Thursday, August 14, 2008

प्रेमचंद : कहानी-यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 4.3]

4.4. असली नाम और नकली कहानियाँ

उर्दू में प्रेमचंद के नाम से जो साहित्य प्राप्त हुआ है उसमें पंजाब के अनेक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित सत्रह कहानी संग्रह ऐसे उपलब्ध हैं जिनके लेखक प्रेमचंद, फितरतनिगार प्रेमचंद और मुंशी प्रेमचंद हैं. उर्दू पत्रिकाओं में प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी अथवा फितरतनिगार लिखा जाना सामान्य सी बात थी. यद्यपि कुछ हिन्दी लेखकों ने यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया है कि के. एम्. मुंशी के साथ हंस का संपादन करने के कारण प्रेमचन्द मुंशी प्रेमचंद कहलाने लगे. सच तो यह है कि उस समय गैर पंडित लेखकों के नाम से पूर्व हिन्दी तथा उर्दू में क्रमशः बाबू और मुंशी शब्द जोड़ने की आम प्रथा थी. उर्दू पत्रिकाएँ प्रारम्भ से ही प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी शब्द लगा रही थीं.
बात प्रेमचंद नाम से प्राप्त कहानी संग्रहों की चल रही थी इसलिए यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन संग्रहों में उपलब्ध कहानियाँ प्रेमचंद के असली नाम की छाप के बावजूद नक़ली हैं. इनका प्रेमचंद से कोई सम्बन्ध नहीं है. उर्दू संग्रहों के नाम इस प्रकार हैं- 1- औरत की मुहब्बत 2- मुसाफिर और दूसरे अफसाने, 3- इश्के खामोश, 4- मनोरमा, 5- सपेरन, 6- ठोकर, 7- दुल्हन, 8- कोचवान 9- इश्क का राग, 10- तूफ़ान, 11- प्रभात, 12- खामोश तबीयत, 13- कपाल कुंडला, 14- कशमकश, 15- लडकी, 16- ज़लज़ला, 17-तिलिस्मे मजाज़.
डॉ। क़मर रईस का विचार है कि इन संग्रहों में प्रत्येक पृष्ठ पर भाषा और बयान की जो दुर्बलताएँ हैं वह पुकार-पुकार कर कहती हैं कि मैं किसी साधरण प्रतिभा के पंजाबी साहित्यकार की रचना हूँ. गऊदान वाले प्रेमचंद से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं. यह अन्तः साक्ष्य इतना प्रबल है कि फिर किसी बाहरी सबूत की अपेक्षा नहीं रहती. (9)
प्रेमचंद के नाम का लाभ उठाकर अच्छा धंधा कर लेना पंजाब के प्रकाशकों के लिए बड़ा ही सुविधाजनक था. डॉ. रईस ने इस पहलू पर विचार करने के बजाय यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इन कहानियों की भाषा प्रेमचंद की उर्दू थी ही नहीं. हिन्दी गोदान का गऊदान के नाम से उर्दू अनुवाद इक़बाल वर्मा सेहर हत्गामी ने प्रेमचंद के निधनोपरांत शिवरानी देवी के निवेदन पर उपयुक्त पारिश्रमिक लेकर किया था. यह अनुवाद जनवरी 1938 ई० में समाप्त करके जामिया में प्रकाशनार्थ भेज दिया गया था. उर्दू गऊदान का प्रथम संस्करण मक्तबा जामिया से फरवरी 1939 ई० में निकला था. ऐसी स्थिति में उर्दू गऊदान की भाषा को प्रेमचंद की भाषा का आधार नहीं बनाया जा सकता. उर्दू गऊदान अनुवाद होने के कारण इकबाल वर्मा सेहर हत्गामी की भाषा का नमूना है, प्रेमचंद की भाषा का नहीं.
कुछ भी हो, उपर्युक्त कहानियों के लेखक प्रेमचंद नहीं हैं। किंतु किसी ग़लत बुनियाद के आधार पर कोई निर्णय लेकर शोध की दिशाएँ अवरुद्ध नहीं की जा सकतीं. जहाँ तक भाषा और अभिव्यक्ति की दुर्बलताओं का प्रश्न है, इस तथ्य का संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि प्रेमचंद उर्दू अनुवाद का कार्य अधिकतर दूसरों को सौंप दिया करते थे. इसलिए उनकी हिन्दी रचनाओं के अनेक उर्दू अनुवाद भाषा की दृष्टि से कमज़ोर हैं.
उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक मिर्जा जाफ़र अली खान असर ने करबला नाटक की भाषा संबन्धी दुर्बलताओं का जब संकेत किया तो प्रेमचंद ने उसे स्वीकार करते हुए निगम को लिखा था- "वाकेया ये है कि मैंने हिन्दी से ख़ुद तर्जुमा नहीं किया। मेरे एक नार्मल स्कूल के दोस्त मुनीर हैदर कुरैशी हैं, इन्हीं से करा लिया है."(10) यही स्थिति जस्टिस, सिल्वर बाक्स तथा स्ट्राइफ के साथ भी पेश आई. प्रेमचंद ने 10 अप्रैल 1932 ई० के पत्र में यह स्वीकार कर लिया था कि यह अनुवाद बाबू हरी परशाद सक्सेना की शिरकत से किया गया था."(11) यहाँ शिरकत शब्द बात रखने के लिए डाल दिया गया है.प्रेमचंद ने लेखन के प्रारंभिक काल में विशेष रूप से और बाद में भी अनेक ऐसी कहानियाँ और लेख उर्दू पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजे जिनके अनुवाद बंगला, गुजराती और अंग्रेज़ी से उर्दू में किए गए. किंतु इनके अनूदित होने का उल्लेख पत्रिकाओं में नहीं किया. फलस्वरूप उर्दू से रूपांतरित करके प्रेमचंद के नाम से अनेक ऐसी कहानियाँ हिन्दी में छापी गयीं जिनकी हैसियत मात्र अनूदित कहानियों की है. प्रेमचंद ने 1926 ई० के समालोचक में अंग्रेज़ी से उर्दू में किए गए अनुवादों का संकेत भी किया है.(12)
प्रेमचंद के नाम से गोयनका ने एक कहानी छापी है "अपने फ़न का उस्ताद" .(13) यह कहानी ज़माना के सितम्बर 1916 ई० के अंक में छपी थी. डॉ. गोयनका ने प्रेमचंद की 16 दिसम्बर 1915, 3 मई 1916 और 22 अप्रैल 1916 की चिट्ठियां मिलाकर पढ़ने का कष्ट नहीं किया है. करते भी कैसे. अमृत राय ने चिट्ठियों की तारीखें ग़लत लिखकर सबकुछ गडमड कर दिया है.(14) प्रेमचंद ने 22 मई 1916 ई० को ‘सरे पुरगुरूर’ और अपने फ़न का उस्ताद शीर्षक कहानियाँ ज़माना के लिए एक साथ भेजी थीं जो क्रमशः अगस्त और सितम्बर के अंकों में छपी थीं. पहली कहानी मौलिक थी और दूसरी एक बंगला कहानी से अनूदित थी. कहानी लेखक के रूप में प्रेमचंद का नाम नहीं दिया गया था. हाँ कहानी के समापन पर दाल० रे० अर्थात् धनपत राय अंकित था. कहानी के साथ भेजी गयी चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था- "सरे पुरगुरूर जाता है. एक और किस्सा भी भेजता हूँ. यह कुछ अरसा हुआ बंगला से तर्जुमा होकर मर्यादा में निकला था. किस्सा निहायत दिलचस्प है वरना मैं तर्जुमा क्यों करता."(15) द्रष्टव्य यह है कि कहानी के सभी पात्र बंगाली हैं. कथानक भी कलकत्ता का है. फलस्वरूप इस कहानी का हिन्दी पाठ जिसे मूल बंगला से रूपांतरित किया गया है, मर्यादा में तलाश किया जाना चाहिए. प्रेमचंद इस कहानी के लेखक नहीं हो सकते.
प्रेमचंद के नाम से एक अन्य कहानी ‘पर्वत यात्रा’ अमृत राय ने गुप्तधन में प्रकाशित की है, जबकि तथ्य यह है कि यह कहानी प्रेमचंद की मौलिक रचना न होकर उर्दू से अनूदित है। इस प्रसंग में प्रेमचंद की 1929 ई० की डायरी की कुछ टिप्पणियाँ अंकित करना अनुपयुक्त न होगा.
11 फरवरी, सैरे- कोहसार के दो पन्ने तर्जुमा किए.
13 फरवरी, करीब तीन पेज रूपांतर किया.
14 फरवरी, कोहसार के दो पन्नों का रूपांतर किया.(16)
आश्चर्य यह देखकर होता है कि डायरी के इन पृष्ठों को कलम का सिपाही में उद्धृत करने के बाद भी अमृत राय पर्वत यात्रा को प्रेमचंद की मौलिक रचना मानते हैं. तथ्य यह है कि यह कहानी उर्दू के प्रसिद्ध कथाकार रतन नाथ सरशार की मशहूर रचना है. इस दृष्टि से पर्वतयात्रा को प्रेमचंद की मौलिक रचना स्वीकार करना आंखों में धूल झोंकना है.
प्रेमचंद के जीवनकाल में ऐसा अकसर हुआ है कि यदि उनके द्वारा किया गया कोई अनुवाद उनकी मौलिक रचना के ठप्पे के साथ चल निकलता था तो सामान्य रूप से वे चुप्पी साध जाते थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है रूठी रानी. जमाना में रूठी रानी की कथा के समापन पर अगस्त 1907 ई० के अंक में स्पष्ट अक्षरों में अंकित है-"माखूज़ व तर्जुमा अज़ हिन्दी", अर्थात् हिन्दी से लिया और रूपांतरित किया गया.किंतु प्रेमचंद के जीवनकाल में भी और उनके निधनोपरांत भी मुंशी देवी प्रसाद द्वारा लिखित एवं भारत मित्र प्रेस कलकत्ता से 1906 ई० में हिन्दी में प्रकाशित रूठी रानी नवाब राय के मनाने पर ऐसा सध गयी कि उन्हीं की होकर रह गयी.
अपनी इस प्रवृत्ति के नतीजे में प्रेमचंद को पर्याप्त छीछालेदर का सामना करना पड़ा. ज़माना के फरवरी 1916 ई० के अंक में प्रकाशित प्रेमचंद के हंसी शीर्षक लेख का सन्दर्भ देना यहाँ अनुपयुक्त न होगा. 3 मई 1916 ई० को प्रेमचंद ने निगम को इस प्रसंग में सूचना दी थी-"मैंने तर्जुमा नहीं किया है, बस नफ़स (केन्द्रीय विचार) ले लिया है.(17) किंतु जब 1926 ई० में हंसी को लेकर पर्याप्त ले-दे मची तो प्रेमचंद ने शरद संवत् 1983 वि० के समालोचक में वक्तव्य दिया कि इस लेख की स्थिति केवल अनुवाद की है जिसकी सूचना ज़माना के सम्पादक को दे दी गयी थी.(18)

रोचक बात ये है कि मूल लेख से अनुवाद करने की सूचना देने के साथ-साथ प्रेमचंद ने निगम का विचार भी जानना चाहा। "नागरी प्रचारिणी में ज़राफ़त पर एक इन्तेहाई आलिमाना मज़मून छपा है, तर्जुमा है, कहिये तो कुछ नए उनवान से उसी पर कुछ लिख दूँ. सिरक़ा बिलजब्र (ज़बरदस्ती उड़ा लेना) हो या लेखक की अनुमति प्राप्त करके ?(19)" ज़ाहिर है कि यह सिरक़ा ज़बरदस्ती ही प्राप्त किया गया था और सूचना यह दी गयी थी कि केवल केन्द्रीय विचार लिया गया है. इससे प्रेमचंद की प्रकृति का भी अनुमान किया जा सकता है.
कहते हैं कि दूध की जली बिल्ली छाछ भी फूँक कर पीती है. 1920 ई० में प्रेमचंद के नाम से आबे-हयात और अश्के-नदामत शीर्षक दो अनूदित कहानियाँ कहकशां में प्रकाशित हुईं जिनपर उर्दू पाठकों ने पर्याप्त टिप्पणियाँ कीं. फस्वरूप 29 जून 1920 ई० को प्रेमचंद ने जब इम्तियाज़ अली ताज के पास आस्कर वाइल्ड की एक कहानी कैंटर विलेज घोस्ट का उर्दू अनुवाद भेजा तो यह लिखना नहीं भूले कि "इसके आखीर में मेरा नाम देने की ज़रूरत नहीं क्योंकि आबे-हयात और अश्के- नदामत के बाद मैंने अहद कर लिया है कि तर्जुमा न करूंगा."(20)

डॉ। गोयनका ने अश्के नदामत को प्रेमचंद की मौलिक कहानी मानते हुए प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य में प्रकाशित किया है.(21) सम्भव है कि उनहोंने प्रेमचंद की चिट्ठी पर ध्यान न दिया हो. हाँ, कहानी के शिल्प पर यदि डॉ. गोयनका थोड़ा भी विचार करते तो सहज ही यह निष्कर्ष निकाल सकते थे कि कथ्य और शैली की दृष्टि से यह कहानी प्रेमचंद की कहानियो के साथ मेल नहीं खाती. ऐसी ही ग़लती उर्दू में प्रेमचंद द्वारा अनूदित सगे लैला शीर्षक कहानी के साथ भी की गयी है जिसके अनूदित होने का संकेत सम्पादक ने भूमिकास्वरुप लिखी गयी अपनी टिप्पणी में कर दिया है.(22) डॉ. गोयनका ने डॉ. जाफ़र रज़ा द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर (23) उनका कोई सन्दर्भ दिए बिना इस कहानी को भी अप्राप्य साहित्य के साथ छाप दिया है.(24) कहानी के पात्रों उसके वातावरण और उसकी बुनावट पर भी ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी है. अनूदित कहानियो को प्रेमचंद की मौलिक रचनाएं बता कर छापना किसी प्रकार भी उचित नहीं कहा जा सकता.
प्रेमचंद अनुवाद न करने का बार-बार संकल्प करके भी अनुवादों के छपने में रूचि लेते रहे. दूसरों से अनुवाद कराके अपने नाम से छपवा लेने में भी उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ. प्रेमचन्द की कुछ चिट्ठियों से मेरे विचार की पुष्टि की जा सकती है. 16 दिसम्बर 1919 को ताज के नाम अपने पत्र में लिखते हैं, "मैं अनक़रीब चार्ल्स डिकेंस का एक क़िस्सा भेजूंगा. नादिर क़िस्सा है. तर्जुमा मुकम्मल है. अदीमुल्फुर्सती के बाइस एक साहब से नक़ल करा रहा हूँ.(25)
इस अनुवाद की वास्तविकता यह थी कि प्रेमचंद के बजाय रघुपति सहाय फ़िराक़ संदर्भित कहानी का अनुवाद कर रहे थे। ताज को लिखे गए पत्र से ठीक नौ दिन पूर्व इसी कहानी के अनुवाद के सम्बन्ध में 7 दिसम्बर 1919 ई० को इस प्रकार सूचित किया गया था-" दो चार दिन में अपने एक ग्रेजुएट दोस्त की तर्जुमा की हुई एक कहानी भेजूंगा जो डिकेंस से ली गयी है.(26) बात केवल एक कहानी की नहीं है. प्रेमचंद का एक और पत्र भी देखिये जिसमें बर्नार्ड शा की एक रचना के अनुवाद की बात की गयी है:
“प्रिय बनारसी दास जी, बन्दे
यह एक छोटा सा ड्रामा शा की एक नयी रचना का अनुवाद है. इसे बड़े परिश्रम से कराया है. रचना कितनी उच्च कोटि की है, पढने से ज्ञात होगा. किसी नाम की बहुत ज़रूरत हो तो ध० (धनपत) रा० (राय) दे दें. पुरस्कार वही दें, जो आप अच्छे अनुवादों को दे सकें. आशा है आप सानंद होंगे.
भवदीय,
ध० राय
यह चिट्ठी मुरारी लाल केडिया के वाराणसी स्थित राम रत्न पुस्तकालय में सुरक्षित है। ध्यान देने की बात यह कि बर्नार्ड शा का यह अनुवाद प्रेमचंद के निधनोपरांत हंस के मार्च, अप्रैल 1937 ई० के अंकों में बिना अनुवादक के नाम के छपा था. बाद में यही रचना 1938 ई० में सृष्टि का आरम्भ शीर्षक से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई जिसपर अनुवादक के रूप में प्रेमचंद का नाम छापा गया. डॉ. गोयनका ने भी अप्राप्य साहित्य में इसे स्थान देकर अनुवादक का नाम प्रेमचंद ही अंकित किया है. डॉ. गोयनका ने अनुवादक के रूप में प्रेमचंद का नाम देने के पीछे क्या तर्क है, इसकी कोई चर्चा नहीं की है.
अनुवाद के उपर्युक्त सन्दर्भों से हटकर प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित कुछ अन्य कहानियों पर भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। धोखे की टट्टी ( उर्दू मासिक, अदीब, नवम्बर 1912 ई०) खौफे रुसवाई ( अदीब, सितम्बर 1911 ई०) वफ़ा की देवी (उर्दू कहानी संग्रह आख़िरी तोहफा) और कातिल (गुप्त धन भाग-2) ऐसी ही कहानियाँ हैं. द्रष्टव्य यह है कि प्रेमचंद दूसरी भाषाओँ से ली गयी कहानियो पर अपना नाम देने के बजाय कहानी के समापन पर दाल० रे० अथवा ध० रा० लिखवाने का निर्देश सम्पादकों को कहानी भेजते समय ही दे दिया करते थे. यह इस तथ्य को संकेतित करता था कि ये कहानियाँ प्रेमचंद की मौलिक कहानियाँ नहीं हैं. प्रेमचंद नाम स्वीकार कर लेने के बाद नवाब राय के नाम से छपने वाली कहानियो की मौलिकता भी संदिग्ध है. धोके की टट्टी और खौफे रुसवाई कहानियों के पात्र, उनके कथानक, कथानक की सांस्कृतिक आधारभूमि आदि सभी कुछ बंगला कहानियो से मेल खाते हैं. प्रेमचंद की मौलिक कहानियो में उनका कथानक और उनके पात्र उत्तर प्रदेश की भौगोलिक परिधियों के भीतर ही विकसित होते हैं. इस दृष्टि से इन कहानियों की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है.
कातिल शीर्षक कहानी भी एक तोड़ी मरोड़ी हुई कहानी है। शिवरानी देवी की हत्यारा कहानी में थोड़ी उलट-पुलट करके गढी गयी यह कहानी भाषा और शिल्प की दुर्बलताओं के कारण प्रेमचन्द की कहानियो के साथ मेल नहीं खातीं. वफ़ा की देवी शीर्षक कहानी के किसी पत्र या पत्रिका में छपने की कोई सूचना उपलब्ध नहीं है. आख़िरी तोहफा (उर्दू कहानी संग्रह, 1938 ई०) में यह कहानी पहली बार प्रकाश में आई. ध्यानपूर्वक देखने पर यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है कि यह कहानी प्रेमचंद की मौलिक रचना नहीं है. किसी उठाईगीरे कहानीकार का फूहड़ प्रयास है. कहानी का प्रथम अंश काया कल्प के प्रारंभिक अंश से चुराया गया है. जहाँ कुंवर विशाल सिंह की कन्यां माघ मेले में खो जाती है. मध्य का अंश प्रेमचंद की लैला शीर्षक कहानी से उड़ाया गया है और इंदिरा पर कुंवर विशाल सिंह की कन्या का मुखौटा इस प्रकार फिट किया गया है कि प्रत्येक जोड़ अलग दिखाई देता है. इतना ही नहीं, बीच में शिवरानी देवी के कहानी वर यात्रा का भी कुछ अंश झपट लिया गया है. अंत में कुंवर साहब को उनकी कन्या इंदिरा से मिलाया गया है. किंतु इंदिरा अपने पिता के साथ जाने से इंकार कर देती है. इसी प्रकार की ढेर सारी ऊटपटांग बातें इस कहानी में भरी पडी हैं. घटनाओं की प्रस्तुति इतनी भद्दी और ब्योरात्मक है कि रचनाकार के अनाडी होने का स्पष्ट संकेत करती है
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह विचार बनता है कि पंजाबी प्रकाशकों के जिन सत्रह कहानी संग्रहों की चर्चा की गयी थी उन्हें केवल जालसाजी का नतीजा मानकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन संग्रहों की अधिकतर कहानियाँ बंगला या अंग्रेजी से अनूदित हैं. प्रेमचंद ने पारिश्रमिक के मोह में इस प्रकार के अनेक अनुवाद स्वयं भी किए थे और दूसरों से भी कराये थे. उनकी चिट्ठियों में पंजाबी पत्रिकाओं को भेजी गयी जिन अनूदित कहानियों के संकेत मिलते हैं उनकी छानबीन की जानी चाहिए. हाँ, इतना निश्चित है कि यह कहानियाँ प्रेमचंद की मौलिक रचनाएं नहीं हैं.
प्रेमचंद की लोकप्रियता को देखते हुए हिन्दी-उर्दू भाषाओँ में उनके नाम का मुखौटा ओढ़ने वाले कुछ अन्य लेखक भी पैदा हो गए थे। उर्दू पत्रिका रहनुमाए- तालीम, लाहौर के जनवरी 1934 के अंक में पॉँच रूपये शीर्षक प्रेमचंद नामक लेखक की एक कहानी देखी जा सकती है. यह एक साधारण सी कहानी है जिसकी भाषा प्रेमचंद की भाषा से बिल्कुल मेल नहीं खाती. इसी प्रकार सुधा लखनऊ के मार्च 1939 ई० के अंक में श्रीयुत प्रेमचंद एम० ए० की प्रेम का बलिदान शीर्षक कहानी भी उपलब्ध है. प्रेमचंद की एक कहानी डिमान्स्ट्रेशन गुप्त धन भाग 2 में संकलित है. यह कहानी पहली बार हुमायूं उर्दू मासिक के जनवरी 1932 ई० के अंक में छपी थी. महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रिका में प्रेमचंद के नाम के साथ देहलवी भी जोड़ा गया था. इस तथ्य की खोज की जानी चाहिए कि मुंशी प्रेमचंद देहलवी नामक कोई अन्य लेखक कहीं प्रेमचंद का समकालीन तो नहीं था. प्रेमचंद का एक और भी रोचक नाम देखने को मिलता है, लाला प्रेमचंद. खतीब उर्दू मासिक में कर्मों का फल शीर्षक कहानी के साथ यही नाम पाया जाता है.
टिप्पणी
(9 )। डॉ। कमर रईस, तलाशो-तवाजुन, पृ0 110 (10)। प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0150(11)।वही, पृ0 193 (12). वही, विविध-प्रसंग, पृ0 70 (13). डॉ. कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 134(14).प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 51 तथा 30(15). वही, भाग 1, पृ0 30(16). अमृत राय, कलम का सिपाही, पृ0 385(17). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 30 (18). विविध-प्रसंग, भाग 3, पृ0 70(19). चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 51(20). चिट्ठी-पत्री भाग 2, पृ0 115(21). प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 179(22). अदीब उर्दू मासिक, इलाहाबाद, अप्रैल 1913,पृ0 17(23). डॉ. जाफर रज़ा, प्रेमचंद : फ़न और तामीरे-फ़न, पृ0 114(24). प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, पृ0 119(25). चिट्ठी-पत्री, भाग 2, पृ0 110 (26).चिट्ठी-पत्री, भाग 1, पृ0 ९२
******************** क्रमशः

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

आलेख सेव कर लिया है।

आजाद है भारत,
आजादी के पर्व की शुभकामनाएँ।
पर आजाद नहीं
जन भारत के,
फिर से छेड़ें, संग्राम एक
जन-जन की आजादी लाएँ।

Udan Tashtari said...

स्वतंत्रता दिवस की बहुत बधाई एवं शुभकामनाऐं.

shama said...

Pehlee baar aapke blogpe aayee. Premchandko padhaa hai. Unke baareme aur jaankaaree leneki chaah hameshase thee. Aapke blogpe aayee to khush ho gayee.
Bohot, bohot dhanyawad!