अध्याय - 2
चिट्ठियाँ बोलती हैं
" तारीखे-पैदाइश संवत 1937, बाप का नाम मुंशी अजायब लाल, सुकूनत मौजा मढ़वा लमही, मुत्तसिल पांडेपुर बनारस. ...वालिद का इंतकाल पन्द्रह साल की उम्र में हो गया. वालिदा सातवें साल गुज़र चुकी थीं." यह है प्रेमचंद के जीवन का वह ब्योरा जो उन्होंने 17 जुलाई 1926 ई0 की चिट्ठी में निगम को लिख कर भेजा था.
वैसे तो प्रेमचंद की निगम के साथ प्रारंभ से ही बड़ी अंतरंगता थी. 1903 ई० में निगम ने ज़माना उर्दू मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया था. धनपत राय की रचनाएं इसी ज़माने में बनारस के आवाज़ये-खल्क में निकलने लगी थीं. लिखने और छपने का नया-नया शौक़ था. उर्दू पत्रिकाओं के कायस्थ संपादकों से सम्पर्क बना लेना धनपत राय के लिए कोई मुश्किल काम न था. निगम की पत्रिका नई थी. उन्हें भी नए लेखकों की ज़रूरत थी. चिट्ठियाँ दौड़ने लगीं. सौभाग्य से धनपत राय का तबादला भी कानपुर हो गया और मई 1905 ई० में वे कानपूर पहुँच गए. ठहरने के लिए निगम की हवेली थी ही. नौबत राय नज़र, दुर्गा सहाय सुरूर, प्यारे लाल शाकिर मेरठी, गोया एक-से-एक अच्छे लोगों से परिचय हुआ, दोस्ती हुई और हँसी-मजाक, छेड़-छाड़, तीरों-नश्तर, ठहाके,कजली शामों को ज़िंदगी की दूधिया सफेदी का प्रकाश देने लगे.
बहरहाल 17 जुलाई 1926 ई० तक निगम के साथ मैत्री के निरंतर गहराते संबंधों के इक्कीस वर्ष तो गुज़र ही चुके थे. प्रश्न यह है की इतनी लम्बी अवधि तक निगम को प्रेमचंद के हालात जानने की जिज्ञासा क्यों नहीं हुई ? ज़माना का जुबली नंबर निकलने में भी अभी दो वर्ष की देर थी. फिर प्रेमचंद से प्राप्त किया गया यह परिचय ज़माना के किसी अंक में छपा भी नहीं. ज़ाहिर है कि निगम की पैनी दृष्टि ने प्रेमचंद के लेखन में अपने युग के श्रेष्ठतम कथाकार की झलक ज़रूर देख ली थी. कदाचित इसी लिए इस प्रामाणिक दस्तावेज़ को हासिल करना ज़रूरी हो गया.
अमृत राय की पुस्तक (1962 ) छपने से पहले डॉ. कमर रईस ने प्रेमचंद की तारीखे-पैदाइश को अच्छी तरह ठोक-बजा कर देख लिया था और उसकी प्रामाणिकता पर अपने शोध निष्कर्षों की पक्की मुहर लगा दी थी. प्रेमचंद का तन्कीदी मतालेआ के पृ0 35 पर उन्होंने लिखा - " प्रेमचंद की जन्म-पत्री की एक नक़ल उनके वरसा के पास महफूज़ है जिस से तस्दीक़ कर ली गई है. " 1962 में अमृत राय की पुस्तक कलम का सिपाही छ़प कर बाज़ार में आ गई. अमृत राय ने जन्म-पत्री का कोई सन्दर्भ नहीं दिया, पर तारीखे-पैदाइश सावन बदी 10, संवत 1937, शनिवार 31 जुलाई 1880 ई० " इस प्रकार लिखी कि जैसे जन्म-पत्री सामने रख कर लिखी हो. स्पष्ट है कि अब पैदाइश की तारिख पर संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती.
विचित्र बात यह है कि प्रेमचंद की टीका-टिप्पणी करते हुए कोई जब उन्हें कुछ छेड़ देता है, तो वे शायद अतिरिक्त रोब डालने के विचार से अपनी उम्र कुछ बढ़ा-चढा कर बता जाते हैं. प्रेमचंद के विरोध में एक लेख छपा प्रेमचंद की प्रेम लीला. जवाब देना ज़रूरी था. समालोचक के शरद अंक में और बातों के जवाब के साथ प्रेमचंद ने यह भी लिखा ''यह अभागा कल का लौंडा नहीं, पूरा खुर्राट है. तीन साल और हों तो पूरे पचास का हो जाय. '' हिसाब लगाने पर जन्म-तिथि 1936 वि० निकलती है. अर्थात मान्य तिथि से एक वर्ष पूर्व.
इसी प्रकार घरेलु हालात की चर्चा करते हुए , 6 जनवरी 1934 ई० की चिट्ठी में निगम को लिखते हैं-''जो काम चालीस की उम्र में होना चाहिए था , वह अब पचपन- साले में हो रहा है.'' यहाँ भी जन्म-संवत 1937 वि० नहीं निकलता.
अब दिसम्बर 1933 ई० का एक वक्तव्य देखिये. प्रेमचंद लिखते हैं-'' लेखक को अपने पचपनसाला जीवन में ऐसा कोई ब्राह्मण नहीं मिला जिसने इस पाखण्ड आचरण को घृणा की दृष्टि से न देखा हो.'' इस समय प्रेमचंद की आयु, कुल बावन वर्ष पाँच महीने बैठती है. किंतु उनके लिखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे पचपन वर्ष पूरे कर चुके हों. इस हिसाब से उनका जन्म संवत 1935 वि० होना चाहिए. एक अन्य स्थल पर 14 जुलाई 1919 ई० के पत्र में इम्तियाज़ अली ताज को लिखते हैं - "बेशक मेरा सिन चालीस साल है." इस आधार पर भी प्रेमचंद की जन्म-तिथि 1879 ई० अर्थात संवत 1936 वि० होनी चाहिए. किंतु यह एक कथाकार की लेखनी का बहाव है. जोश में आए तो जो जी चाहे लिख जाय. कौन पूछने जाता है उस से. फिर यदि यह साबित भी हो जाय कि प्रेमचंद 1880 ई० में नहीं बल्कि 1879 या 1878 ई० में पैदा हुए थे और पढे-लिखे जागरूक घरों की तरह उनकी उम्र एक दो वर्ष कम कर के लिखवाई गयी थी तो उस से अन्तर क्या पड़ेगा ! हिन्दी अध्येता प्रेमचंद की जन्म-तिथि पूर्ववत 1880 ई० ही लिखते रहेंगे
प्रेमचंद के माता पिता के निधन का सन्-संवत भी खासा संदिग्ध है. प्रेमचंद की जन्म-तिथि 1880 ई० मान लेने पर भी उनके पिता का निधन कम-से-कम उस समय नहीं हुआ जब वे पन्द्रह वर्ष के थे. प्रेमचंद ही की सूचनानुसार उनके विवाह के साल भर बाद उनके पिता परलोक सिधारे. वैसे तो प्रेमचंद का विवाह उस समय हुआ जब वे सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और नवीं की परीक्षा देने वाले थे. इस प्रसंग में डॉ.कमर रईस का एक रोचक वक्तव्य उद्धृत करना असंगत न होगा - "इस वक्त उनकी उम्र पन्द्रह साल की थी की 1896 ई० में उनके वालिद ने उनकी शादी कर दी " पूछिये भला कि 1896 ई० में धनपत राय पन्द्रह वर्ष के किस हिसाब से थे ? दिलचस्प बात यह है कि अमृत राय भी पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही विवाह होने की बात करते हैं और साथ में यह भी स्वीकार करते हैं - " नवाब नवीं में थे जब उनका ब्याह हुआ. अगले साल यानी 1897 ई० में मैट्रिक का इम्तेहान देना था, लेकिन उसी साल पिता बीमार पड़े और इस दुनिया से उठ गए. " बात साफ है कि पिता के निधन के समय प्रेमचंद का सत्रहवां वर्ष चल रहा था.
अब रह गई माँ के निधन की बात. अमृत राय के अनुसार “पहली पत्नी के निधन के दो वर्ष बाद अजायब लाल ने दूसरा विवाह किया. उस समय धनपत आठवीं जमाअत में पढ़ते थे.” यदि अमृत राय की बात मान ली जाय तो 1894 ई० में धनपत आठवीं में थे और दो वर्ष घटा देने पर 1892 ई० में, अर्थात जिस समय धनपत बारह वर्ष के थे और छठीं कक्षा में पढ़ते थे, माता का निधन हुआ. जबकि वही अमृत राय यह भी लिखते हैं " पत्नी के मरने के कुछ ही दिन बाद मुंशी अजायब लाल बीमार पड़े . ठीक होने भी न पाये थे कि तबादले का हुक्म हुआ. नई जगह, सूने घर में नवाब को ले जाना पागलपन होता, इसलिए नवाब को फिर लमही में ही रखने की ठहरी. ( कलम का सिपाही, पृ0 23 ) " मतलब यह कि छठीं कक्षा से धनपत का नाम कटवा कर उन्हें लमही में डाल दिया गया. इन गोल-मोल बातों से अमृत राय की लिखी हुई जीवनी एक भटकाव की स्थिति पैदा करती है और कोई निश्चित तथ्य सामने नहीं आता.
इन्द्रनाथ मदान को प्रेमचंद ने 7 सितम्बर 1934 ई० के पत्र में लिखा "मैं आठ साल का था तभी मेरी माँ नहीं रहीं." इस दृष्टि से प्रेमचंद की माँ का निधन 1888 ई० में होना चाहिए. हो सकता है कि अपनी उम्र घटाकर, प्रेमचन्द अधिक सहानुभूति बटोरने के इच्छुक रहे हों. कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि माँ के स्वर्गवास के समय प्रेमचंद आठ वर्ष के नहीं थे.
प्रेमचंद लमही के एक बड़े से मकान में जन्मे थे. बड़े से मकान की बात यूं आई कि स्वयं प्रेमचंद ने दया नरायन निगम को सूचना दी थी " ईश्वर की कृपा से मकान भी सारे गाँव के लिए ईर्ष्या का पात्र." फिर मकान के कमरों का चित्र उभारते हुए उसके बड़कपन को और भी उजागर कर देते हैं -" किसी में बैल बंधता, किसी में उपले जमा हैं, किसी में जांता,चक्की, ओखली मूसल जुलूस-फरमा हैं." अब मकान को बड़ा न कहा जाय तो और क्या कहा जाय ? यह ठीक है कि इसमें निगम की हवेली जैसा आनंद नहीं है. न वहाँ जैसी सजावट और सफाई, न खस की टट्टी की भीनी खुश्बू, न रोबदार पंखे की झुक-झुक कर सलाम करती सुसंयमित हवा. गाँव ही का तो माकन ठहरा. सारे गाँव का सिरमौर है, यह क्या कम है ?
कायस्थों में दो विवाह करने का आम प्रचलन था. पिताजी पहले ही रास्ता हमवार कर चुके थे. फिर प्रेमचंद कैसे पीछे रह जाते ? लिखने को तो उन्होंने निगम को बड़े धड़ल्ले से लिख दिया- " अधबीच में छोड़ने वाले और होंगे. यहाँ तो जब एक बार बांह पकड़ी, तो ज़िंदगी पार लगा दी. हालांकि यह सन्दर्भ दाम्पत्य जीवन के निर्वाह का नहीं है, सम्पादकीय सहयोग निभाने का है. फिरभी बांह पकड़ने और ज़िंदगी पार लगा देने की बात टू यहाँ की ही गई है. "किन्तु मेंहदावल तहसील के रमवापुर गाँव वाली पत्नी के साथ ऐसा नहीं हुआ.
7 सितम्बर 1934 ई० को इन्द्रनाथ मदान के प्रश्नों का उत्तर देते हुए प्रेमचंद ने लिखा - "मेरी पहली स्त्री का देहांत 1904 ई० में हुआ. वह एक अभागी स्त्री थी. तनिक भी सुदर्शन नहीं. और यद्यपि मैं उस से संतुष्ट नहीं था, तो भी बिना शिकवा-शिकायत निभाए चल रहा था. "किन्तु यह तो एक मनगढ़त कहानी भर है. असली बात निगम को जून 1906 ई० के पत्र में लिखी जा चुकी थी-" अपनी बीती किस से कहूँ !...औरतों ने एक दूसरे को जली-कटी सुनाई. हमारी मख्दूमा (पत्नी ) ने जल-भुन कर गले में फांसी लगाई. माँ ने आधी रात को भांपा, दौडीं, उसको रिहा किया. बीवी साहिबा ने अब जिद पकड़ी की यहाँ न रहूँगी. मैके जाऊँगी. ...वह रो-धो कर चली गई. मैं ने पंहोचाना भी पसंद न किया. ..मैं उस से पहले ही खुश न था अब तो सूरत से बेजार हूँ. "अमृत राय कलम का सिपाही में यह सारे तथ्य गोल कर गए और एक नई कहानी गढ़ डाली -"जब नवाब ने अपनी नौकरी की जिंदगी शुरू की और उन्हें अपने साथ नहीं ले गए तो वह भी मेंहदावल चली गयीं और अधिकतर वहीं रहने लगीं" ( कलम का सिपाही, पृ0 34 )
पहली पत्नी के तनिक भी सुदर्शन न होने वाली बात जब प्रेमचंद ने शिवरानी देवी से की जो बकौल प्रेमचंद "साहित्यिक अभिरुचि " रखती थीं, "कभी-कभी कहानियाँ भी लिखती थीं, निडर, साहसी, समझौता न करने वाली, सीधी-सच्ची स्त्री थीं, प्रेमचंद की शिकायत पर मौन न रह सकीं. प्रेमचंद बोले -" उमर में वह मुझ से ज्यादा थीं. मैं ने उनकी सूरत देखी, तो मेरा खून सूख गया." शिवरानी देवी बस्ती के निवास काल में उनसे मिल चुकी थीं. तुरन्त बोल पडीं-" ठीक तो थीं" अच्छा ही हुआ की शिवरानी देवी और अमृत राय की इस प्रसंग में कोई बात नहीं हुई. अमृत राय जानते थे कि शिवरानी देवी "लकड़ी कि तरह सीधी-सपाट, निडर अक्खड़, हठीली हैं," जाने क्या-क्या सुना बैठें. प्रेमचंद को अपनी पहली पत्नी के केवल सुदर्शन न होने और उम्र में बड़ी होने की शिकायत थी. अमृत राय, जिन्होंने उन्हें कभी देखा तक नहीं था उनका नक्शा कितने शानदार शब्दों में खींचते हैं -"उम्र में ज्यादा, काली, भद्दी, थुल-थुल, चेचक-रु, अफीम खाने वाली, भचक कर चलने वाली, महीने में एकाध बार हबुआती भी ज़रूर थीं." (कलम का सिपाही, पृ0 33 ). अब इस से अधिक अमृत राय और लिखते भी क्या ?
प्रेमचन्द और शिवरानी देवी की बातचीत से यह भी संकेत मिलता है कि रवा-रवी में शायद प्रेमचन्द पहली पत्नी के चरित्र पर भी कोई टिप्पणी कर गए. देवी जी आपे से बाहर हो गयीं- "आप दावे के साथ कह सकते हैं कि आपका अपना चरित्र अच्छा था ? खामोश !" प्रेमचन्द कोई उत्तर न दे सके. चुप रहने में ही भलाई थी. किंतु अमृत राय को शायद अपनी सौतेली माँ के चरित्र का कुछ अधिक पता था. कलम पर अधिकार था ही. जो बात प्रेमचन्द ने कभी इशारों में भी नहीं की, उसकी उड़ती-पड़ती ख़बर अमृत राय तक पहुँच गई- "नवाब का शायद कभी उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा." फिर"..एक बार यह बात भी उडी कि उन्हें ( सौतेली माँ को ) लड़का हुआ है जिसका नाम उनके घर वालों ने रामयाद राय रखा है. " (कलम का सिपाही, पृ0 34 ) ख़बर कच्ची-पक्की जैसी भी रही हो अमृत राय की सारी छींटा-कशी अपनी सौतेली माँ पर है. अब वह दोषी थीं, सद्चरित्र थीं या नहीं जैसे प्रसंग को उठाने का लाभ भी क्या था. अमृत राय ने स्वयं इसे दुःख का प्रसंग माना है. जब ऐसा ही था तो इसे कलम का सिपाही में टांकना इतना ज़रूरी क्यों समझा गया ? कौन सी बात बिगड़ रही थी इस प्रसंग के बगैर ?
प्रेमचन्द की पहली पत्नी ससुराली जीवन से तंग आकर हमेशा के लिए मैके चली गयीं. यहाँ तक तो जो होना था हो गया. अब छब्बीस वर्षीय धनपत राय के लिए अपने से कुल चार-पाँच वर्ष बड़ी विमाता के साथ रहना उपयुक्त नहीं था. समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा था. बिरादरी में दोनों को लेकर तरह-तरह की बातें हो सकती थीं. ख़ुद अमृत राय बताते हैं कि प्रेमचन्द के सगे चाचा कौलेश्वर लाल के गुजरने पर उनकी विधवा स्त्री के साथ "यही हुआ जो सच या झूठ हमारे समाज में प्रायः हर विधवा के साथ होता है. रिश्ते के एक भतीजे को लेकर उनकी बदनामी हुई."
प्रेमचन्द की चाची (विमाता) ने दुनिया देखी थी. कब क्या ऊंच-नीच हो जाय, अच्छी तरह सोंच सकती थीं. फलस्वरूप प्रेमचन्द के लिए दूसरे विवाह की छेड़-छाड़ शुरू कर दी. संभावित पत्नी के हसीन होने की चर्चा सुन कर प्रेमचन्द का मन भी भुर्भुराने लगा.-"वालिदा की तरफ़ से जिद है कि ब्याह रचे और ज़रूर रचे. अब कहता हूँ मैं मुफलिस हूँ , कंगाल हूँ, खाने को मयस्सर नहीं, तो वालिदा साहिबा कहती हैं तुम अपनी रजामंदी ज़ाहिर करो, तुमसे एक कौडी न मांगी जायेगी. सुनता हूँ बीवी हसीन है, बा शऊर है, जेब से खर्च बगैर मिली जाती है, फिर तबियत क्यों न भुर्भुराए और गुदगुदी क्यों न पैदा हो ? " प्रेमचन्द की इस गुदगुदी को महसूस करने के बाद भी अगर अमृत राय कहें कि धनपत राय को "जो दस-पांच हज़ार में एक खूबसूरत नौजवान था, किसी सुन्दरी की तलाश न थी" (कलम का सिपाही, पृ0 74) तो कोई कर भी क्या सकता है ?
कहते हैं कि दूध की जली बिल्ली छांछ भी फूंक कर पीती है. विमाता और उनके पिता के माध्यम से पहला विवाह कर के प्रेमचन्द देख चुके थे. अब तबियत लाख भुर्भुराए और हसीन बीवी की कल्पना से कितनी ही गुदगुदी क्यों न हो, कोई भी क़दम बगैर सोंचे-समझे नहीं उठाना है. इसलिए "इस बारे में अभी फिर मशविरा करने की ज़रूरत है. "
घर वालों को कोई सूचना दिए बिना 1906 ई० के फाल्गुन में प्रेमचंद ने शिवरानी देवी से विवाह कर लिया. चाची इस विवाह से बहुत खुश नहीं हुईं. प्रारम्भ के सात-आठ वर्षों तक घर में तनाव की स्थिति बनी रही. चक-चक होती तो प्रेमचंद चाची का पक्ष लेते और शिवरानी पर हाथ भी उठा देते (शिवरानी देवी/प्रेमचंद : घर में / 12-13). हो सकता है कि इसके पीछे प्रेमचंद की लायाक्मंदी ही रही हो. चाची विगत दस वर्षों से अपने दायित्व का निर्वाह कर रही थीं, प्रेमचंद को इस रिश्ते का ख़याल तो रखना ही था.
सम्भव है घरेलू चक-चक का एक कारण शिवरानी देवी की आभूषणों की फरमाइश रही हो. 1012 ई० में प्रेमचंद ने निगम को सूचित किया- "बीवी जान की बरसों की जिद पर एक कड़ा बनवाया जिसका सदमा अब तक न भूला.” स्पष्ट है कि किसी खर्च बगैर हसीन और बाशऊर पत्नी पाने कि इच्छा रखने वाले की दृष्टि में सोने के कड़े पर रूपये खर्च करना किसी सदमे से कम किस प्रकार होता ?
विवाह को कई वर्ष हो गए और न कोई बाल न बच्चा. राम सरन को जब संतान का सुख मिला, तो औपचारिक रूप से खुशी की अभिव्यक्ति ज़रूर कर दी, किंतु अपनी बेचैनी को दबा न सके. 22 मार्च 1913 ई० को निगम को एक चिट्ठी में लिखा- "मिस्टर सरन के घर में बच्चा पैदा हुआ है. खुशी की बात है. ईश्वर उसे जिंदा रखे. मेरी न पूछिये. अहबाब फूलें फलें. मेरी खुशी के लिए इतना काफी है. उन्हीं के बच्चों को प्यार कर के अपनी हवस मिटा लूंगा.
कितनी हसरत और कितनी निराशा है उपर्युक्त पंक्तियों में. जैसे चिट्ठी के अक्षर-अक्षर मर्म, में दबी पीड़ा को आहिस्ता-आहिस्ता उकेर रहे हों. दोस्तों के बच्चों को प्यार करके प्रेमचंद ने अपनी हवस मिटाई भी या नहीं, कौन जाने. पर जल्वए-ईसार (1912 ई०) के मुंशी शालिग्राम ने मुंशी प्रेमचन्द की यह ख्वाहिश पूरी अवश्य कर दी. "मुंशी जी को स्वभावतः बच्चों से बहुत प्रेम था. मुहल्ले भर के बच्चे उनके प्रेमवारि से अभिसिंचित होते रहते थे."
यह बात उस समय की है जब शिवरानी देवी के पाँव भारी थे. किंतु लक्षण बता रहे थे की पुत्री का जन्म होने वाला है. जभी तो डेढ़ महीने बाद 4 मई 1913 के पत्र में निगम को फिर सूचित करते हैं-" बेगम साहिबा यहीं तशरीफ़ रखती हैं और गालिबन दुख्तरे नेक अख्तर (शुभ नक्षत्रों वाली पुत्री) की आमद है."
प्रेमचंद ने अपनी इस सुपुत्री का नाम कमला रखा. इन दिनों मिर्जापुर में महताब राय के विवाह की बात चल रही थी जिसकी सूचना 4 मई 1913 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को इन शब्दों में दी- "आज छोटक (महताब राय) के कद्रदान मिर्जापुर से आने वाले हैं."किंतु इन क़द्रदानो के साथ मामला पक्का न हो सका. एक महीने बाद 3 जून 1913 ई० को प्रेमचन्द ने लिखा- "छोटक की शादी डिस्मिस हो गयी . बहुत अच्छा हुआ." अभी दो-तीन साल तक यह काम कब्ल अज वक्त था." प्रेमचन्द का स्वास्थ्य इधर काफी ख़राब चल रहा था. इसी चिट्ठी में वे निगम को सूचित करते हैं कि वे छुट्टी की दरखास्त दे चुके हैं, और सम्भव है 15 जून 1913 ई० से उन्हें छुट्टी मिल जाए.
प्रेचंद का स्वास्थ्य किस सीमा तक गिर चुका था इसका अनुमान इन शब्दों से किया जा सकता है "आप मुझे देखें तो गालिबन पहचान न सकेंगे. हाज्में में फितूर आ गया है. जोफ (कमजोरी) दिन-दिन बढता जा रहा है."और फिर चार दिन बाद लिखते हैं- "मैं अपनी हालत ख़राब होने के बाइस बिल्कुल अपाहिज हो गया हूँ.---- मेदा ज़रा सही हो जाए तो फिर कुछ काम करूं. कानपूर मेरे प्रोग्राम में शामिल है और गालिबन बनारस जाने से क़ब्ल अगर आप मेरी रिहाइश (आवास) का कोई इन्तेजाम कर सकें, तो मैं कानपुर ही में अपना मुआलिजा कराऊँ. क्यों बनारस जाऊं. क्योंकि अब शादी तो होनी नहीं है, खाह-मखाह की दर्दसरी. "
प्रेमचन्द को अवकाश भी मिला और वे कानपूर भी गए. मगर वहां रहकर इलाज कराने की बात हवा में उड़ गयी. तीन महीने का अवकाश इधर-उधर की बातों में निकल गया. 14 सितम्बर की शाम तक हमीरपुर पहुँचना ज़रूरी था. इसलिए निगम के खिन्न होने की चिंता किए बिना वे हमीरपुर पहुँच गए. "हमीरपुर मैं ऐसे वक़्त पहुँचा जब मेरी रुखसत ख़त्म होने में सिर्फ़ चौबीस घंटे की देर थी. 14 सितम्बर की शाम को ख़त्म होने वाली थी. मैं 13 को चला."
प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे कि "सेहत बड़ी चीज़ है जिसने इसकी क़द्र न की उसके लिए बजुज़ रोने और सर धुनने के और कोई इलाज नहीं है". किन्तु सब कुछ जानते हुए भी जून 1914 ई० तक का समय इसी स्थिति में हमीरपुर में कट गया. जुलाई के प्रथम सप्ताह में बस्ती के लिए प्रस्थान किया. परिवार साथ न जा सका. नई-नई जगह थी इसलिए अपने अकेले जाने की सूचना निगम को देना न भूले- "मैं इस वक़्त यहाँ से तनहा जाता हूँ. "
बस्ती में नए सिरे से इन्तेजाम करना था. न किसी से जान न पहचान, और बकौल ख़ुद तंग्दस्ती अलग -"नए नए इन्तेजाम की वजह से मैं यहाँ तंग्दस्त हो गया. चार्पाईयाँ बनवानी पडीं, अभी जानवर नहीं लिया, लेकिन उसके लिए दिन-रात फिक्र है. ख़ुद सेनाटोजन का इस्तेमाल कर रहा हूँ, जो शायद यह शीशी ख़त्म हो जाने पर मुश्किल से मिल सकेगी.” पर शीघ्र ही प्रेमचंद सेनाटोज़न की चिंता से मुक्त हो गए. 10 नवम्बर 1914 के पत्र में निगम को सूचित करते हैं-"सारी दुनिया को सेनाटोज़न फायदा करती है, मुझे इस से भी कुछ न हुआ. आपने चार-पाँच मील हवा खाने की सलाह दी है, उसकी तामील कर रहा हूँ. "
स्वास्थ्य के टिचन हो जाने का प्रेमचंद ने भर्सख प्रयत्न किया. जनवरी 1915 ई० में छे महीने की छुट्टी लेकर कानपूर, लखनऊ, इलाहबाद, बनारस- सभी जगह इलाज कराया. कोई विशेष लाभ न हुआ. 19 मार्च 1915 ई० को अंत में थक-हार कर पांडेपुर चले गए. वहाँ से एक दिन बाद निगम को चिट्ठी लिखी - "मैं कल यहाँ पहुँच गया और हस्बे-दस्तूर जैसा था वैसे हूँ. " फिर लगभग दो सप्ताह बाद लिखते हैं -"मुझे यहाँ आए करीबन दो हफ्ते हुए. मेरी तबिअत बदस्तूर है. सैर और इह्तियात पर ही दारोमदार रखा है."
पांडेपुर से कुछ ठीक-ठाक होकर प्रेमचंद फिर बस्ती आ गए. यहाँ से कुछ ही दिनों बाद उन्होंने निगम को 10 अगस्त 1915 ई० के पत्र में अपनी आर्थिक स्थिति की सविस्तार जानकारी दी- "मेरे पास इस छे माह की रुखसत के बाद इस वक़्त कुल आठ सौ रूपये हैं. तीन सौ रूपये मैं ने तीन असामियों को अठारह फीसद सूद पर क़र्ज़ दे दिए हैं. " प्रेमचंद महाजन नहीं थे, किन्तु सूदखोर तो बहरहाल कहलायेंगे. 18 फीसद सूद पर क़र्ज़ देना किसी ज़रूरतमंद की मजबूरी का लाभ उठाना नहीं है तो फिर क्या है ?
परिस्थितियों के दबाव में आकर टूट जाना, मनुष्य का एक सामान्य स्वभाव है. लेकिन प्रेमचंद के साथ ऐसा नहीं हुआ. उनमें सघर्ष की क्षमता थी, जुझारूपन था और ज़िंदगी में आगे बढ़ने का ज़बरदस्त हौसला था. स्वास्थ्य की चिंता छोड़ कर उन्होंने पढने और परीक्षा पास करने का निर्णय लिया. २ अक्तूबर 1915 ई० को उन्होंने निगम को सूचित किया -"इस साल तो किताबें मंगवा ली हैं. छोटक साथ हैं. उन्हें छोड़ भी नहीं सकता. यही फ़ैसला होता है कि एक बार फिर तालिबिल्मी के उम्मीदोबीम (आशा-निराशा )का मज़ा ले लूँ." और फिर 16 दिसम्बर 1915 ई० को परीक्षा की बाबत लिखते हैं -" मैं एफ़० ए० का इम्तेहान देने मार्च में कहीं-न-कहीं जाऊंगा. इस साल तैयार हूँ. बनारस, इलाहबाद, कानपूर और लखनऊ, चारों में बनारस तकलीफदेह है. कानपूर में खाने-पीने की तकलीफ, लखनऊ में जाए-कयाम कालेज से दूर, इलाहाबाद सुभीता है. वरना कानपूर में चैन से रहता. बहरहाल गर्मी की तातील में ज़्यादा नहीं तो पन्द्रह दिन तक सोहबत रहेगी."
मई का महीना भी आ गया किन्तु निगम की सोहबत का मौक़ा न मिला. 13 मई 1916 के पत्र में निगम को सूचित करते हैं - "आज बनारस जाता हूँ. मेरे एक साले साहब की शादी 8 जून को है. इसलिए मैं ने यह बेहतर समझा की जून ही में बनारस से चलूं और आपसे मुलाक़ात करता हुआ शादी में शरीक होने के बाद 15 तक बनारस वापस चला जाऊं. "किन्तु मई में बनारस न जा सके. हाँ बस्ती के जीवन से तंग आकर तबादले की दरखास्त अवश्य दे दी. कानपूर आने की बड़ी इच्छा थी. ख़याल था कि वहीं आकर शायद कुछ शान्ति मिले. 22 मई 1916 ई० को निगम को लिखा -"काश मैं किसी तरह तब्दील होकर कानपूर आ सकता. तबादले की दरखास्त तो दे दी है, मगर मालूम नहीं कहाँ फेंका जाऊं."
निगम चाहते थे कि प्रेमचंद कानपूर आजायं. किन्तु घरेलू जीवन की जिम्मेदारियां इतनी छूट कब देती थीं. उत्तर में निगम को लिखा - "मेरे आने की बात यूं है. मैं तो आज ही रवाना हो जाता, मगर 27 मई को फैजाबाद से एक लाला साहब छोटक की शादी के मुतअल्लिक कुछ तज़किरा करने के लिए आयेंगे. फिर मुझे धर्मपत्नी जी के साथ सुसराल जाना है. गालिबन 4 या 5 जून को जाऊँगा. अगर यह झमेले न होते तो बराहेरास्त कानपूर आता. टट्टी और पंखे तो खैरियत से होंगे. "
प्रेमचंद का तबादला हो गया. किन्तु कानपूर के बजाय गोरखपूर भेजे गए. अगस्त की 18 तारीख को वे गोरखपूर पहुंचे और अभी सामान भी ठीक नहीं कर पाये थे कि रात में श्रीपत राय का जन्म हुआ. गोया एक पुरानी इच्छा थी जो आज पूरी हो गई. अभी आठ महीने पहले वे निगम को बस्ती से 16 दिसम्बर 1915 ई० के पत्र में लिख चुके थे -" चाची बनारस, बाक़ी तीन आदमी यहाँ. बाल-बच्चे न हुए, न उम्मीद न आरजू." लेकिन सच बात यह है कि कुछ-कुछ उम्मीद बंधने के बाद ही यह बात लिखी गई थी. रह गई बात आरजू की. वह तो शायद बहुत गहराई से मन में बैठी थी.
गोरखपूर प्रेमचंद के लिए नया नहीं था. किन्तु बचपन के गोरखपूर और वर्तमान गोरखपूर में काफ़ी अन्तर था. तब प्रेमचंद केवल धनपत थे और वह धनपत आश्रित रह कर भी बहुत स्वतंत्र था. पूरी तरह स्वच्छंद और उन्मुक्त. बीडी सिगरेट पी सकता था, गन्दी औरतों के बीच घुस कर उनकी रोचक बातें सुन सकता था, चाची के हँसी-मजाक में साझीदार हो सकता था, कटी हुई पतंगों के पीछे दौड़ सकता था, हुक्के गुडगुडा कर तिलिस्म-होश्रुबा की मीठी-मीठी चुस्कियाँ ले सकता था और सबसे बढ़ कर मामा जी और चमारिन की प्रेमलीला का आनंद ले सकता था. किन्तु उस धनपत और इस प्रेमचंद के बीच बहुत बड़ा फासला था. आज वह दायित्व के बोझ से दबा हुआ था और स्वतंत्र रहकर भी स्वतंत्र नहीं था.
गोरखपुर के प्रारंभिक चार महीने किस प्रकार कटे, इसकी कोई सूचना नहीं मिलती. निगम को इस बीच चिट्ठियां अवश्य लिखी होंगी. पर इस ज़माने की कोई भी चिट्ठी उपलब्ध नहीं है. गोरखपूर से पहली उपलब्ध चिट्ठी 11दिसम्बर 1916 को लिखी गई, जबकि बस्ती की अन्तिम चिट्ठी 13 मई 1916 की है. 11 दिसम्बर की चिट्ठी में लिखते है - "लखनऊ जाने का इरादा तो करता हूँ, देखूं गैब से मदद मिलती है या नहीं. इसी के लिए कई रिसालों में लिखा. एक साहब ने तो ख़बर ली. दूसरे साहब आइन्दा लेंगे." स्पष्ट है कि इस बीच ज़माना में छपी तीन कहानियो ( घमंड का पुतला-अगस्त 1916, जुगनू की चमक - अक्तूबर 1916, धोखा - नवम्बर 1916 ) के अतिरिक्त निश्चय ही कुछ और कहानियाँ भी लिखी गई होंगी जिनकी सूचना इस पत्र में दी गई है. हो सकता है जालिब देहलवी के बहुत आग्रह पर हमदम लखनऊ के लिए कोई कहानी लिखी हो. इसी पत्र में यह भी सूचना देते हैं-"किस्सा तैयार है. कल या परसों तक ज़रूर बिल्ज़रूर भेज दूंगा." और यह किस्सा था दो भाई जो ज़माना के जनवरी 1916 के अंक में छपा. इसमें श्री कृष्ण जी पर चोट की गई थी. पात्रों के नाम तक नहीं बदले गए थे. वासुदेव, कृष्ण, बलराम राधा, श्यामा इत्यादि. विरोध में निगम के पास कई पत्र आए. प्रेमचंद की प्रतिक्रिया निगम के लिए अनिवार्य थी. तत्काल प्रेमचंद ने उसका उत्तर दिया और अपनी सफाई पेश की जो ज़माना के फरवरी अंक में छपी. (अमृत राय और मदन गोपाल के संग्रहों में यह चिट्ठी नहीं है.)
गोरखपूर में, अमृत राय की सूचना के मुताबिक श्रीपत राय के जन्म के बाद से ही शिवरानी देवी बहुत बीमार हो गई थीं. इस स्थिति में बच्चों को सुलाना-जगाना, नहलाना-धुलाना, खिलाना-पिलाना, गरज यह कि सारी जिम्मेदारियां प्रेमचंद ने संभाल ली थीं. (कलम का सिपाही, पृ0 150 ). यह ठीक है कि प्रेमचंद की विमाता से शिवरानी देवी की ठनी रहती थी. किन्तु बच्चों से उनका बे ताल्लुक हो जाना समझ में नहीं आता. फिर भी अमृत राय ग़लत क्यों लिखेंगे.
24 जनवरी 1917 को प्रेमचंद ने निगम को अपने ससुर के बीमार होने की सूचना दी और लिखा कि फरवरी में उन्हें देखने इलाहबाद जायेंगे. फिर २० फरवरी को सूचित किया कि 19 को इलाहबाद पहुँच गए. वहाँ उन्हें 15 मार्च तक रुकना पड़ा. 16 को गोरखपूर पहुंचे किंतु तीन महीने बाद जून 1917 के प्रथम सप्ताह में उन्हें फिर इलाहाबाद जाना पड़ा. 8 जून के पत्र में निगम को लिखा -"मैं यहाँ बुरा आ फंसा". 30 जून को पिंड छुडा कर किसी तरह गोरखपूर पहुंचे. परीशानियाँ वहां भी साथ लगी रहीं. 5 जुलाई को धन्नू को ब्रांकाईटिस हो गया. डाक्टर की दवा करनी पड़ी तब जा कर कहीं अच्छा हुआ.
अगस्त में हर तरफ़ फसली बुखार का ज़ोर था. प्रेमचंद का परिवार भी इसकी चपेट में आ गया. 22 अगस्त 1917 की चिट्ठी में उन्होंने निगम को लिखा -"यहाँ आजकल फसली बुखार की शिकायत है. घर के दो आदमी बीमार हैं." अगस्त में सीतापूर जाने का प्रोग्राम रद करना पड़ा. महताब राय मार्च 1917 में टाइप सीख कर लौटे थे और उनके लिए निगम से प्रेमचंद ने ज़ोरदार सुफारिश भी की थी. किंतु जब वहां काम नहीं बना तो बस्ती में 30 रूपए मासिक की टाइपिस्ट की नोकरी दिलवा दी जहाँ उन्होंने जुलाई 1918 तक काम किया. मई के अन्तिम सप्ताह में प्रेमचंद ने उनकी शादी करा दी.
यह ज़माना प्रेमचंद के लिए बड़ी ही परेशानियों का था. स्वयं उन्हीं से सुनिए -"क्या करूँ ऐसी परीशानियों में था कि कानपूर आने का मौक़ा ही न मिला. 11 मई को यहाँ से चला, सत्ताईस को बारात के साथ गया, ३० को वापस आया, फिर मकान की मरम्मत में फंसा.----जब से आया हूँ आँखें उठी हुई हैं." बी. ए. पास करने की धुन अलग थी. किस्सों-कहानियो में डिग्रियों की हमेशा खिल्ली उड़ाते रहे, किंतु व्यावहारिक जीवन में अच्छी तरह जानते थे कि बी.ए. किए बगैर कुछ काम नहीं बनता -"मुझे ज़िंदगी के तजुर्बे से मालूम होता है कि किसी लिटरेरी लाइन में बगैर ग्रेजुएट हुए कोई उम्मीद नहीं. ----आज बेरोजगार हो जाऊं तो कोई ऐसा रिसाला या अखबार नहीं है जो क़लील मुआवजे (थोड़े पारिश्रमिक ) पर भी मेरा निबाह कर सके. ---तीन साल की मामूली मेहनत में ग्रेजुएट हो सकता हूँ. बुढापे में आराम मिलने का सहारा हो जाएगा. " (चि० ,प० 1/42)
जुलाई, अगस्त, सितम्बर, तीन महीने गुज़र गए, बारिश बिल्कुल नहीं हुई. कहत पड़ गया. बीमारियों ने धावा बोला. 27 अक्तूबर 1918 ई० को निगम को लिखा- "अखबारों में तो कानपूर की कैफियत देख-देख कर जी काँप उठता है. परमात्मा आप लोगों की रक्षा करे. मैं भी यहाँ बहुत परीशन रहा. मेरे सिवा सारा घर पड़ा हुआ था. खाना तक अपने हाथों से बनाना पड़ता था. अभी तक कुछ-कुछ कसर बाकी है. सबको खांसी आ रही है. "
बी.ए. की परीक्षा की तैय्यारियां जोरों पर थीं. सफलता का पक्का विश्वास था. अप्रैल 1919 ई० में परीक्षा देनी थी. तीन-चार महीने पहले से कहानी-लेख आदि लिखना बंद कर दिया. 7 फरवरी 1919 को निगम को लिखा -" मैं अप्रैल में इलाहबाद से लौटते हुए कानपूर आने की कोशिश करूँगा और गर्मियों में तो बइत्मीनान मुलाकत होगी."फिर 19 मार्च को अपने इलाहबाद जाने की सूचना दी- "मैं 1 को इलाहबाद जा रहा हूँ. मेरा पता यह होगा- बाबू कृपा शंकर वकील, कटरा, इलाहबाद".
किंतु इलाहबाद से कानपूर जाने का अवकाश न मिल सका-" मुझे यहाँ से 16 की शाम को फुरसत मिलेगी और 17 को मुझे गोरखपूर पहोंचना लाज़मी है." इलाहबाद जाते समय परिवार को भी साथ ले गये और वहीं बच्चों को उनके ननिहाल में छोड़ दिया. 18 अप्रैल को गोरखपूर पहुंचे तो घर में अकेले थे. 19 को निगम को पत्र में लिखा-" कल गोरखपूर पहोंच गया...मेरे लड़के-बाले तो आजकल नाना साहब के यहाँ हैं. " दो-एक दिन गोरखपूर में रह कर वे स्वयं भी बच्चों के नाना के यहाँ चले गये और वहां एक दिन से अधिक नहीं रुके और 24 अप्रैल को उन्होंने अपने लौट आने की सूचना दी. किन्तु परिवार अभी भी इलाहबाद ही में था.
पहली मई से स्कूल दो महीने के लिए बंद हो गया. 3 मई को प्रेमचंद लाला तेज नरायन लाल की शादी में रामपूर (आजमगढ़ ) चले गये. वहां से 15 मई को निगम को सूचित किया - "18 को यहाँ से चलने का क़स्द है. इस दरमियान में मुझ पर कई सानहे गुज़रे. मेरी हमशीरा ( बहन ) साहिबा का 4 मई को इंतकाल हो गया. मेरे एक नौजवान साले का 5 मई को. इसलिए मिर्जापूर में दो-चार दिन रहकर इलाहबाद होता हुआ आख़िर मई तक कानपूर पहोंचूँगा. "
30 जून 1919 ई० को पूरे दो माह की छुट्टी इधर-उधर में समाप्त करके प्रेमचंद गोरखपुर पहुंचे. उसी दिन कहकशां के सम्पादक इम्तियाज़ अली ताज को चिठ्ठी लिखी - "आज दो माह के बाद यहाँ आया हूँ. ---दो महीने तो इधर-उधर आवारा फिरता रहा. दो महीने इम्तिहान की नज्र हुए . मगर म्हणत ठिकाने लगी." अन्तिम वाक्य बी. ए. की सफलता को रेखांकित करता है.
जुलाई के तीसरे सप्ताह में पत्नी और बच्चे भी इलाहाबाद से आ गये. परिवार में एक की गिनती और जुड़ने वाली थी. 5 नवंबर को प्रेमचंद ने निगम को लिखा-" नौ आमद के इंतज़ार में तीन औरतें यहाँ मुकीम हैं और वह हजरत हैं कि आने का नाम ही नहीं लेते." जैसे पहले से पता हो कि इस बार भी बेटा ही होगा. हुआ भी ऐसा ही; और प्रेमचंद ने उसका नाम मुन्नू रखा. किन्तु यह मुन्नू अधिक दिनों तक साथ रहने के लिए नहीं आया था. अभी एक वर्ष भी पूरा नहीं हो पाया था कि 5 जुलाई 1920 ई० को प्रेमचंद ने इसके निधन कि दुखद सूचना दी- "आज रात को मुझपर एक सानिहा गुज़रा. गरीब मुन्नू मेरा छोटा बच्चा इलाहाबाद से आकर चेचक में मुब्तिला हो गया था. उसने नौ दिनों तक गरीब घुला-घुला कर आख़िर जान ही लेकर छोड़ा. और फिर २३ दिन बाद ताज को लिखा-"अभी तक इस गम से निजात नहीं हुई. सब तो हो गया मगर याद बाक़ी है और शायद ताज़ीस्त रहेगी." संतोष यह सोंचकर किया जा सकता है कि मुन्नू का निधन, प्रेमचंद के रामपुर, हरद्वार, कनखल, ऋषिकेश, देहरादून, दिल्ली और आगरा घूम-घामकर लौटने के बाद हुआ. अन्यथा यदि उनकी अनुपस्थिति में यही घटना घटती, तो उनका दुःख इससे भी कहीं अधिक गहरा होता.
विचारणीय यह है कि इन दिनों प्रेमचंद का स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं था. दहरादून से 6 जून 1920 ई० को प्रेमचंद ने ताज को लिखा था- 'मेरी तबीअत दौराने-सफर में ज्यादा मुज्महिल हो गई है. आया था के हरिद्वार कि आबो-हवा से कुछ फायदा होगा. लेकिन नतीजा उसका उल्टा हुआ. पेचिश ने जिस से मेरी पुरानी दोस्ती है, बहोत दिक कर रखा है.'
स्वास्थ्य की खराबी और बच्चे की मृत्यु ने प्रेमचंद को पूरी तरह तोड़ दिया. 12 अगस्त 1920 ई० को निगम को सूचना दी- ‘अभी तक मेरी सेहत इस काबिल नहीं हुई के कुछ लिटरेरी काम कर सकूँ. ...क्या ईश्वर के साथ अहबाब भी मुझ से रूठ जायेंगे ?' यद्यपि घर में इन दिनों काफ़ी चहल-पहल थी. मामा जी और महताब राय का परिवार वहीं आ गया था. किंतु-' सेहत और 'सोजे-पिन्हाँ' (बेटे की मृत्यु से हुई आतंरिक पीड़ा) ने ऐसा मजबूर कर रखा है के कुछ काम करने में मन नहीं लगता. सेहत कुछ करने ही नहीं देती.' और यह 'सेहत' पूरे वर्ष छेड़-छड़ करती रही. इसी हालत में एम्.ए. करने का स्वप्न भी देखा जाने लगा. किंतु परिस्थितियाँ कभी ऐसी नहीं बन पायीं कि यह स्वप्न साकार हो सके. बस एक पछतावा साथ लगा रहा. 26 अगस्त 1920 ई० को ताज को लिखा- 'काश मैं ने अवायले उम्र में एम्.ए. कर लिया होता तो यह कस्म्पुर्सी की हालत न होती.'
इसी ज़माने में ताज ने प्रेमचंद की सूरत-शक्ल जानने कि इच्छा व्यक्त की. कुछ धुंधली लकीरें अपनी कल्पना से बनायी थीं और एक पेंटर से तैल-चित्र तैयार कराया था. प्रेमचंद चित्र देख कर मुग्ध हो गए. उन्होंने ताज को लिखा- 'शकलो-शबाहत के मुतअल्लिक आपने जो कयास किया है उस से रूहानी तअल्लुक का गुमान और भी पुख्ता हो जाता है. मैं बंद कालर का कोट और सीधा पाजामा पहनता हूँ. और पगड़ी बाँधता हूँ.' और फिर एक दूसरी चिट्ठी में- 'जी हाँ नवाब राय मैं ही था. ...बाबू दया नरायन के मशविरे से यह नाम (प्रेमचंद) तजवीज़ कर लिया'.
14 फरवरी 1921 ई० को प्रेमचंद ने नोकरी से इस्तीफा दे दिया. 15 को इस्तीफा मंज़ूर होने कि सूचना निगम को इन शब्दों में दी- 'मैं कल सरकारी मुलाज्मत से सुबुक्दोश हो गया. आज इस्तीफा भी मंज़ूर हो गया. यहाँ से एक हफ्तेवार उर्दू अखबार निकालने का क़स्द है. प्रेस कि भी तलाश है. ...क्या कानपूर में कोई लीथो मशीन मिल सकेगी ?' फिर कुछ दिनों बाद 23 फरवरी को निगम के साथ मिलकर प्रेस चलाने कि इच्छा व्यक्त की - 'अब मैं आजाद हो गया. अब बतलाइए क्या करूं ? ...कपड़े बुनने के लिए तैयार नहीं. काश्तकारी मेरे किए हो नहीं सकती. क्या आपका इरादा अब भी प्रेस की तरफ़ है ? मैं चार-पाँच हज़ार का सरमाया और अपना सारा वक़्त आपकी नज़र करने को तैयार हूँ बशर्ते के आप भी मेरे मुआविन और शरीक हों. बावजूद नॉन-काप्रेशन करने के अभी तक मैं दौलत की तरफ़ से मुस्तगनी (तृप्त/संतुष्ट) नहीं हूँ. और मैं जाती तौर पर हो भी जाऊं, लेकिन मेरी बीवी को यकीन हो जाय के अब इसी तरह उसकी ज़िंदगी बसर होगी तो वो मुझे हरगिज़ मुआफ न करेगी.'
यह चिट्ठी महावीर प्रसाद पोद्दार के गाँव से लिखी गई थी. प्रेमचंद वहाँ आठ कर्घों की सहायता से कपड़े का कारखाना चला रहे थे. एक मैनेजर भी पच्चीस रूपये माहवार पर रख लिया था. ज़ाहिर है कि इस कार्य में विशेष अर्थ-लाभ की संभावना नहीं थी. कुछ भी हो शिवरानी देवी जैसी देश-भक्त और समाज-सेवी महिला के लिए प्रेमचंद ने जिस शब्दावली का प्रयोग किया है उसकी सार्थकता पर्याप्त संदिग्ध है.
मार्च के पहले सप्ताह में प्रेमचंद पर बुखार का हमला हुआ. 19 मार्च को वे गोरखपूर से बनारस चले गए. वहाँ से उन्होंने होली के बाद कानपूर जाने की योजना बनायी- 'मैं यहाँ 19 तारीख को आ गया और घर पर मुकीम हूँ. होली के दो-एक दिन बाद कानपूर आने का क़स्द करता हूँ.' किंतु कानपूर जाना न हुआ. ५ अप्रैल को नगम को पत्र लिखा- 'मैं नादिम हूँ कि अबतक कानपूर नहीं आ सका. दो-एक दिन में ज़रूर आ जाऊंगा.' और फिर 14 मई की चिट्ठी में यही बात दुहरा दी-'मेरा आना आप मुक़द्दम (निश्चित ) समझें.' 27 मई के पत्र में यह दिलासा भी टूट गया- 'अभी कानपूर न आ सकूँगा. ' किंतु बाईस-तेईस दिनों बाद 19जून 1921 ई० के पत्र में लिखते हैं - 'कल सब तैय्यारियां कर चुका था. इक्का तक मंगा लिया था, लेकिन शाम को छोटक नाना साहब का ख़त लाए कि मैं सोमवार को तुमसे मिलने आ रहा हूँ. इसलिए तौंअन-व-कर्हन (विवशतावश) रुकना पड़ा. ..पहले इरादा था कि अयाल को इलाहबाद छोड़ दूँ और कानपूर में मकान तय करके लिवा लाऊं. अब आप फरमाते हैं कि मकान भी रोक लिया है. यह मुश्किल भी आसान हो गई. अब मय अयाल के कानपूर आऊंगा....हाँ अगर आते ही आते मकान न मिला तो फिर मुझे आपके घर को खानए-बेतकल्लुफ बनाना पड़ेगा. दो-एक दिन मस्तूरात (भद्र महिलाओं) को भी एक दह्कानी (देहाती) औरत की मेहमान-नवाजी करनी पड़ेगी.' अंततः 23 जून 1921 ई० को वे कानपूर पहुँच गए जहाँ अक्तूबर में बन्नू का जन्म हुआ.
सोलह वर्ष पहले के और आजके कानपूर में बड़ा अन्तर था. अन्तर इसलिए भी था कि उस समय धनपत राय एक साधारण से मुदर्रिस थे, नए-नए लेखक थे, प्रतिष्ठा और सम्मान मित्र-मंडली तक सीमित था, भीतर दबा हुआ लेखक केवल उर्दू की चौहद्दियों में गुम था. युवावस्था की चुहल, हँसी-मजाक, शीशों के टकराने का खुमार भरा संगीत, चह्चहे, क़हक़हे , क्या नहीं था उस पुराने कानपुर में. किंतु उस समय का धनपत अब एक जाना-माना लेखक था, मारवाडी विद्यालय का हेडमास्टर था, अवस्था भी चालीस के ऊपर हो चुकी थी और फिर नाथ और पगहा भी साथ था.
1921 के समाप्त होते-होते जहाँ प्रेमचंद साहित्य के सोपानों की ऊँचाइयाँ तय करने में व्यस्त थे , वहीं एक दिन अपने ही मकान के जीने से फिसलकर नीचे आ गए. 28 दिसम्बर को निगम को इस घटना की सूचना इन शब्दों में दी-"जिस दिन आपके यहाँ से आया, उसी दिन रात को जीने से नीचे गिर पड़ा. दोनों अंगूठों में सख्त चोट आई और एक घुटनी भी फूट गयी. कमर में भी चोट लगी. इस वजह से घर में मुकैयद हूँ."और फिर उसी हेड मास्टरी से, जिसके लिए प्रेमचंद ने 24 अप्रैल 1919 ई० के पत्र में निगम को लिखा था-" मैं अगर इम्तिहान में पास हो गया तो किसी एडेड स्कूल में 125 रुपये का हेडमास्टर हो जाऊंगा." 22 फरवरी 1922 ई० को इस्तीफा दे दिया और बनारस चले गए. हाँ निगम को सूचित करना नहीं भूले-" मैंने आज इस्तीफा दे दिया. बहोत तंग आ गया था." गोया किसी करवट भी चैन मयस्सर नहीं.
बनारस आने के तीन महीने बाद लमही के आबाई मकान को नए सिरे से बनवाने का चक्कर शुरू हो गया. 31 मई 1922 ई० की चिट्ठी में निगम को सूचित किया- "मेरा मकान बन रहा है." फिर 19 जून को लिखा- "घर की तामीर में ऐसा मसरूफ हूँ कि कोई किस्सा लिखने का मौक़ा न पा सका." आठ दिन बाद 28 जून को लिखते हैं-" अभी तक तकरीबन दो हज़ार सर्फ़ हो चुके हैं." इसी चिट्ठी में यह भी लिखा-"नाना, वाना से मुतलक उम्मीद नहीं. बड़े शातिर निकले." फिर 7 जुलाई को सूचना दी-"मकान तैयार हो जाता है तो घर ही रहूँगा और लौट जाया करूंगा. अब परदेश का क़स्द नहीं."
सितम्बर 1922 ई० में लखनऊ जाने की बात आई तो निगम को 9 सितम्बर की चिट्ठी में लिखा-"कोशिश करूंगा कि 12 को लखनऊ जाऊं. . यकीनन आऊँगा. लेकिन ठहरने का ठिकाना कहाँ होगा? सब पहले से तय कर दीजियेगा. " फिर पहली अक्टूबर को एक नया पचड़ा शुरू हो गया- "नाना साहब तशरीफ़ लाये हैं. उनके खानदान में खानगी जंग शुरू हो गयी. भाई-बंदों से उनकी तनहा खोरी न बर्दाश्त हो सकी. अब बटवारे का मसला दरपेश है. मेरे मकान में हुल्लड़ हो रहा है."
मकान अभी पूरी तरह नहीं बन पाया था. यद्यपि 17 फरवरी 1923 ई० को प्रेमचंद ने लिखा था-"मेरा मकान तैयार हो गया. होली से उसे आबाद भी कर दिया जायेगा." किंतु छे महीने बाद 18 जुलाई के पत्र से इसकी पुष्टि नहीं होती. लिखते हैं-"मेरा मकान भी तो अभी पूरा नहीं हुआ. सिर्फ़ गुज़र करने के काबिल हो गया है. अभी एक हज़ार और लगें तो मुकम्मल हो. लगभग दस महीने बाद दस मई 1924 ई० को मकान से सम्बद्ध सूचना देते हुए पहली बार संतोष की झलक दिखाई देती है. " मकान अब एक करीने का बन गया. अब इसकी हैसियत मकान की हो गयी." पर अभी भी शायद इच्छानुरूप निर्माण कार्य समाप्त नहीं हुआ है. जभी तो 8 जुलाई 1924 ई० को लिखते हैं-" इधर मकान की तक्मील हो रही है. गालिबन अगस्त के आखीर तक मुकम्मल हो जायेगा."
8 मार्च 1924 ई० को बन्नू की बहन का जन्म हुआ था और प्रेमचंद की संतान में अब दो लड़के और दो लड़कियां हो गए थे. किंतु कुल तीन महीने ही बीतने पाये थे कि बच्ची ईश्वर को प्यारी हो गयी. एक बच्चे की मृत्यु के सदमे का गहरा निशान अभी पूरी तरह साफ नहीं हुआ था कि अचानक उसी निशान को गहराती एक चोट और लग गयी. इस चोट में यद्यपि पहली सी तड़प नहीं थी, पर आहिस्ता-आहिस्ता दम तोड़ती ज़िंदगी की तस्वीर रह-रहकर आंखों के सामने घूम जाती थी और अनायास ही बेचैन कर देती थी.
3 जून 1924 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को सूचित किया था- 'मेरी छोटी लड़की जो 8 मार्च को पैदा हुई थी 28 की शाम से दस्त और बुखार में मुब्ताला है. मैं समझता था कि खारजी शिकायत है, रफा हो जायेगी, मगर शिकायत बढ़ती गई. यहाँ तक कि तीन तारीख को उसकी हालत इतनी अब्तर हो गई कि घर में लोगों ने रोना-पीटना भी शुरू कर दिया. मगर सुबह को उसको जरा सा इफाका हुआ. तब से अबतक न वह मुर्दा है न जिंदा. आँखें बंद किए पडी रहती है. होमोयोपैथिक की दवाएं दे रहा हूँ. मगर अभी तक कोई दवा कारगर नहीं हुई.'
बेचैनी की यह स्थिति एक करुण दुखांत में तब्दील होकर 7 जून को समाप्त हो गई. चार दिनों की खामोशी के बाद प्रेमचंद की आँखों से आंसुओं की जो धार निकली वह अक्षरों में ढलकर निगम को लिखी गई चिट्ठी में पेवस्त हो गई- 'यहाँ तो 7 को लड़की रुखसत हो गई, उसकी जाँकनी (प्राण निकलने) की तस्वीर अभी तक आंखों में फिर रही है.'
समय की गति को किसी की अनुमति की अपेक्षा नहीं होती. 1924 ई० का पूरा साल घरेलू परीशानियों और उलझनों में गुज़र गया. बच्ची के निधन के बाद पत्नी की बीमारी, संग्रहणी की शिकायत, धन्नू का बुखार. प्रेस की स्थिति को देख कर भाई साहब अर्थात बलदेव लाल द्वारा अपनी रक़म के लिए किए जाने वाले बार-बार के तकाजे. समस्याएँ तो बहरहाल समस्याएँ हैं, प्रेमचंद इसी प्रकार की उधेड़-बुन में पड़े रहे और अपने ढंग से स्थितियों से लड़ते रहे.
1925 ई० की गर्मियों में सोलन चलने की बात निकली. यद्यपि इससे पहले मुंशी जी कनखल, देहरादून आदि अकेले गए थे, किंतु अब परिवार को घर पर छोड़कर पहाडों की सैर करना कुछ अच्छा नहीं लगा. और कुनबे भर को साथ लेकर घर से निकलना मुश्किल था. फलस्वरूप इस प्रसंग में उन्होंने दूसरी तमाम बातें लिखने के बाद यह टुकडा और जोड़ दिया- "यहीं पड़ा रहूँगा. खस का एक परदा और दो-तीन पैसे का रोजाना बर्फ, मौसम की तकलीफ के लिए काफ़ी है. "
अगस्त 1925 ई0 के प्रथम सप्ताह में बनारस जाने की योजना बनाई. शायद महताब राय से प्रेस के मामले को लेकर आमने-सामने बात-चीत करने की ज़रूरत थी. निगम को 8 जुलाई को लखनऊ से सूचित किया -"अगस्त के आगाज़ में यहाँ से बनारस जाने का इरादा है. " किंतु प्रथम सप्ताह निकल गया और वे बनारस न जा सके. 5 अगस्त को उन्होंने निगम को लिखा- "मैं यहाँ से 4 को बनारस जाने वाला था लेकिन कई वुजूह से इरादा मुल्तवी कर देना पड़ा. पाँच दिन बाद 10 अगस्त को महताब राय को चिट्ठी लिखी - "मैंने यहाँ से चलने की इन्तजारी में धोबी को कपड़े देना बंद कर दिये, आटा बाज़ार से मंगाता हूँ कि ज़्यादा पिस जायेगा तो क्या होगा. कई दिन से चारपाई पर हूँ . पैर में फोड़ा निकल आया है. कल नश्तर दिलाया है. उठ-बैठ नहीं सकता." और फिर दो दिन बाद 12 अगस्त को निगम को लिखा- "5 तारीख से पैर में कचक पड़ गयी. चार दिन सख्त दर्द, जलन और टीस थी. पांचवें दिन डाक्टर से नश्तर लिया. दाहिने पाँव की आधी एडी का चमड़ा काट दिया गया. अब दो दिन से तकलीफ तो बहोत कम है लेकिन उठने-बैठने का काम करने से माजूर हूँ. "फिर 22 अगस्त 1925 ई० को सूचित किया- "अब ज़ख्म पुर हो गया, मगर अभी तक चलने-फिरने से माजूर हूँ." और आठ दिन बाद- "मैं तो अब लंगडा-लंगडा कर चल रहा हूँ."
पहली सितम्बर को प्रेमचंद लखनऊ से बनारस चले गए. महताब राय को प्रेस से हटाकर उसे अपने अधिकार में लेना ज़रूरी था. 10 अगस्त 1925 ई० के पत्र में महताब राय को सूचित भी कर चुके थे- "मैंने कई सूरतें लिखीं, तुमने एक भी पसंद न कीं. आखिरी सूरत मैंने यह लिखी कि ठेके का इंतजाम करो, या तुम ठेका लो या मैं. रूपया सैकडा माहवार सूद, चार रूपया सैकडा सालाना घिसाई. अगर तुम ठेका लोगे तो मैं लखनऊ से अपना सिलसिला न तोडूंगा. तुम न ठेका लोगे तो ख़ुद आकर काम करूंगा." आश्चर्य है कि छात्र जीवन में हिसाब में हमेशा कमज़ोर रहने वाला धनपत घर-बाहर हर जगह हिसाबी चमत्कार दिखाने में इतना पक्का किस प्रकार हो गया. महताब राय इन भूल-भुलैयों में पड़ने पर आमादा न थे. फलस्वरूप प्रेमचंद लखनऊ से बनारस आ गए. और फिर तीन महीने बाद निगम को ३१ मार्च १९२६ ई० के पत्र में लिखा- "प्रेस की हालत ख़राब थी. अब कुछ रू-ब-इस्लाह है . अभी तक शहर में मुकीम होने की सूरत नहीं निकली." पर मार्च के मध्य में महताब राय को जब चिट्ठी लिखी तो प्रेस की कुछ और ही तस्वीर पेश की- "प्रेस का हाल यह है कि सितम्बर से जनवरी तक तो बेकारी रही. मजदूरी पास से देनी पड़ी. करीबन तीन सौ रूपये मजदूरी में सर्फ़ हो गए." महताब राय ने अपनी आर्थिक स्थिति की चर्चा करते हुए कुछ रूपये मांग लिए थे. इसलिए यह उत्तर मिलना तो स्वाभाविक ही था.
निगम प्रेमचंद को बराबर कानपूर आने का निमंत्रण देते रहते थे. 17 जुलाई 1926 ई० को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा- " आप बराबर मुझे बुलाते हैं एक हफ्ते बनारस की हवा खाइए. मैं बहोत जल्द आऊँगा. मौक़ा लगा तो हफ्ते-अश्रे में आप मुझे कानपुर में देखेंगे." किंतु कानपूर जाना न हुआ. २७ जनवरी १९२७ ई० को प्रेमचंद ने लिखा - "आपसे बरसों से मुलाक़ात की नौबत नहीं आई. इत्तेफाकाते-ज़माना और क्या. "पर ज़माने का यह इत्तेफाक अर्थात समय का यह संयोग बहोत अधिक दिन नहीं चला.
15 फरवरी 1927 ई० को प्रेमचंद लखनऊ पहुँच गए और वह भी माधुरी के सम्पादक की हैसियत से. निगम उन दिनों पटना गए हुए थे. 21 फरवरी को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा- "मैं 15 को यहाँ आ गया. आप पटना कब जायेंगे. अगर पटना गए हुए हैं तो वहां से कब लौटेंगे. आप आ जाएं तो एक रोज़ के लिए आऊँ मुलाक़ात का जी चाहता है. "और फिर एक दिन प्रेमचंद कानपूर आ धमके. लखनऊ वापस आने पर 14 मार्च 1927 को चिट्ठी लिखी- "अपनी ऐनक भूल आया.बवापसी डाक भेजिए. अँधा हो रहा हूँ.16 को बनारस चला जाऊंगा. इसलिए का ही भेज दीजियेगा. "बनारस से लौटे तो बच्चे साथ न आ सके. 25 अप्रैल को निगम को लखनऊ से सूचित किया- " बच्चे गालिबन 15 म ई तक आयेंगे."
लड़की सयानी हो चुकी थी. और बातों के साथ अब उसके विवाह की चिंता भी ज़रूरी थी. 1927 का वर्ष समाप्त हो गया. 12 जनवरी 1928 ई० के पत्र में निगम को लिखा-"आप 17 को आ रहे हैं. इंतज़ार कर रहा हूँ.....एक अम्रे-ख़ास के मुतअल्लिक आपसे बहोत सी बातें करना हैं. इस साल अगर कोई लड़का ठीक हो जाए तो अगले साल शादी कर दूँ." संयोग ऐसा बना कि लड़का तलाश करने में अधिक भाग-दौड़ नहीं करनी पडी. वैसे तो प्रेमचंद ने कई एक लड़के देखे और ना पसंद कर दिए. किन्तु अंत में एक लड़का जंच गया और मुआमला बन गया.
बेटी का विवाह निश्चित हो जाने से अधिक प्रसन्नता का विषय किसी पिता के लिए और क्या हो सकता है. प्रेमचंद ने 21 फरवरी 1929 ई० को निगम को सूचित किया-" आपको यह सुनकर मसर्रत होगी कि बेटी की शादी जिला सागर के एक मुत्मव्विल (संपन्न) खानदान में तय हो गई है. वह लोग यहाँ आए थे और कल वापस गए हैं. दो-चार रोज़ में मैं बरच्छे की रस्म अदा करने जाऊंगा. लड़का बी. ए. में पढता है. जायदाद माकूल है." किंतु लगता है कि बात पक्की होने में अभी कुछ कसर बाकी रह गयी थी. जभी तो पुरानी सूचना भूलकर 16 अप्रैल 1929 ई० के पत्र में निगम को नए सिरे से सूचित करते हैं- " आप सुनकर बहोत खुश होंगे कि बेटी की शादी तय हो गयी. लड़के की बहेन यहाँ अपने शौहर के साथ आई थी और देख-भाल कर खुश चली गयी. अब मुझे तिलक भेजना है. शादी छठ में होगी. ..आपसे यही गुजारिश है कि इस वक्त आप ज़्यादा से ज़्यादा मेरी जितनी इमदाद कर सकते हों कर दें." निगम ने किसी प्रकार की आर्थिक सहायता की या नहीं, बहरहाल प्रेमचंद के लिए एक बड़े दायित्व के भार से मुक्त होने की प्रसन्नता कुछ कम नहीं थी.
प्रेमचंद इन दिनों हिबेट रोड पर रहते थे. अगस्त 1929 ई० तक वे वहीं रहे. फिर दो सितम्बर को उन्होंने निगम को मकान बदलने की सूचना दी- "अब मैं अमीनुद्दौला पार्क में रहता हूँ. “इसी चिट्ठी में घरेलू परिशानियों की चर्चा करते हुए लिखा- "घर में तीन मरीज़ हो गए. धन्नू की वाल्दा के दांतों में दर्द, और बुखार, बेटी की उंगली में फुंसी, जो बिसह्री कहलाती है और निहायत दर्द पैदा करने वाली होती है, और धन्नू की मामी को बुखार और पेचिश. कल बेटी की उंगली चिरवा दी. अब दर्द कम है. धन्नू की माँ के दांतों का दर्द अभी बदस्तूर है. हाँ, बुखार बंद हुआ. अब दांत निकलवा देने की सलाह है. धन्नू की मामीं का बुखार भी साबिक बदस्तूर है."
इस बीच कमला का विवाह हो चुका था. प्रेमचंद ने मई के पहले सप्ताह में दो महीने की छुट्टी ली थी और विवाह की तैयारियों में जुट गए थे. विवाह की बात-चीत से लेकर बात पक्की होने तक मुंशी भवानी प्रसाद के बेटे वासुदेव प्रसाद के सिलसिले में प्रेमचंद और दशरथ लाल के बीच चिट्ठियां दौड़ती रहीं.अमृत राय ने एकाध चिट्ठी के कुछ अंश कलम का सिपाही (पृ0 434-35) में उद्धृत भी किए हैं. किंतु इस प्रसंग की कोई भी चिट्ठी अमृत राय द्वारा किए गए संकलन में उपलब्ध नहीं है. खैर! बेटी का विवाह हुआ, खूब धूम-धाम से हुआ. लमही में बरात आई और एक बड़ी जिम्मेदारी प्रेमचंद के सिर से उतर गयी.
फरवरी 1930 ई० में तीन-चार दिनों के लिए समधिन साहिबा अपने दामाद के साथ प्रेमचंद के घर आयीं. (चि० प० 1, पृ0 176-77) और संबंधों में मधुरता बढ़ती गयी. 12 जुलाई को प्रेमचंद ने दामाद के बी० ए० करने की सूचना निगम को देते हुए आगे पढाई जारी रखने की चर्चा की- "मेरे सनइनला इस साल बी० ए० पास हुए हैं. वह कानून और एम० ए० दोनों एक साथ लेना चाहते हैं ताकि दो साल में निकल जाएं. क्या ऐसा कानपूर में मुमकिन है ?" यह चिट्ठी अमीनुद्दौला पार्क वाले मकान से लिखी गयी थी. यह इलाका लखनऊ की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था और इस दृष्टि से यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं था. फिर प्रेमचंद की पत्नी सक्रिय रूप से महिलाओं के साथ मिलकर राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग ले रही थीं. प्रेमचंद स्थिति को भांप सकते थे. फलस्वरूप उन्होंने मकान बदल दिया. रात-दिन के जुलूस, पुलिस की कड़ी निगरानी, नयी-नयी योजनायें, नए-नए ब्रिटिश हथकंडे, कौन देखता यह सब कुछ ठीक आंखों की सीध में होते. जनता से सहानुभूति के लिए कलम से जो कुछ लिख रहे थे, वह किसी कुर्बानी से कम तो था नहीं. जोखिम तो उसमें भी अच्छा-खासा था. बस ज़रा हाथ-पैर बचा कर चलने की आदत थी.
मुहल्ला गनेशगंज पर्याप्त शांतिपूर्ण जगह थी. प्रेमचंद इसी मुहल्ले में 20 नंबर के मकान में किराए पर आ गए और निगम को 25 जुलाई 1930 ई0 के पत्र में इसकी सूचना देना नहीं भूले-"मैं आजकल गनेशगंज नंबर २० में रहता हूँ." किंतु जिस बात का डर था वह होकर रही. शिवरानी देवी पिकेटिंग के जुर्म में 10 नवम्बर को गिरफ्तार हो गयीं. प्रेमचंद ने 12 को निगम को इस गिरफ्तारी की सूचना दी- "मैं चार-पाँच रोज़ के लिए बाहर गया हुआ था. उस वक्त घर पर मौजूद न था. वहां से आकर यह वाकया सुना. दूसरे दिन उनसे जेल में मुलाक़ात हुई. सज़ा तो हो ही जायेगी, मगर देखिये कितने महीनों की होती है." और यह सज़ा पूरे दो महीनों की हुई.
1931 ई० में पैरों में रथ के पहिये लग गए. अप्रैल के दूसरे सप्ताह में लाहौर गए. विचार था की वापसी में दिल्ली में रुकेंगे. जैनेन्द्र को इस विषय में चिट्ठी भी लिख दी थी. किंतु दिल्ली रुकना न हुआ. 13 अप्रैल को जैनेन्द्र को लिखा- "मैं लाहौर गया, पर आप दिल्ली न थे इसलिए मैं सीधा लौट आया. " मई की 12 तारीख को लखनऊ से बनारस पहुंचे. पहली जून को महताब राय को चिट्ठी में घरेलू दुखडा सुनाने बैठ गए- "धन्नू और बन्नू, बेटी के साथ पन्द्रह को सागर के लिए रवाना हुए. 16 को इलाहाबाद पहुंचकर बन्नू को पेचिश हो गयी. मुझे तार मिला. 19 को हम और बन्नू की वाल्दा यहाँ से इलाहाबाद गए. बन्नू की हालत ख़राब थी. खून के दस्त आ रहे थे. 27 तक वहां रहना पड़ा. 27 को हम बन्नू के साथ घर लौट आए. धन्नू वासुदेव प्रसाद के साथ सागर गए. यहाँ आकर मैंने दो-तीन दिन प्रेस का हिसाब-किताब देखा. आज फिर जा रहा हूँ. 6 जून को यहाँ से (बनारस) इलाहबाद होते हुए सोराम जाने का इरादा है. 11 को मुझे लखनऊ पहुँचना है. "
मुश्किल से कुछ दिन चैन से बैठने पाये थे कि फिर दौड़-धूप का सिलसिला शुरू हो गया. 12 नवम्बर 1931 ई0 को निगम को लिखा- "मैं तो दिल्ली चला गया था. वहाँ दस-ग्यारह दिन लग गए. दीवाली को लौटा." फिर 25 नवम्बर को सदगुरु शरण अवस्थी को सूचना दी - "ज़रा पटना चला गया था. यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने एक उत्सव में बुलाया था. " गोया 1931 ई० का पूरा वर्ष इधर-उधर भागने-दौड़ने में निकल गया.
जनवरी 1932 ई० में प्रेमचंद को एक फोड़ा निकल आया. वह कुछ ठीक हो रहा था कि 9 जनवरी को उनके बड़े भाई बाबू बलदेव लाल चल बसे. 13 जनवरी की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को लिखा- " कई दिन तक एक फोड़े ने तकलीफ दी. अब वह अच्छा हो रहा है. 9 जनवरी को मेरे बड़े भाई साहब बाबू बलदेव लाल का कुलंज से इंतकाल हो गया. घर में दो बच्चे हैं, बेवा, भाई की बेवा और एक बेवा बहन. 19 को दसवां है. मैं 16 या 17 को जा रहा हूँ." प्रेमचंद दसवें में गए किंतु बिल्कुल उस ढंग से जैसे कोई दूर का संबंधी जाता है.
बनारस से लौटने के बाद फोडों ने शायद घर देख लिया. एक के बाद एक. और यह सिलसिला एक महीने तक चलता रहा. 25 फरवरी को निगम को चिट्ठी लिखी तो चिट्ठी इन्हीं परीशानियों की चर्चा से शुरू हुई-" इधर मैं भी शिकायत में मुब्तेला रहा. चार फोड़े लगातार निकले. इनसे नजात न होने पायी थी कि दांतों में दर्द हुआ. दांत से फुरसत मिली तो पेट में दर्द शुरू हुआ और तीन दिन के बाद अब मामूली खुराक पर आया हूँ. एक महीना ख़राब हो गया. " इसी चिट्ठी में- "मैं अप्रैल में बनारस चला जाऊंगा."
अप्रैल में निगम ने एक शादी का निमंत्रण भेजा. उत्तर में 10 अप्रैल को परेम्चंद ने लिखा-"मैं ज़रूर आऊँगा. मगर तनहा. बेटी को गये आज एक हफ्ता हो गया. अपनी मौसी के यहाँ इलाहबाद गयी है. उसकी मां और धन्नू कल वहीं जा रहे हैं.एक शादी है. मैं छोटे बच्चे के साथ यहाँ 4 मई तक रहूँगा. उसे भी लेता आऊँगा." और फिर 13 मई को निगम को सूचित किया- "मैं आज बनारस जा रहा हूँ." किंतु बनारस का अर्थ था लमही. कारण यह है की 17 जून तक वे शहर में मकान नहीं ले सके थे- "अभी तक तो देहात में हूँ मगर जल्द शहर में रहूँगा. मकान ठीक कर रहा हूँ." अगस्त में मकान ठीक हो गया. 15 अगस्त 1932 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- "अब मैं शहर में रह रहा हूँ. लड़के पढने जाते हैं. मैं भी प्रेस में घड़ी-आध घड़ी के लिए चला जाता हूँ."
22 अक्टूबर को इलाहाबाद गए तो पता चला कि निगम भी एक दिन पहले आए थे. 25 को उन्हें चिट्ठी लिखी- "परसों यहाँ आया और मालूम हुआ कि आप भी यहाँ आए थे. क्या कहूं मुलाक़ात नहीं हुई. बहोत सी बातें करनी थीं. यहाँ से बनारस आप तशरीफ़ ले जाते हैं मगर गरीबखाने की तरफ मुखातिब नहीं होते." ऊपर-ऊपर लौट जाने की कहानी जब एक बार फिर दुहराई गयी और उसी के साथ कानपूर आने का आग्रह भी किया गया तो 7 दिसम्बर 1932 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा- " उस दिन मैंने दो बजे तक हुज़ूर का इंतज़ार किया लेकिन समझ गया कि कहीं धर लिए गए. आप मुझे बुला रहे हैं. मैं यही सोच रहा हूँ कि बड़े दिन में आ जाऊं." किंतु जाने की बात आयी गयी हो गयी.
फरवरी 1933 ई० में जैनेन्द्र बनारस आए. जाते समय अपना तौलिया भूल गए. मार्च में तीन-चार दिनों के लिए इलाहबाद जाना हुआ वापसी पर ४ मई को जैनेन्द्र को चिट्ठी लिखी- "तीन-चार दिन इलाहबाद रहा और वहाँ तुम्हारी खूब चर्चा रही. तुम अपना तौलिया यहाँ छोड़ गए जिससे बन्दा देह पोंछता है."
मई में कमला के यहाँ बेटा हुआ और प्रेमचंद नाना बन गए. किंतु यह दिन बड़ी ही चिंताओं में बीते. 9 मई को जैनेन्द्र को चिट्ठी लिखी- " मैं सागर गया था. कल शाम को लौटा हूँ. बेटी के बालक हुआ. पर चौथे दिन उसे ज्वर आ गया और प्रसूत ज्वर के लक्षण मालूम हुए. यहाँ तार आया. मैं तो लौट आया, तुम्हारी भाभी अभी वहीं हैं." फिर २७ मई को -"धन्नू की अम्माँ अभी वहीं हैं. एक ख़त से मालूम होता है हालत अच्छी है, दूसरा पत्र आकर चिंता में डाल देता है. "
अभी बेटी ठीक भी नहीं होने पायी थी और परिवार के लोग सागर में ही थे कि प्रेमचंद स्वयं बीमार हो गए. 15 जून 1933 ई० को रामचंद्र टंडन को लिखा- " मेरी तबियत इस बीच ठीक नहीं रहती है और इस समय भी कुछ विशेष अच्छी नहीं है. एक तो जीर्ण रोग, तिसपर दांत का दर्द." किंतु जैनेन्द्र से यह परीशानियाँ कुछ और खुलकर बयान की गयीं- 17 जुलाई 1933 ई० के पत्र में - "मैं तो इधर बहुत परेशान रहा. बेटी----मरते-मरते बची. अभी तक अधमरी सी है. बच्चा (दिलीप) भी किसी तरह बच गया. आज बीस दिन हुए यहाँ आ गयी है. उसकी माँ भी दो महीने उसके साथ रही. मैं अकेला रह गया था. बीमार पड़ा. दांतों ने कष्ट दिया. महीनों उसमें लग गए. दस्त आए और अभी तक कुछ-न-कुछ शिकायत बाकी है. दांतों के दर्द से भी गला नहीं छूटा. " फिर 1 अगस्त को लिखा- " इधर मैं भी स्वस्थ नहीं हूँ, लेकिन काम किए जाता हूँ.
कमला कई महीने बनारस में ही रही. दिसम्बर में वासुदेव (दामाद) उसे लेने भी आए किंतु प्रेमचंद ने विदा नहीं किया. 9 जनवरी 1934 ई० को इस सूचना के साथ लड़कों के बारे में निगम को लिखा - "बड़े साहबजादे अबकी एफ़० ए० का इम्तेहान दे रहे हैं, लेकिन औसत दर्जे, में हैं. ज़हानत की कोई खास अलामत नज़र नहीं आती. छोटा ज़्यादा ज़हीन है मगर अभी आठवीं में है."
फरवरी के आरंभ में बम्बई जाना पड़ा. कुछ फिल्मीं मामले की बातें करनी थीं. जैनेन्द्र को 14 जनवरी को इसकी सूचना दी- " बारह दिन बम्बई में रहा. प्रेमी जी से मिला. उनके यहाँ भोजन किया. बेचारे बहुत बीमार थे." किंतु असल मामले को गोल कर गए.
अप्रैल के पहले सप्ताह में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में शिरकत के लिए दिल्ली गए. तीन-चार दिन वहां चहल-पहल रही. वापसी में अलीगढ में सय्यद अशफाक हुसैन के मेहमान रहे और खूब-खूब दावतें उडायीं. 16 अप्रैल को जैनेन्द्र को लिखा- " अलीगढ में दावतें खाने के सिवाय और कुछ न हुआ. उन लोगों ने जिस तरह मेरा स्वागत किया, उससे मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हुआ. ----मैंने पुलाव और गोश्त खाया उन्हीं के दस्तरखान पर और यहाँ आकर दो-तीन दिन चूरन खाना पड़ा. " यहाँ ‘उन्हीं के’ अर्थात मुसलमानों के दस्तरखान पर दावतें खाने की सूचना इस प्रकार दी गयी है जैसे यह कोई अजूबा कार्य था, पर यह प्रेमचंद का खुलापन था कि उन्होंने दावतों का जमकर आनंद लिया.
जून की पहली तारीख़ को बंबई पहुंचे. साल भर वहां रहना था. 15 जून को जैनेन्द्र को लिखा- "1 को आ गया. मकान ले लिया. खाना मैं होटल में खाता हूँ और पड़ा हूँ. जुलाई में घर के लोग धन्नू को छोड़कर आ जायेंगे. साल भर किसी तरह काटूँगा. आगे देखी जायेगी." और फिर 3 अगस्त को जैनेन्द्र को सूचित किया- " मैं 23 को बनारस गया था. 31 को वापस आया. बेटी और उसकी माँ को लेता आया. लड़कों को प्रयाग कायस्थ पाठशाला में भर्ती कर दिया." किंतु बंबई का जीवन कुछ पसंद नहीं आया. स्वयं प्रेमचंद से सुनिए - " सात बजे उठता हूँ. साढ़े आठ पर घूम कर आता हूँ. नाश्ता करता हूँ. नौ बजे अखबार पढ़ता हूँ. कभी घंटा भर कभी इससे ज़्यादा समय लग जाता है. कभी कोई मिलने आ जाता है. ग्यारह बज जाता है. नहा-खाकर स्टूडियो जाता हूँ. कुछ काम हुआ तो किया, नहीं उपन्यास पढ़ा. पाँच बजे लौटता हूँ. हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को उलटता-पलटता हूँ. चिट्ठी-पत्र लिखता हूँ, खाता हूँ और सो जाता हूँ. यही दिनचर्या है." इस मशीनीं ज़िंदगी से कौन तंग नहीं आ जायेगा. फलस्वरूप 28 नवम्बर 1934 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- " यह साल तो पूरा करना ही है. यहाँ से छुट्टी पाकर अपने पुराने अड्डे पर जा बैठूंगा. वहाँ धन नहीं है मगर संतोष अवश्य है. "
दिसम्बर में हिन्दी प्रचार सभा ने दीक्षांत भाषण देने के लिए मद्रास बुलाया. प्रेमचंद वहाँ गए और साथ ही साथ मैसूर, बैंगलौर की भी सैर की. 7 फरवरी 1935 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- " मद्रास गया था, वहाँ से मैसूर और बैंगलौर भी गया. -----मेरा जीवन यहाँ भी वैसा ही है जैसा काशी में था. न किसी से दोस्ती न किसी से मुलाक़ात. मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक. " किंतु अप्रैल आते-आते इस मस्जिद को भी खुदा हाफिज़ कहना पड़ा. 11 अप्रैल को निगम को सागर से चिट्ठी लिखी- मैंने 4 अप्रैल को बम्बई को खैरबाद कह दिया और सी० पी० के अज़ला की सैर करता हुआ 10 को सागर आ गया. यहाँ से निकलकर बनारस चला जाऊंगा और देवी जी को वहाँ पहुँचाकर 17 को इंदौर साहित्य सम्मेलन के जलसे में शरीक होने के लिए रवाना हो जाऊंगा." किंतु परिस्थितियां ऐसी बनीं कि इंदौर जाना न हो सका. 4 मई को प्रयाग से जैनेन्द्र को लिखा- "कुछ तो प्रेमी जी के न आने और कुछ नातेदारियों में जाकर मिलने-मिलाने के कारण सारा प्रोग्राम भ्रष्ट हो गया. अब धन्नू को चेचक निकल आई है और 27 से वे पड़े हुए हैं हम भी उसके साथ हैं. यात्रा करने के लायक हो जाए तो 7 को यहाँ से उसे लेकर चले जाएं." इसी पत्र में जैनेन्द्र को इलाहबाद में अपना सारा कारोबार स्थानांतरित करने के इरादे की सूचना दी- "मैंने इरादा किया है कि जून से हंस को और प्रेस को प्रयाग लाऊँ. काशी में न तो काम है और न साहित्य वालों का सहयोग. यहाँ जितने हैं वह सभी सम्राट हैं." इसी दिन निगम को भी अपने इस नए इरादों से अवगत किया- " मैंने फ़ैसला कर लिया है कि जुलाई से इलाहबाद में ही रहूँ और यहीं प्रेस और कारोबार उठा लाऊँ. " फिर 10 दिन बाद जैनेन्द्र को 14 मई को सूचित किया -"इधर धन्नू को चेचक निकली थी. उन्हें प्रयाग से यहाँ लाये. यहाँ बन्नू को भी निकल आई और छ: दिन से यह पड़ा हुआ है."
जैनेन्द्र को संभवत: प्रेमचंद का इलाहबाद जाने का इरादा कुछ उपयुक्त नहीं जंचा. पहले तो 7 मई 1935 ई० को पत्र में एक सुझाव दिया- " इलाहबाद में क्या आपने मकान आदि पक्का कर लिया है ? यदि दिल्ली की बात किसी तरह भी व्यवहार्य जान पड़े और सब बंदोबस्त शिफ्ट का न हुआ हो तो उसपर सोचियेगा. मैं आपका बहुत कुछ, लगभग सभी कुछ बोझ हल्का कर सकता हूँ. " फिर 15 मई को जैनेन्द्र ने दुबारा लिखा- " इलाहबाद जा रहे हैं, तो जाकर देखिये. मुझे तो वहाँ का ज़्यादा भरोसा नहीं होता." बहरहाल प्रेमचंद पक्का इरादा करने के बाद भी इलाहबाद शिफ्ट न कर सके. जुलाई के अन्तिम सप्ताह में शायद बनारसी दास चतुर्वेदी ने उन्हें तुलसी जयंती समारोह की अध्यक्षता करने के लिए निमंत्रित किया. प्रेमचंद ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उन्हें 2 अगस्त को लिखा- "जहाँ तक तुलसी जयंती की बात है, मैं इस काम के लिए सबसे कम योग्य व्यक्ति हूँ. एक ऐसे उत्सव की अध्यक्षता करना, जिसमें मैंने कभी कोई रूचि नहीं ली, हास्यास्पद बात है." किंतु बनारसीदास जी शायद इस तर्क से सहमत नहीं हुए. प्रेमचंद का न आना उन्हें खल गया. अब अपनी बात स्पष्ट शब्दों में लिखने के अतिरिक्त और चारा भी क्या था. उनका " तुलसी के सम्बन्ध में कही जाने वाली अतिमानवी बातों में विश्वास नहीं था." तुलसी ने "राम और हनुमान को देखा और वह बन्दर वाली घटना, सब खुराफात." प्रेमचंद ने बनारसीदास जी से पूछ ही लिया-" क्या तुल्सी भक्त लोग मेरी काफिरों जैसी बात पसंद करेंगे ?" चतुर्वेदी जी ने दिसम्बर 1935 ई० में नोगूची का व्याख्यान सुनने के लिए कलकत्ता आने का निमंत्रण दिया. प्रेमचंद यह निमंत्रण भी स्वीकार न कर सके. पहली दिसम्बर के पत्र में उन्हें लिखा- " काश कि मैं नोगूची के व्याख्यान सुन सकता, मगर मजबूर हूँ. -----लड़के इलाहबाद में हैं और मैं चला जाऊंगा तो मेरी पत्नी बेहद अकेला और बेबस महसूस करेंगी. " किंतु जैनेन्द्र को सीधी-सच्ची बात लिखने में संकोच नहीं हुआ- " यहाँ नोगूची हिन्दू यूनिवर्सिटी आए. उनका व्याख्यान भी हो गया, मगर मैं न जा सका. अक्ल की बातें सुनते और पढ़ते उम्र बीत गयी. ईश्वर पर विश्वास नहीं आता, कैसे श्रध्दा होती ?" जून 1935 ई० के अंत में एक-दो दिन के लिए लखनऊ जाना हुआ. वापस लौटकर बंबई जाना था. 30 जून को निगम को लिखा था-" अभी कल लखनऊ गया था. ---कल बंबई जा रहा हूँ. एक महीने में लौटूंगा. "इस प्रकार 1935 ई० का वर्ष भी इधर-उधर की भाग-दौड़, घरेलू परीशानियाँ, हंस की उलझनों का सिलसिला, आयोजनों में कहीं शिरकत, कहीं अनुपस्थिति और अन्य बातों के साथ युगीन समस्याओं पर सोचने-विचारने में गुज़र गया.
जनवरी 1936 ई० की 12, 13 और 14 तारीखों में हिन्दुस्तानी एकेडेमी का वार्षिक जलसा हुआ. प्रेमचंद ने भी शिरकत की. पर उर्दू और हिन्दी के बीच पनपने वाली पृथकतावादी भावना ने उनकी पीड़ा और गहरी कर दी. दस दिनों बाद फिर इलाहबाद जाना पड़ा. 26 जनवरी को आयोजित महिला-गल्प-लेखक सम्मेलन की सभानेत्री शिवरानी देवी थीं. पत्नी का उत्साह बढ़ाने के लिए जाना ज़रूरी था. इलाहबाद से 28 को लौटे. आगरे में नागरी प्रचारिणी सभा के वार्षिक अधिवेशन का सभापतित्व करना था. ३१ जनवरी को आगरे के लिए निकल पड़े. वहां उन्हें अभिनन्दन पत्र भी दिया गया. परिवार साथ था. वापसी में पत्नी को इलाहबाद छोड़ते हुए बनारस लौट आए. 22 फरवरी को पूर्णिया के लिए रवाना हुए. बिहार प्रांतीय हिन्दी सम्मेलन में उपस्थिति ज़रूरी थी. वहाँ से उसी दिन वापस लौटे. 8 मार्च को हिन्दुस्तानी सभा के जलसे के लिए दिल्ली पहुँचना था. जैनेन्द्र का विशेष आग्रह था.
4 अप्रैल 1936 ई० को वर्धा के साहित्यिक सम्मेलन में शिरकत का पक्का संकल्प बना लिया. 10 मार्च के पत्र में बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा- " 4 अप्रैल को वर्धा में एक अखिलभारतीय साहित्यिक सम्मेलन होने जा रहा है. ---मैं वहाँ पर मौजूद रहने की उम्मीद करता हूँ." फिर 31 मार्च को सूचित किया- " इस बार भारतीय साहित्य परिषद् (का अधिवेशन ) जो तीन और चार अप्रैल को वर्धा में होने वाला था, नागपुर सम्मेलन के लिए स्थगित कर दिया गया है. इसलिए मैं वहाँ जाऊंगा." पर इस से पहले प्रगतिशील लेखकसंघ की अध्यक्षता का सवाल उठ खड़ा हुआ. लाहौर में आर्य समाज की जुबली के अवसर पर आयोजित आर्य भाषा सम्मेलन की सदारत करने के लिए पहले से वचनबद्ध थे. फलस्वरूप 9-10अप्रैल को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ और उधर ही से 11को लाहौर में आर्य भाषा सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए निकल पड़े.
लाहौर से वापसी पर निगम को 15 अप्रैल को लिखा- " हाँ मुझे भी आपसे न मिलने का अफ़सोस रहा. भागा इसलिए कि मेरे पास एक रिटर्न टिकट था." आगरे से- " मंगल को नौ बजे रात तक बनारस पहुँचना ज़रूरी था. " किंतु अब शायद बहुत थक चुके थे. नतीजा सामने था. 5 अगस्त को लखनऊ से निगम को यह चिट्ठी लिखी- " आपको ताज्जुब होगा, मैं लखनऊ कैसे आ गया. बात यह है कि कोई डेढ़-दो महीने से मुझे वरमे-जिगर की शिकायत हो गयी है. दो बार मुंह से सेरों खून निकल गया है. बनारस में इलाज से कोई फायदा न देख कर 2 को यहाँ आ गया और डॉ. हरगोविंद सहाय के जेरे-इलाज हूँ. पाखाना, पेशाब, खून वगैरह की जांच हो चुकी है. मगर अभी कई दांत तोड़े जायेंगे तब डॉ. साहब मर्ज़ की तश्खीस करेंगे और इलाज शुरू होगा. घुलकर आधा रह गया हूँ. न कुछ खा सकता हूँ, न हजम होता है. एक बार मुश्किल से हार्लिक्स खा लेता हूँ. मास्टर कृपाशंकर साहब का मेहमान हूँ. मगर यह मकान बहुत मुख्तसर है और आज-कल में कोई दूसरा मकान ले लूंगा." किंतु मकान के छोटे-बड़े. होने से होता भी क्या है. लखनऊ से निराश लौटना पड़ा और फिर बनारस में दवा होने लगी. 16 सितम्बर 1936 ई० को वीरेश्वर सिंह को लिखा- " मैं तो अब बेहद कमज़ोर हो गया हूँ. उठ-बैठ नहीं सकता. लेकिन मर्ज़ घट रहा है. डाक्टर का कहना है कि 15 दिन में मर्ज़ बिल्कुल घट जायेगा. "
डाक्टर ने शायद ठीक ही कहा था. बस कुछ दिन जोड़ने की भूल हुई थी उससे. 8 अक्टूबर 1936 ई० को मर्ज़ सचमुच बिल्कुल घट गया और मरीज़ को पूर्ण शान्ति मिल गयी. हाँ इतना अवश्य हुआ कि मरीज़ के लहू से शिवरानी देवी का आँचल और पैरों के नीचे की धरती लाल हो गयी.
चिट्ठियाँ बोलती हैं
" तारीखे-पैदाइश संवत 1937, बाप का नाम मुंशी अजायब लाल, सुकूनत मौजा मढ़वा लमही, मुत्तसिल पांडेपुर बनारस. ...वालिद का इंतकाल पन्द्रह साल की उम्र में हो गया. वालिदा सातवें साल गुज़र चुकी थीं." यह है प्रेमचंद के जीवन का वह ब्योरा जो उन्होंने 17 जुलाई 1926 ई0 की चिट्ठी में निगम को लिख कर भेजा था.
वैसे तो प्रेमचंद की निगम के साथ प्रारंभ से ही बड़ी अंतरंगता थी. 1903 ई० में निगम ने ज़माना उर्दू मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया था. धनपत राय की रचनाएं इसी ज़माने में बनारस के आवाज़ये-खल्क में निकलने लगी थीं. लिखने और छपने का नया-नया शौक़ था. उर्दू पत्रिकाओं के कायस्थ संपादकों से सम्पर्क बना लेना धनपत राय के लिए कोई मुश्किल काम न था. निगम की पत्रिका नई थी. उन्हें भी नए लेखकों की ज़रूरत थी. चिट्ठियाँ दौड़ने लगीं. सौभाग्य से धनपत राय का तबादला भी कानपुर हो गया और मई 1905 ई० में वे कानपूर पहुँच गए. ठहरने के लिए निगम की हवेली थी ही. नौबत राय नज़र, दुर्गा सहाय सुरूर, प्यारे लाल शाकिर मेरठी, गोया एक-से-एक अच्छे लोगों से परिचय हुआ, दोस्ती हुई और हँसी-मजाक, छेड़-छाड़, तीरों-नश्तर, ठहाके,कजली शामों को ज़िंदगी की दूधिया सफेदी का प्रकाश देने लगे.
बहरहाल 17 जुलाई 1926 ई० तक निगम के साथ मैत्री के निरंतर गहराते संबंधों के इक्कीस वर्ष तो गुज़र ही चुके थे. प्रश्न यह है की इतनी लम्बी अवधि तक निगम को प्रेमचंद के हालात जानने की जिज्ञासा क्यों नहीं हुई ? ज़माना का जुबली नंबर निकलने में भी अभी दो वर्ष की देर थी. फिर प्रेमचंद से प्राप्त किया गया यह परिचय ज़माना के किसी अंक में छपा भी नहीं. ज़ाहिर है कि निगम की पैनी दृष्टि ने प्रेमचंद के लेखन में अपने युग के श्रेष्ठतम कथाकार की झलक ज़रूर देख ली थी. कदाचित इसी लिए इस प्रामाणिक दस्तावेज़ को हासिल करना ज़रूरी हो गया.
अमृत राय की पुस्तक (1962 ) छपने से पहले डॉ. कमर रईस ने प्रेमचंद की तारीखे-पैदाइश को अच्छी तरह ठोक-बजा कर देख लिया था और उसकी प्रामाणिकता पर अपने शोध निष्कर्षों की पक्की मुहर लगा दी थी. प्रेमचंद का तन्कीदी मतालेआ के पृ0 35 पर उन्होंने लिखा - " प्रेमचंद की जन्म-पत्री की एक नक़ल उनके वरसा के पास महफूज़ है जिस से तस्दीक़ कर ली गई है. " 1962 में अमृत राय की पुस्तक कलम का सिपाही छ़प कर बाज़ार में आ गई. अमृत राय ने जन्म-पत्री का कोई सन्दर्भ नहीं दिया, पर तारीखे-पैदाइश सावन बदी 10, संवत 1937, शनिवार 31 जुलाई 1880 ई० " इस प्रकार लिखी कि जैसे जन्म-पत्री सामने रख कर लिखी हो. स्पष्ट है कि अब पैदाइश की तारिख पर संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती.
विचित्र बात यह है कि प्रेमचंद की टीका-टिप्पणी करते हुए कोई जब उन्हें कुछ छेड़ देता है, तो वे शायद अतिरिक्त रोब डालने के विचार से अपनी उम्र कुछ बढ़ा-चढा कर बता जाते हैं. प्रेमचंद के विरोध में एक लेख छपा प्रेमचंद की प्रेम लीला. जवाब देना ज़रूरी था. समालोचक के शरद अंक में और बातों के जवाब के साथ प्रेमचंद ने यह भी लिखा ''यह अभागा कल का लौंडा नहीं, पूरा खुर्राट है. तीन साल और हों तो पूरे पचास का हो जाय. '' हिसाब लगाने पर जन्म-तिथि 1936 वि० निकलती है. अर्थात मान्य तिथि से एक वर्ष पूर्व.
इसी प्रकार घरेलु हालात की चर्चा करते हुए , 6 जनवरी 1934 ई० की चिट्ठी में निगम को लिखते हैं-''जो काम चालीस की उम्र में होना चाहिए था , वह अब पचपन- साले में हो रहा है.'' यहाँ भी जन्म-संवत 1937 वि० नहीं निकलता.
अब दिसम्बर 1933 ई० का एक वक्तव्य देखिये. प्रेमचंद लिखते हैं-'' लेखक को अपने पचपनसाला जीवन में ऐसा कोई ब्राह्मण नहीं मिला जिसने इस पाखण्ड आचरण को घृणा की दृष्टि से न देखा हो.'' इस समय प्रेमचंद की आयु, कुल बावन वर्ष पाँच महीने बैठती है. किंतु उनके लिखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे पचपन वर्ष पूरे कर चुके हों. इस हिसाब से उनका जन्म संवत 1935 वि० होना चाहिए. एक अन्य स्थल पर 14 जुलाई 1919 ई० के पत्र में इम्तियाज़ अली ताज को लिखते हैं - "बेशक मेरा सिन चालीस साल है." इस आधार पर भी प्रेमचंद की जन्म-तिथि 1879 ई० अर्थात संवत 1936 वि० होनी चाहिए. किंतु यह एक कथाकार की लेखनी का बहाव है. जोश में आए तो जो जी चाहे लिख जाय. कौन पूछने जाता है उस से. फिर यदि यह साबित भी हो जाय कि प्रेमचंद 1880 ई० में नहीं बल्कि 1879 या 1878 ई० में पैदा हुए थे और पढे-लिखे जागरूक घरों की तरह उनकी उम्र एक दो वर्ष कम कर के लिखवाई गयी थी तो उस से अन्तर क्या पड़ेगा ! हिन्दी अध्येता प्रेमचंद की जन्म-तिथि पूर्ववत 1880 ई० ही लिखते रहेंगे
प्रेमचंद के माता पिता के निधन का सन्-संवत भी खासा संदिग्ध है. प्रेमचंद की जन्म-तिथि 1880 ई० मान लेने पर भी उनके पिता का निधन कम-से-कम उस समय नहीं हुआ जब वे पन्द्रह वर्ष के थे. प्रेमचंद ही की सूचनानुसार उनके विवाह के साल भर बाद उनके पिता परलोक सिधारे. वैसे तो प्रेमचंद का विवाह उस समय हुआ जब वे सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे और नवीं की परीक्षा देने वाले थे. इस प्रसंग में डॉ.कमर रईस का एक रोचक वक्तव्य उद्धृत करना असंगत न होगा - "इस वक्त उनकी उम्र पन्द्रह साल की थी की 1896 ई० में उनके वालिद ने उनकी शादी कर दी " पूछिये भला कि 1896 ई० में धनपत राय पन्द्रह वर्ष के किस हिसाब से थे ? दिलचस्प बात यह है कि अमृत राय भी पन्द्रह वर्ष की अवस्था में ही विवाह होने की बात करते हैं और साथ में यह भी स्वीकार करते हैं - " नवाब नवीं में थे जब उनका ब्याह हुआ. अगले साल यानी 1897 ई० में मैट्रिक का इम्तेहान देना था, लेकिन उसी साल पिता बीमार पड़े और इस दुनिया से उठ गए. " बात साफ है कि पिता के निधन के समय प्रेमचंद का सत्रहवां वर्ष चल रहा था.
अब रह गई माँ के निधन की बात. अमृत राय के अनुसार “पहली पत्नी के निधन के दो वर्ष बाद अजायब लाल ने दूसरा विवाह किया. उस समय धनपत आठवीं जमाअत में पढ़ते थे.” यदि अमृत राय की बात मान ली जाय तो 1894 ई० में धनपत आठवीं में थे और दो वर्ष घटा देने पर 1892 ई० में, अर्थात जिस समय धनपत बारह वर्ष के थे और छठीं कक्षा में पढ़ते थे, माता का निधन हुआ. जबकि वही अमृत राय यह भी लिखते हैं " पत्नी के मरने के कुछ ही दिन बाद मुंशी अजायब लाल बीमार पड़े . ठीक होने भी न पाये थे कि तबादले का हुक्म हुआ. नई जगह, सूने घर में नवाब को ले जाना पागलपन होता, इसलिए नवाब को फिर लमही में ही रखने की ठहरी. ( कलम का सिपाही, पृ0 23 ) " मतलब यह कि छठीं कक्षा से धनपत का नाम कटवा कर उन्हें लमही में डाल दिया गया. इन गोल-मोल बातों से अमृत राय की लिखी हुई जीवनी एक भटकाव की स्थिति पैदा करती है और कोई निश्चित तथ्य सामने नहीं आता.
इन्द्रनाथ मदान को प्रेमचंद ने 7 सितम्बर 1934 ई० के पत्र में लिखा "मैं आठ साल का था तभी मेरी माँ नहीं रहीं." इस दृष्टि से प्रेमचंद की माँ का निधन 1888 ई० में होना चाहिए. हो सकता है कि अपनी उम्र घटाकर, प्रेमचन्द अधिक सहानुभूति बटोरने के इच्छुक रहे हों. कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि माँ के स्वर्गवास के समय प्रेमचंद आठ वर्ष के नहीं थे.
प्रेमचंद लमही के एक बड़े से मकान में जन्मे थे. बड़े से मकान की बात यूं आई कि स्वयं प्रेमचंद ने दया नरायन निगम को सूचना दी थी " ईश्वर की कृपा से मकान भी सारे गाँव के लिए ईर्ष्या का पात्र." फिर मकान के कमरों का चित्र उभारते हुए उसके बड़कपन को और भी उजागर कर देते हैं -" किसी में बैल बंधता, किसी में उपले जमा हैं, किसी में जांता,चक्की, ओखली मूसल जुलूस-फरमा हैं." अब मकान को बड़ा न कहा जाय तो और क्या कहा जाय ? यह ठीक है कि इसमें निगम की हवेली जैसा आनंद नहीं है. न वहाँ जैसी सजावट और सफाई, न खस की टट्टी की भीनी खुश्बू, न रोबदार पंखे की झुक-झुक कर सलाम करती सुसंयमित हवा. गाँव ही का तो माकन ठहरा. सारे गाँव का सिरमौर है, यह क्या कम है ?
कायस्थों में दो विवाह करने का आम प्रचलन था. पिताजी पहले ही रास्ता हमवार कर चुके थे. फिर प्रेमचंद कैसे पीछे रह जाते ? लिखने को तो उन्होंने निगम को बड़े धड़ल्ले से लिख दिया- " अधबीच में छोड़ने वाले और होंगे. यहाँ तो जब एक बार बांह पकड़ी, तो ज़िंदगी पार लगा दी. हालांकि यह सन्दर्भ दाम्पत्य जीवन के निर्वाह का नहीं है, सम्पादकीय सहयोग निभाने का है. फिरभी बांह पकड़ने और ज़िंदगी पार लगा देने की बात टू यहाँ की ही गई है. "किन्तु मेंहदावल तहसील के रमवापुर गाँव वाली पत्नी के साथ ऐसा नहीं हुआ.
7 सितम्बर 1934 ई० को इन्द्रनाथ मदान के प्रश्नों का उत्तर देते हुए प्रेमचंद ने लिखा - "मेरी पहली स्त्री का देहांत 1904 ई० में हुआ. वह एक अभागी स्त्री थी. तनिक भी सुदर्शन नहीं. और यद्यपि मैं उस से संतुष्ट नहीं था, तो भी बिना शिकवा-शिकायत निभाए चल रहा था. "किन्तु यह तो एक मनगढ़त कहानी भर है. असली बात निगम को जून 1906 ई० के पत्र में लिखी जा चुकी थी-" अपनी बीती किस से कहूँ !...औरतों ने एक दूसरे को जली-कटी सुनाई. हमारी मख्दूमा (पत्नी ) ने जल-भुन कर गले में फांसी लगाई. माँ ने आधी रात को भांपा, दौडीं, उसको रिहा किया. बीवी साहिबा ने अब जिद पकड़ी की यहाँ न रहूँगी. मैके जाऊँगी. ...वह रो-धो कर चली गई. मैं ने पंहोचाना भी पसंद न किया. ..मैं उस से पहले ही खुश न था अब तो सूरत से बेजार हूँ. "अमृत राय कलम का सिपाही में यह सारे तथ्य गोल कर गए और एक नई कहानी गढ़ डाली -"जब नवाब ने अपनी नौकरी की जिंदगी शुरू की और उन्हें अपने साथ नहीं ले गए तो वह भी मेंहदावल चली गयीं और अधिकतर वहीं रहने लगीं" ( कलम का सिपाही, पृ0 34 )
पहली पत्नी के तनिक भी सुदर्शन न होने वाली बात जब प्रेमचंद ने शिवरानी देवी से की जो बकौल प्रेमचंद "साहित्यिक अभिरुचि " रखती थीं, "कभी-कभी कहानियाँ भी लिखती थीं, निडर, साहसी, समझौता न करने वाली, सीधी-सच्ची स्त्री थीं, प्रेमचंद की शिकायत पर मौन न रह सकीं. प्रेमचंद बोले -" उमर में वह मुझ से ज्यादा थीं. मैं ने उनकी सूरत देखी, तो मेरा खून सूख गया." शिवरानी देवी बस्ती के निवास काल में उनसे मिल चुकी थीं. तुरन्त बोल पडीं-" ठीक तो थीं" अच्छा ही हुआ की शिवरानी देवी और अमृत राय की इस प्रसंग में कोई बात नहीं हुई. अमृत राय जानते थे कि शिवरानी देवी "लकड़ी कि तरह सीधी-सपाट, निडर अक्खड़, हठीली हैं," जाने क्या-क्या सुना बैठें. प्रेमचंद को अपनी पहली पत्नी के केवल सुदर्शन न होने और उम्र में बड़ी होने की शिकायत थी. अमृत राय, जिन्होंने उन्हें कभी देखा तक नहीं था उनका नक्शा कितने शानदार शब्दों में खींचते हैं -"उम्र में ज्यादा, काली, भद्दी, थुल-थुल, चेचक-रु, अफीम खाने वाली, भचक कर चलने वाली, महीने में एकाध बार हबुआती भी ज़रूर थीं." (कलम का सिपाही, पृ0 33 ). अब इस से अधिक अमृत राय और लिखते भी क्या ?
प्रेमचन्द और शिवरानी देवी की बातचीत से यह भी संकेत मिलता है कि रवा-रवी में शायद प्रेमचन्द पहली पत्नी के चरित्र पर भी कोई टिप्पणी कर गए. देवी जी आपे से बाहर हो गयीं- "आप दावे के साथ कह सकते हैं कि आपका अपना चरित्र अच्छा था ? खामोश !" प्रेमचन्द कोई उत्तर न दे सके. चुप रहने में ही भलाई थी. किंतु अमृत राय को शायद अपनी सौतेली माँ के चरित्र का कुछ अधिक पता था. कलम पर अधिकार था ही. जो बात प्रेमचन्द ने कभी इशारों में भी नहीं की, उसकी उड़ती-पड़ती ख़बर अमृत राय तक पहुँच गई- "नवाब का शायद कभी उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा." फिर"..एक बार यह बात भी उडी कि उन्हें ( सौतेली माँ को ) लड़का हुआ है जिसका नाम उनके घर वालों ने रामयाद राय रखा है. " (कलम का सिपाही, पृ0 34 ) ख़बर कच्ची-पक्की जैसी भी रही हो अमृत राय की सारी छींटा-कशी अपनी सौतेली माँ पर है. अब वह दोषी थीं, सद्चरित्र थीं या नहीं जैसे प्रसंग को उठाने का लाभ भी क्या था. अमृत राय ने स्वयं इसे दुःख का प्रसंग माना है. जब ऐसा ही था तो इसे कलम का सिपाही में टांकना इतना ज़रूरी क्यों समझा गया ? कौन सी बात बिगड़ रही थी इस प्रसंग के बगैर ?
प्रेमचन्द की पहली पत्नी ससुराली जीवन से तंग आकर हमेशा के लिए मैके चली गयीं. यहाँ तक तो जो होना था हो गया. अब छब्बीस वर्षीय धनपत राय के लिए अपने से कुल चार-पाँच वर्ष बड़ी विमाता के साथ रहना उपयुक्त नहीं था. समाज का ढांचा ही कुछ ऐसा था. बिरादरी में दोनों को लेकर तरह-तरह की बातें हो सकती थीं. ख़ुद अमृत राय बताते हैं कि प्रेमचन्द के सगे चाचा कौलेश्वर लाल के गुजरने पर उनकी विधवा स्त्री के साथ "यही हुआ जो सच या झूठ हमारे समाज में प्रायः हर विधवा के साथ होता है. रिश्ते के एक भतीजे को लेकर उनकी बदनामी हुई."
प्रेमचन्द की चाची (विमाता) ने दुनिया देखी थी. कब क्या ऊंच-नीच हो जाय, अच्छी तरह सोंच सकती थीं. फलस्वरूप प्रेमचन्द के लिए दूसरे विवाह की छेड़-छाड़ शुरू कर दी. संभावित पत्नी के हसीन होने की चर्चा सुन कर प्रेमचन्द का मन भी भुर्भुराने लगा.-"वालिदा की तरफ़ से जिद है कि ब्याह रचे और ज़रूर रचे. अब कहता हूँ मैं मुफलिस हूँ , कंगाल हूँ, खाने को मयस्सर नहीं, तो वालिदा साहिबा कहती हैं तुम अपनी रजामंदी ज़ाहिर करो, तुमसे एक कौडी न मांगी जायेगी. सुनता हूँ बीवी हसीन है, बा शऊर है, जेब से खर्च बगैर मिली जाती है, फिर तबियत क्यों न भुर्भुराए और गुदगुदी क्यों न पैदा हो ? " प्रेमचन्द की इस गुदगुदी को महसूस करने के बाद भी अगर अमृत राय कहें कि धनपत राय को "जो दस-पांच हज़ार में एक खूबसूरत नौजवान था, किसी सुन्दरी की तलाश न थी" (कलम का सिपाही, पृ0 74) तो कोई कर भी क्या सकता है ?
कहते हैं कि दूध की जली बिल्ली छांछ भी फूंक कर पीती है. विमाता और उनके पिता के माध्यम से पहला विवाह कर के प्रेमचन्द देख चुके थे. अब तबियत लाख भुर्भुराए और हसीन बीवी की कल्पना से कितनी ही गुदगुदी क्यों न हो, कोई भी क़दम बगैर सोंचे-समझे नहीं उठाना है. इसलिए "इस बारे में अभी फिर मशविरा करने की ज़रूरत है. "
घर वालों को कोई सूचना दिए बिना 1906 ई० के फाल्गुन में प्रेमचंद ने शिवरानी देवी से विवाह कर लिया. चाची इस विवाह से बहुत खुश नहीं हुईं. प्रारम्भ के सात-आठ वर्षों तक घर में तनाव की स्थिति बनी रही. चक-चक होती तो प्रेमचंद चाची का पक्ष लेते और शिवरानी पर हाथ भी उठा देते (शिवरानी देवी/प्रेमचंद : घर में / 12-13). हो सकता है कि इसके पीछे प्रेमचंद की लायाक्मंदी ही रही हो. चाची विगत दस वर्षों से अपने दायित्व का निर्वाह कर रही थीं, प्रेमचंद को इस रिश्ते का ख़याल तो रखना ही था.
सम्भव है घरेलू चक-चक का एक कारण शिवरानी देवी की आभूषणों की फरमाइश रही हो. 1012 ई० में प्रेमचंद ने निगम को सूचित किया- "बीवी जान की बरसों की जिद पर एक कड़ा बनवाया जिसका सदमा अब तक न भूला.” स्पष्ट है कि किसी खर्च बगैर हसीन और बाशऊर पत्नी पाने कि इच्छा रखने वाले की दृष्टि में सोने के कड़े पर रूपये खर्च करना किसी सदमे से कम किस प्रकार होता ?
विवाह को कई वर्ष हो गए और न कोई बाल न बच्चा. राम सरन को जब संतान का सुख मिला, तो औपचारिक रूप से खुशी की अभिव्यक्ति ज़रूर कर दी, किंतु अपनी बेचैनी को दबा न सके. 22 मार्च 1913 ई० को निगम को एक चिट्ठी में लिखा- "मिस्टर सरन के घर में बच्चा पैदा हुआ है. खुशी की बात है. ईश्वर उसे जिंदा रखे. मेरी न पूछिये. अहबाब फूलें फलें. मेरी खुशी के लिए इतना काफी है. उन्हीं के बच्चों को प्यार कर के अपनी हवस मिटा लूंगा.
कितनी हसरत और कितनी निराशा है उपर्युक्त पंक्तियों में. जैसे चिट्ठी के अक्षर-अक्षर मर्म, में दबी पीड़ा को आहिस्ता-आहिस्ता उकेर रहे हों. दोस्तों के बच्चों को प्यार करके प्रेमचंद ने अपनी हवस मिटाई भी या नहीं, कौन जाने. पर जल्वए-ईसार (1912 ई०) के मुंशी शालिग्राम ने मुंशी प्रेमचन्द की यह ख्वाहिश पूरी अवश्य कर दी. "मुंशी जी को स्वभावतः बच्चों से बहुत प्रेम था. मुहल्ले भर के बच्चे उनके प्रेमवारि से अभिसिंचित होते रहते थे."
यह बात उस समय की है जब शिवरानी देवी के पाँव भारी थे. किंतु लक्षण बता रहे थे की पुत्री का जन्म होने वाला है. जभी तो डेढ़ महीने बाद 4 मई 1913 के पत्र में निगम को फिर सूचित करते हैं-" बेगम साहिबा यहीं तशरीफ़ रखती हैं और गालिबन दुख्तरे नेक अख्तर (शुभ नक्षत्रों वाली पुत्री) की आमद है."
प्रेमचंद ने अपनी इस सुपुत्री का नाम कमला रखा. इन दिनों मिर्जापुर में महताब राय के विवाह की बात चल रही थी जिसकी सूचना 4 मई 1913 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को इन शब्दों में दी- "आज छोटक (महताब राय) के कद्रदान मिर्जापुर से आने वाले हैं."किंतु इन क़द्रदानो के साथ मामला पक्का न हो सका. एक महीने बाद 3 जून 1913 ई० को प्रेमचन्द ने लिखा- "छोटक की शादी डिस्मिस हो गयी . बहुत अच्छा हुआ." अभी दो-तीन साल तक यह काम कब्ल अज वक्त था." प्रेमचन्द का स्वास्थ्य इधर काफी ख़राब चल रहा था. इसी चिट्ठी में वे निगम को सूचित करते हैं कि वे छुट्टी की दरखास्त दे चुके हैं, और सम्भव है 15 जून 1913 ई० से उन्हें छुट्टी मिल जाए.
प्रेचंद का स्वास्थ्य किस सीमा तक गिर चुका था इसका अनुमान इन शब्दों से किया जा सकता है "आप मुझे देखें तो गालिबन पहचान न सकेंगे. हाज्में में फितूर आ गया है. जोफ (कमजोरी) दिन-दिन बढता जा रहा है."और फिर चार दिन बाद लिखते हैं- "मैं अपनी हालत ख़राब होने के बाइस बिल्कुल अपाहिज हो गया हूँ.---- मेदा ज़रा सही हो जाए तो फिर कुछ काम करूं. कानपूर मेरे प्रोग्राम में शामिल है और गालिबन बनारस जाने से क़ब्ल अगर आप मेरी रिहाइश (आवास) का कोई इन्तेजाम कर सकें, तो मैं कानपुर ही में अपना मुआलिजा कराऊँ. क्यों बनारस जाऊं. क्योंकि अब शादी तो होनी नहीं है, खाह-मखाह की दर्दसरी. "
प्रेमचन्द को अवकाश भी मिला और वे कानपूर भी गए. मगर वहां रहकर इलाज कराने की बात हवा में उड़ गयी. तीन महीने का अवकाश इधर-उधर की बातों में निकल गया. 14 सितम्बर की शाम तक हमीरपुर पहुँचना ज़रूरी था. इसलिए निगम के खिन्न होने की चिंता किए बिना वे हमीरपुर पहुँच गए. "हमीरपुर मैं ऐसे वक़्त पहुँचा जब मेरी रुखसत ख़त्म होने में सिर्फ़ चौबीस घंटे की देर थी. 14 सितम्बर की शाम को ख़त्म होने वाली थी. मैं 13 को चला."
प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे कि "सेहत बड़ी चीज़ है जिसने इसकी क़द्र न की उसके लिए बजुज़ रोने और सर धुनने के और कोई इलाज नहीं है". किन्तु सब कुछ जानते हुए भी जून 1914 ई० तक का समय इसी स्थिति में हमीरपुर में कट गया. जुलाई के प्रथम सप्ताह में बस्ती के लिए प्रस्थान किया. परिवार साथ न जा सका. नई-नई जगह थी इसलिए अपने अकेले जाने की सूचना निगम को देना न भूले- "मैं इस वक़्त यहाँ से तनहा जाता हूँ. "
बस्ती में नए सिरे से इन्तेजाम करना था. न किसी से जान न पहचान, और बकौल ख़ुद तंग्दस्ती अलग -"नए नए इन्तेजाम की वजह से मैं यहाँ तंग्दस्त हो गया. चार्पाईयाँ बनवानी पडीं, अभी जानवर नहीं लिया, लेकिन उसके लिए दिन-रात फिक्र है. ख़ुद सेनाटोजन का इस्तेमाल कर रहा हूँ, जो शायद यह शीशी ख़त्म हो जाने पर मुश्किल से मिल सकेगी.” पर शीघ्र ही प्रेमचंद सेनाटोज़न की चिंता से मुक्त हो गए. 10 नवम्बर 1914 के पत्र में निगम को सूचित करते हैं-"सारी दुनिया को सेनाटोज़न फायदा करती है, मुझे इस से भी कुछ न हुआ. आपने चार-पाँच मील हवा खाने की सलाह दी है, उसकी तामील कर रहा हूँ. "
स्वास्थ्य के टिचन हो जाने का प्रेमचंद ने भर्सख प्रयत्न किया. जनवरी 1915 ई० में छे महीने की छुट्टी लेकर कानपूर, लखनऊ, इलाहबाद, बनारस- सभी जगह इलाज कराया. कोई विशेष लाभ न हुआ. 19 मार्च 1915 ई० को अंत में थक-हार कर पांडेपुर चले गए. वहाँ से एक दिन बाद निगम को चिट्ठी लिखी - "मैं कल यहाँ पहुँच गया और हस्बे-दस्तूर जैसा था वैसे हूँ. " फिर लगभग दो सप्ताह बाद लिखते हैं -"मुझे यहाँ आए करीबन दो हफ्ते हुए. मेरी तबिअत बदस्तूर है. सैर और इह्तियात पर ही दारोमदार रखा है."
पांडेपुर से कुछ ठीक-ठाक होकर प्रेमचंद फिर बस्ती आ गए. यहाँ से कुछ ही दिनों बाद उन्होंने निगम को 10 अगस्त 1915 ई० के पत्र में अपनी आर्थिक स्थिति की सविस्तार जानकारी दी- "मेरे पास इस छे माह की रुखसत के बाद इस वक़्त कुल आठ सौ रूपये हैं. तीन सौ रूपये मैं ने तीन असामियों को अठारह फीसद सूद पर क़र्ज़ दे दिए हैं. " प्रेमचंद महाजन नहीं थे, किन्तु सूदखोर तो बहरहाल कहलायेंगे. 18 फीसद सूद पर क़र्ज़ देना किसी ज़रूरतमंद की मजबूरी का लाभ उठाना नहीं है तो फिर क्या है ?
परिस्थितियों के दबाव में आकर टूट जाना, मनुष्य का एक सामान्य स्वभाव है. लेकिन प्रेमचंद के साथ ऐसा नहीं हुआ. उनमें सघर्ष की क्षमता थी, जुझारूपन था और ज़िंदगी में आगे बढ़ने का ज़बरदस्त हौसला था. स्वास्थ्य की चिंता छोड़ कर उन्होंने पढने और परीक्षा पास करने का निर्णय लिया. २ अक्तूबर 1915 ई० को उन्होंने निगम को सूचित किया -"इस साल तो किताबें मंगवा ली हैं. छोटक साथ हैं. उन्हें छोड़ भी नहीं सकता. यही फ़ैसला होता है कि एक बार फिर तालिबिल्मी के उम्मीदोबीम (आशा-निराशा )का मज़ा ले लूँ." और फिर 16 दिसम्बर 1915 ई० को परीक्षा की बाबत लिखते हैं -" मैं एफ़० ए० का इम्तेहान देने मार्च में कहीं-न-कहीं जाऊंगा. इस साल तैयार हूँ. बनारस, इलाहबाद, कानपूर और लखनऊ, चारों में बनारस तकलीफदेह है. कानपूर में खाने-पीने की तकलीफ, लखनऊ में जाए-कयाम कालेज से दूर, इलाहाबाद सुभीता है. वरना कानपूर में चैन से रहता. बहरहाल गर्मी की तातील में ज़्यादा नहीं तो पन्द्रह दिन तक सोहबत रहेगी."
मई का महीना भी आ गया किन्तु निगम की सोहबत का मौक़ा न मिला. 13 मई 1916 के पत्र में निगम को सूचित करते हैं - "आज बनारस जाता हूँ. मेरे एक साले साहब की शादी 8 जून को है. इसलिए मैं ने यह बेहतर समझा की जून ही में बनारस से चलूं और आपसे मुलाक़ात करता हुआ शादी में शरीक होने के बाद 15 तक बनारस वापस चला जाऊं. "किन्तु मई में बनारस न जा सके. हाँ बस्ती के जीवन से तंग आकर तबादले की दरखास्त अवश्य दे दी. कानपूर आने की बड़ी इच्छा थी. ख़याल था कि वहीं आकर शायद कुछ शान्ति मिले. 22 मई 1916 ई० को निगम को लिखा -"काश मैं किसी तरह तब्दील होकर कानपूर आ सकता. तबादले की दरखास्त तो दे दी है, मगर मालूम नहीं कहाँ फेंका जाऊं."
निगम चाहते थे कि प्रेमचंद कानपूर आजायं. किन्तु घरेलू जीवन की जिम्मेदारियां इतनी छूट कब देती थीं. उत्तर में निगम को लिखा - "मेरे आने की बात यूं है. मैं तो आज ही रवाना हो जाता, मगर 27 मई को फैजाबाद से एक लाला साहब छोटक की शादी के मुतअल्लिक कुछ तज़किरा करने के लिए आयेंगे. फिर मुझे धर्मपत्नी जी के साथ सुसराल जाना है. गालिबन 4 या 5 जून को जाऊँगा. अगर यह झमेले न होते तो बराहेरास्त कानपूर आता. टट्टी और पंखे तो खैरियत से होंगे. "
प्रेमचंद का तबादला हो गया. किन्तु कानपूर के बजाय गोरखपूर भेजे गए. अगस्त की 18 तारीख को वे गोरखपूर पहुंचे और अभी सामान भी ठीक नहीं कर पाये थे कि रात में श्रीपत राय का जन्म हुआ. गोया एक पुरानी इच्छा थी जो आज पूरी हो गई. अभी आठ महीने पहले वे निगम को बस्ती से 16 दिसम्बर 1915 ई० के पत्र में लिख चुके थे -" चाची बनारस, बाक़ी तीन आदमी यहाँ. बाल-बच्चे न हुए, न उम्मीद न आरजू." लेकिन सच बात यह है कि कुछ-कुछ उम्मीद बंधने के बाद ही यह बात लिखी गई थी. रह गई बात आरजू की. वह तो शायद बहुत गहराई से मन में बैठी थी.
गोरखपूर प्रेमचंद के लिए नया नहीं था. किन्तु बचपन के गोरखपूर और वर्तमान गोरखपूर में काफ़ी अन्तर था. तब प्रेमचंद केवल धनपत थे और वह धनपत आश्रित रह कर भी बहुत स्वतंत्र था. पूरी तरह स्वच्छंद और उन्मुक्त. बीडी सिगरेट पी सकता था, गन्दी औरतों के बीच घुस कर उनकी रोचक बातें सुन सकता था, चाची के हँसी-मजाक में साझीदार हो सकता था, कटी हुई पतंगों के पीछे दौड़ सकता था, हुक्के गुडगुडा कर तिलिस्म-होश्रुबा की मीठी-मीठी चुस्कियाँ ले सकता था और सबसे बढ़ कर मामा जी और चमारिन की प्रेमलीला का आनंद ले सकता था. किन्तु उस धनपत और इस प्रेमचंद के बीच बहुत बड़ा फासला था. आज वह दायित्व के बोझ से दबा हुआ था और स्वतंत्र रहकर भी स्वतंत्र नहीं था.
गोरखपुर के प्रारंभिक चार महीने किस प्रकार कटे, इसकी कोई सूचना नहीं मिलती. निगम को इस बीच चिट्ठियां अवश्य लिखी होंगी. पर इस ज़माने की कोई भी चिट्ठी उपलब्ध नहीं है. गोरखपूर से पहली उपलब्ध चिट्ठी 11दिसम्बर 1916 को लिखी गई, जबकि बस्ती की अन्तिम चिट्ठी 13 मई 1916 की है. 11 दिसम्बर की चिट्ठी में लिखते है - "लखनऊ जाने का इरादा तो करता हूँ, देखूं गैब से मदद मिलती है या नहीं. इसी के लिए कई रिसालों में लिखा. एक साहब ने तो ख़बर ली. दूसरे साहब आइन्दा लेंगे." स्पष्ट है कि इस बीच ज़माना में छपी तीन कहानियो ( घमंड का पुतला-अगस्त 1916, जुगनू की चमक - अक्तूबर 1916, धोखा - नवम्बर 1916 ) के अतिरिक्त निश्चय ही कुछ और कहानियाँ भी लिखी गई होंगी जिनकी सूचना इस पत्र में दी गई है. हो सकता है जालिब देहलवी के बहुत आग्रह पर हमदम लखनऊ के लिए कोई कहानी लिखी हो. इसी पत्र में यह भी सूचना देते हैं-"किस्सा तैयार है. कल या परसों तक ज़रूर बिल्ज़रूर भेज दूंगा." और यह किस्सा था दो भाई जो ज़माना के जनवरी 1916 के अंक में छपा. इसमें श्री कृष्ण जी पर चोट की गई थी. पात्रों के नाम तक नहीं बदले गए थे. वासुदेव, कृष्ण, बलराम राधा, श्यामा इत्यादि. विरोध में निगम के पास कई पत्र आए. प्रेमचंद की प्रतिक्रिया निगम के लिए अनिवार्य थी. तत्काल प्रेमचंद ने उसका उत्तर दिया और अपनी सफाई पेश की जो ज़माना के फरवरी अंक में छपी. (अमृत राय और मदन गोपाल के संग्रहों में यह चिट्ठी नहीं है.)
गोरखपूर में, अमृत राय की सूचना के मुताबिक श्रीपत राय के जन्म के बाद से ही शिवरानी देवी बहुत बीमार हो गई थीं. इस स्थिति में बच्चों को सुलाना-जगाना, नहलाना-धुलाना, खिलाना-पिलाना, गरज यह कि सारी जिम्मेदारियां प्रेमचंद ने संभाल ली थीं. (कलम का सिपाही, पृ0 150 ). यह ठीक है कि प्रेमचंद की विमाता से शिवरानी देवी की ठनी रहती थी. किन्तु बच्चों से उनका बे ताल्लुक हो जाना समझ में नहीं आता. फिर भी अमृत राय ग़लत क्यों लिखेंगे.
24 जनवरी 1917 को प्रेमचंद ने निगम को अपने ससुर के बीमार होने की सूचना दी और लिखा कि फरवरी में उन्हें देखने इलाहबाद जायेंगे. फिर २० फरवरी को सूचित किया कि 19 को इलाहबाद पहुँच गए. वहाँ उन्हें 15 मार्च तक रुकना पड़ा. 16 को गोरखपूर पहुंचे किंतु तीन महीने बाद जून 1917 के प्रथम सप्ताह में उन्हें फिर इलाहाबाद जाना पड़ा. 8 जून के पत्र में निगम को लिखा -"मैं यहाँ बुरा आ फंसा". 30 जून को पिंड छुडा कर किसी तरह गोरखपूर पहुंचे. परीशानियाँ वहां भी साथ लगी रहीं. 5 जुलाई को धन्नू को ब्रांकाईटिस हो गया. डाक्टर की दवा करनी पड़ी तब जा कर कहीं अच्छा हुआ.
अगस्त में हर तरफ़ फसली बुखार का ज़ोर था. प्रेमचंद का परिवार भी इसकी चपेट में आ गया. 22 अगस्त 1917 की चिट्ठी में उन्होंने निगम को लिखा -"यहाँ आजकल फसली बुखार की शिकायत है. घर के दो आदमी बीमार हैं." अगस्त में सीतापूर जाने का प्रोग्राम रद करना पड़ा. महताब राय मार्च 1917 में टाइप सीख कर लौटे थे और उनके लिए निगम से प्रेमचंद ने ज़ोरदार सुफारिश भी की थी. किंतु जब वहां काम नहीं बना तो बस्ती में 30 रूपए मासिक की टाइपिस्ट की नोकरी दिलवा दी जहाँ उन्होंने जुलाई 1918 तक काम किया. मई के अन्तिम सप्ताह में प्रेमचंद ने उनकी शादी करा दी.
यह ज़माना प्रेमचंद के लिए बड़ी ही परेशानियों का था. स्वयं उन्हीं से सुनिए -"क्या करूँ ऐसी परीशानियों में था कि कानपूर आने का मौक़ा ही न मिला. 11 मई को यहाँ से चला, सत्ताईस को बारात के साथ गया, ३० को वापस आया, फिर मकान की मरम्मत में फंसा.----जब से आया हूँ आँखें उठी हुई हैं." बी. ए. पास करने की धुन अलग थी. किस्सों-कहानियो में डिग्रियों की हमेशा खिल्ली उड़ाते रहे, किंतु व्यावहारिक जीवन में अच्छी तरह जानते थे कि बी.ए. किए बगैर कुछ काम नहीं बनता -"मुझे ज़िंदगी के तजुर्बे से मालूम होता है कि किसी लिटरेरी लाइन में बगैर ग्रेजुएट हुए कोई उम्मीद नहीं. ----आज बेरोजगार हो जाऊं तो कोई ऐसा रिसाला या अखबार नहीं है जो क़लील मुआवजे (थोड़े पारिश्रमिक ) पर भी मेरा निबाह कर सके. ---तीन साल की मामूली मेहनत में ग्रेजुएट हो सकता हूँ. बुढापे में आराम मिलने का सहारा हो जाएगा. " (चि० ,प० 1/42)
जुलाई, अगस्त, सितम्बर, तीन महीने गुज़र गए, बारिश बिल्कुल नहीं हुई. कहत पड़ गया. बीमारियों ने धावा बोला. 27 अक्तूबर 1918 ई० को निगम को लिखा- "अखबारों में तो कानपूर की कैफियत देख-देख कर जी काँप उठता है. परमात्मा आप लोगों की रक्षा करे. मैं भी यहाँ बहुत परीशन रहा. मेरे सिवा सारा घर पड़ा हुआ था. खाना तक अपने हाथों से बनाना पड़ता था. अभी तक कुछ-कुछ कसर बाकी है. सबको खांसी आ रही है. "
बी.ए. की परीक्षा की तैय्यारियां जोरों पर थीं. सफलता का पक्का विश्वास था. अप्रैल 1919 ई० में परीक्षा देनी थी. तीन-चार महीने पहले से कहानी-लेख आदि लिखना बंद कर दिया. 7 फरवरी 1919 को निगम को लिखा -" मैं अप्रैल में इलाहबाद से लौटते हुए कानपूर आने की कोशिश करूँगा और गर्मियों में तो बइत्मीनान मुलाकत होगी."फिर 19 मार्च को अपने इलाहबाद जाने की सूचना दी- "मैं 1 को इलाहबाद जा रहा हूँ. मेरा पता यह होगा- बाबू कृपा शंकर वकील, कटरा, इलाहबाद".
किंतु इलाहबाद से कानपूर जाने का अवकाश न मिल सका-" मुझे यहाँ से 16 की शाम को फुरसत मिलेगी और 17 को मुझे गोरखपूर पहोंचना लाज़मी है." इलाहबाद जाते समय परिवार को भी साथ ले गये और वहीं बच्चों को उनके ननिहाल में छोड़ दिया. 18 अप्रैल को गोरखपूर पहुंचे तो घर में अकेले थे. 19 को निगम को पत्र में लिखा-" कल गोरखपूर पहोंच गया...मेरे लड़के-बाले तो आजकल नाना साहब के यहाँ हैं. " दो-एक दिन गोरखपूर में रह कर वे स्वयं भी बच्चों के नाना के यहाँ चले गये और वहां एक दिन से अधिक नहीं रुके और 24 अप्रैल को उन्होंने अपने लौट आने की सूचना दी. किन्तु परिवार अभी भी इलाहबाद ही में था.
पहली मई से स्कूल दो महीने के लिए बंद हो गया. 3 मई को प्रेमचंद लाला तेज नरायन लाल की शादी में रामपूर (आजमगढ़ ) चले गये. वहां से 15 मई को निगम को सूचित किया - "18 को यहाँ से चलने का क़स्द है. इस दरमियान में मुझ पर कई सानहे गुज़रे. मेरी हमशीरा ( बहन ) साहिबा का 4 मई को इंतकाल हो गया. मेरे एक नौजवान साले का 5 मई को. इसलिए मिर्जापूर में दो-चार दिन रहकर इलाहबाद होता हुआ आख़िर मई तक कानपूर पहोंचूँगा. "
30 जून 1919 ई० को पूरे दो माह की छुट्टी इधर-उधर में समाप्त करके प्रेमचंद गोरखपुर पहुंचे. उसी दिन कहकशां के सम्पादक इम्तियाज़ अली ताज को चिठ्ठी लिखी - "आज दो माह के बाद यहाँ आया हूँ. ---दो महीने तो इधर-उधर आवारा फिरता रहा. दो महीने इम्तिहान की नज्र हुए . मगर म्हणत ठिकाने लगी." अन्तिम वाक्य बी. ए. की सफलता को रेखांकित करता है.
जुलाई के तीसरे सप्ताह में पत्नी और बच्चे भी इलाहाबाद से आ गये. परिवार में एक की गिनती और जुड़ने वाली थी. 5 नवंबर को प्रेमचंद ने निगम को लिखा-" नौ आमद के इंतज़ार में तीन औरतें यहाँ मुकीम हैं और वह हजरत हैं कि आने का नाम ही नहीं लेते." जैसे पहले से पता हो कि इस बार भी बेटा ही होगा. हुआ भी ऐसा ही; और प्रेमचंद ने उसका नाम मुन्नू रखा. किन्तु यह मुन्नू अधिक दिनों तक साथ रहने के लिए नहीं आया था. अभी एक वर्ष भी पूरा नहीं हो पाया था कि 5 जुलाई 1920 ई० को प्रेमचंद ने इसके निधन कि दुखद सूचना दी- "आज रात को मुझपर एक सानिहा गुज़रा. गरीब मुन्नू मेरा छोटा बच्चा इलाहाबाद से आकर चेचक में मुब्तिला हो गया था. उसने नौ दिनों तक गरीब घुला-घुला कर आख़िर जान ही लेकर छोड़ा. और फिर २३ दिन बाद ताज को लिखा-"अभी तक इस गम से निजात नहीं हुई. सब तो हो गया मगर याद बाक़ी है और शायद ताज़ीस्त रहेगी." संतोष यह सोंचकर किया जा सकता है कि मुन्नू का निधन, प्रेमचंद के रामपुर, हरद्वार, कनखल, ऋषिकेश, देहरादून, दिल्ली और आगरा घूम-घामकर लौटने के बाद हुआ. अन्यथा यदि उनकी अनुपस्थिति में यही घटना घटती, तो उनका दुःख इससे भी कहीं अधिक गहरा होता.
विचारणीय यह है कि इन दिनों प्रेमचंद का स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं था. दहरादून से 6 जून 1920 ई० को प्रेमचंद ने ताज को लिखा था- 'मेरी तबीअत दौराने-सफर में ज्यादा मुज्महिल हो गई है. आया था के हरिद्वार कि आबो-हवा से कुछ फायदा होगा. लेकिन नतीजा उसका उल्टा हुआ. पेचिश ने जिस से मेरी पुरानी दोस्ती है, बहोत दिक कर रखा है.'
स्वास्थ्य की खराबी और बच्चे की मृत्यु ने प्रेमचंद को पूरी तरह तोड़ दिया. 12 अगस्त 1920 ई० को निगम को सूचना दी- ‘अभी तक मेरी सेहत इस काबिल नहीं हुई के कुछ लिटरेरी काम कर सकूँ. ...क्या ईश्वर के साथ अहबाब भी मुझ से रूठ जायेंगे ?' यद्यपि घर में इन दिनों काफ़ी चहल-पहल थी. मामा जी और महताब राय का परिवार वहीं आ गया था. किंतु-' सेहत और 'सोजे-पिन्हाँ' (बेटे की मृत्यु से हुई आतंरिक पीड़ा) ने ऐसा मजबूर कर रखा है के कुछ काम करने में मन नहीं लगता. सेहत कुछ करने ही नहीं देती.' और यह 'सेहत' पूरे वर्ष छेड़-छड़ करती रही. इसी हालत में एम्.ए. करने का स्वप्न भी देखा जाने लगा. किंतु परिस्थितियाँ कभी ऐसी नहीं बन पायीं कि यह स्वप्न साकार हो सके. बस एक पछतावा साथ लगा रहा. 26 अगस्त 1920 ई० को ताज को लिखा- 'काश मैं ने अवायले उम्र में एम्.ए. कर लिया होता तो यह कस्म्पुर्सी की हालत न होती.'
इसी ज़माने में ताज ने प्रेमचंद की सूरत-शक्ल जानने कि इच्छा व्यक्त की. कुछ धुंधली लकीरें अपनी कल्पना से बनायी थीं और एक पेंटर से तैल-चित्र तैयार कराया था. प्रेमचंद चित्र देख कर मुग्ध हो गए. उन्होंने ताज को लिखा- 'शकलो-शबाहत के मुतअल्लिक आपने जो कयास किया है उस से रूहानी तअल्लुक का गुमान और भी पुख्ता हो जाता है. मैं बंद कालर का कोट और सीधा पाजामा पहनता हूँ. और पगड़ी बाँधता हूँ.' और फिर एक दूसरी चिट्ठी में- 'जी हाँ नवाब राय मैं ही था. ...बाबू दया नरायन के मशविरे से यह नाम (प्रेमचंद) तजवीज़ कर लिया'.
14 फरवरी 1921 ई० को प्रेमचंद ने नोकरी से इस्तीफा दे दिया. 15 को इस्तीफा मंज़ूर होने कि सूचना निगम को इन शब्दों में दी- 'मैं कल सरकारी मुलाज्मत से सुबुक्दोश हो गया. आज इस्तीफा भी मंज़ूर हो गया. यहाँ से एक हफ्तेवार उर्दू अखबार निकालने का क़स्द है. प्रेस कि भी तलाश है. ...क्या कानपूर में कोई लीथो मशीन मिल सकेगी ?' फिर कुछ दिनों बाद 23 फरवरी को निगम के साथ मिलकर प्रेस चलाने कि इच्छा व्यक्त की - 'अब मैं आजाद हो गया. अब बतलाइए क्या करूं ? ...कपड़े बुनने के लिए तैयार नहीं. काश्तकारी मेरे किए हो नहीं सकती. क्या आपका इरादा अब भी प्रेस की तरफ़ है ? मैं चार-पाँच हज़ार का सरमाया और अपना सारा वक़्त आपकी नज़र करने को तैयार हूँ बशर्ते के आप भी मेरे मुआविन और शरीक हों. बावजूद नॉन-काप्रेशन करने के अभी तक मैं दौलत की तरफ़ से मुस्तगनी (तृप्त/संतुष्ट) नहीं हूँ. और मैं जाती तौर पर हो भी जाऊं, लेकिन मेरी बीवी को यकीन हो जाय के अब इसी तरह उसकी ज़िंदगी बसर होगी तो वो मुझे हरगिज़ मुआफ न करेगी.'
यह चिट्ठी महावीर प्रसाद पोद्दार के गाँव से लिखी गई थी. प्रेमचंद वहाँ आठ कर्घों की सहायता से कपड़े का कारखाना चला रहे थे. एक मैनेजर भी पच्चीस रूपये माहवार पर रख लिया था. ज़ाहिर है कि इस कार्य में विशेष अर्थ-लाभ की संभावना नहीं थी. कुछ भी हो शिवरानी देवी जैसी देश-भक्त और समाज-सेवी महिला के लिए प्रेमचंद ने जिस शब्दावली का प्रयोग किया है उसकी सार्थकता पर्याप्त संदिग्ध है.
मार्च के पहले सप्ताह में प्रेमचंद पर बुखार का हमला हुआ. 19 मार्च को वे गोरखपूर से बनारस चले गए. वहाँ से उन्होंने होली के बाद कानपूर जाने की योजना बनायी- 'मैं यहाँ 19 तारीख को आ गया और घर पर मुकीम हूँ. होली के दो-एक दिन बाद कानपूर आने का क़स्द करता हूँ.' किंतु कानपूर जाना न हुआ. ५ अप्रैल को नगम को पत्र लिखा- 'मैं नादिम हूँ कि अबतक कानपूर नहीं आ सका. दो-एक दिन में ज़रूर आ जाऊंगा.' और फिर 14 मई की चिट्ठी में यही बात दुहरा दी-'मेरा आना आप मुक़द्दम (निश्चित ) समझें.' 27 मई के पत्र में यह दिलासा भी टूट गया- 'अभी कानपूर न आ सकूँगा. ' किंतु बाईस-तेईस दिनों बाद 19जून 1921 ई० के पत्र में लिखते हैं - 'कल सब तैय्यारियां कर चुका था. इक्का तक मंगा लिया था, लेकिन शाम को छोटक नाना साहब का ख़त लाए कि मैं सोमवार को तुमसे मिलने आ रहा हूँ. इसलिए तौंअन-व-कर्हन (विवशतावश) रुकना पड़ा. ..पहले इरादा था कि अयाल को इलाहबाद छोड़ दूँ और कानपूर में मकान तय करके लिवा लाऊं. अब आप फरमाते हैं कि मकान भी रोक लिया है. यह मुश्किल भी आसान हो गई. अब मय अयाल के कानपूर आऊंगा....हाँ अगर आते ही आते मकान न मिला तो फिर मुझे आपके घर को खानए-बेतकल्लुफ बनाना पड़ेगा. दो-एक दिन मस्तूरात (भद्र महिलाओं) को भी एक दह्कानी (देहाती) औरत की मेहमान-नवाजी करनी पड़ेगी.' अंततः 23 जून 1921 ई० को वे कानपूर पहुँच गए जहाँ अक्तूबर में बन्नू का जन्म हुआ.
सोलह वर्ष पहले के और आजके कानपूर में बड़ा अन्तर था. अन्तर इसलिए भी था कि उस समय धनपत राय एक साधारण से मुदर्रिस थे, नए-नए लेखक थे, प्रतिष्ठा और सम्मान मित्र-मंडली तक सीमित था, भीतर दबा हुआ लेखक केवल उर्दू की चौहद्दियों में गुम था. युवावस्था की चुहल, हँसी-मजाक, शीशों के टकराने का खुमार भरा संगीत, चह्चहे, क़हक़हे , क्या नहीं था उस पुराने कानपुर में. किंतु उस समय का धनपत अब एक जाना-माना लेखक था, मारवाडी विद्यालय का हेडमास्टर था, अवस्था भी चालीस के ऊपर हो चुकी थी और फिर नाथ और पगहा भी साथ था.
1921 के समाप्त होते-होते जहाँ प्रेमचंद साहित्य के सोपानों की ऊँचाइयाँ तय करने में व्यस्त थे , वहीं एक दिन अपने ही मकान के जीने से फिसलकर नीचे आ गए. 28 दिसम्बर को निगम को इस घटना की सूचना इन शब्दों में दी-"जिस दिन आपके यहाँ से आया, उसी दिन रात को जीने से नीचे गिर पड़ा. दोनों अंगूठों में सख्त चोट आई और एक घुटनी भी फूट गयी. कमर में भी चोट लगी. इस वजह से घर में मुकैयद हूँ."और फिर उसी हेड मास्टरी से, जिसके लिए प्रेमचंद ने 24 अप्रैल 1919 ई० के पत्र में निगम को लिखा था-" मैं अगर इम्तिहान में पास हो गया तो किसी एडेड स्कूल में 125 रुपये का हेडमास्टर हो जाऊंगा." 22 फरवरी 1922 ई० को इस्तीफा दे दिया और बनारस चले गए. हाँ निगम को सूचित करना नहीं भूले-" मैंने आज इस्तीफा दे दिया. बहोत तंग आ गया था." गोया किसी करवट भी चैन मयस्सर नहीं.
बनारस आने के तीन महीने बाद लमही के आबाई मकान को नए सिरे से बनवाने का चक्कर शुरू हो गया. 31 मई 1922 ई० की चिट्ठी में निगम को सूचित किया- "मेरा मकान बन रहा है." फिर 19 जून को लिखा- "घर की तामीर में ऐसा मसरूफ हूँ कि कोई किस्सा लिखने का मौक़ा न पा सका." आठ दिन बाद 28 जून को लिखते हैं-" अभी तक तकरीबन दो हज़ार सर्फ़ हो चुके हैं." इसी चिट्ठी में यह भी लिखा-"नाना, वाना से मुतलक उम्मीद नहीं. बड़े शातिर निकले." फिर 7 जुलाई को सूचना दी-"मकान तैयार हो जाता है तो घर ही रहूँगा और लौट जाया करूंगा. अब परदेश का क़स्द नहीं."
सितम्बर 1922 ई० में लखनऊ जाने की बात आई तो निगम को 9 सितम्बर की चिट्ठी में लिखा-"कोशिश करूंगा कि 12 को लखनऊ जाऊं. . यकीनन आऊँगा. लेकिन ठहरने का ठिकाना कहाँ होगा? सब पहले से तय कर दीजियेगा. " फिर पहली अक्टूबर को एक नया पचड़ा शुरू हो गया- "नाना साहब तशरीफ़ लाये हैं. उनके खानदान में खानगी जंग शुरू हो गयी. भाई-बंदों से उनकी तनहा खोरी न बर्दाश्त हो सकी. अब बटवारे का मसला दरपेश है. मेरे मकान में हुल्लड़ हो रहा है."
मकान अभी पूरी तरह नहीं बन पाया था. यद्यपि 17 फरवरी 1923 ई० को प्रेमचंद ने लिखा था-"मेरा मकान तैयार हो गया. होली से उसे आबाद भी कर दिया जायेगा." किंतु छे महीने बाद 18 जुलाई के पत्र से इसकी पुष्टि नहीं होती. लिखते हैं-"मेरा मकान भी तो अभी पूरा नहीं हुआ. सिर्फ़ गुज़र करने के काबिल हो गया है. अभी एक हज़ार और लगें तो मुकम्मल हो. लगभग दस महीने बाद दस मई 1924 ई० को मकान से सम्बद्ध सूचना देते हुए पहली बार संतोष की झलक दिखाई देती है. " मकान अब एक करीने का बन गया. अब इसकी हैसियत मकान की हो गयी." पर अभी भी शायद इच्छानुरूप निर्माण कार्य समाप्त नहीं हुआ है. जभी तो 8 जुलाई 1924 ई० को लिखते हैं-" इधर मकान की तक्मील हो रही है. गालिबन अगस्त के आखीर तक मुकम्मल हो जायेगा."
8 मार्च 1924 ई० को बन्नू की बहन का जन्म हुआ था और प्रेमचंद की संतान में अब दो लड़के और दो लड़कियां हो गए थे. किंतु कुल तीन महीने ही बीतने पाये थे कि बच्ची ईश्वर को प्यारी हो गयी. एक बच्चे की मृत्यु के सदमे का गहरा निशान अभी पूरी तरह साफ नहीं हुआ था कि अचानक उसी निशान को गहराती एक चोट और लग गयी. इस चोट में यद्यपि पहली सी तड़प नहीं थी, पर आहिस्ता-आहिस्ता दम तोड़ती ज़िंदगी की तस्वीर रह-रहकर आंखों के सामने घूम जाती थी और अनायास ही बेचैन कर देती थी.
3 जून 1924 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को सूचित किया था- 'मेरी छोटी लड़की जो 8 मार्च को पैदा हुई थी 28 की शाम से दस्त और बुखार में मुब्ताला है. मैं समझता था कि खारजी शिकायत है, रफा हो जायेगी, मगर शिकायत बढ़ती गई. यहाँ तक कि तीन तारीख को उसकी हालत इतनी अब्तर हो गई कि घर में लोगों ने रोना-पीटना भी शुरू कर दिया. मगर सुबह को उसको जरा सा इफाका हुआ. तब से अबतक न वह मुर्दा है न जिंदा. आँखें बंद किए पडी रहती है. होमोयोपैथिक की दवाएं दे रहा हूँ. मगर अभी तक कोई दवा कारगर नहीं हुई.'
बेचैनी की यह स्थिति एक करुण दुखांत में तब्दील होकर 7 जून को समाप्त हो गई. चार दिनों की खामोशी के बाद प्रेमचंद की आँखों से आंसुओं की जो धार निकली वह अक्षरों में ढलकर निगम को लिखी गई चिट्ठी में पेवस्त हो गई- 'यहाँ तो 7 को लड़की रुखसत हो गई, उसकी जाँकनी (प्राण निकलने) की तस्वीर अभी तक आंखों में फिर रही है.'
समय की गति को किसी की अनुमति की अपेक्षा नहीं होती. 1924 ई० का पूरा साल घरेलू परीशानियों और उलझनों में गुज़र गया. बच्ची के निधन के बाद पत्नी की बीमारी, संग्रहणी की शिकायत, धन्नू का बुखार. प्रेस की स्थिति को देख कर भाई साहब अर्थात बलदेव लाल द्वारा अपनी रक़म के लिए किए जाने वाले बार-बार के तकाजे. समस्याएँ तो बहरहाल समस्याएँ हैं, प्रेमचंद इसी प्रकार की उधेड़-बुन में पड़े रहे और अपने ढंग से स्थितियों से लड़ते रहे.
1925 ई० की गर्मियों में सोलन चलने की बात निकली. यद्यपि इससे पहले मुंशी जी कनखल, देहरादून आदि अकेले गए थे, किंतु अब परिवार को घर पर छोड़कर पहाडों की सैर करना कुछ अच्छा नहीं लगा. और कुनबे भर को साथ लेकर घर से निकलना मुश्किल था. फलस्वरूप इस प्रसंग में उन्होंने दूसरी तमाम बातें लिखने के बाद यह टुकडा और जोड़ दिया- "यहीं पड़ा रहूँगा. खस का एक परदा और दो-तीन पैसे का रोजाना बर्फ, मौसम की तकलीफ के लिए काफ़ी है. "
अगस्त 1925 ई0 के प्रथम सप्ताह में बनारस जाने की योजना बनाई. शायद महताब राय से प्रेस के मामले को लेकर आमने-सामने बात-चीत करने की ज़रूरत थी. निगम को 8 जुलाई को लखनऊ से सूचित किया -"अगस्त के आगाज़ में यहाँ से बनारस जाने का इरादा है. " किंतु प्रथम सप्ताह निकल गया और वे बनारस न जा सके. 5 अगस्त को उन्होंने निगम को लिखा- "मैं यहाँ से 4 को बनारस जाने वाला था लेकिन कई वुजूह से इरादा मुल्तवी कर देना पड़ा. पाँच दिन बाद 10 अगस्त को महताब राय को चिट्ठी लिखी - "मैंने यहाँ से चलने की इन्तजारी में धोबी को कपड़े देना बंद कर दिये, आटा बाज़ार से मंगाता हूँ कि ज़्यादा पिस जायेगा तो क्या होगा. कई दिन से चारपाई पर हूँ . पैर में फोड़ा निकल आया है. कल नश्तर दिलाया है. उठ-बैठ नहीं सकता." और फिर दो दिन बाद 12 अगस्त को निगम को लिखा- "5 तारीख से पैर में कचक पड़ गयी. चार दिन सख्त दर्द, जलन और टीस थी. पांचवें दिन डाक्टर से नश्तर लिया. दाहिने पाँव की आधी एडी का चमड़ा काट दिया गया. अब दो दिन से तकलीफ तो बहोत कम है लेकिन उठने-बैठने का काम करने से माजूर हूँ. "फिर 22 अगस्त 1925 ई० को सूचित किया- "अब ज़ख्म पुर हो गया, मगर अभी तक चलने-फिरने से माजूर हूँ." और आठ दिन बाद- "मैं तो अब लंगडा-लंगडा कर चल रहा हूँ."
पहली सितम्बर को प्रेमचंद लखनऊ से बनारस चले गए. महताब राय को प्रेस से हटाकर उसे अपने अधिकार में लेना ज़रूरी था. 10 अगस्त 1925 ई० के पत्र में महताब राय को सूचित भी कर चुके थे- "मैंने कई सूरतें लिखीं, तुमने एक भी पसंद न कीं. आखिरी सूरत मैंने यह लिखी कि ठेके का इंतजाम करो, या तुम ठेका लो या मैं. रूपया सैकडा माहवार सूद, चार रूपया सैकडा सालाना घिसाई. अगर तुम ठेका लोगे तो मैं लखनऊ से अपना सिलसिला न तोडूंगा. तुम न ठेका लोगे तो ख़ुद आकर काम करूंगा." आश्चर्य है कि छात्र जीवन में हिसाब में हमेशा कमज़ोर रहने वाला धनपत घर-बाहर हर जगह हिसाबी चमत्कार दिखाने में इतना पक्का किस प्रकार हो गया. महताब राय इन भूल-भुलैयों में पड़ने पर आमादा न थे. फलस्वरूप प्रेमचंद लखनऊ से बनारस आ गए. और फिर तीन महीने बाद निगम को ३१ मार्च १९२६ ई० के पत्र में लिखा- "प्रेस की हालत ख़राब थी. अब कुछ रू-ब-इस्लाह है . अभी तक शहर में मुकीम होने की सूरत नहीं निकली." पर मार्च के मध्य में महताब राय को जब चिट्ठी लिखी तो प्रेस की कुछ और ही तस्वीर पेश की- "प्रेस का हाल यह है कि सितम्बर से जनवरी तक तो बेकारी रही. मजदूरी पास से देनी पड़ी. करीबन तीन सौ रूपये मजदूरी में सर्फ़ हो गए." महताब राय ने अपनी आर्थिक स्थिति की चर्चा करते हुए कुछ रूपये मांग लिए थे. इसलिए यह उत्तर मिलना तो स्वाभाविक ही था.
निगम प्रेमचंद को बराबर कानपूर आने का निमंत्रण देते रहते थे. 17 जुलाई 1926 ई० को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा- " आप बराबर मुझे बुलाते हैं एक हफ्ते बनारस की हवा खाइए. मैं बहोत जल्द आऊँगा. मौक़ा लगा तो हफ्ते-अश्रे में आप मुझे कानपुर में देखेंगे." किंतु कानपूर जाना न हुआ. २७ जनवरी १९२७ ई० को प्रेमचंद ने लिखा - "आपसे बरसों से मुलाक़ात की नौबत नहीं आई. इत्तेफाकाते-ज़माना और क्या. "पर ज़माने का यह इत्तेफाक अर्थात समय का यह संयोग बहोत अधिक दिन नहीं चला.
15 फरवरी 1927 ई० को प्रेमचंद लखनऊ पहुँच गए और वह भी माधुरी के सम्पादक की हैसियत से. निगम उन दिनों पटना गए हुए थे. 21 फरवरी को प्रेमचंद ने उन्हें लिखा- "मैं 15 को यहाँ आ गया. आप पटना कब जायेंगे. अगर पटना गए हुए हैं तो वहां से कब लौटेंगे. आप आ जाएं तो एक रोज़ के लिए आऊँ मुलाक़ात का जी चाहता है. "और फिर एक दिन प्रेमचंद कानपूर आ धमके. लखनऊ वापस आने पर 14 मार्च 1927 को चिट्ठी लिखी- "अपनी ऐनक भूल आया.बवापसी डाक भेजिए. अँधा हो रहा हूँ.16 को बनारस चला जाऊंगा. इसलिए का ही भेज दीजियेगा. "बनारस से लौटे तो बच्चे साथ न आ सके. 25 अप्रैल को निगम को लखनऊ से सूचित किया- " बच्चे गालिबन 15 म ई तक आयेंगे."
लड़की सयानी हो चुकी थी. और बातों के साथ अब उसके विवाह की चिंता भी ज़रूरी थी. 1927 का वर्ष समाप्त हो गया. 12 जनवरी 1928 ई० के पत्र में निगम को लिखा-"आप 17 को आ रहे हैं. इंतज़ार कर रहा हूँ.....एक अम्रे-ख़ास के मुतअल्लिक आपसे बहोत सी बातें करना हैं. इस साल अगर कोई लड़का ठीक हो जाए तो अगले साल शादी कर दूँ." संयोग ऐसा बना कि लड़का तलाश करने में अधिक भाग-दौड़ नहीं करनी पडी. वैसे तो प्रेमचंद ने कई एक लड़के देखे और ना पसंद कर दिए. किन्तु अंत में एक लड़का जंच गया और मुआमला बन गया.
बेटी का विवाह निश्चित हो जाने से अधिक प्रसन्नता का विषय किसी पिता के लिए और क्या हो सकता है. प्रेमचंद ने 21 फरवरी 1929 ई० को निगम को सूचित किया-" आपको यह सुनकर मसर्रत होगी कि बेटी की शादी जिला सागर के एक मुत्मव्विल (संपन्न) खानदान में तय हो गई है. वह लोग यहाँ आए थे और कल वापस गए हैं. दो-चार रोज़ में मैं बरच्छे की रस्म अदा करने जाऊंगा. लड़का बी. ए. में पढता है. जायदाद माकूल है." किंतु लगता है कि बात पक्की होने में अभी कुछ कसर बाकी रह गयी थी. जभी तो पुरानी सूचना भूलकर 16 अप्रैल 1929 ई० के पत्र में निगम को नए सिरे से सूचित करते हैं- " आप सुनकर बहोत खुश होंगे कि बेटी की शादी तय हो गयी. लड़के की बहेन यहाँ अपने शौहर के साथ आई थी और देख-भाल कर खुश चली गयी. अब मुझे तिलक भेजना है. शादी छठ में होगी. ..आपसे यही गुजारिश है कि इस वक्त आप ज़्यादा से ज़्यादा मेरी जितनी इमदाद कर सकते हों कर दें." निगम ने किसी प्रकार की आर्थिक सहायता की या नहीं, बहरहाल प्रेमचंद के लिए एक बड़े दायित्व के भार से मुक्त होने की प्रसन्नता कुछ कम नहीं थी.
प्रेमचंद इन दिनों हिबेट रोड पर रहते थे. अगस्त 1929 ई० तक वे वहीं रहे. फिर दो सितम्बर को उन्होंने निगम को मकान बदलने की सूचना दी- "अब मैं अमीनुद्दौला पार्क में रहता हूँ. “इसी चिट्ठी में घरेलू परिशानियों की चर्चा करते हुए लिखा- "घर में तीन मरीज़ हो गए. धन्नू की वाल्दा के दांतों में दर्द, और बुखार, बेटी की उंगली में फुंसी, जो बिसह्री कहलाती है और निहायत दर्द पैदा करने वाली होती है, और धन्नू की मामी को बुखार और पेचिश. कल बेटी की उंगली चिरवा दी. अब दर्द कम है. धन्नू की माँ के दांतों का दर्द अभी बदस्तूर है. हाँ, बुखार बंद हुआ. अब दांत निकलवा देने की सलाह है. धन्नू की मामीं का बुखार भी साबिक बदस्तूर है."
इस बीच कमला का विवाह हो चुका था. प्रेमचंद ने मई के पहले सप्ताह में दो महीने की छुट्टी ली थी और विवाह की तैयारियों में जुट गए थे. विवाह की बात-चीत से लेकर बात पक्की होने तक मुंशी भवानी प्रसाद के बेटे वासुदेव प्रसाद के सिलसिले में प्रेमचंद और दशरथ लाल के बीच चिट्ठियां दौड़ती रहीं.अमृत राय ने एकाध चिट्ठी के कुछ अंश कलम का सिपाही (पृ0 434-35) में उद्धृत भी किए हैं. किंतु इस प्रसंग की कोई भी चिट्ठी अमृत राय द्वारा किए गए संकलन में उपलब्ध नहीं है. खैर! बेटी का विवाह हुआ, खूब धूम-धाम से हुआ. लमही में बरात आई और एक बड़ी जिम्मेदारी प्रेमचंद के सिर से उतर गयी.
फरवरी 1930 ई० में तीन-चार दिनों के लिए समधिन साहिबा अपने दामाद के साथ प्रेमचंद के घर आयीं. (चि० प० 1, पृ0 176-77) और संबंधों में मधुरता बढ़ती गयी. 12 जुलाई को प्रेमचंद ने दामाद के बी० ए० करने की सूचना निगम को देते हुए आगे पढाई जारी रखने की चर्चा की- "मेरे सनइनला इस साल बी० ए० पास हुए हैं. वह कानून और एम० ए० दोनों एक साथ लेना चाहते हैं ताकि दो साल में निकल जाएं. क्या ऐसा कानपूर में मुमकिन है ?" यह चिट्ठी अमीनुद्दौला पार्क वाले मकान से लिखी गयी थी. यह इलाका लखनऊ की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था और इस दृष्टि से यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं था. फिर प्रेमचंद की पत्नी सक्रिय रूप से महिलाओं के साथ मिलकर राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग ले रही थीं. प्रेमचंद स्थिति को भांप सकते थे. फलस्वरूप उन्होंने मकान बदल दिया. रात-दिन के जुलूस, पुलिस की कड़ी निगरानी, नयी-नयी योजनायें, नए-नए ब्रिटिश हथकंडे, कौन देखता यह सब कुछ ठीक आंखों की सीध में होते. जनता से सहानुभूति के लिए कलम से जो कुछ लिख रहे थे, वह किसी कुर्बानी से कम तो था नहीं. जोखिम तो उसमें भी अच्छा-खासा था. बस ज़रा हाथ-पैर बचा कर चलने की आदत थी.
मुहल्ला गनेशगंज पर्याप्त शांतिपूर्ण जगह थी. प्रेमचंद इसी मुहल्ले में 20 नंबर के मकान में किराए पर आ गए और निगम को 25 जुलाई 1930 ई0 के पत्र में इसकी सूचना देना नहीं भूले-"मैं आजकल गनेशगंज नंबर २० में रहता हूँ." किंतु जिस बात का डर था वह होकर रही. शिवरानी देवी पिकेटिंग के जुर्म में 10 नवम्बर को गिरफ्तार हो गयीं. प्रेमचंद ने 12 को निगम को इस गिरफ्तारी की सूचना दी- "मैं चार-पाँच रोज़ के लिए बाहर गया हुआ था. उस वक्त घर पर मौजूद न था. वहां से आकर यह वाकया सुना. दूसरे दिन उनसे जेल में मुलाक़ात हुई. सज़ा तो हो ही जायेगी, मगर देखिये कितने महीनों की होती है." और यह सज़ा पूरे दो महीनों की हुई.
1931 ई० में पैरों में रथ के पहिये लग गए. अप्रैल के दूसरे सप्ताह में लाहौर गए. विचार था की वापसी में दिल्ली में रुकेंगे. जैनेन्द्र को इस विषय में चिट्ठी भी लिख दी थी. किंतु दिल्ली रुकना न हुआ. 13 अप्रैल को जैनेन्द्र को लिखा- "मैं लाहौर गया, पर आप दिल्ली न थे इसलिए मैं सीधा लौट आया. " मई की 12 तारीख को लखनऊ से बनारस पहुंचे. पहली जून को महताब राय को चिट्ठी में घरेलू दुखडा सुनाने बैठ गए- "धन्नू और बन्नू, बेटी के साथ पन्द्रह को सागर के लिए रवाना हुए. 16 को इलाहाबाद पहुंचकर बन्नू को पेचिश हो गयी. मुझे तार मिला. 19 को हम और बन्नू की वाल्दा यहाँ से इलाहाबाद गए. बन्नू की हालत ख़राब थी. खून के दस्त आ रहे थे. 27 तक वहां रहना पड़ा. 27 को हम बन्नू के साथ घर लौट आए. धन्नू वासुदेव प्रसाद के साथ सागर गए. यहाँ आकर मैंने दो-तीन दिन प्रेस का हिसाब-किताब देखा. आज फिर जा रहा हूँ. 6 जून को यहाँ से (बनारस) इलाहबाद होते हुए सोराम जाने का इरादा है. 11 को मुझे लखनऊ पहुँचना है. "
मुश्किल से कुछ दिन चैन से बैठने पाये थे कि फिर दौड़-धूप का सिलसिला शुरू हो गया. 12 नवम्बर 1931 ई0 को निगम को लिखा- "मैं तो दिल्ली चला गया था. वहाँ दस-ग्यारह दिन लग गए. दीवाली को लौटा." फिर 25 नवम्बर को सदगुरु शरण अवस्थी को सूचना दी - "ज़रा पटना चला गया था. यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने एक उत्सव में बुलाया था. " गोया 1931 ई० का पूरा वर्ष इधर-उधर भागने-दौड़ने में निकल गया.
जनवरी 1932 ई० में प्रेमचंद को एक फोड़ा निकल आया. वह कुछ ठीक हो रहा था कि 9 जनवरी को उनके बड़े भाई बाबू बलदेव लाल चल बसे. 13 जनवरी की चिट्ठी में प्रेमचंद ने निगम को लिखा- " कई दिन तक एक फोड़े ने तकलीफ दी. अब वह अच्छा हो रहा है. 9 जनवरी को मेरे बड़े भाई साहब बाबू बलदेव लाल का कुलंज से इंतकाल हो गया. घर में दो बच्चे हैं, बेवा, भाई की बेवा और एक बेवा बहन. 19 को दसवां है. मैं 16 या 17 को जा रहा हूँ." प्रेमचंद दसवें में गए किंतु बिल्कुल उस ढंग से जैसे कोई दूर का संबंधी जाता है.
बनारस से लौटने के बाद फोडों ने शायद घर देख लिया. एक के बाद एक. और यह सिलसिला एक महीने तक चलता रहा. 25 फरवरी को निगम को चिट्ठी लिखी तो चिट्ठी इन्हीं परीशानियों की चर्चा से शुरू हुई-" इधर मैं भी शिकायत में मुब्तेला रहा. चार फोड़े लगातार निकले. इनसे नजात न होने पायी थी कि दांतों में दर्द हुआ. दांत से फुरसत मिली तो पेट में दर्द शुरू हुआ और तीन दिन के बाद अब मामूली खुराक पर आया हूँ. एक महीना ख़राब हो गया. " इसी चिट्ठी में- "मैं अप्रैल में बनारस चला जाऊंगा."
अप्रैल में निगम ने एक शादी का निमंत्रण भेजा. उत्तर में 10 अप्रैल को परेम्चंद ने लिखा-"मैं ज़रूर आऊँगा. मगर तनहा. बेटी को गये आज एक हफ्ता हो गया. अपनी मौसी के यहाँ इलाहबाद गयी है. उसकी मां और धन्नू कल वहीं जा रहे हैं.एक शादी है. मैं छोटे बच्चे के साथ यहाँ 4 मई तक रहूँगा. उसे भी लेता आऊँगा." और फिर 13 मई को निगम को सूचित किया- "मैं आज बनारस जा रहा हूँ." किंतु बनारस का अर्थ था लमही. कारण यह है की 17 जून तक वे शहर में मकान नहीं ले सके थे- "अभी तक तो देहात में हूँ मगर जल्द शहर में रहूँगा. मकान ठीक कर रहा हूँ." अगस्त में मकान ठीक हो गया. 15 अगस्त 1932 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- "अब मैं शहर में रह रहा हूँ. लड़के पढने जाते हैं. मैं भी प्रेस में घड़ी-आध घड़ी के लिए चला जाता हूँ."
22 अक्टूबर को इलाहाबाद गए तो पता चला कि निगम भी एक दिन पहले आए थे. 25 को उन्हें चिट्ठी लिखी- "परसों यहाँ आया और मालूम हुआ कि आप भी यहाँ आए थे. क्या कहूं मुलाक़ात नहीं हुई. बहोत सी बातें करनी थीं. यहाँ से बनारस आप तशरीफ़ ले जाते हैं मगर गरीबखाने की तरफ मुखातिब नहीं होते." ऊपर-ऊपर लौट जाने की कहानी जब एक बार फिर दुहराई गयी और उसी के साथ कानपूर आने का आग्रह भी किया गया तो 7 दिसम्बर 1932 ई० की चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा- " उस दिन मैंने दो बजे तक हुज़ूर का इंतज़ार किया लेकिन समझ गया कि कहीं धर लिए गए. आप मुझे बुला रहे हैं. मैं यही सोच रहा हूँ कि बड़े दिन में आ जाऊं." किंतु जाने की बात आयी गयी हो गयी.
फरवरी 1933 ई० में जैनेन्द्र बनारस आए. जाते समय अपना तौलिया भूल गए. मार्च में तीन-चार दिनों के लिए इलाहबाद जाना हुआ वापसी पर ४ मई को जैनेन्द्र को चिट्ठी लिखी- "तीन-चार दिन इलाहबाद रहा और वहाँ तुम्हारी खूब चर्चा रही. तुम अपना तौलिया यहाँ छोड़ गए जिससे बन्दा देह पोंछता है."
मई में कमला के यहाँ बेटा हुआ और प्रेमचंद नाना बन गए. किंतु यह दिन बड़ी ही चिंताओं में बीते. 9 मई को जैनेन्द्र को चिट्ठी लिखी- " मैं सागर गया था. कल शाम को लौटा हूँ. बेटी के बालक हुआ. पर चौथे दिन उसे ज्वर आ गया और प्रसूत ज्वर के लक्षण मालूम हुए. यहाँ तार आया. मैं तो लौट आया, तुम्हारी भाभी अभी वहीं हैं." फिर २७ मई को -"धन्नू की अम्माँ अभी वहीं हैं. एक ख़त से मालूम होता है हालत अच्छी है, दूसरा पत्र आकर चिंता में डाल देता है. "
अभी बेटी ठीक भी नहीं होने पायी थी और परिवार के लोग सागर में ही थे कि प्रेमचंद स्वयं बीमार हो गए. 15 जून 1933 ई० को रामचंद्र टंडन को लिखा- " मेरी तबियत इस बीच ठीक नहीं रहती है और इस समय भी कुछ विशेष अच्छी नहीं है. एक तो जीर्ण रोग, तिसपर दांत का दर्द." किंतु जैनेन्द्र से यह परीशानियाँ कुछ और खुलकर बयान की गयीं- 17 जुलाई 1933 ई० के पत्र में - "मैं तो इधर बहुत परेशान रहा. बेटी----मरते-मरते बची. अभी तक अधमरी सी है. बच्चा (दिलीप) भी किसी तरह बच गया. आज बीस दिन हुए यहाँ आ गयी है. उसकी माँ भी दो महीने उसके साथ रही. मैं अकेला रह गया था. बीमार पड़ा. दांतों ने कष्ट दिया. महीनों उसमें लग गए. दस्त आए और अभी तक कुछ-न-कुछ शिकायत बाकी है. दांतों के दर्द से भी गला नहीं छूटा. " फिर 1 अगस्त को लिखा- " इधर मैं भी स्वस्थ नहीं हूँ, लेकिन काम किए जाता हूँ.
कमला कई महीने बनारस में ही रही. दिसम्बर में वासुदेव (दामाद) उसे लेने भी आए किंतु प्रेमचंद ने विदा नहीं किया. 9 जनवरी 1934 ई० को इस सूचना के साथ लड़कों के बारे में निगम को लिखा - "बड़े साहबजादे अबकी एफ़० ए० का इम्तेहान दे रहे हैं, लेकिन औसत दर्जे, में हैं. ज़हानत की कोई खास अलामत नज़र नहीं आती. छोटा ज़्यादा ज़हीन है मगर अभी आठवीं में है."
फरवरी के आरंभ में बम्बई जाना पड़ा. कुछ फिल्मीं मामले की बातें करनी थीं. जैनेन्द्र को 14 जनवरी को इसकी सूचना दी- " बारह दिन बम्बई में रहा. प्रेमी जी से मिला. उनके यहाँ भोजन किया. बेचारे बहुत बीमार थे." किंतु असल मामले को गोल कर गए.
अप्रैल के पहले सप्ताह में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में शिरकत के लिए दिल्ली गए. तीन-चार दिन वहां चहल-पहल रही. वापसी में अलीगढ में सय्यद अशफाक हुसैन के मेहमान रहे और खूब-खूब दावतें उडायीं. 16 अप्रैल को जैनेन्द्र को लिखा- " अलीगढ में दावतें खाने के सिवाय और कुछ न हुआ. उन लोगों ने जिस तरह मेरा स्वागत किया, उससे मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हुआ. ----मैंने पुलाव और गोश्त खाया उन्हीं के दस्तरखान पर और यहाँ आकर दो-तीन दिन चूरन खाना पड़ा. " यहाँ ‘उन्हीं के’ अर्थात मुसलमानों के दस्तरखान पर दावतें खाने की सूचना इस प्रकार दी गयी है जैसे यह कोई अजूबा कार्य था, पर यह प्रेमचंद का खुलापन था कि उन्होंने दावतों का जमकर आनंद लिया.
जून की पहली तारीख़ को बंबई पहुंचे. साल भर वहां रहना था. 15 जून को जैनेन्द्र को लिखा- "1 को आ गया. मकान ले लिया. खाना मैं होटल में खाता हूँ और पड़ा हूँ. जुलाई में घर के लोग धन्नू को छोड़कर आ जायेंगे. साल भर किसी तरह काटूँगा. आगे देखी जायेगी." और फिर 3 अगस्त को जैनेन्द्र को सूचित किया- " मैं 23 को बनारस गया था. 31 को वापस आया. बेटी और उसकी माँ को लेता आया. लड़कों को प्रयाग कायस्थ पाठशाला में भर्ती कर दिया." किंतु बंबई का जीवन कुछ पसंद नहीं आया. स्वयं प्रेमचंद से सुनिए - " सात बजे उठता हूँ. साढ़े आठ पर घूम कर आता हूँ. नाश्ता करता हूँ. नौ बजे अखबार पढ़ता हूँ. कभी घंटा भर कभी इससे ज़्यादा समय लग जाता है. कभी कोई मिलने आ जाता है. ग्यारह बज जाता है. नहा-खाकर स्टूडियो जाता हूँ. कुछ काम हुआ तो किया, नहीं उपन्यास पढ़ा. पाँच बजे लौटता हूँ. हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को उलटता-पलटता हूँ. चिट्ठी-पत्र लिखता हूँ, खाता हूँ और सो जाता हूँ. यही दिनचर्या है." इस मशीनीं ज़िंदगी से कौन तंग नहीं आ जायेगा. फलस्वरूप 28 नवम्बर 1934 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- " यह साल तो पूरा करना ही है. यहाँ से छुट्टी पाकर अपने पुराने अड्डे पर जा बैठूंगा. वहाँ धन नहीं है मगर संतोष अवश्य है. "
दिसम्बर में हिन्दी प्रचार सभा ने दीक्षांत भाषण देने के लिए मद्रास बुलाया. प्रेमचंद वहाँ गए और साथ ही साथ मैसूर, बैंगलौर की भी सैर की. 7 फरवरी 1935 ई० को जैनेन्द्र को लिखा- " मद्रास गया था, वहाँ से मैसूर और बैंगलौर भी गया. -----मेरा जीवन यहाँ भी वैसा ही है जैसा काशी में था. न किसी से दोस्ती न किसी से मुलाक़ात. मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक. " किंतु अप्रैल आते-आते इस मस्जिद को भी खुदा हाफिज़ कहना पड़ा. 11 अप्रैल को निगम को सागर से चिट्ठी लिखी- मैंने 4 अप्रैल को बम्बई को खैरबाद कह दिया और सी० पी० के अज़ला की सैर करता हुआ 10 को सागर आ गया. यहाँ से निकलकर बनारस चला जाऊंगा और देवी जी को वहाँ पहुँचाकर 17 को इंदौर साहित्य सम्मेलन के जलसे में शरीक होने के लिए रवाना हो जाऊंगा." किंतु परिस्थितियां ऐसी बनीं कि इंदौर जाना न हो सका. 4 मई को प्रयाग से जैनेन्द्र को लिखा- "कुछ तो प्रेमी जी के न आने और कुछ नातेदारियों में जाकर मिलने-मिलाने के कारण सारा प्रोग्राम भ्रष्ट हो गया. अब धन्नू को चेचक निकल आई है और 27 से वे पड़े हुए हैं हम भी उसके साथ हैं. यात्रा करने के लायक हो जाए तो 7 को यहाँ से उसे लेकर चले जाएं." इसी पत्र में जैनेन्द्र को इलाहबाद में अपना सारा कारोबार स्थानांतरित करने के इरादे की सूचना दी- "मैंने इरादा किया है कि जून से हंस को और प्रेस को प्रयाग लाऊँ. काशी में न तो काम है और न साहित्य वालों का सहयोग. यहाँ जितने हैं वह सभी सम्राट हैं." इसी दिन निगम को भी अपने इस नए इरादों से अवगत किया- " मैंने फ़ैसला कर लिया है कि जुलाई से इलाहबाद में ही रहूँ और यहीं प्रेस और कारोबार उठा लाऊँ. " फिर 10 दिन बाद जैनेन्द्र को 14 मई को सूचित किया -"इधर धन्नू को चेचक निकली थी. उन्हें प्रयाग से यहाँ लाये. यहाँ बन्नू को भी निकल आई और छ: दिन से यह पड़ा हुआ है."
जैनेन्द्र को संभवत: प्रेमचंद का इलाहबाद जाने का इरादा कुछ उपयुक्त नहीं जंचा. पहले तो 7 मई 1935 ई० को पत्र में एक सुझाव दिया- " इलाहबाद में क्या आपने मकान आदि पक्का कर लिया है ? यदि दिल्ली की बात किसी तरह भी व्यवहार्य जान पड़े और सब बंदोबस्त शिफ्ट का न हुआ हो तो उसपर सोचियेगा. मैं आपका बहुत कुछ, लगभग सभी कुछ बोझ हल्का कर सकता हूँ. " फिर 15 मई को जैनेन्द्र ने दुबारा लिखा- " इलाहबाद जा रहे हैं, तो जाकर देखिये. मुझे तो वहाँ का ज़्यादा भरोसा नहीं होता." बहरहाल प्रेमचंद पक्का इरादा करने के बाद भी इलाहबाद शिफ्ट न कर सके. जुलाई के अन्तिम सप्ताह में शायद बनारसी दास चतुर्वेदी ने उन्हें तुलसी जयंती समारोह की अध्यक्षता करने के लिए निमंत्रित किया. प्रेमचंद ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उन्हें 2 अगस्त को लिखा- "जहाँ तक तुलसी जयंती की बात है, मैं इस काम के लिए सबसे कम योग्य व्यक्ति हूँ. एक ऐसे उत्सव की अध्यक्षता करना, जिसमें मैंने कभी कोई रूचि नहीं ली, हास्यास्पद बात है." किंतु बनारसीदास जी शायद इस तर्क से सहमत नहीं हुए. प्रेमचंद का न आना उन्हें खल गया. अब अपनी बात स्पष्ट शब्दों में लिखने के अतिरिक्त और चारा भी क्या था. उनका " तुलसी के सम्बन्ध में कही जाने वाली अतिमानवी बातों में विश्वास नहीं था." तुलसी ने "राम और हनुमान को देखा और वह बन्दर वाली घटना, सब खुराफात." प्रेमचंद ने बनारसीदास जी से पूछ ही लिया-" क्या तुल्सी भक्त लोग मेरी काफिरों जैसी बात पसंद करेंगे ?" चतुर्वेदी जी ने दिसम्बर 1935 ई० में नोगूची का व्याख्यान सुनने के लिए कलकत्ता आने का निमंत्रण दिया. प्रेमचंद यह निमंत्रण भी स्वीकार न कर सके. पहली दिसम्बर के पत्र में उन्हें लिखा- " काश कि मैं नोगूची के व्याख्यान सुन सकता, मगर मजबूर हूँ. -----लड़के इलाहबाद में हैं और मैं चला जाऊंगा तो मेरी पत्नी बेहद अकेला और बेबस महसूस करेंगी. " किंतु जैनेन्द्र को सीधी-सच्ची बात लिखने में संकोच नहीं हुआ- " यहाँ नोगूची हिन्दू यूनिवर्सिटी आए. उनका व्याख्यान भी हो गया, मगर मैं न जा सका. अक्ल की बातें सुनते और पढ़ते उम्र बीत गयी. ईश्वर पर विश्वास नहीं आता, कैसे श्रध्दा होती ?" जून 1935 ई० के अंत में एक-दो दिन के लिए लखनऊ जाना हुआ. वापस लौटकर बंबई जाना था. 30 जून को निगम को लिखा था-" अभी कल लखनऊ गया था. ---कल बंबई जा रहा हूँ. एक महीने में लौटूंगा. "इस प्रकार 1935 ई० का वर्ष भी इधर-उधर की भाग-दौड़, घरेलू परीशानियाँ, हंस की उलझनों का सिलसिला, आयोजनों में कहीं शिरकत, कहीं अनुपस्थिति और अन्य बातों के साथ युगीन समस्याओं पर सोचने-विचारने में गुज़र गया.
जनवरी 1936 ई० की 12, 13 और 14 तारीखों में हिन्दुस्तानी एकेडेमी का वार्षिक जलसा हुआ. प्रेमचंद ने भी शिरकत की. पर उर्दू और हिन्दी के बीच पनपने वाली पृथकतावादी भावना ने उनकी पीड़ा और गहरी कर दी. दस दिनों बाद फिर इलाहबाद जाना पड़ा. 26 जनवरी को आयोजित महिला-गल्प-लेखक सम्मेलन की सभानेत्री शिवरानी देवी थीं. पत्नी का उत्साह बढ़ाने के लिए जाना ज़रूरी था. इलाहबाद से 28 को लौटे. आगरे में नागरी प्रचारिणी सभा के वार्षिक अधिवेशन का सभापतित्व करना था. ३१ जनवरी को आगरे के लिए निकल पड़े. वहां उन्हें अभिनन्दन पत्र भी दिया गया. परिवार साथ था. वापसी में पत्नी को इलाहबाद छोड़ते हुए बनारस लौट आए. 22 फरवरी को पूर्णिया के लिए रवाना हुए. बिहार प्रांतीय हिन्दी सम्मेलन में उपस्थिति ज़रूरी थी. वहाँ से उसी दिन वापस लौटे. 8 मार्च को हिन्दुस्तानी सभा के जलसे के लिए दिल्ली पहुँचना था. जैनेन्द्र का विशेष आग्रह था.
4 अप्रैल 1936 ई० को वर्धा के साहित्यिक सम्मेलन में शिरकत का पक्का संकल्प बना लिया. 10 मार्च के पत्र में बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा- " 4 अप्रैल को वर्धा में एक अखिलभारतीय साहित्यिक सम्मेलन होने जा रहा है. ---मैं वहाँ पर मौजूद रहने की उम्मीद करता हूँ." फिर 31 मार्च को सूचित किया- " इस बार भारतीय साहित्य परिषद् (का अधिवेशन ) जो तीन और चार अप्रैल को वर्धा में होने वाला था, नागपुर सम्मेलन के लिए स्थगित कर दिया गया है. इसलिए मैं वहाँ जाऊंगा." पर इस से पहले प्रगतिशील लेखकसंघ की अध्यक्षता का सवाल उठ खड़ा हुआ. लाहौर में आर्य समाज की जुबली के अवसर पर आयोजित आर्य भाषा सम्मेलन की सदारत करने के लिए पहले से वचनबद्ध थे. फलस्वरूप 9-10अप्रैल को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ और उधर ही से 11को लाहौर में आर्य भाषा सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए निकल पड़े.
लाहौर से वापसी पर निगम को 15 अप्रैल को लिखा- " हाँ मुझे भी आपसे न मिलने का अफ़सोस रहा. भागा इसलिए कि मेरे पास एक रिटर्न टिकट था." आगरे से- " मंगल को नौ बजे रात तक बनारस पहुँचना ज़रूरी था. " किंतु अब शायद बहुत थक चुके थे. नतीजा सामने था. 5 अगस्त को लखनऊ से निगम को यह चिट्ठी लिखी- " आपको ताज्जुब होगा, मैं लखनऊ कैसे आ गया. बात यह है कि कोई डेढ़-दो महीने से मुझे वरमे-जिगर की शिकायत हो गयी है. दो बार मुंह से सेरों खून निकल गया है. बनारस में इलाज से कोई फायदा न देख कर 2 को यहाँ आ गया और डॉ. हरगोविंद सहाय के जेरे-इलाज हूँ. पाखाना, पेशाब, खून वगैरह की जांच हो चुकी है. मगर अभी कई दांत तोड़े जायेंगे तब डॉ. साहब मर्ज़ की तश्खीस करेंगे और इलाज शुरू होगा. घुलकर आधा रह गया हूँ. न कुछ खा सकता हूँ, न हजम होता है. एक बार मुश्किल से हार्लिक्स खा लेता हूँ. मास्टर कृपाशंकर साहब का मेहमान हूँ. मगर यह मकान बहुत मुख्तसर है और आज-कल में कोई दूसरा मकान ले लूंगा." किंतु मकान के छोटे-बड़े. होने से होता भी क्या है. लखनऊ से निराश लौटना पड़ा और फिर बनारस में दवा होने लगी. 16 सितम्बर 1936 ई० को वीरेश्वर सिंह को लिखा- " मैं तो अब बेहद कमज़ोर हो गया हूँ. उठ-बैठ नहीं सकता. लेकिन मर्ज़ घट रहा है. डाक्टर का कहना है कि 15 दिन में मर्ज़ बिल्कुल घट जायेगा. "
डाक्टर ने शायद ठीक ही कहा था. बस कुछ दिन जोड़ने की भूल हुई थी उससे. 8 अक्टूबर 1936 ई० को मर्ज़ सचमुच बिल्कुल घट गया और मरीज़ को पूर्ण शान्ति मिल गयी. हाँ इतना अवश्य हुआ कि मरीज़ के लहू से शिवरानी देवी का आँचल और पैरों के नीचे की धरती लाल हो गयी.
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