4.3 नक़ली नाम और नक़ली कहानियाँ -
प्रेमचंद का मामला भी बड़ा दिलचस्प है। शोध की ललक में जिसका जो जी चाहता है एक नयी बात प्रेमचंद के साथ जोड़ देता है. उर्दू के दो आलोचकों- डॉ. क़मर रईस और डॉ जाफ़र रज़ा (इलाहाबाद) ने अलअस्र उर्दू मासिक में पलशम के नाम से प्रकाशित कहानियो में प्रेमचंद की झलक देखने का प्रयास किया और इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि यह कहानियाँ प्रेमचंद ने पलशम के छदम नाम से लिखी हैं. क़मर रईस इस प्रसंग में लिखते हैं, "मेरा ख्याल है कि अलअस्र में 1918 ई० तक पलशम के फर्जी नाम से जो कहानियाँ शाया हुईं, वो प्रेमचंद ही के ज़ेहन की तखलीक हैं. इन कहानियो के मौजूआत (विषय), इनका अंदाज़े-तहरीर (लेखन शैली ), और फन्नी उस्लूब (शिल्प) प्रेमचंद की उस दौर की कहानियो से गहरी मुशाबेहत (एकरूपता) रखता है।(4)
प्रेमचंद का मामला भी बड़ा दिलचस्प है। शोध की ललक में जिसका जो जी चाहता है एक नयी बात प्रेमचंद के साथ जोड़ देता है. उर्दू के दो आलोचकों- डॉ. क़मर रईस और डॉ जाफ़र रज़ा (इलाहाबाद) ने अलअस्र उर्दू मासिक में पलशम के नाम से प्रकाशित कहानियो में प्रेमचंद की झलक देखने का प्रयास किया और इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि यह कहानियाँ प्रेमचंद ने पलशम के छदम नाम से लिखी हैं. क़मर रईस इस प्रसंग में लिखते हैं, "मेरा ख्याल है कि अलअस्र में 1918 ई० तक पलशम के फर्जी नाम से जो कहानियाँ शाया हुईं, वो प्रेमचंद ही के ज़ेहन की तखलीक हैं. इन कहानियो के मौजूआत (विषय), इनका अंदाज़े-तहरीर (लेखन शैली ), और फन्नी उस्लूब (शिल्प) प्रेमचंद की उस दौर की कहानियो से गहरी मुशाबेहत (एकरूपता) रखता है।(4)
डॉ. जाफ़र रज़ा ने शब्दों के थोड़े हेर-फेर के साथ इन्हीं विचारों को अपनी निजी अवधारणा के रूप में टांक दिया है. -"प्रेमचंद की कहानियो पर विचार करते हुए पशलम को भी दृष्टि में रखना चाहिए जिनकी कहानियाँ प्रेमचंद के इस काल की कहानियो से बड़ी समानता रखती हैं. उदाहरणार्थ इसी नाम से प्रकाशित कहानी मजमून निगार की बीवी (अलअस्र, फरवरी,1917 ई०) की बनावट, विचारों का क्रम और लेखन शैली प्रेमचंद की कहानियो का चरबा मालूम होती हैं."(5)
रोचक बात यह है कि डॉ। जाफ़र रज़ा ने मूल उर्दू नाम ‘पलशम’ को बदलकर ‘पशलम’ कर दिया है ताकि यह समस्या सुलझाई ही न जा सके. हो सकता है कि इसे मुद्रण की भूल मान लिया जाय. किंतु उनकी यही पुस्तक छ: वर्ष पूर्व उर्दू में छप चुकी थी. उसमें भी लेखक का नाम पशलम ही अंकित किया गया है.
रोचक बात यह है कि डॉ। जाफ़र रज़ा ने मूल उर्दू नाम ‘पलशम’ को बदलकर ‘पशलम’ कर दिया है ताकि यह समस्या सुलझाई ही न जा सके. हो सकता है कि इसे मुद्रण की भूल मान लिया जाय. किंतु उनकी यही पुस्तक छ: वर्ष पूर्व उर्दू में छप चुकी थी. उसमें भी लेखक का नाम पशलम ही अंकित किया गया है.
सच पूछिए तो इसी को कहते हैं राई का पर्वत बनाना. बात बहुत सीधी सी है. अलअस्र उर्दू मासिक के संपादक कविता और कहानियाँ दोनों लिखते थे. पलशम शब्द उन्हीं के नाम का संक्षिप्त रूप था जिनके अक्षरों को पृथक-पृथक लिखने के बजाय मिलाकर लिख दिया गया है. इस शब्द को पे. (प्यारे) लाम. (लाल) शीन. (शाकिर), मीम. (मेरठी) पढ़ा जाना चाहिए. यह कहानियाँ निश्चित रूप से प्यारे लाल शाकिर मेरठी की ही रचनाएँ हैं. प्रेमचंद नाम स्वीकार करने के बाद धनपतराय अथवा नवाबराय ने किसी भी छद्म नाम से कोई कहानी कभी नहीं लिखी.
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अमृतराय के मस्तिष्क की एक उपज पर भी विचार कर लेना अपेक्षित जान पड़ता है। ‘बम्बूक’ नामक उर्दू के एक कहानी लेखक की दो रचनाएँ तांगे वाले की बड़ (ज़माना, सितम्बर 1929) और शादी की वजह (ज़माना, मार्च 1927) अमृतराय ने गुप्तधन में इस आधार पर छापी हैं कि कानपूर की मित्र मंडली में (उनकी समझ से) प्रेमचंद बम्बूक के नाम से याद किए जाते थे. पहली बात तो यह है कि अमृतराय ने जमाना के वे अंक जिनमें यह कहानियाँ छपी हैं, स्वयं नहीं देखे हैं. इन अंकों में बम्बूक नाम के साथ ब्रैकेट में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि "एक एम्. एस. सी”. ज़ाहिर है कि प्रेमचंद एम्. एस. सी. नहीं थे. फिर ज़माना वाले बम्बूक महोदय की एक कन्यां भी थीं जिनका नाम अनीस फातमा था और जो कहानियाँ भी लिखती थीं. निश्चित सी बात है कि प्रेमचंद अनीस फातमा बिन्ते बम्बूक के पिता नहीं थे.
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अमृतराय के मस्तिष्क की एक उपज पर भी विचार कर लेना अपेक्षित जान पड़ता है। ‘बम्बूक’ नामक उर्दू के एक कहानी लेखक की दो रचनाएँ तांगे वाले की बड़ (ज़माना, सितम्बर 1929) और शादी की वजह (ज़माना, मार्च 1927) अमृतराय ने गुप्तधन में इस आधार पर छापी हैं कि कानपूर की मित्र मंडली में (उनकी समझ से) प्रेमचंद बम्बूक के नाम से याद किए जाते थे. पहली बात तो यह है कि अमृतराय ने जमाना के वे अंक जिनमें यह कहानियाँ छपी हैं, स्वयं नहीं देखे हैं. इन अंकों में बम्बूक नाम के साथ ब्रैकेट में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि "एक एम्. एस. सी”. ज़ाहिर है कि प्रेमचंद एम्. एस. सी. नहीं थे. फिर ज़माना वाले बम्बूक महोदय की एक कन्यां भी थीं जिनका नाम अनीस फातमा था और जो कहानियाँ भी लिखती थीं. निश्चित सी बात है कि प्रेमचंद अनीस फातमा बिन्ते बम्बूक के पिता नहीं थे.
नैरंगे ख़याल के जून 1932 ई० के अंक में अनीस फातमा की ‘घूर’ शीर्षक एक कहानी और फरवरी 1933 ई० के अंक में ‘हम और हमारी शायरी’ शीर्षक एक लेख देखा जा सकता है। दोनों ही स्थलों पर लेखिका का नाम ‘अनीस फातमा बिन्ते बम्बूक’ अंकित है. फिर अमृत राय का यह अनुमान भी निराधार है कि प्रेमचंद कानपूर की मित्र मंडली में बम्बूक के नाम से जाने जाते थे. निगम को जून 1906 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था-"कोई बीस दिन से ज़्यादा गुज़रे मगर क़सम ले लो जो ज़बान से प्यारा लफ्ज़ बम्बूक एक बार भी निकला हो."(6) द्रष्टव्य यह है कि प्रेमचंद ने यह नहीं लिखा है कि बम्बूक शब्द एक बार भी सुनने का अवसर नहीं मिला. ज़बान से बम्बूक शब्द अदा करने की इच्छा इस तथ्य का संकेत करती है कि प्रेमचंद अपने किसी मित्र विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे. इस स्थिति में बम्बूक नामक लेखक की कहानियों को प्रेमचंद की कहानियाँ घोषित करना सर्वथा निर्मूल और निराधार है.
प्रेमचंद के दो कहानी संग्रहों ‘आख़िरी तोहफ़ा’ और ‘वारदात’ में उनकी दो ऐसी कहानियाँ संकलित हैं जिनकी मूल लेखिका श्रीमती शिवरानी देवी प्रेमचंद हैं. इन कहानियों के शीर्षक हैं ‘बारात’ और ‘क़ातिल की मां.’ शिवरानी देवी उर्दू पढ़ना-लिखना नहीं जानती थीं. फिर भी उनकी कहानियाँ नैरंगे ख़याल और लैला जैसी उर्दू पत्रिकाओं में बराबर छपती रहती थीं. उपर्युक्त दोनों कहानियाँ शिवरानी देवी के हिन्दी कहानी संग्रह नारी ह्रदय में भी सम्मिलित है. इस संकलन से पूर्व हंस में भी इनका प्रकाशन हो चुका था. नैरंगे ख़याल के जून 1932 ई० के अंक में बारात शीर्षक कहानी के साथ लेखिका का नाम इस प्रकार अंकित है-"हिन्दी की मशहूर अदीबा शिवरानी साहिबा ज़ौजा मुंशी प्रेमचंद साहब."
अमृत राय ने उपर्युक्त दोनों कहानियों को गुप्त धन में प्रकाशित करना उपयुक्त नहीं समझा। किंतु डॉ. जाफ़र रज़ा ने अमृत राय से असहमति व्यक्त करते हुए इन कहानियों की गणना प्रेमचंद की कहानियों के साथ की है. उनकी अवधारणा है कि वारदात और आख़िरी तोहफ़ा कहानी संग्रहों का संपादन प्रेमचन्द ने स्वयं किया था (7) डॉ. कमल किशोर गोयनका ने डॉ. जाफ़र रज़ा का कोई सन्दर्भ दिए बिना लगभग वही बात दोहराई है.(8) यदि यह कहानियाँ संग्रहों में संकलित होने से पूर्व उर्दू में कहीं प्रकाशित न हुई होतीं तो भी एक बात थी. उर्दू के पाठक इन कहानियों को उर्दू पत्रिकाओं में शिवरानी के नाम से पढ़ चुके थे. फिर प्रेमचंद उन्हें अपने नाम से प्रकाशित करना क्यों पसंद करते. डॉ. गोयनका और डॉ. रज़ा की यह सूचनाएँ भी निराधार हैं कि आख़िरी तोहफ़ा 1934 ई० में प्रकाशित हुआ था. इस संग्रह का पहली बार प्रकाशन नारायन दत्त सहगल एंड सन्स ने 1938 ई० में किया था. हुसामुद्दीन गोरी को, मार्च 1935 ई० के पत्र में जो सूचना दी गयी है उससे डॉ. गोयनका ने यह अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कि संग्रह प्रेस में जा चुका है. मक्तबा जामिया देहली ने वारदात का प्रकाशन फरवरी 1938 ई० में किया था. प्रेमचन्द ने यदि संग्रह तैयार करके जामिया प्रेस को दे दिया होता तो उसके प्रकाशन में तीन-चार वर्ष का समय लग जाने की बात सोची भी नहीं जा सकती. स्पष्ट है कि बारात और क़ातिल की मां प्रेमचंद की कहानियाँ नहीं हैं और इन संग्रहों का संपादन भी प्रेमचंद ने नहीं किया है;
अमृत राय ने उपर्युक्त दोनों कहानियों को गुप्त धन में प्रकाशित करना उपयुक्त नहीं समझा। किंतु डॉ. जाफ़र रज़ा ने अमृत राय से असहमति व्यक्त करते हुए इन कहानियों की गणना प्रेमचंद की कहानियों के साथ की है. उनकी अवधारणा है कि वारदात और आख़िरी तोहफ़ा कहानी संग्रहों का संपादन प्रेमचन्द ने स्वयं किया था (7) डॉ. कमल किशोर गोयनका ने डॉ. जाफ़र रज़ा का कोई सन्दर्भ दिए बिना लगभग वही बात दोहराई है.(8) यदि यह कहानियाँ संग्रहों में संकलित होने से पूर्व उर्दू में कहीं प्रकाशित न हुई होतीं तो भी एक बात थी. उर्दू के पाठक इन कहानियों को उर्दू पत्रिकाओं में शिवरानी के नाम से पढ़ चुके थे. फिर प्रेमचंद उन्हें अपने नाम से प्रकाशित करना क्यों पसंद करते. डॉ. गोयनका और डॉ. रज़ा की यह सूचनाएँ भी निराधार हैं कि आख़िरी तोहफ़ा 1934 ई० में प्रकाशित हुआ था. इस संग्रह का पहली बार प्रकाशन नारायन दत्त सहगल एंड सन्स ने 1938 ई० में किया था. हुसामुद्दीन गोरी को, मार्च 1935 ई० के पत्र में जो सूचना दी गयी है उससे डॉ. गोयनका ने यह अर्थ किस प्रकार निकाल लिया कि संग्रह प्रेस में जा चुका है. मक्तबा जामिया देहली ने वारदात का प्रकाशन फरवरी 1938 ई० में किया था. प्रेमचन्द ने यदि संग्रह तैयार करके जामिया प्रेस को दे दिया होता तो उसके प्रकाशन में तीन-चार वर्ष का समय लग जाने की बात सोची भी नहीं जा सकती. स्पष्ट है कि बारात और क़ातिल की मां प्रेमचंद की कहानियाँ नहीं हैं और इन संग्रहों का संपादन भी प्रेमचंद ने नहीं किया है;
टिप्पणी
(4). डॉ. क़मर रईस, तलाशो-तवाजुन, पृ0 109
(5). डॉ. जाफ़र रज़ा, प्रेमचंद : उर्दू हिन्दी कथाकार, पृ0 107
(6). प्रेमचंद , चिट्ठी-पटरी, भाग 1, पृ0 4
(7).डॉ. जाफ़र रज़ा, प्रेमचंद : कहानी का रहनुमा, पृ0 355
(8). डॉ. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 ३०
********************* क्रमशः
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