Saturday, May 17, 2008

प्रेमचंद रचनावली : खंड उन्नीस (चिट्ठी-पत्री) / डॉ.परवेज़ फ़ातिमा

मैं प्रेमचंद की विशेष अध्येता नहीं हूँ और न ही मेरा इस सन्दर्भ में अधिकारी विद्वान होने का दावा है. साहित्य के एक साधारण पाठक के रूप में मैंने प्रेमचंद को समझा और पढ़ा है. फिर भी शैलेश जैदी का रचना संसार शीर्षक शोधप्रबंध लिखते समय डॉ. जैदी की प्रेमचंद विषयक पुस्तक पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि अमृत राय और मदन गोपाल के प्रयासों के बावजूद प्रेमचंद की चिट्ठियों का वैज्ञानिक संपादन नहीं हो पाया है. चिट्ठियों का कथ्य पढ़ने का भी कष्ट नहीं किया गया है और जहाँ उनके लिखे जाने की तिथियाँ मिट गई हैं या धुंधली पड़ गई हैं वहाँ बिना सोचे-समझे अनुमान के आधार पर कोई तिथि डाल दी गई है. परिणाम यह हुआ है कि प्रेमचंद के शोधार्थी उन चिट्ठियों को आधार बनाकर अनेक ऐसे निष्कर्ष निकालने के लिए विवश हुए हैं जिनका कोई औचित्य नहीं है. प्रोफेसर शैलेश जैदी ने "प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन शीर्षक पुस्तक (प्रकाशन काल 1978) के परिशिष्ट भाग में अमृत राय और मदन गोपाल द्वारा संपादित चिट्ठी-पत्री की अनेक ऐसी त्रुटियों का रेखांकन किया है, किंतु सम्पादकों ने पुस्तक के नए संस्करण आने पर भी इस ओर ध्यान नहीं दिया.
जनवाणी प्रकाशन नई दिल्ली ने 1996 ई० में प्रेमचंद रचनावली शीर्षक से २० खंडों में प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य प्रकाशित किया है जिसका मूल्य नौ हज़ार रूपये है. रोचक बात ये है कि इस पूरे सेट का मार्गदर्शन डॉ. रामविलास शर्मा ने किया है और इसके शुद्ध और वैज्ञानिक होने का भी दावा किया गया है. प्रकाशक की दृष्टि में यह कार्य भले ही ‘ऐतिहासिक महत्व’ का हो, किंतु मुझ जैसा प्रेमचंद का साधारण अध्येता भी यह कहने के लिए विवश है कि रचनावली के प्रकाशन के पीछे केवल एक व्यावसायिक मनोवृत्ति है और प्रेमचंद के नाम को भरपूर बाजारवादी मानसिकता के साथ भुनाया गया है.
इस समय मेरे समक्ष रचनावली का उन्नीसवाँ खंड है. अर्थात प्रेमचंद की चिट्ठी-पत्री का संकलन. इस आलेख में यही मेरा विवेच्य-विषय भी है. सामान्य रूप से देखा गया है कि हर अगला कार्य पिछले कार्य की तुलना में कहीं अधिक बेहतर, उच्च-स्तरीय और उपयोगी होता है. किंतु यहाँ स्थिति ठीक इसके विपरीत है. मदन गोपाल-अमृत राय का संकलन 1962 में प्रकाशित हुआ था. उस समय इतने साधन भी नहीं थे. फिर भी संकलन से इतना तो पता चलता ही है कि प्रेमचन्द ने चिट्ठी में किसे संबोधित किया है और कुल चिट्ठियों की संख्या क्या है इत्यादि. किंतु प्रेमचंद रचनावली का खंड उन्नीस इस प्रकार के सभी बंधनों से मुक्त है.
पाँच सौ चव्वालिस पृष्ठों का यह खंड जिसके प्रारंभिक दस पृष्ठ पुस्तक के शीर्षक, प्रकाशकीय वक्तव्य, प्रेमचंद के परिवार की तस्वीरों, उनकी अंग्रेज़ी लिखावट की प्रतिलिपि और चिट्ठी-पत्री (अमृत राय-मदन गोपाल) के भीतरी पृष्ठ की चित्र-प्रतिलिपि पर नष्ट किए गए हैं. संकलित सामग्री के विषय में एक शब्द भी नहीं है. . न तो चिट्ठियों की कोई सूची दी गई है, न संख्या का उल्लेख किया गया है. चिट्ठियां कहाँ से प्राप्त हुईं, यह बताना भी आवश्यक नहीं समझा गया. अमृत राय और मदन गोपाल कम से कम हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू तथा अंग्रेज़ी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे. रचनावली के संपादक राम आनंद को उर्दू तो निश्चित रूप से नहीं आती, हाँ अंग्रेज़ी का थोड़ा बहुत ज्ञान है, यह बात इस सम्पादन के प्रकाश में विश्वास के साथ कही जा सकती है.
बिना किसी संपादकीय भूमिका के, उपलब्ध चिट्ठियों को धडा-धड़ एक क्रम में और कहीं-कहीं बिना क्रम के, प्रकाशित कर देने वाला यह खंड पृष्ठ ग्यारह से प्रारम्भ होता है. दूसरी ही चिट्ठी जो 20 फरवरी 1905 की है परिष्कृत हिन्दी में है. कहीं भी ‘उर्दू से अनूदित’ जैसी कोई टिपण्णी नहीं है. अनुवादक ने यह भी ध्यान नहीं दिया कि प्रेमचंद अपने मित्र निगम को किन शब्दों से संबोधित करते थे. जनाब मुकर्रम बन्दा, बिरादरम, भाईजान जैसे शब्द उड़ाकर, चिट्ठी में संबोधन के शब्द इस प्रकार लिखे गए हैं- 'प्रिय बाबू दयानरायन साहब'. प्रेमचंद का शोधार्थी निश्चित रूप से यह समझेगा कि 1905 में प्रेमचंद स्तरीय हिन्दी लिखते थे.
इस खंड की तीसरी चिट्ठी पर लेखन-तिथि जून 1905 अंकित है. अमृतराय ने भी यही तिथि डाली थी. किंतु प्रो. जैदी ने उपन्यास-यात्रा के परिशिष्ट में स्पष्ट कर दिया था कि यह चिट्ठी 1906 की है. राम आनंद जी को प्रकाशक महोदय ने श्रीपत राय के मार्गदर्शन में प्रेमचंद के ‘अप्राप्य साहित्य’ पर शोध करने वाला अध्येता बताया है. बिना परिश्रम के उपाधि जब मिल रही हो तो चिट्ठी-पत्री के पाठ में कौन जान खपाए. इस चिट्ठी में प्रेमचंद ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-'खतोकिताबत जो मुआमले की है वो मैं करूँगा. ..हिम्मते-मर्दां मददे खुदा..हाँ यह एलान करना ज़रूरी होगा कि नवाब राय स्टाफ में दाखिल हो गए.' ज़माना की फाइलें उठाकर देखने का कष्ट न अमृतराय ने किया न राम आनंद ने. प्रेमचंद जून 1906 से ज़माना के सम्पादकीय स्टाफ में शामिल हुए थे. स्पष्ट है कि चिट्ठी भी 1906 की है.
रचनावली के पृ0 19 की चिट्ठी पर कोई तिथि नहीं हैं. केवल लिख दिया गया है -'स्थान और तिथि नहीं है. अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया" संपादक महोदय ने अमृत राय की चिट्ठी पत्री की भूमिका पढने का भी कष्ट नहीं किया. अमृत राय ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए लिखा था कि यह चिट्ठी अप्रैल 1929 के आस-पास की होनी चाहिए. प्रो. शैलेश जैदी ने चिट्ठी में संदर्भित ज़माना पत्रिका के 'आतश विशेषांक' के आधार पर चिट्ठी की तिथि अगस्त 1929 निश्चित की है जो तर्क-संगत है.
रचनावली के पृ0 23 की चिट्ठी पर लिखा गया है "स्थान और तिथि नहीं है, अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया". यह अंश अमृत राय की चिट्ठी-पत्री से ज्यों का त्यों नक़ल कर लिया गया है. इस 'अनुमानतः' का कोई आधार तो होना चाहिए. चिट्ठी में कुछ महत्वपूर्ण सन्दर्भ हैं - 'अदीब में आज तीर्थ राम का आज़माइश देखा/ हमदर्द को अच्छा किस्सा नहीं दिया/मुस्लिम गजेट में शिबली का मजमून मुसलमानों की पोलिटिकल करवट काबिले दाद है'. इन संदर्भों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह चिट्ठी मई 1913 की है.
रचनावली के पृ0 30 की चिट्ठी पर अनुमानित तिथि सितम्बर 1913 दर्ज है जो अमृत राय की नकल है. प्रो. शैलेश जैदी ने इसकी तिथि 27-28 सितम्बर 1913 निश्चित की है और संकेत किया है कि अमृत राय इसका एक वाक्य छोड़ गए हैं जो मदन गोपाल संपादित खुतूत के उर्दू संस्करण में मौजूद है. राम आनंद ने मदन गोपाल द्वारा उर्दू में संपादित ‘प्रेमचंद के खुतूत’ देखने का कोई कष्ट नहीं किया है.
1915 की कई चिट्ठियों कि तिथियाँ और उनके क्रम जिस प्रकार अमृत राय ने उलट-पुलट दिए, राम आनंद ने भी उन्हें उसी रूप में छाप दिया. प्रो. शैलेश जैदी ने इनके क्रम मिला कर इनकी तिथियाँ निश्चित की हैं. 20 मार्च 1915 की चिट्ठी का पहला वाक्य है -'मैं कल यहाँ पहुँच गया.' यह पांडेपूर पहुँचने की सूचना है. अब रचनावली के पृ0 51 की चिट्ठी देखिए- 'मुझे यहाँ आए करीबन दो हफ्ते हुए'. 19 मार्च में दो हफ्ता और जोड़ देने पर अप्रैल की पहली या दूसरी तारीख होती है. इसलिए चिट्ठी पर 'अनुमानतः जून 1915' लिखने का कोई आधार नहीं है. रचनावली की पृ0 50 की चिट्ठी भी पांडेपूर से ही लिखी गई है. चिट्ठी का पहला वाक्य है -' कल बस्ती जा रहा हूँ.' राम आनंद ने इस चिट्ठी पर लिखा है - 'अनुमानतः बस्ती, आरंभ 1915.' इससे अधिक लापरवाही और क्या हो सकती है. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी पांडेपूर से बस्ती के लिए प्रस्थान करने से एक दिन पहले लिखी गई.
रचनावली के पृ0 73 की चिट्ठी पर 'तिथि नहीं, अनुमानतः मार्च 1918' लिखा गया है. यही अमृत राय ने भी लिखा था. इस प्रसंग में प्रो. शैलेश जैदी कि टिप्पणी द्रष्टव्य है - '10 फरवरी 1916 के पत्र में प्रेमचंद ने निगम को लिखा था कि वे राना जंग बहादुर आफ नेपाल की सवानेह-उमरी लिखना चाहते हैं साथ ही यह भी निवेदन किया था कि फरवरी के ज़माना में प्रेम-पचीसी का इश्तेहार छपवा दें. प्रस्तुत चिट्ठी में वे फरवरी में इश्तेहार न छपने की शिकायत करते हैं और राना जंग बहादुर वाले लेख के समाप्तप्राय होने की सूचना देते हैं. प्रेमचंद का यह लेख ज़माना के जुलाई 1916 के अंक में प्रकाशित हुआ था. इन तथ्यों के प्रकाश में इस चिट्ठी को 1916 की ही होनी चाहिए. ' प्रो.जैदी ने इसकी तिथि मार्च, द्वितीय सप्ताह 1916 स्वीकार की है जो तर्क-संगत है.
रचनावली के पृ0 69 की चिट्ठी, अमृत राय को प्रमाण मान कर, 22 अगस्त 1918 की स्वीकार की गई है जबकि अमृत राय से सन् पढने में गलती हुई है. प्रो.जैदी के अनुसार यह 1917 की चिट्ठी है. इसमें लिखा गया है - प्रेम-पचीसी बेहतर है लखनऊ में ही छपवा लीजिए'. अब इसे 11 सितम्बर 1917 की चिट्ठी के इस वाक्य से मिला कर पढ़िए- ‘प्रेम-पचीसी के मुतअल्लिक आपने क्या किया? लखनऊ आ गई या कानपूर ही में कोई दूसरा इन्तेजाम हुआ?' स्पष्ट है कि विचाराधीन चिट्ठी 22 अगस्त 1917 की है.
रचनावली पृ0 78 की पहली चिट्ठी पर 2 अप्रैल 1919 अंकित है, जबकि यह चिट्ठी 1920 की है. इस चिट्ठी में सूचित किया गया है – ‘बाज़ारे-हुस्न बज़रिया रजिस्टर्ड पैकेट खिदमत में पहोंचेगा. ख़त्म हो गया. पैकेट बना हुआ तैयार है. आज डाक-खाना बंद है". अब इसे 24 मार्च 1920 की चिट्ठी के साथ मिलाकर पढिए. इसमें लिखा गया है –‘बाज़ारे-हुस्न के अब कुल अड़तालीस सफ्हात बाकी हैं. पहली अप्रैल को आपके पास रजिस्टर्ड पहोंच जायेगा. स्पष्ट है कि रचनावली पृ0 78 वाली चिट्ठी इसके बाद की है जब बाज़ारे-हुस्न का पैकेट भेजने के लिए तैयार हो गया. फलस्वरूप उसकी तिथि 2 अप्रैल 1920 होना चाहिए. इसी 2 अप्रैल वाली चिट्ठी में प्रेमचंद ने यह सूचना भी दी है -'प्रेम-बत्तीसी हिस्सा अव्वल के 12 फार्म छप चुके हैं.' यह संग्रह निगम के प्रेस से छप रहा था. इसका दूसरा भाग इम्तियाज़ अली ताज लाहौर में छाप रहे थे. 27 मई 1920 को प्रेमचंद ने ताज को प्रेम बत्तीसी भाग एक की प्रगति सूचना देते हुए लिखा -'प्रेम-बत्तीसी हिस्सा अव्वल के 120 सफ्हात छपे हैं.' ऐसी स्थिति में रचनावली पृ0 80-81 की चिट्ठी 27 मई 1919 की न होकर 27 मई 1920 की मानी जायेगी.
अब रचनावली पृ0 89 की चिट्ठी देखिए. तिथि दी गई है- 30 सितम्बर 1919'. इसमें ताज साहब ने जंजीरे-हवस (कहानी) पर पाठकों की जो प्रतिक्रिया लिखी थी उसके उत्तर में प्रेमचंद लिखते हैं -'जंजीरे-हवस कोई तारीखी वाकेआ नहीं है'. प्रेमचंद की कहानी जंजीरे-हवस कहकशां में सितम्बर-अक्तूबर संयुक्तांक में 1918 में छपी थी. यदि यह मान लिया जाय कि यह अंक सितंबर के मध्य तक लोगों के पास पहुँच गया था, तो इस चिट्ठी की तिथि 30 सितंबर 1918 मानी जायेगी. प्रो.जैदी ने यही तिथि स्वीकार की है.
इम्तियाज़ अली ताज को लिखी गई रचनावली पृ0 86 की चिट्ठी 11 सितंबर 1919 की न होकर 1918 की है. प्रेमचंद ने इसमें ताज को लिखा था-'एक ताज़ा किस्सा हज्जे-अकबर (महातीर्थ) इर्साले-खिदमत है.' हज्जे-अकबर शीर्षक कहानी कहकशां (सं. इम्तियाज़ अली ताज) के नवम्बर 1918 के अंक में पहली बार प्रकाशित हुई. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी सितंबर 1918 में लिखी गई. प्रो. शैलेश जैदी ने इस प्रसंग में कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं भी दी हैं. उनके अनुसार 'अमृत राय ने चिट्ठी के प्रारंभ की दो पंक्तियाँ उड़ा दी हैं. यह पंक्तियाँ इस प्रकार हैं – ‘बेहतर है बाज़ारे-हुस्न आपकी खिदमत में हाजिर होगा. कल से इसे दो सफ्हे रोजाना साफ कराऊंगा. और गालिबन दसहरे की तातील के बाद इसके चन्द जुज्व आप मुलाहिजा कर सकेंगे'.(प्रेमचंद के खुतूत, पृ0 74). राम आनंद ने भी यह अंश छोड़ दिया है. रोचक बात यह है कि अमृत राय ने लिखा है कि हज्जे-अकबर पहली बार ज़माना के सितंबर 1917 के अंक में छपी. (कलम का सिपाही, पृ0 662) जबकि प्रो. जैदी के अनुसार यह कहानी ज़माना में कभी छपी ही नहीं. इस कहानी को इसके नए नामकरण महातीर्थ के साथ हिन्दी में पहली बार प्रेम-पूर्णिमा संग्रह में 1920 में प्रकाशित किया गया.
रचनावली पृ0 117 की दूसरी चिट्ठी की तिथि 10 नवम्बर 1920 लिखी गई है. अमृत राय और मदन गोपाल ने भी यही तिथि स्वीकार की है. जबकि तथ्य यह है कि यह चिट्ठी 1918 की है. इस चिट्ठी को भी पढने का कष्ट नहीं किया गया. प्रेमचंद ने इसमें लिखा है - 'एक किस्सा बैंक का दिवाला जाता है. लंबा हो गया है. देखिये पसंद आए तो रख लीजिए. दो नंबरों में निकल जाएगा.’ बैंक का दिवाला शीर्षक कहानी कहकशां के फरवरी 1919 के अंक में छपी थी. स्पष्ट है कि यह चिट्ठी उस से पहले लिखी गई. इस आधार पर चिट्ठी कि सही तिथि 10 नवम्बर 1918 स्वीकार की जानी चाहिए.
रचनावली की सभी चिट्ठियों पर पुनर्विचार के लिए एक पूरी पुस्तक के डेढ़ सौ पृष्ठ भी कम होंगे. इस लिए केवल एक चिट्ठी की और चर्चा कर के अन्य बिन्दुओं की ओर मात्र संकेत कर देना पर्याप्त समझती हूँ. रचनावली पृ0 341 की तीसरी चिट्ठी पर तिथि डाली गई है 3 जून 1932 .चिट्ठी किसे लिखी गई है, राम आनंद ने अपनी सम्पादन कला के अनुरूप, बताने की कृपा नहीं की है. यह चिट्ठी कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण इस लिए भी है कि इसमें प्रेमचंद ने अपने लेखन से सम्बद्ध सात प्रश्नों के उत्तर दिए हैं. प्रेमचंद का साधारण पाठक भी इतना जनता है कि प्रेमचंद से यह सात प्रश्न उनके मित्र बनारसी दास चतुर्वेदी ने किए थे. आश्चर्य यह देख कर होता है कि अमृत राय मदन गोपाल ने भी इस चिट्ठी की तिथि 3 जून 1932 ही लिखी है. चिट्ठी के प्रारम्भ में प्रेमचंद ने सूचना दी है - 'शहर पर फौज का कब्जा है. अमीनाबाद में दोनों पार्कों में सिपाही और गोरे डेरे डाले पड़े हुए हैं. 144 धारा लगी हुई है, पुलिस लोगों को गिरफ्तार कर रही है.' स्पष्ट है कि यह घटना 1932 की न होकर 1930 की है. फिर 11 मई 1930 के पत्र में बनारसी दास चतुर्वेदी ने किसी अंग्रेज़ी पत्र में प्रेमचंद पर कुछ लिखने के लिए उनसे इन सात प्रश्नों को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की थी. रचनावली की पृ0 341 की चिट्ठी उसी के उत्तर में है. इस आधार पर इस चिट्ठी की प्रमाणिक तिथि 3 जून 1930 है. दुःख की बात यह है कि राम आनंद संपादित यह खंड ऐसी त्रुटियों से भरा पड़ा है.
रचनावली के पृष्ठ 485 की एक चिट्ठी संपादक राम आनंद की संपादन कला का परिचय प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है. चिट्ठी पर तिथि 'संभवतः जुलाई 1935' दी गई है. 'संभवतः' शब्द संकेतित करता है कि चिट्ठी ध्यान पूर्वक पढी गई होगी. चिट्ठी का पहला वाक्य इस प्रकार है -"हंस पर एक मज़मून हस्बे वादा रवानए-खिदमत है." राम आनंद ने 'हँसी' को 'हंस' पढ़ लिया और इसे हंस पत्रिका से जोड़ दिया. दूसरे वाक्य में 'अस्ल मज़मून' को 'एहसास मज़मून' पढ़ा गया जिसका यहाँ कोई औचित्य नहीं है. उन्हें इस चिट्ठी का सबसे महत्त्वपूर्ण वाक्य नहीं दिखाई दिया -"प्रेम-पच्चीसी हिस्सा दोयम कातिब के पास गई या नहीं ?" यदि राम आनंद इस पर ध्यान देते तो सहज ही पता चल जाता कि प्रेम-पच्चीसी कातिब के पास कब गई और चिट्ठी किस तिथि की है. ज़माना के फरवरी 1916 के अंक में प्रेमचंद का 'हँसी' शीर्षक एक लेख प्रकशित हुआ था जिसके भेजे जाने की सूचना इस पत्र में दी गई है. इस चिट्ठी से पहले 16 दिसम्बर 1915 को प्रेमचंद ने निगम से इस लेख के विषय में सुझाव माँगा था "नागरी प्रचारिणी में ज़राफत (हँसी) पर एक बहोत आलिमाना मज़मून छपा है.कही तो ज़माना के लिए कुछ नए उनवान से इसी पर लिख दूँ." स्पष्ट है कि यह चिट्ठी १६ दिसम्बर वाली चिट्ठी के दस-बारह दिन बाद की है अर्थात 27/28 दिसम्बर 1915 की. रोचक बात यह है कि स्वयं राम आनंद ने रचनावली के पृष्ठ 52 पर यह चिट्ठी छापी भी है और वहाँ इसकी तिथि 'अनुमानतः बस्ती अंत 1915' दी गई है. इतना गैर-दायित्वपूर्ण संपादन शायद किसी ने इससे पहले न देखा होगा.
अंत में मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगी कि संपादन के लिए किसी न किसी नियम का तो पालन करना ही पड़ता है. राम आनंद की दृष्टि में सारे नियमों को तोड़ना ही वैज्ञानिकता है. रचनावली के पृ0 68 से 132 के बीच की चिट्ठियां इस प्रकार गडमड हो गई हैं कि प्रेमचंद के सामान्य पाठक के लिए यह निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है कि कौन सी चिट्ठी इम्तियाज़ अली ताज को और मख्ज़न के संपादक को और कौन सी दया नरायन निगम को लिखी गई हैं. कुछ चिट्ठियां केवल अंग्रेज़ी भाषा में हैं कुछ अंग्रेज़ी हिन्दी दोनों में. कुछ ऐसी हैं जो बिना सिर पैर की हैं. (द्रष्टव्य हैं पृ0 197, 199, 201, 210, 278, 280, 397, 437 की चिट्ठियां), कुछ ऐसी जो दो-दो बार छप गई हैं, कुछ ऐसी चिट्ठियां भी हैं जिन्हें अमृत राय ने कलम का सिपाही में तो उद्धृत किया है, चिट्ठी पत्री में नहीं दिया है.किंतु इनमें भी, किसे और कब लिखी गयीं, नहीं बताया गया है. रोचक बात यह है कि चिट्ठी-पत्री के नाम पर इस खंड में राम आनंद ने जगदीश प्रसाद चीफ सेक्रेटरी संयुक्त प्रान्त सरकार द्वारा जारी किया गया दिनांक 24 जुलाई 1930 का, प्रेस आर्डिनेंस का नोटिस, रामचंद्र टंडन द्वारा लिखित स्वर्गीय प्रेमचंद जी की एक योजना शीर्षक टिपण्णी और अनुवादक मंडल की योजना आदि को भी शामिल कर लिया है जिसका कोई औचित्य नहीं है.
प्रेमचंद शताब्दी वर्ष पर और उसके बाद भी प्रो. शैलेश जैदी ने प्रेमचंद की अनेक अप्राप्य चिट्ठियाँ हिन्दी पत्रिकाओं में संपादित रूप में प्रकाशित की थीं. सज्जाद ज़हीर को लिखे गए पत्र इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेख्य हैं जो आवश्यक पाद-टिप्पणियों एवं भूमिका के साथ दस्तावेज़ के प्रेमचंद-विशेषांक में छपे थे. राम आनंद ने इनका कोई लाभ नहीं उठाया. आश्चर्य होता है कि राम आनंद का पी-एच.डी. का विषय प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य है, डॉ. कमल किशोर गोयनका की भी इसी विषय पर पुस्तक है, जिस से राम आनंद का प्रेरणा-स्रोत कुछ-कुछ समझ में आता है. अब इस विषय में क्या कहा जा सकता है. शायद कबीर ने ठीक कहा था – ‘अँधा अंधे ठेलिया दोऊ कूअ परंध.’
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3 comments:

aniruddha said...
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aniruddha said...

प्रेमचंद ग्रंथावली पर परिश्रमपूर्वक लिखी गई इस शोधपरक आलोचना को पढ़कर मजा आ गया। डॉ. फातिमा निस्संदेह बधाइ की हकदार हैं। बस एक जिज्ञासा शेष है। जिस पुस्तक को आधार बनाकर यह आलोचना लिखी गई है उसका प्रकाशन कहाँ से हुआ है? कृप्या "प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा : नव मूल्यांकन शीर्षक पुस्तक (प्रकाशन काल 1978) को प्रकाशित करने वाले संस्थान का भी उल्लेख कर दें। ताकि उक्त पुस्तक हासिल कर पढ़ी जा सके।

Jageer Nagar said...

बहुत ही सार्थक और शोधपरक धन्यवाद