Tuesday, May 13, 2008

अक्षयवट : मूल्यांकन की एक और दिशा / डॉ. इफफ़त असग़र

नासिरा शर्मा कहानीकार भी हैं, उपन्यासकार भी और पत्रकारिता में भी पर्याप्त दक्ष हैं. किंतु यही उनकी सीमा नहीं है. वस्तुतः रचनात्मकता उनके जीवन और व्यक्तित्व में इस प्रकार रच-बस गई है कि उनके साक्षात्कार, अनुवाद, राजनीतिक-विश्लेषण और सामजिक तथा साहित्यिक आलेख, सभी में इसकी ध्वनि सुनी जा सकती है. उन्होंने केवल भारतीय ही नहीं, ईरानी, अफगानिस्तानी और मध्य एशियाई देशों की सामजिक ज़िंदगी को उसके भीतर घुस कर देखने-परखने का प्रयास किया है. इलाहाबाद के संभ्रांत मुस्लिम परिवार में जन्मी हैं इसलिए उनमें सांस्कृतिक नोक-पलक के साथ रची हुई एक मधुर कोमल-भाषी सुगंध भी है. स्वभाव की गंभीरता के बावजूद व्यवहार की नरमी और उनकी हंसती मुस्कुराती बात-चीत उनके व्यक्तित्व को और भी आकर्षक बना देती है.
नासिरा शर्मा का इलाहाबाद से वही रिश्ता है जो राही मासूम रज़ा का गाजीपूर के एक छोटे से गाँव 'गंगोली' से है. कदाचित इसीलिए राही के यहाँ जिस प्रकार अंचल विशेष की खट्टी-मीठी और कड़वी तस्वीरें हैं, नासिरा के यहाँ इलाहबाद के महानगरीय विस्तार में व्याप्त गंगा-जमुनी तहजीब की करवटें और सिलवटें हैं जो स्मृति पटल पर कोई 'स्टिल फोटोग्रैफ़' नहीं उभारतीं, बल्कि एक गतिशील 'विडियो क्लिप' में भरपूर गुनगुनाहट भरकर खामोश साज़ छेड़ती दिखाई देती हैं. उनकी अधिकतर कहानियों में इलाहाबाद की सड़कें, गलियां, मोहल्ले किसी-न-किसी रूप में इधर-उधर से झांकते ज़रूर हैं और अवसर पाकर बीचोबीच खड़े भी हो जाते हैं. बिल्कुल अपने स्वाभाविक और सहज रूप में. इलाहबाद से नासिरा शर्मा के इस लगाव को उनके महत्वपूर्ण उपन्यास अक्षयवट में बिना किसी प्रयास के देखा जा सकता है.
अक्षयवट का प्रमुख पात्र ज़हीर, जिसके भीतर "परतदार चट्टानों का सिलसिला दूर तक फैला हुआ है", इलाहाबाद के इतिहास का समूचा धरोहर उसके वक्ष में टीस बनकर चुभता रहता है. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और गिरिजादत्त शुक्ल की कविताओं से उसके शरीर की नसें तक भीगी हुई हैं. वह जानता है कि इलाहाबाद का महत्त्व 'परीक्षा पास करने' या 'इतिहास रटने' में नहीं है - "इलाहाबाद में राजकुमार नूरुद्दीन जहांगीर ने अपने पिता मुग़ल सम्राट अकबर के खिलाफ पहली बार विद्रोह किया था और अबुल फज़ल जो कि अकबर का संदेश लेकर जा रहे थे उन्हें रास्ते में रोक कर क़त्ल कर दिया था. खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी को उसके भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने बड़ी बेरहमी से गर्दन काट के अपने आप को सुलतान घोषित किया था. नॉन काप्रेशन एंड खिलाफत मूवमेंट महात्मा गांधी द्वारा 1920 में इलाहाबाद से शुरू हुआ. ...इलाहबाद में ही पहली बार 1931 में मुस्लिम लीग अधिवेशन में अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान का तज़किरा किया था. चन्द्रशेखर आजाद को कम्पनी बाग़ में 1931 में गोली मारी गई थी ...अमृत मंथन, जो कि केवल चार स्थानों पर हुआ था, उनमें से एक इलाहबाद है. बाक़ी उज्जैन, नासिक एवं हरिद्वार हैं. और इसी कारण से यहाँ हर बारह वर्षों बाद महाकुम्भ मेला आयोजित किया जाता है." (पृष्ठ-18). ज़हीर की निगाह में इलाहबाद केवल इसी इतिहास का नाम नहीं है.
ज़हीर की सूक्ष्म दृष्टि उन सभी मोहल्लों में प्रवेश करती है जो बहुत पुराने भी हैं और बहुत घने भी. जहाँ हिंदू-मुसलमान, छोटी जात-बड़ी जात, नोकरीपेशा, गुंडे, नोकर, पेशेवर बदमाश सभी हैं. दशहरा देखने के लिए यहाँ लोग दूर-दूर से आते हैं. सिविल लाइन, कटरा, पंजाबा, खुल्दाबाद, घास की सट्टी, और पत्थर-चट्टी के दल एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में जम कर तैय्यारियां करते हैं. अतर्सुइया वाली रामलीला का अपना ढंग है. संगम तक श्रद्धालुओं से भरा रहता है. ब्राहमणों को श्राद्ध में भोजन कराना, पंक्तिबद्ध नाइयों से बाल उतरवाना और अंत में अक्षयवट और बड़े हनुमान जी के दर्शन करना इन श्रद्धालुओं की आस्था का अभिन्न अंग है. और फिर इसी इलाहाबाद में बलुआ घाट के चौराहे पर स्थित शाह बाबा के मज़ार का उर्स, नात शरीफ के पूरी आवाज़ में बजते कैसेट, रमजान के चाँद का एलान, बताश्फेनी और खजूर से भरे बाज़ार, मह्मूदन रंडी के घर से भेजी जाने वाली शानदार इफ्तारी, टूटी मस्जिद के पास वाले अंधे मोलवी साहब की तावीज़ में मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दुओं की गहरी आस्था, नौचंदी जुमेरात पर निकलने वाला अलम, हजरत अब्बास की दरगाह पर अकीदत्मंदों की भीड़, कभी-कभार शहर की शांति भंग करने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों में पुलिस की भूमिका, कानून के नाम पर गैर-कानूनी हरकतें, क्या कुछ नहीं है इस इलाहाबाद में ?
नासिरा शर्मा की यह सांस्कृतिक परख सप्रयास नहीं है. उसमें एक सहजता है. एक ऐसी सहजता जहाँ 'आक्सफोर्ड आफ द ईस्ट' का अतीत कहीं पीछे छूट गया है. जहाँ अक्षयवट ऊंची दीवारों के बीच घिरा हुआ है और उसकी फुनगियाँ गर्दन उठाकर बाहर झाँकने का प्रयास कर रही हैं –
"इलाहाबाद के लिए दशहरा केवल धार्मिक पर्व भर नहीं है, यह स्थानीय परिवेश से निकली एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो अपनी ही बोली-बानी में इंसानी दुःख का बयान करती है. आम इंसान की ज़िंदगी से इतनी मिलती-जुलती उसकी व्यथा है कि हर कोई उसमें अपने को शामिल पाता है. उसमें मानवीय सरोकार, सामजिक चिंता एवं ज़मीनी रंग बड़े चटक हैं जो बरबस ही अपनी तरफ़ खींच लेते हैं. जिसमें भाव और विचार की समानता होती है. नैतिक और अनैतिक का भेद तर्क के साथ सामने आता है. जिसमें दुःख-सुख इतने सहज लगते हैं कि हर वर्ग का इंसान जीवन के किसी-न-किसी स्तर पर उससे गुजरा ज़रूर होता है." (पृष्ठ 23)
अक्षयवट का इलाहबाद एक स्वप्न नहीं है, जीता जागता यथार्थ है. जहाँ ज़हीर और उसके मित्र शहर के इतिहास को दागदार नहीं देखना चाहते. इन्सपेक्टर श्यामलाल और उसके गुर्गे अपनी समूची नकारात्मक भूमिका के साथ इस इलाहाबाद के चेहरे पर खरोंच के निशान छोड़ देने के लिए तत्पर हैं. उन्हें कामयाबी भी मिलती है, किन्तु क़दम-क़दम पर चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है. नासिरा शर्मा ने अन्य उपन्यासकारों की भांति अराजक तत्वों के विरुद्ध कोई संगठित आन्दोलन छेड़ने का प्रयास नहीं किया है. कारण यह है कि यहाँ समूची पुलिस-व्यवस्था ही भीतर से चरमराई हुई है. त्रिपाठी बेलगाम है और जो कुछ करता है सबकी आंखों के सामने करता है. यहाँ ज़िंदगी की कचोट से घायल और आहत नवयुवक एक दूसरे से बिना किसी पूर्व योजना के जुड़ते चले जाते हैं और सहज ही एक छोटा सा बेनाम संगठन बन जाता है. यह नवयुवक संख्या में कितने ही कम क्यों न हों और इनकी पीठ थपथपाने के लिए भले ही कोई राजनीतिक संगठन न हो, इनकी चारित्रिक उठान और निर्लिप्त भाव से की जाने वाली कोशिशें इन्हें इलाहाबाद के उन सभी बाशिंदों से जोड़ देती है जिनकी चेतना अभी मरी नहीं है. यह और बात है कि यह डरे सहमे स्वकल्पित इज्ज़त्दार लोग अपनी वाणी की प्रखरता और संघर्ष का उत्साह खो चुके हैं.
ज़हीर की माँ सिपतुन का सरल व्यक्तित्व और ज़हीर की दादी के सीने में दबा इलाहाबाद का विराट वैभव , ज़हीर के माध्यम से पूरी युवा टोली में एक ऐसी ऊर्जा भर देता है जो उन्हें फिर पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं देती. अपने जीवन का लक्ष्य वे स्वयं निर्धारित नहीं करते, परिस्थितियां निर्धारित करती हैं. यह परिस्थितियां उनके गुट को एक-एक कर के तोड़ने के कितने ही प्रयास करती हैं किन्तु अंत में पराजित दिखायी देती हैं. विजय अक्षयवट की होती है. उस अक्षयवट की जिसकी हर शाखा धरती का स्पर्श पाकर स्वयं तना बन जाती है. यह अक्षयवट खुसरो बाग़ में क़ैद नहीं है. यह पूरे इलाहाबाद में फैला हुआ है.
वस्तुतः नासिरा शर्मा के इस उपन्यास को 'काला जल' या 'आधा गाँव' के साथ रख कर नहीं देखा जा सकता.यह तुलना किसी दृष्टि से उपयुक्त नहीं है. आधा गाँव के पात्र और उनकी परिस्थितियां अंचल विशेष तक ही सीमित रह जाती हैं. देश विभाजन के मुद्दे का विराट फलक उन्हें आकृष्ट अवश्य करता है. किंतु उनकी सोंच भारत के तमाम मुसलमानों की सोंच का प्रतिनिधित्व नहीं करती. अक्षयवट का इलाहाबाद किसी वर्ग विशेष या धर्म अथवा सम्प्रदाय विशेष की सोंच का नतीजा नहीं है. उसके फैलाव में समूचे देश की सोंच, और बदलती परिस्थितियों के साथ टकराने का जुझारूपन है जो पाठक को आत्मीय स्तर पर जोड़ता है. नासिरा ने ज़बान के चटखारे लेने के लिए उपन्यास में ऐसे शब्द चित्र नहीं टांके हैं जो सस्ती लोकप्रियता तो दे सकते हैं, स्थायी प्रेरणा का स्रोत नहीं बन सकते. कदाचित इसी लिए उनके इस उपन्यास में गुंजाइश होने के बावजूद यौन-संबंधों का वह लिज्लिजापन नहीं है और भाषा की बोल्डनेस के नाम पर इस्तेमाल की जाने वाली वह छिछली अभिव्यक्ति नदारद है जिसे बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से हिन्दी समीक्षकों का एक वर्ग सिहर उठने के लिए आवश्यक समझता रहा है. रुखसाना की घटना हो या कुकी और ज़हीर के प्रेम संबंधों की झलक, मह्मूदन रंडी का व्यक्तित्व हो या हंगामा बेगम का तीन-तीन खिले गुलाबों वाला घर, नासिरा की लेखनी कहीं लडखडाती नहीं. श्याम लाल त्रिपाठी यह कहावत ज़रूर दुहराता है कि 'शेर के साथ बदकारी करो, जंगल ख़ुद-बखुद कब्जे में आ जायेगा'. किंतु उसका यह वक्तव्य भी उसके सीमित नंगेपन की परिधियों से आगे नहीं बढ़ता.
श्यामलाल त्रिपाठी एक विचित्र पात्र है. विचित्र इस दृष्टि से कि मल्लाह होते हुए भी नाम से ब्राह्मण लगता है, व्यवहार से पक्का तिकड़मबाज़ और चरित्र से दिल-फ़ेंक बाजारू आशिक की सभी सीमाएं लांघता हुआ. छिछली और सस्ती औरतों से भी सम्बन्ध जोड़ने में उसे कोई गुरेज़ नहीं है. उपन्यासकार की विशेषता यह है कि उसने उपन्यास के अंत तक आते-आते श्यामलाल के असहज, असामान्य, गिरे हुए क्रूर व्यवहार और उसकी उन हीन ग्रंथियों का अनावरण कर दिया है जो किशोरावस्था से युवा होने तक उसके भीतर निरंतर विकसित होती रही हैं - "मल्लाह बस्ती की कीचड भरी गलियां और झोंपडों में बासी भात की देग्चियाँ...स्वार्थ के लिए डरा-धमका कर जवान तगडे मल्लाहों से अवैध धंधा और अनैतिक कार्य कराने वाले पुलिस दारोगा.....ठेकेदारों की शिकायत पर हवालात की सैर और औरतों की बेहुर्मती . (पृ0439).
नंदलाल केवट का लड़का श्यामलाल विद्रोह की आग में पलकर बड़ा हुआ, इस लिए उसने झुकना नहीं सीखा. 'किसी ने चवन्नी की कमाई करनी चाही, उसको रूपया कमवाया. सड़क के किनारे पड़े लोगों को पचास गज़ की कोठरी का मालिक बना दिया. श्याम लाल त्रिपाठी का यह आतंरिक उद्घोष - 'अपने भाग्य को मैं ने स्वयं लिखा है, किसी मालिक, दानी, परोपकारी या अनाथालय के मैनेजर ने नहीं. इस लिए अपनी तकदीर का अन्तिम अध्याय स्वयं निषाद लिखेगा. श्याम लाल त्रिपाठी कोई अनपढ़ नहीं है' (पृ0440), उसे जमुना की गोद में विश्राम करने के लिए बाध्य कर देता है. यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उपन्यास का पाठक श्याम लाल की मौत पर आंसू नहीं बहाता, बस उसकी आँखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं. शायद सुधीर टारज़न ने उसके सम्बन्ध में ठीक ही सोंचा था - "त्रिपाठी एक तनावर दरख्त था. उसके गिरने से इतनी बड़ी क्षति अपराध की दुनिया को नहीं पहुँची जितनी पेड़ के गिरने के बाद उसकी गहरी जड़ों ने आस-पास की ज़मीन पर उखाड़-पछाड़ मचा दी है और मीलों तक मिटटी उखाड़ फेंकी है."(पृ0442)
अक्षयवट का सम्यक विवेचन करते हुए यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि विगत दस वर्षों में हिन्दी में जितने भी उपन्यास लिखे गए, उनमें इस उपन्यास की पहचान निश्चय ही सबसे अलग है. मेरी समझ से हिन्दी में इस कोटि का उपन्यास लिखा ही नहीं जा रहा है. इस उपन्यास की सब से बड़ी विशेषता यह है कि नैराश्य के बीच साँस लेती जिंदगियाँ भी टूटना नहीं जानतीं. नकारात्मक जीवन मूल्यों की सेंध और नैतिकता की भसभसाती दीवारें उन्हें तोड़ने के कितने ही प्रयास करें, ज़मीन में गहराई तक धंसी अक्षयवट की जड़ें, हिलने का भी नाम नहीं लेतीं.
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रीडर, हिन्दी-विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय

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