Wednesday, May 21, 2008

प्रेमचंद : कहानी यात्रा के तीन दशक / प्रो. शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 3]

अध्याय-३

प्रामाणिक जीवनी का प्रश्न

डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक 'प्रेमचंद और उनका युग' के पांचवें परिवर्धित संस्करण (1989ई०) में इसी शीर्षक के अंतर्गत प्रेमचंद की प्रामाणिक जीवनी का प्रश्न उठाया है और मेरी पुस्तक 'प्रेमचंद की उपन्यास-यात्रा : नवमूल्यांकन' (1978ई०) के जीवनी से सम्बद्ध अध्याय को लेकर अपनी तीखी प्रतिक्रया भी व्यक्त की है. यह अध्याय 558 पृष्ठों की पुस्तक के केवल 57 पृष्ठों में लिखा गया है. मेरी इस पुस्तक की कई समीक्षाएं हिन्दी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, किंतु समीक्षा त्रैमासिक के सम्पादक डॉ. गोपाल के अतिरिक्त सभी ने शोध की मौलिकता और प्रामाणिकता की प्रशंसा की. किसी ने लिखा 'इस पुस्तक का हर पृष्ठ नया है और विचारोत्तेजक भी.' किसी ने लिखा 'पुस्तक पढ़ते समय उपन्यास का आनंद आया.' किसी ने खुले मन से स्वीकार किया 'डॉ. जैदी के निष्कर्ष तर्कसंगत हैं और प्रेमचंद साहित्य पर नए कोण से सोचने की प्रेरणा देते हैं.' इन समीक्षाओं के अतिरक्त कई विद्वानों के पत्र भी मुझे प्राप्त हुए. बनारसी दास चतुर्वेदी ने मुझे 5 जुलाई 1979 ई० के पत्र में लिखा- " यू हैव इंडीड परफार्मड ए मिरैकिल एंड आई एड्मायर योर डिवोटेड लेबर." फिर इतना लिख कर शायद उन्हें संतोष नहीं हुआ. अगले ही दिन अर्थात 6 जुलाई को उन्होंने मुझे लिखा - "योर थीसिस ऑन प्रेमचंद इज रीअली अ रिमार्केबिल अचीवमेंट, दो वन मे नॉट ऐग्री विध योर व्यूज़. आफ्कोर्स प्रेमचंद हैड हिज़ पोर्शन ऑफ़ डिफेक्ट्स ऐंड हू हैज़ नॉट ? अपनी गरीबी का वे अत्युक्तिपूर्ण वर्णन कर देते थे. वह उनकी एक अदा थी. ही वाज़ राइटिंग इवेन व्हेन ही वाज़ स्प्लिटिंग ब्लड." इस चिट्ठी का एक-एक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें चतुर्वेदी जी और प्रेमचंद के आत्मीय संबंधों की गहरी झलक भी है और कड़वे यथार्थ को स्वीकार करने का आत्मबल भी. प्रो. इन्द्र नाथ मदान ने जब मेरी पुस्तक पढी तो उसपर विस्तार से समीक्षा करने का आश्वासन देते हुए 19 मार्च 1979 ई0 की चिट्ठी में यह भी लिखा - "मन करता है सौ में से एक सौ पाँच दे दूँ."
पुस्तक की एक प्रति मैंने अमृत राय को भी भेजी थी. यह बात १९७८ ई० के अक्टूबर की है. उन दिनों अमृत राय हिन्दी, हिन्दवी के आदिकाल पर काम कर रहे थे. उन्हें मुझसे अपेक्षित सामग्री की बिब्लियोग्रैफी दरकार थी. 15 नवम्बर 1978 ई० को बांदा से लौटने पर अपनी व्यस्तताओं की चर्चा करने के बाद अपने पत्र में उन्होंने पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रिया भेजने का आश्वासन दिया. किंतु जब पुस्तक पढी तो आगबबूला हो गए. उनका मन किया की लेखक की खाल उधेड़ दी जाय. मुक़दमा करने की भी योजना बनाई. पर वकील के समझाने पर मौन हो गए.
अगस्त 1983 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ. अमृत राय ने वक्तव्य दिया कि शैलेश जैदी की पुस्तक मैं पढ़ना चाहता था किंतु पत्नी ने हाथ से यह कहकर छीन लिया कि यह पढने योग्य नहीं है. 28 अगस्त से 3 सितम्बर 1983 ई० के अंक में इस प्रसंग में मेरी चिट्ठी छपी, जिसमें मैंने बताया कि अमृत राय ने मेरी पुस्तक न केवल पढी है, बल्कि लाल रोशनाई से उसके हाशिये पर उनकी टिप्पणियां भी हैं और वे मुझपर मुक़दमा करने का भी विचार रखते थे. सारांश यह कि काफी गर्म-गर्म बातें रहीं.
डॉ. गोपाल राय के बार-बार के आग्रह पर मैंने मार्च 1980 ई० में अपनी पुस्तक की एक प्रति उनके पास भेज दी. सुखद आश्चर्य यह देखकर हुआ कि उन्होंने समीक्षा के अप्रैल-जून अंक में उसपर अपनी समीक्षा भी छापने की कृपा की. पुस्तक पढ़कर उनकी प्रतिक्रिया शायद इतनी तीखी हुई कि इस अंक का ‘प्रेमचंद : शताब्दी वर्ष में’ शीर्षक सम्पादकीय भी मेरी पुस्तक को केन्द्र में रखकर, बिना नाम लिए मुझ पर तीखी चोटें करते हुए, लिखा गया. डॉ. गोपाल ने मेरी 'गणना नये शोधार्थियों' में करके पत्रिका के पाठकों के समक्ष, यह जानते हुए भी कि मैं 1966 में पी-एच. डी. कर चुका था, मुझे एक उत्साही शोध-छात्र बना दिया. डॉ. गोपाल सम्पादकीय में यदि मेरा नाम लेकर यही बातें लिखते और इसी प्रकार मेरी पुस्तक के उद्धरण देते तो समीक्षा के पाठकों के बीच बहुत सी बातें सामने आ जीतीं. रोचक बात यह है कि डॉ. गोपाल ने अपने सम्पादकीय में, मेरी ही बातों को घुमा-फिराकर अपने शब्दों में ढाल दिया है और अपने ज्ञान की मुहर बिठाने का प्रयास कुछ इस ढंग से किया है जैसे उन्होंने पहले भी इस प्रकार के विचार व्यक्त किए हों.
पत्रिका में मेरी पुस्तक की समीक्षा पृष्ठ 39 से प्रारम्भ होकर पृष्ठ 42 पर समाप्त होती है. यहाँ इस समीक्षा के कुछ अंश देना अनुपयुक्त न होगा.
1. ‘विवेच्य पुस्तक में, जो संभवतः अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से डी.लिट.उपाधि के लिए स्वीकृत शोध-प्रबंध का मुद्रित रूप है, प्रेमचंद के जीवन और कृतित्व पर विचार किया गया है.'
यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि यह पुस्तक शोध-प्रबंध के रूप में नहीं लिखी गई थी. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में डी. लिट. के लिए कोई पंजीकरण नहीं होता. कोई भी प्रकाशित उच्च-स्तरीय शोध-कार्य/समालोचनात्मक ग्रन्थ, डी. लिट.उपाधि के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है. मेरी छपी हुई पुस्तक पर ही मुझे विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की उपाधि प्रदान की थी.
2. "प्रेमचंद की जीवनी लिखने वाले पूर्ववर्ती लेखकों ने प्रेमचंद को जमाने के सताए हुए आदमी के रूप में प्रस्तुत किया है. शैलेश जैदी तथ्यों के आधार पर इस धारणा का खंडन करते हैं. इसके साथ ही उनकी शिकायत है कि प्रेमचंद के जीवनीकारों ने और खासकर अमृत राय ने, प्रेमचंद के चरित्र के दुर्बल पक्षों पर परदा डालकर उन्हें 'साहित्य के शहीद' के रूप में पेश किया है."
डॉ. गोपाल किसी वाक्य को तोड़-मरोड़ कर उसका क्या अर्थ निकाल सकते हैं, यह देखने-समझने के लिए आवश्यक है कि मैंने क्या लिखा है यह भी देख लिया जाय. मेरा वाक्य इस प्रकार है -'प्रेमचंद : कलम का सिपाही' पढ़कर "मुझे लगा कि अमृत राय ने बड़े कलात्मक ढंग से प्रेमचंद के जीवन के दुर्बल पक्षों को दबा दिया है."इस वाक्य से कहीं यह ध्वनित नहीं होता कि अमृत राय ने प्रेमचंद को 'साहित्य के शहीद’ के रूप में पेश किया है.'अपनी ओर से कोई बात कहने के लिए डॉ. गोपाल स्वतंत्र हैं. किंतु मेरी अवधारणाओं में फेर बदल करके मुझे निशाना बनाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है.
3. "जैदी मियां की बहुत सी बातें तथ्यतः सही हैं पर ‘बहुत कुछ जेहाद' के अंदाज़ में’ डॉ. जैदी तथ्यों को तोड़ने- मरोड़ने और ग़लत व्याख्या करने की कोशिश करते हैं."
डॉ.गोपाल यह भूल गए कि वे पुस्तक समीक्षा लिख रहे है. वी.एच.पी. के किसी नेता की तरह 'मियाँ' और 'जेहाद' जैसे शब्दों का प्रयोग कर के उन्होंने केवल अपनी मनोवृत्ति का परिचय दिया है. अच्छा होता कि डॉ. गोपाल यह भी बता देते कि मैं ने कहाँ-कहाँ किन-किन तथ्यों को तोडा-मरोडा है और क्या-क्या ग़लत व्याख्याएँ की हैं. क्या मैंने किसी चिट्ठी का कोई अंश बीच से उड़ा दिया है, उसके शब्द बदल दिए हैं, किसी दूसरे सन्दर्भ की बात किसी दूसरे सन्दर्भ से जोड़ दी है ? अगर ऐसा कुछ भी नहीं किया है तो फिर तोड़ने-मरोड़ने और ग़लत व्याख्या करने से क्या अभिप्राय है ?
4. डॉ. गोपाल ने रजनी पाम दत्त के आधार पर बताया है कि 1936 ई० की तुलना में 1980 का मूल्य सूचकांक तीस गुना है. फिर यह निष्कर्ष निकाला कि "डॉ. जैदी की त्रुटि यह है कि उन्होंने प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर प्रेमचंद की आय का निर्धारण न करके अनुमान का सहारा लिया है." बकौल डॉ. गोपाल मुझे लिखना चाहिए था कि 1927 के दो सौ रूपये आज के (1980) छे हज़ार रूपये और 1934-35 के सात हज़ार रूपये आज के (1980) दो लाख दस हज़ार रूपये होंगे. मैं अर्थशास्त्र का विशेषग्य नहीं हूँ किंतु इतना जानता हूँ कि मात्र मूल्य सूचकांक के आधार पर रूपये के मूल्य और उसकी क्रय-शक्ति का निर्धारण नहीं किया जा सकता. खैर. डॉ.गोपाल ने मेरी पुस्तक पढ़ कर कम-से-कम इस दिशा में कुछ सोंचने की कोशिश तो की.
मैंने अपनी पुस्तक की भूमिका में बड़े-बड़े दावे तो किए नहीं थे, बस इतना लिखा था- "मेरे इस प्रयास से प्रेमचंद पर पुनर्विचार की दिशाएं खुल सकेंगी, यह मेरा पूर्ण विश्वास है." अब मेरे बाद पुनर्विचार की यह दिशाएं चाहे डॉ. गोपाल प्रशस्त करें या मदन गोपाल या डॉ. कमल किशोर गोयनका, क्या अन्तर पड़ता है.
5. समीक्षा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. गोपाल ने लिखा- "डॉ. जैदी ने प्रेमचंद के जीवनीकारों की दुर्बलताओं की ओर संकेत करके बहुत सही काम किया है." किंतु "डॉ. जैदी के पैमाने और कसौटियां पवित्रतावादी क़िस्म की हैं, जिनपर कदाचित् केवल वे ख़ुद ही खरे उतर सकते हैं."
समालोचना में 'पवित्रतावादी किस्म की कसौटियां' क्या होती हैं, यह डॉ. गोपाल ही अच्छा बता सकते हैं. प्रश्न तो केवल इतना है कि जिस साहित्यकार का जैसा भी जीवन है उसे उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहिए या नहीं ?
6. डॉ. गोपाल का मत है कि "डॉ. जैदी के अनेक कथन और निष्कर्ष उनके कमज़ोर अध्ययन और दृष्टि के उलझाव को व्यक्त करते हैं. डॉ. जैदी का एक वाक्य है- "प्रेमचंद रोमांसवादी-याथार्थवाद की उपज अवश्य हैं, किंतु प्रगतिशील एवं आलोचनात्मक सोपानों को तय करते हुए 'गोदान' में वे समाजवादी यथार्थ की विचारभूमि को प्राप्त कर लेते हैं." इससे यथार्थवाद के रोमांसवादी, प्रगतिशील, आलोचनात्मक और समाजवादी सोपानों के होने का आभास मिलता है. हमने आलोचनात्मक और समाजवादी यथार्थ की चर्चा तो पढी- समझी है पर रोमांसवादी और प्रगतिशील यथार्थवाद से डॉ. जैदी का क्या तात्पर्य है, समझ में नहीं आता."
अब मैं यह बात कैसे कहूं कि मेरे कमज़ोर अध्ययन को रेखांकित करने के बजाय डॉ. गोपाल थोड़ा अपने अध्ययन का विस्तार कर लेते तो सब कुछ उनकी समझ में आ जाता.
7. डॉ. गोपाल ने पुस्तक की भाषा को “आवेशपूर्ण, बचकानी और ग्राम्य” बताया है जो उनकी दृष्टि में “शिष्ट्जनोचित नहीं है.” हो सकता है कि मेरे पास डॉ. गोपाल जैसी ‘परिष्कृत’, ‘परिमार्जित’ और ‘परिपक्व’ भाषा न हो, पर इसे क्या किया जाय कि इसी पुस्तक की भाषा के संबंध में बनारसीदास चतुर्वेदी ने मुझे लिखा था- "मैं 1912 से बराबर लिख रहा हूँ पर आप जैसी बढ़िया भाषा नहीं लिख पाता." सम्भव है डॉ. गोपाल इसे बनारसी दास जी का व्यंग्य समझ बैठें.
रोचक बात यह है कि मेरी पुस्तक के प्रकाश में आने से पूर्व अर्थात् 1978 ई० से पूर्व, किसी ने प्रेमचंद की जीवनी के सम्बन्ध में वे तथ्य नहीं प्रस्तुत किए जिसका मैंने रेखांकन किया. किंतु उसके बाद स्थिति कुछ ऐसी बनी कि मदन गोपाल और डॉ. कमल किशोर गोयनका बड़े-बड़े दावों के साथ मेरी अवधारणाओं का विस्तार अपने नामों से करने लगे और मैंने परिश्रम पूर्वक उर्दू पत्र-पत्रिकाओं से प्रेमचंद की जिन कहानियो और पत्रों (हिन्दी में अप्राप्य) को खोज निकाला था, प्रचार और प्रसार के माध्यम से डॉ. गोयनका उनका श्रेय लेने से भी नहीं चूके. मदन गोपाल ने तो फिर भी पुस्तक की उपलब्धियों के लिए मुझे बधाई का पत्र लिखा, पर डॉ. गोयनका ने इसकी भी आवश्यकता नहीं समझी. हाँ कभी-कभी मिलने पर मौखिक रूप से या पोस्टकार्ड लिखकर मेरे लेखों में संदर्भित प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियो और चिट्ठियों से सम्बद्ध तथ्यों की विस्तृत जानकारी अवश्य लेते रहे.
1981 ई0 में डॉ. कमल किशोर गोयनका की एक पुस्तक प्रकाशित हुई "प्रेमचंद : अध्ययन की नई दिशाएं." इस पुस्तक का 'नयी दिशाएं' वाला लेख डॉ. गोयनका ने पहली बार 2 फरवरी 1980 को मेरी पुस्तक के बाज़ार में आने के दो वर्ष बाद पढा था. किंतु पुस्तक की भूमिका में उन्होंने ऐसे दावे किए कि पाठक को आभास हो, सब कुछ उन्हीं की खोज का परिणाम है. डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि से उपर्युक्त तथ्य नहीं छुप सके. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा- ""नयी दिशाएँ (1981 ई०) की भूमिका में गोयनका ने अपने लेखों का महत्व बता दिया है: "यह लेख विगत 7-8 वर्षों में देश की अधिकांश प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छ्प चुके हैं." प्रेमचंद : अध्ययन की नयी दिशाएं संकलन का अन्तिम लेख प्रेमचंद शताब्दी समारोह में 2 फरवरी 1980 को पढ़ा गया" था. इससे पहले 1978 में जैदी की उपन्यास-यात्रा प्रकाशित हो चुकी थी. उक्त निबंध में इस पुस्तक का ज़िक्र नहीं है.----गोयनका ने पाठक से कुछ बातों पर गौर करने को कहा है. इनमें पहली बात यह है, "प्रेमचंद जैसे महान लेखक तथा महात्मा गांधी जैसे अमर नेता के सम्बन्ध में हम क्यों मान लेते हैं कि उनमें साधारण मनुष्य के समान दुर्बलताएँ नहीं होंगी ? (पृष्ठ-23). यह प्रश्न नयी दिशाएं के गोयनका ने शिल्प विधान के गोयनका से किया है. इस बीच जैदी की उपन्यास-यात्रा निकल गयी है. जैदी ने लिखा था- "हमारी कमजोरी यह है कि हम अपने प्रत्येक श्रेष्ठ साहित्यकार को भगवान् का अवतार, महापुरुष और दिव्यात्मा समझ बैठते हैं. गोया हमारी समझ में एक चरित्रहीन व्यक्ति कोई श्रेष्ठ साहित्यिक रचना करने की सामर्थ्य ही नहीं रखता."
"साहित्य के अध्ययन के लिए साहित्यकार के जीवन का ठीक-ठीक परिचय आवश्यक है, यह मानकर जैदी ने प्रेमचंद का प्रामाणिक जीवन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. (पृष्ठ-11). प्रामाणिक जीवनी की आवश्यकता गोयनका ने भी महसूस की. यह आवश्यकता उन्होंने शिल्प विधान वाले दौर में नहीं, नयी दिशाओं वाले दौर में (1981 में) महसूस की. ----जैदी को जो बात सबसे ज़्यादा खटकी, वह प्रेमचंद की गरीबी की चर्चा थी (पृष्ठ-10). यह बात गोयनका को भी खटकी. उन्होंने मानो पहली बार विषय प्रवर्तन करते हुए कहा, “यहाँ प्रेमचंद की निर्धनता और निर्धनता में जीवन यापन करने की स्थापित मान्यताओं के सम्बन्ध में कुछ कह देना चाहता हूँ.” ‘दरिद्रता की परिभाषा की टीका जैदी लिख चुके थे- " मैं नहीं समझ पाता कि जिस युग में एक मजदूर को दो पैसे से एक आने तक मजूरी मिलती हो, उसी युग के एक ऐसे छात्र को जो दो-तीन आने तक की चाट खा जाता हो और बड़े संकोच से दो आने निकालकर रामलीला के रामचन्द्र को दे देता हो, निर्धन और दरिद्र किस प्रकार कहा जा सकता है ?---1895 ई० में जब एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक को ढाई रूपये मासिक मिलते हों और वह उसमें अपने पूरे परिवार का खर्च चलाता हो, पाँच रूपये मासिक पाने वाले छात्र की दरिद्रता और गरीबी की चर्चा करना सर्वथा निर्मूल है." (गोयनका की) मौलिकता केवल अभिव्यक्ति की शैली में है.’
डॉ. राम विलास शर्मा ने जहाँ इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि प्रेमचंद के जीवन से सम्बद्ध जो सूचनाएं शैलेश जैदी ने 'उपन्यास-यात्रा' में दी थीं, डॉ. गोयनका ने अपनी शैली में उन्हीं सूचनाओं को 'नई दिशाएं' में दे कर, अपनी मौलिक खोज के दावे किए हैं, वहीं डॉ. शर्मा ने अनुभव-जन्य अहसास के आधार पर यह भी रेखांकित किया है कि "जैदी ने यह मान लिया है कि प्रेमचंद को अपने पिता से हर महीने पढाई के खर्च के लिए पाँच रूपए मिलते थे. यह बात शिवरानी देवी की पुस्तक 'प्रेमचंद : घर में' के आधार पर उन्होंने लिखी है. पर अन्य प्रसंग में (शिवरानी-प्रेमचंद-विवाह-तिथि-प्रसंग) इस गवाह को वह अत्यन्त अविश्वसनीय मानते हैं. उस विवाह का सन् उन्हें (शिवरानी देवी को) याद नहीं. प्रेमचंद के पिता ने पाँच रूपए देने को कहा था, यह उन्हें ठीक-ठीक याद रहा, यह कैसे मान लिया जाय ?"
डॉ. राम विलास शर्मा के प्रश्न का उत्तर केवल इतना है कि मैंने अपनी पुस्तक में यह कहीं नहीं लिखा है कि शिवरानी देवी मेरी दृष्टि में अविश्वसनीय हैं. मेरे वाक्यों से यह अर्थ तो निकाला जा सकता है कि शिवरानी देवी ने जान-बूझ कर विवाह का सन्-संवत गोलमोल कर के प्रस्तुत किया है. अब यदि तथ्य यह न हो कि प्रेमचंद के पिता हर महीने पढने के लिए उन्हें पाँच रूपए देते थे, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि शिवरानी देवी ने जान-बूझ कर प्रेमचंद को संपन्न साबित करने के उद्देश्य से ऐसा लिखा. किंतु कोई प्रश्न करने से पूर्व डॉ. राम विलास शर्मा को अमृत राय ने इस प्रसंग में क्या लिखा है उसे भी देख लेना चाहिए था. कलम का सिपाही में अमृत राय पृष्ठ 31पर लिखते हैं- 'नवाब को अब नवें दर्जे में नाम लिखवाना था जो कि बनारस में ही सम्भव था. पिताजी ने पूछा, कितना खर्च लगेगा ? नवाब ने कहा, पाँच रूपए दे दिया कीजिएगा. मगर पाँच रूपए में भला क्या होता. बड़ी मुश्किल का सामना था.'आश्चर्य है कि डॉ. राम विलास शर्मा, अमृत राय की यह बात अबतक किस आधार पर मानते आए थे ? यही बात मेरे लिखने पर वह इतना तिलमिला क्यों उठे ? क्या केवल इस लिए कि अमृत राय ने लिखा था कि पाँच रूपए में भला क्या होता है, और मैंने यह बता दिया कि पाँच रूपए में बहुत कुछ हो सकता था.
डॉ. राम विलास शर्मा को मेरी जो बात सब से अधिक अरुचिकर लगी वह है प्रेमचंद को कलम का मजदूर या कलम का सिपाही स्वीकार न करना और कलम का सौदागर घोषित करना. सौदागर शब्द ऐसा नहीं है जिससे प्रेमचंद के सम्मान को चोट पहुँचती हो. अरब सौदागरों की कहानियाँ निश्चित रूप से डॉ. राम विलास शर्मा ने भी पढी होंगी. प्रसिद्ध पर्यटक और यात्रा-विवरण लेखक इब्ने बतूता मूलतः एक सौदागर था. एक सौदागर को हीरे जवाहरात और अन्य मूल्यवान वस्तुएं एकत्र करने के लिए कितने संघर्ष करने पड़ते थे और समुद्र की कितनी तूफानी लहरों के बीच से होकर गुज़रना पड़ता था, यह किसी से छुपा नहीं है. फिर यदि प्रेमचंद को जीवन के संघर्ष झेलने पड़े तो इसमें विरोधाभास का क्या पहलू है ?
डॉ. राम विलास शर्मा की विशेषता यह है कि वे पूरे प्रसंग से मेरा एक वाक्य निकालकर किसी अन्य प्रसंग के दूसरे वाक्य के साथ बड़ी सहजता के साथ जोड़ देते हैं और फिर उसकी मनचाही व्याख्या करते हैं. बचाव पक्ष का वकील होना कोई बुरी बात नहीं है. किंतु शोध और आलोचना की अदालत में, अर्थ का अनर्थ कर देना बुरी बात ज़रूर है. डॉ. शर्मा वकील के साथ-साथ न्यायधीश भी बन जाते हैं. मैंने एक स्थल पर लिखा था - "व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था. साहित्यकार प्रेमचंद ने व्यक्ति प्रेमचंद की दुर्बलताओं को बहुत निकट से देखा था और जहाँ-तहां अपनी कृतियों के कथानक की गहरी तहों में उसे अभिव्यक्ति भी दी."डॉ. राम विलास शर्मा ने जब यह पढ़ा, तो उन्होंने न जाने किस आधार पर 'बौना' का अर्थ 'क्षुद्र' कर लिया और निर्णय सुना दिया -"जैदी ने क्षुद्र व्यक्ति और महान लेखक में भेद करते हुए लिखा -'व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था.'" विवेच्य प्रसंग से ध्यान हटाने का यह एक कारगर तरीका है. प्रसंग बदलकर डॉ. राम विलास शर्मा को अब मुझ पर प्रहार करने का अच्छा अवसर मिल गया. उन्होंने लिखा -" व्यक्ति प्रेमचंद ने (नोकरी से) इस्तीफा दिया. क्यों इस्तीफा दिया ? यह बौना व्यक्ति अचानक देश-भक्त क्यों बन गया ? ..व्यक्ति राजभक्त, लेखक देशभक्त ? या दोनों ही बौने ? व्यंग्य की यह शैली पर्याप्त दमदार है.
कौन कह सकता है कि सरकारी नोकरी से इस्तीफा देना एक असाधारण, और उन परिस्थियों में प्रशंसनीय कार्य नहीं था. किंतु प्रेमचंद के सम्पूर्ण जीवन में ऐसे असाधारण कार्य अपवादस्वरूप दो-एक ही मिलेंगे, इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता. केवल इस आधार पर व्यक्ति प्रेमचंद की अन्य दुर्बलताओं की ओर से आँखें नहीं मूंदी जा सकतीं.
डॉ.राम विलास शर्मा ने गुड की चोरी वाले प्रसंग में मन्मथनाथ गुप्त से मेरी असहमति में फटकार की झलक देखी है. लिखते हैं - "इसे गरीबी का चित्र मानने वाले मन्मथनाथ गुप्त को फटकारते हुए जैदी ने लिखा है -'मैं नहीं समझ पता कि इसमें गरीबी का चित्र प्रस्तुत करने वाली कौन सी बात है. इसके प्रकाश में एक असंयमी, गैर-जिम्मेदार, यार-बाश, खिलंदरे और चटोरे व्यक्ति का रूप उभरकर सामने आता है' जिस बात की कैफियत जैदी ने नही दी, वह यह कि ऐसा लड़का एंटरेन्स परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास कैसे कर सकता है."
यहाँ डॉ. राम विलास शर्मा का तर्क कमज़ोर भी है और अमान्य भी. पहली बात तो यह है कि मैं मन्मथनाथ गुप्त या किसी अन्य सम्मानित लेखक को फटकारने का साहस भी नहीं कर सकता. रह गई एंटरेन्स द्वितीय श्रेणी में पास करने की बात. यह प्रतिभावान होने का प्रमाण है. और प्रेमचंद के प्रतिभावान होने में कभी किसी ने संदेह नहीं किया. डॉ. राम विलास शर्मा इस सन्दर्भ में मुझ पर कोई टिप्पणी करने से पहले कलम का सिपाही की यह पंक्तियाँ भी देख लेते तो अधिक उपयुक्त होता. अमृत राय लिखते हैं -"थोडी सी पढ़ाई थी, ढेरों उछल-कूद. चिबिल्लेपन की इन्तेहा नहीं. ..इस दो अंगुल की जीभ ने क्या-क्या नाच नचाया है. ..कोठरी में ताला डालकर एक बार उसकी चाभी दीवार की संधि में दाल दी जाती है और दूसरी बार कुएँ में फेक दी जाती है, मगर तब भी रिहाई नहीं मिलती और यह मन भर (गुड) का मटका पेट में समा जाता है (पृष्ठ 21)" स्पष्ट है कि अमृत राय गुड की चोरी के प्रसंग में प्रेमचंद को चिबिल्ला, दो अंगुल की जीभ के इशारों पर नाचने वाला, मटरगश्त और चटोरा सभी कुछ कह जाते हैं और राम विलास शर्मा को उनकी कोई बात नहीं अखरती.
अंत में डॉ. राम विलास शर्मा वही पद्धति अपना लेते हैं जिसका गोयनका को विशेष अभ्यास है. वे प्रेमचंद और उनका युग (पांचवां संस्करण) के पृ0 267 पर लिखते हैं -"ऐसा नहीं था कि उनके जीवन और साहित्य में अंतर्विरोध न रहा हो. उनका जन्म सर्वहारा वर्ग में न हुआ था. न उन्होंने सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी दर्शन मार्क्सवाद को पूरी तरह अपनाया था. प्रेमचंद की संपत्ति के बारे में मैं ने लिखा था (कहाँ और कब लिखा था ?)-'प्रेमचंद व्यवहार कुशलता से उतनी दूर न थे जितना अमृत राय ने उन्हें दिखलाया है. साझेदारी का प्रेस घाटा भले देता हो, अंत में रह गया वह अकेले प्रेमचंद का. वह अपने भाई को भी यह घाटे वाला प्रेस बेचने को तैयार न थे. उन्होंने गाँव में माकन बनवाया था और रक्षा-बन्धन के अवसर पर,उस ज़माने में, एक सौ पैंतीस रूपए की लौंग बेटी के लिए, पैतालीस-पैतालीस रूपए की घडियाँ बेटों के ल्लिए लाए थे. अमृत राय ने इस घटना का ज़िक्र नहीं किया, न यह लिखा कि प्रेमचंद अपनी पुस्तकों के रूप में जो संपत्ति छोड़ गए, उससे उनके बेटों को कितना मुनाफा हुआ." काश डॉ. राम विलास शर्मा ने यह बातें मेरी पुस्तक प्रकाशित होने (1978 ) से पहले लिखी होतीं. अब मेरी ही बातें अपनी शैली में दुहराकर मौलिकता के दावेदार बन रहे हैं, यह उन जैसे प्रतिष्ठित आलोचक को शोभा नहीं देता.
मैं 1995 में भी यह बात उतने ही विश्वास के साथ कह सकता हूँ जितने विश्वास के साथ मैंने 1978 में कही थी कि व्यक्ति प्रेमचंद में वह सभी दुर्बलताएँ थीं जो किसी संस्कारित परिवार के व्यक्ति में नहीं होतीं. हाँ साहित्यकार प्रेमचंद रचना-स्तर की उस ऊंचाई पर था जिसे आज भी लेखकों का एक बड़ा वर्ग छू पाने में असमर्थ है. अपने पुराने शब्दों को ही यदि दुहराऊं तो मैं कहूँगा कि व्यक्ति प्रेमचंद साहित्यकार प्रेमचंद के सामने बौना था और बौना का अर्थ क्षूद्र नहीं होता जैसा कि डॉ. राम विलास शर्मा समझते हैं.
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