अध्याय चार
हिन्दी-उर्दू कहानियाँ : मौलिकता की परख
4.1. पहली कहानी और पहला कहानी संग्रह
प्रेमचंद ने अपने पाठकों के मन की किवाड़ पर दस्तक दी: "मेरी प्रकाशित कहानियो की संख्या तीन सौ है " (अगस्त 1933 ई० )। यह दस्तक हिन्दी पाठकों को प्रेमचंद की ‘सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ’ और उर्दू पाठकों को ‘मेरे बेहतरीन अफ़साने’ की भूमिका में मिली। आश्चर्य इस बात का है कि दोनों ही संग्रह दिल्ली और लाहौर से एक साथ छपे और कहानियों के पाठ में रत्ती भर कोई अन्तर नहीं आया. बहरहाल अगर यह मान लिया जाय कि अगस्त 1933 ई० तक प्रेमचंद की तीन सौ कहानियाँ छप चुकी थीं, तो प्रेमचंद के निधन तक और उसके बाद भी जो कहानियाँ छपीं उन्हें जोड़ने पर कहानियों की कुल संख्या तीन सौ चालीस के आस-पास बैठती है. किंतु प्रेमचंद की याददाश्त पर भरोसा नहीं किया जा सकता. कारण यह है कि लगभग एक वर्ष बाद डॉ0. इंद्रनाथ मदान को दिए गए पत्र इंटरव्यू में 26 दिसम्बर 1934 ई० को वे अपनी कहानियो की कुल संख्या 250 के आस-पास बताते हैं."(1)
हंस के फरवरी 1932 ई० के अंक में प्रेमचंद का एक लेख प्रकाशित हुआ था ‘जीवन सार।’ और इस लेख में जो वक्तव्य है वह प्रेमचंद की याददाश्तों को पूरी तरह अविश्वसनीय बना देता है. लिखते हैं -"पहले पहल 1907 ई० में मैंने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ किया. …. डॉ. रवीन्द्रनाथ की कहानियाँ मैंने अंग्रेज़ी में पढ़ी थीं. उनमें से कुछ का अनुवाद किया …. मेरी पहली कहानी का नाम था ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन.’ यह 1907 ई० में ज़माना में प्रकाशित हुई. इसके बाद मैंने ज़माना में चार-पाँच कहानियाँ और लिखीं. 1909 ई० में पाँच कहानियों का संग्रह ‘सोज़े-वतन’ के नाम से ज़माना प्रेस कानपूर से प्रकाशित हुआ. "(हंस फरवरी 1932 ई०).
प्रेमचंद का यह वक्तव्य सरासर निर्मूल और निराधार है कि उनकी पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ है और यह कहानी 1907 ई० में ज़माना में छपी थी. सच तो यह है कि सोज़े-वतन के प्रकाशन से पूर्व यह कहानी कहीं प्रकाशित नहीं हुई. उपलब्ध तथ्यों के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद की कहानियों के प्रकाशन का सफ़र ‘इश्केदुनिया और हुब्बे-वतन’ से प्रारम्भ हुआ, और यह कहानी ज़माना के अप्रैल 1908 ई० के अंक में प्रकाशित हुई. प्रेमचंद की इस कहिनी का शीर्षक उनके सम्पूर्ण लेखकीय जीवन की अक्कासी करता है. उस जीवन की जो सांसारिक प्रेम में अंगुल-अंगुल, पोर-पोर डूबा रहा और जिसपर देशभक्ति का नशा इतना हावी रहा कि प्रेमचंद अपने लेखन के माध्यम से जीवन पर्यन्त इसी के आनंद में शराबोर रहे. उनकी ज़िंदगी सांसारिक प्रेम और देशभक्ति के मध्य की कश्मकश से जूझती रही और 8 अक्टूबर 1936 ई० को हिन्दी-उर्दू लेखन की एक लम्बी यात्रा तय करके, अंत में थक हार कर, सदैव के लिए मौन हो गयी.
कहानी यात्रा के प्रारंभिक चरणों में प्रेमचंद ने कुछ एक कहनियों के अनुवाद भी किए जिनमें से अधिकतर टैगोर की अंग्रेज़ी में प्रकाशित कहनियों के उर्दू रूपांतर थे.(2) यदि प्रेमचंद के इस वक्तव्य पर विचार किया जाय तो, उन कहनियों को रेखांकित करना ज़रूरी होगा. पर तत्कालीन उर्दू पत्रिकाओं में प्रेमचंद द्वारा किए गए अनुवादों का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता. ऐसी कहनियों की पहचान या तो प्रेमचंद की चिट्ठियों के माध्यम से होती है या कहनियों के कथानक से उनके अनूदित होने का संकेत मिलता है.
‘सोज़े-वतन’ वस्तुतः प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह है जो उर्दू में अगस्त 1908 ई० में प्रकाशित हुआ। ज़माना के जुलाई 1908 ई० के अंक मे इसका विज्ञापन देख कर यह अनुमान किया जा सकता है कि संग्रह इस समय तक बाज़ार मे आ चुका था. किंतु किसी पुस्तक के प्रकाश मे आने से पूर्व उसका विज्ञापन छापने की प्रवृत्ति ज़माना की एक ख़ास विशेषता थी. उर्दू ‘प्रेम पचीसी’ का विज्ञापन ज़माना मे उसके प्रकाशन से चार माह पूर्व निकल गया था. ‘सोज़े-वतन’ तथा ‘प्रेम पचीसी’ भाग 1 और 2 प्रेमचंद ने अपने पैसों से प्रकाशित कराये थे. ज़माना के अतिरिक्त ‘सोज़े-वतन’ का विज्ञापन आज़ाद उर्दू मासिक लाहौर के अगस्त 1908 ई० के अंक में भी निकला था. स्पष्ट है कि ये संग्रह जुलाई के अंत अथवा अगस्त 1908 ई० के प्रारंभ में प्रकाश में आया. विज्ञापन मे ज़माना प्रेस का पता न देकर मुंशी नवाबराय, अलवरगंज, कानपूर का पता दिया गया है. पर सरस्वती के सितम्बर 1908 ई० के अंक मे जब इसकी समीक्षा प्रकाशित हुई तो पुस्तक प्राप्त करने का पता बाबू विजय नारायण लाल, नया चौक कानपूर प्रकाशित हुआ.
‘सोज़े-वतन’ की एक संक्षिप्त भूमिका स्वयं उसके लेखक नवाबराय ने लिखी थी. यहाँ उसका उद्धरण देना असंगत न होगा. नवाबराय ने लिखा था कि "हर एक कौम का अदब अपने ज़माने की सच्ची तस्वीर होता है और जो ख़याल ज़हन में घूमते हैं और जो एहसास कौम के दिलों में गूंजते हैं वो नस्र और नज़्म में ऐसी सफ़ाई से नज़र आते हैं जैसे आईने में सूरत. ... बंगाल के बंटवारे ने लोगों के दिलों में बगावत का एहसास भर दिया है. ये बातें अदब को कैसे मुतास्सिर न करतीं. ये कुछ कहानियाँ इसी असर की शुरुआत हैं."
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती में ‘सोज़े-वतन’ कि समीक्षा लिखकर और उसके महत्व को रेखांकित करके प्रेमचंद का अपूर्व प्रोत्साहन किया। किंतु प्रेमचंद ने अपने जीवन काल में इस संग्रह की केवल एक कहानी ‘यही मेरा वतन है’ 1924 ई० में ‘प्रेम-प्रसून’ में प्रकाशित की. शेष कहानियाँ अमृतराय के प्रयास से गुप्तधन भाग 2 मे छपीं. यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है. प्रेमचंद ने 3 जून 1930 ई० की चिट्ठी मे बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा था कि "सोज़े-वतन को हमीरपुर के कलेक्टर ने मुझसे लेकर जलवा डाला था. उनके ख़याल में यह विद्रोहात्मक था. हालांकि तब से उनका अनुवाद कई संग्रहों में और पत्रिकाओं में निकल चुका है." मेरी जानकारी में ऐसा कोई संग्रह या पत्रिका नहीं है जिसमें इन कहनियों के अनुवाद छपे हों. कुछ भी हो ‘गुप्तधन’ में छप जाने के बाद ‘सोज़े-वतन की कहानियाँ हिन्दी की मौलिक कहानियाँ नहीं कही जा सकतीं. ‘सोज़े-वतन’ के जलाए जाने की बात भी निराधार है. प्रेमचंद की सर्विसबुक में भी प्रताड़ित अथवा दण्डित किए जाने की कोई चर्चा नहीं मिलती. बल्कि इसके विपरीत "कर्मचारी को दिए गए उल्लेख्य दंड अथवा पुरस्कार" शीर्षक खाने में 8 फरवरी 1910 ई० को हमीरपुर के कलेक्टर जे. बी. स्टीवेंसन ने उनके कार्यों की प्रशंसा की है.
हिन्दी में प्रेमचंद का प्रथम कहानी संग्रह सप्तसरोज 1917 ई० में हिन्दी पुस्तक एजेंसी, कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। किंतु इस संग्रह की ‘सौत’ कहानी को छोड़कर शेष 6 कहानियाँ उर्दू मूल से रूपांतरित की गयी थीं. यह रूपंतार्ण मन्नन द्विवेदी गजपुरी की सहायता से किया गया था. संग्रह की भूमिका में गजपुरी ने प्रेमचंद को उर्दू और हिन्दी के प्रसिद्ध गल्प लेखक के रूप में परिचित कराया था, जबकि इस संग्रह से पूर्व हिन्दी पाठकों के मध्य प्रेमचंद मात्र तीन कहानियों सौत, सज्जनता का दण्ड और पंचपर्मेश्वर के लेखक थे और उन्हें अभी उल्लेख्य ख्याति नहीं मिल पाई थी. ऎसी स्थिति में प्रसिद्ध गल्प लेखक के रूप में मान्यता देने का उद्देश्य, मात्र उत्साह बढ़ाना प्रतीत होता है.
4.2. प्रेमचंद नाम से लिखी गई पहली कहानी
प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित प्रथम कहानी बड़े घर की बेटी है जो ज़माना के दिसम्बर 1910 ई० के अंक में छपी। किंतु प्रेमचंद नाम से पहली कहानी जो ज़माना को भेजी गयी थी वह विक्रमादित्य का तेगा थी. प्रेमचंद ने सितम्बर 1910 ई० की जिस चिट्ठी में निगम के सुझाव पर प्रेमचंद नाम पसंद करने की चर्चा की है उसी में विक्रमादित्य का तेगा के प्रकाशनार्थ शीघ्र ही भेजे जाने का भी उल्लेख किया है. साथ ही इस नयी कहानी को मिलाकर बरगेसब्ज़ शीर्षक से पाँच कहानियो का एक संग्रह निकालने की भी इच्छा व्यक्त की है. यद्यपि यह संग्रह किन्हीं कारणों से प्रकाशित न हो सका. किंतु द्रष्टव्य यह है कि प्रस्तावित कहानियो में बड़े घर की बेटी का नाम नहीं है. स्पष्ट है कि बड़े घर की बेटी उस समय तक लिखी नहीं जा सकी थी.
प्रेमचंद का एक निबंध सूबए-मुत्तहिदा में इब्तिदाई तालीम (संयुक्त प्रान्त में प्रारंभिक शिक्षा) शीर्षक से ज़माना के मई जून 1909 ई० के संयुक्तांक में प्रकाशित हुआ. जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद को प्रशासन की झिडकियां सुननी पडीं और इस आशय का एक लिखित अनुबंध भी करना पड़ा कि भविष्य में उनकी रचनाएँ ज़िलाधीश की अनुमति के बिना प्रकाशनार्थ नहीं जायेंगी. इस अनुबंध का पालन न करने पर उन्हें इसकी याद दहनी भी कराई गयी. इन तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि लेखक प्रेमचंद का जन्म विवश्तावश किए गए उस लिखित अनुबंध का नतीजा था जिससे नौकरी भी सुरक्षित रहे और देश के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह भी किया जा सके. यानी धनपतराय के अनुबंध और प्रेमचंद के जन्म के मूल में इश्के-दुनिया (सांसारिक प्रेम) और हुब्बे-वतन (देशभक्ति) की भावना कार्य कर रही थी. फिर भी अधिकारियों की दृष्टि शायद ज़माना प्रेस और उससे प्रकाशित होने वाली सामग्री तक ही केंद्रित थी. जभी तो अदीब उर्दू मासिक में 1911 और 1912 ई० में नवाबराय के नाम से छपने वाली प्रेमचंद की कहानियो पर कोई आपत्ति नहीं की गयी.
मदन गोपाल का विचार है कि प्रेमचंद का नाम (जो कि अत्यन्त गोपनीय था) केवल ज़माना में प्रकाशित होने वाली उनकी रचनाओं के लिए इस्तेमाल किया गया।(3) किंतु तथ्य यह है कि 1912 से 1914 ई० के मध्य हमदर्द में छपने वाली कहानियों में लेखक का नाम प्रेमचंद ही मिलता है. हिन्दी में भी उनकी पहली कहानी प्रेमचंद के नाम से ही प्रकाशित हुई.
ज़माना कानपूर में इश्के दुनिया और हुब्बे वतन (अप्रैल 1908 ई०) और बड़े घर की बेटी (दिसम्बर 1910 ई०) के बीच जो चार उर्दू कहानियाँ प्रकाशित हुईं उनमें या तो लेखक का कोई नाम नहीं दिया गया था या कहानी के अंत में लेखक के नाम के स्थान पर "अफ्सानाए- कुहन" ( वह कथा जो अतीत बन चुकी ) छाप कर नवाबराय के नाम को गोपनीय रखा गया। हाँ सैरे-दरवेश(शाप) की एक किस्त में निगम की भूल या कातिब की असावधानी से नवाबराय नाम अवश्य छप गया. अदीब मासिक, इलाहबाद के सितम्बर 1910 ई० के अंक में छपने वाली कहानी बेगरज मोहसिन (नेकी) दाल. रे. के नाम से छपी जो धनपतराय का संछिप्त रूप है. उस समय उर्दू में नाम का संछिप्त रूप लिखने की आम प्रथा थी.
टिप्पणी :
(1). प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 238
(2). प्रेमचंद, विविध-प्रसंग, भाग 3, ७०
(3). मदन गोपाल (संपा.), प्रेमचंद के खुतूत, पृ0 17
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