दुस्तानी के पक्ष में आधी से कुछ ही कम रायें आयीं. अगर मेरी याद ग़लती नहीं कर रही है तो शायद पन्द्रह और पचीस का बंटवारा था. एक हिन्दी प्रधान जलसे में जहाँ उर्दू के प्रतिनिधि कुल तीन हों, पन्द्रह रायों का 'हिन्दुस्तानी' के पक्ष में मिल जाना हार होने पर भी जीत ही है."
यहाँ डॉ, अब्दुल हक़ को लिखी गई प्रेमचंद की चिट्ठी मूल उर्दू से रूपांतरित की जा रही है.
दफ़्तर, रिसाला हंस
बनारस कैंटोनमेंट
4 जून 36 ई0
भाई साहब किब्ला, तस्लीम
इस माह के 'उर्दू' में भारतीय साहित्य परिषद् पर आपका मक़ाला (आलेख) देखा तो मुझे अफ़सोस हुआ. जिस काम को इतने नेक इरादों से उठाया गया, उसकी बिस्मिल्लाह ही ग़लत होती नज़र आती है. आपने परिषद् में हाज़रीने-जलसा का रुख़ देख कर शायद अंदाजा नहीं लगाया के मज़हबी पब्लिक को इसकी मुतलक़ पर्वाह नहीं है. इतना ही नहीं, बिलउमूम (सामान्यतः) लोग इसे इश्ताबाह ( संदेह ) की नज़रों से देखते हैं. हर एक ज़बान की जानिब से मुखालिफत हो रही है. एलानिया नहीं तो दर परदा सही. किसी ज़बान ने भी इसका खैर-मक़दम नहीं किया. कुछ मुट्ठी भर लीडर ज़रूर शामिल हो गए हैं. शायद इस ख़याल से के यहाँ भी कुछ शोहरत कमाई जा सकती है. वरना इस तहरीक से बहोत कम किसी को दिलचस्पी है. उर्दू में जिस तरह इसका अदम वुजूद (होना न होना ) बराबर है उसी तरह हिन्दी में भी. चूँकि महात्मा जी का इस बड़े काम से तअल्लुक बतलाया गया है इस लिए थोड़े से खरीदार हो गए हैं. ये तो है असली हालत. आप शायद समझते है के इदारों (संस्थाओं) के पास खूब पैसा है, खूब जोश है. वाकेआ इसके ख़िलाफ़ है. ये तहरीक इस खयाल से जारी की गई थी के हिन्दोस्तान के अदीबों में और उर्दू अदबियात में बेरादराना और हम्दर्दाना एहसास पैदा हो. ज़बान इसकी हत्तलइमकान (भर्सख) सलीस रखने की कोशिश की जाती थी. मगर चूँकि मजामीन लिखने वाले मुखतलिफ सूबों के लोग होते थे और हंस का एडिटोरियल स्टाफ अकेला मेरा दम है, इसलिए हर एक मज़मून की इस्लाह मुश्किल थी.यह ख़याल भी तहतुशशऊर (अन्तश्चेतन) में था के हंस में दिलचस्पी रखने वाले 99 फीसदी गैर उर्दूदाँ हैं इस लिए फ़ारसी और अरबी का इस्तेमाल बेमहल होगा. क्योंकि जैसा काका कालेलकर साहब ने फ़रमाया था हमारी सलीस उर्दू ही गैर उर्दू दाँ असहाब के लिए बईद-अज़-फ़हम (समझ से बाहर) है. ज़बान की इस्लाह तो रफ़ता-रफ़ता ही हो सकती है. जिस तरह संस्कृत से भरी हुई हिन्दी, उर्दू ख़त (लिपि) में लिखी जाय तो उसे कोई न समझेगा, उसी तरह नागरी में उर्दू समझने वाले हिन्दी में या दीगर सूबेजात (अन्य प्रान्तों) में खाल-खाल (इक्का-दुक्का) हैं. इस एतबार से न सही अदबी लेन-देन के ख़याल से भी यह ज़रूरी है कि हमारे अदीबों में इश्ताराके-अमल (व्यावहारिक मेल-मिलाप) हो.उनमें अदबी और इल्मी और ज़ौकी मसाएल (रुचिकर समस्याओं) पर तबाद्लए-ख़याल (वैचारिक आदान-प्रदान) हो.
इस परिषद् में तो कुछ हुआ ही नहीं. मगर आपने यह तो महसूस ही किया कि तीन-चार उर्दू दाँ अहबाब की मौजूदगी ने लोगों पर इतना असर किया कि क़रार्दादों (प्रस्तावों) की ज़बान वो हो गई जो अब है वरना इसके क़ब्ल वह खालिस हिन्दी ज़बान में थी. अगर यह इर्तिबात (सम्पर्क) रोज़-अफ्जूं (नित्य-प्रति)बढ़ता जाता तो क्या आपके ख़याल में ज़बान और अदब पर इसका असर न पड़ता और इससे क़तअतअल्लुक कर लेने पर या मुसलमानों में यह ख़याल पैदा हो जाने पर के एक पोलिटिकल तहरीक है जो हिन्दी ज़बान के प्रचार के लिए जारी की गई है, क्या सूरते-हाल बेहतर होगी ? जो बोद फिलहाल है, उसके ज़्यादा हो जाने का इमकान है. मुझे यकीन है के अगले साल आप हालात में तगैयुर (परिवर्तन) पाते और दो-चार साल में जब उर्दू दाँ तबके को इस तहरीक से उन्स हो जाता, आप देखते के आप ही इस पर काबिज़ हैं.
मेरे लिए इस तहरीक से ज़रूर इतनी दिलचस्पी थी कि मैं हिन्दी और उर्दू को हिन्दुस्तानी के घर में लाकर मिला दूँ. मुझे इस साल कामयाबी न होती. लेकिन अगर उर्दू दाँ तबका मेरी इमदाद करता तो यह मुश्किल आसान हो जाती. मगर जब आपने एलाने-जंग कर दिया तो मुझे भी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है. यह इफ्तेराक (भेद-भाव) वाली पालिसी मालूम नहीं क्यों इस क़दर जल्द हमें खींच लेती है, मेरी समझ में नहीं आता. महात्मा गांधी हिन्दी के खुदा नहीं और न उनकी तावील (विकल्प) मानने के लिए हम मजबूर हैं. हमारा दावा है की परिषद की ज़बान हिन्दुस्तानी होना चाहिए. हम हैं जिन्हें ज़बान के मस्अले से कुछ शगफ है. उन्हें अपने असर, इल्म और मशवरे से इस मंज़िल की तरफ़ उसे ले जाना चाहिए. अगर उर्दू दां तबका साथ देता है तो वह हिन्दुस्तानी बनेगी. सच्चे मानों में. वह अलग हो जाता है तो फिर वह हिन्दी-हिन्दुस्तानी होकर रह जायेगी. आप का आख़िरी जुमला 'हम भी हेठे नहीं हैं' बुरा न मानिएगा, आपके शायाने-शान न था. भाई अख्तर (अख्तर हुसैन रायपूरी) अगर इस जुमले का इस्तेमाल करते तो उनकी पीठ ठोंकता. मगर आपको इन तंग-खयालियों से बालातर समझता हूँ और वह भी जबकि आप परिषद की इन्तजामी समिति में हैं और आप ने अभी उस से इस्तीफा नहीं दिया है. यह नारए-जंग तो बगली घूँसा जैसा लगता है.
ज़बान का मस्अला यूं ही हल हो सकता है कि दो-चार असहाब मिलकर सोलह सफ़हे का रिसाला हिन्दुस्तानी में निकालें. इसमें से दो आदमियों को इसका बार सौंपा जाय. और जो लोग इस स्कूल के हामी हों वो इसमें हिन्दुस्तानी ज़बान में लिखें. अगर दिल्ली वाले उर्दू में कर लें तो मैं यहाँ इसी का हिन्दी एडिशन हू-ब-हू बनारस से निकलने पर तैयार हूँ. अपने बल पर. हालांकि मेरी हालत फाका-कशी से एक ही क़दम पीछे है. इस तरह यह भूत जेर किया जा सकता है. अलग हो जाने से तो वह और भी शेर हो जायेगा. ज़बान का मस्अला परिषद से बिल्कुल अलग कर दिया जाय. वो खालिस अदबी तहरीक हो. हिन्दुस्तानी की तदवीन के लिए एक माहवार सोलह सफ्हे का रिसाला निकला जाय, जिसमें चार मज़ामीन जिम्मेदार असहाब के कलम से लिखे हुए हों. इस तरह हमारी दोनों गरज़ें पूरी हो जायेंगी. ज़बान की भी और अदब की भी. मुझे उम्मीद है कि आप मेरी तजवीज़ से मुत्तफिक़ होंगे. मैं तो आपकी रहनुमाई में दोज़ख में जाने को भी तैयार हूँ. हलांके वो काम बगैर आपकी रहनुमाई के ज़्यादा सफाई से कर सकता हूँ. इसके रस्ते मुझे खूब मालूम हैं.
उम्मीद है आप खुश हैं.
नियाज़ मंद
प्रेमचन्द